जब हम उत्तर आधुनिकता की चर्चा करते हैं तो हमारे समक्ष प्रश्न उठता हैं कि उत्तर आधुनिकता क्या है? उसे कैसे समझा जा सकता है? क्या वह एक सामाजिक स्थिति है या फिर एक विचारधारा? वर्ष1950 से लेकर अब तक दर्शन, राजनीती, भूगोल, प्रबंधन, विधि-अध्यापन आदि में उत्तर आधुनिक व्यवहार की चर्चाएं होती रही। उत्तर आधुनिकता का आरंभ पश्चिम में वास्तुकला के क्षेत्र में हुआ और धीरे-धीरे पूरे विश्व, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसका विस्तार हुआ। उत्तर आधुनिकता बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में जन्मी एक ऐसी व्यापक अवधारणा है जिसकीकोई निश्चित परिभाषा संभव नहींविभिन्न लक्षणों के आधार पर ही इसे समझा जा सकता है- आधुनिकता का विस्तार उत्तर आधुनिकता एक भूमंडलीय ज्ञानावस्था व हमारी संस्कृति के बदल जाने का नाम है तथा उपयोग की संस्कृति को विकसित कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के तैयार माल को बेचना इसका प्रमुख सिद्धान्त है। उत्तर आधुनिकता विभिन्न अर्थ संदर्भो में प्रयुक्त होने वाला शब्द है जिसमें वर्तमान का परिदृश्य व मनोदशा शामिल है। पश्चिमी औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के पश्चात् जन्मी उत्तर आधुनिकता एक ऐसी विश्वव्यापी प्रक्रिया है जिसने सभी चिन्तन परंपराओं, प्रतिमानों, अवधारणाओं, मूल्यों प्रविधियोंपर प्रश्नचिन्ह लगा उन पर नए सिरे से विचार करना प्रारंभ किया।उत्तर आधुनिकता की प्रवृति सरल नही उसे समीकरण या सूत्र के रूप में बांधना बहुत कठिन है क्योंकि इसके अपने पक्ष-विपक्ष, नियम, कानून है। जहाँ एक ओर इसने धुव्रीय दुनिया में शक्ति के रूप में विस्तार पाया वहीं दूसरी ओर वंचितो की लोकतान्त्रिक उपलब्धि तथा सत्ता संघर्ष के रूप में भी दिखाई दी। इसका वैध-अवैध, नैतिकता से कोई संबंध नही, न इसकी कोई सीमा। यह अपने साथ कई अंतर्विरोधों, परिस्थितियों, असंतुलन, संकटों को साथ लेकर चला तथा इसने शोषण और केंद्रीयता आधारित व्यवस्था का विरोध किया। उत्तर आधुनिकता ने महाख्यानों को त्याग कर अनेकरूपता को प्रमुखता दीजिस प्रकार उत्तर संरचनावाद, उत्तर फ्रायडवाद और उत्तर माक्र्सवाद का विकास और विस्तार हुआ उसी प्रकार उत्तर आधुनिकता भी विकसित हुई। उत्तर आधुनिकता बहुलतावाद, बहुसंस्कृति, विकेंद्रीयता, युगल विपरीतता, स्थानियता को स्वीकारती तथा पूर्णता, नैतिकता, सम्रगता, पवित्रता, शुद्धता को नकारती एक अस्थिर विंखण्डनशील अवधारणा है।उत्तर आधुनिकता ने अर्द्धवृतांतों, मूल्यमीमांसा, केंद्रीकरण तथा सम्पूर्णता को खारिज कर विशेषणहीन वृतान्त का पक्ष लिया और सभी को समान माना।लोकप्रिय संस्कृति की ओर उन्मुखता, कंप्यूटर युग का स्वागत, उपभोक्तावाद, अर्थ की अनेकता, अनिश्चितता, विकेंद्रीयता, स्थानियता- क्षेत्रियता पर बल, दलित-दमित वर्गो का अध्ययन, तकनीकी क्रान्ति, बुद्धिवाद, पराभौतिकतावाद,सांस्कृतिक अस्मिता की तलाश, सजृनात्मक स्वतन्त्रता का आग्रह, यौन क्रान्ति तथा स्त्री मुक्तिआदि इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं। यह केंद्रीयता को खण्डित कर बहुकेन्द्रिता की उठान भरी अवस्था है जो सांस्कृतिक बहुलता, बहुवचनवाद तथा सभी प्रकार के वैविध्य का समर्थन करती है। सभी क्षेत्रों में पुरातन विचारधाराओं को समाप्त कर यह पीड़ित ;दलित, स्त्री, आदिवासीद्ध आदि वर्गो पर नए सिरे से विचार करता है। नव तकनीकी क्रान्तिसे निर्मित नव संसार ने शक्ति के पुराने केन्द्र को ध्वस्त किया। प्रत्येक अवधारणा अनिश्चित हो गई। सभी क्षेत्रों-राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, कला, साहित्य, समाज, संस्कृति, धर्म, दर्शन, मीडिया, फैशन, विज्ञान,वैयक्तिक जीवन आदि उत्तर आधुनिकता के क्षेत्र बन गए।भूमंडलीकरण से जुड़े मुक्ति आंदालनों, सूचना-संचार क्रान्ति, तकनीक, मास-मीडिया, कंप्यूटर, विखंडनवाद ने जो नया वातावरण निर्मित हुआ उसे उत्तर आधुनिकतावाद कहा गया। यह स्थानियता पर बल दें, केंद्र से परिधि की ओर चला।यह विभिन्न सिद्धान्तों, प्रवृत्तियों, बौद्धिक अभिवृतियों, विचारधाराओं का समुच्चय है। बहुराष्ट्र्ीय पूजींवादीतथा सूचना-संचार के वर्तमान युग का नाम उत्तर आधुनिकतावाद है जिसने लोक संस्कृति और लोक-कलाओं के स्वरूप को बुनियादी तौर पर परिवर्तित कर संस्कृति का औद्योगीकरण किया।आर्थिक समृद्धि, भौतिक विकास, मशीनीकरण ने उत्तर आधुनिकता का मार्ग खोला।उत्तर आधुनिकता के नाम पर वैयक्तिवाद, भूमंडलीकरण, नव साम्राज्यावाद, अकेलापन, अवसाद, नव संस्कृति, अमेरिकावादी का वर्चस्व, स्त्रीवादी सिद्धांत, मुक्त यौनवाद, गे-कल्चर सभी को स्वीकृति मिली। वर्तमान समाज, कला, साहित्य, दर्शन, राजनीति, यौन-चिंतन, फैशन, मूल्य आदि में जो तीव्र परिवर्तन हुए उनके मूल में यहीं उत्तरदायी रहीं। विचारधारा और आंदोलन की सीमाओं से बाहर निकलउत्तर आधुनिकता एक व्यापक प्रवृति के रूप में उभरकर सामने आया। उत्तर आधुनिकतावाद परिवर्तित होते हुए लक्ष्णों को कहा गया है, ‘‘यह एक ऐसा वाद है जो एक स्थिति या दशा की तरह है जो लगातार अस्थिर है, चंचल है, विखंडनशील है।‘‘ ज्ञान, अनुसंधान और विकास आदि सभी इसी के द्वारा परिचालित है। बहुराष्ट्र्ीय निगमों के उत्पाद के लिए उपभोक्ता बनाने में सूचना क्रान्ति का उपयोग हुआ। उत्तर आधुनिकता ने सभी कुछ को बाजार में बदलकर मानव संस्कृति पर कब्जा कर परिवर्तन की क्रान्ति उत्पन्न की जिससेपूजीं बढ़ी, भूमंडलीकरण जागा। मीडिया बाजार का आधार बना, चारों ओर उपभोग के नारे लगने लगें, भिन्न प्रकार की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों का जन्म हुआ, सांप्रदायिक-धार्मिक ध्वनि रूपायित हुई, स्त्रीवाद की वकालत पर यौन-संबंधों के अस्वाभाविक रूप प्रकट हुए।
वास्तव में उत्तर आधुनिकता एक भूमंडलीय प्रक्रिया है जिसमें हम सभी शामिल है। उत्तर आधुनिकता में बाजार आया, युवाओं में इच्छाओं-कामनाओं का साम्राज्य खुला, सुख संचय का भाव आया, पूजीं बढ़ी, स्थानियता और भूमंडलीकरण का भाव एक साथ जागा जिसने इतिहास और विचारधारा का अंत घोषित कर उपभोक्तावाद, बौद्धिकतावाद, अमेरिकावाद, यौनवाद-देहवाद को युवाओं के समक्ष परोसा। पूरे विश्व को वैश्विक गांव में बदल, परंपरा, संस्था, विवाह, परिवार शिक्षा आदि का अतिक्रमण, परंपराओं को क्षत-विक्षत कर सभी प्रकार की सीमाओं को तोड़ा।उत्तर आधनिकता समय कीविश्व दृष्टि, चुनौतियां- प्रश्नाकुलताओं ने युवा चेतना को व्याकुल किया।युवा चेतना भूमंडलीय, बाजारवाद, पूजींवाद, उपभोक्तावाद, नव आर्थिक साम्राज्यवाद से घिरी दिखाई दी। धन और बुद्धि ने मिलकर युवाओं को विराट परिवर्तन चक्र के समुख खड़ा कर दिया। युवाओं ने पुरातन अवधारणाओं, विचारधाराओं, संस्थानों पर प्रश्नचिंह लगा उन्हें अप्रसांगिक करार दिया। व्यवस्था को बदलने के लिए पुरानी परिपाटियों को उखाड़ फेंका।युवा चेतना ने साहित्य, कला, संस्कृति, विज्ञान, मीडिया, विज्ञापन, दर्शन, सौन्दर्यशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि जीवन के विभिन्न अंगों पर फिर से विचार करना प्रारंभ किया।उत्तर आधुनिकता द्वारा समाज में उपभोक्तावादी जीवन शैली ने युवाओं पर अपना प्रभुत्व बनाया औरविज्ञापन प्रक्रिया ने इसे प्रश्रय प्रदान किया। युवाओं के व्यवहार के साथ मानसिकता भी परिवर्तित हुई। यौनवाद-पैसावाद-भोगवाद युवाओं के कल्चर बन गए। मानव संबंध टूटने लगे। जरूरतें, अपेक्षाएं, नए बाजार की खोज और उपभोग केंद्रीय तत्व बन गए। उपभोगतावादी जीवनशैली को समर्थित करने के लिए जिस अर्थ कोष की आवश्यकता होती है युवा उसके लिए प्रयत्नशील हुए। तकनीकी विकास, बाजारू प्रभुत्व और पूजीं की वैश्विक अभिवृद्धि आदि आज की व्यवस्था के ऐसे पहलू है जिसमें युवा सब कुछ पा लेना चाहते हैं, केवल मुनाफा चाहते हैं, कुछ भी खोना नहीं चाहते। उत्तर आधुनिकता ने युवाओं में कृत्रिम मांग को जन्म दिया। लोभ और अंधा उपभोग युवाओं में पनपने लगा। प्रत्येक युवा असन्तुष्ट उपभोक्ता बनकर नई वस्तुओं को खोजने लगा। सेवा क्षेत्र के स्थान पर ‘मुक्त उपभोग’ और वस्तु उत्पादन का महत्व बढ़ा। उत्तर आधुनिकता ने युवाओं की इच्छाओं और विलासिताओं को आवश्यकता में बदला। युवा अंतर्राष्ट्र्ीयता और विश्वनागरिकता की बात करने लगें।युवाओं में विभिन्नताएं और विश्वस्तरीय स्थानियता एक साथ उभरकर सामने आई जिसमें व्यापक एकता है। युवाओं का संसार लगातार फैला और वह एक स्वतन्त्र इकाई बन गया।बौद्धिक परिवेश उभरा जिससे भौतिक द्वंद्व के साथ मानस द्वंद्व भी उठ खडा हुआ और मोहभंग के लिए कोई स्थान नहीं रह गया। युवाओं की वैचारिक स्वतन्त्रता ने उनके लिए विकास-द्वार को खोला। उत्तर आधुनिकता युग में विचारधारा की समाप्ति के पश्चात् अमेरीकी संस्कृति पूरे ग्लोब के युवाओं पर छा गई। दूरसंचार की सहायता से बड़ी तेजी से प्रत्येक स्थान पर पंहुची। मैक्वल्र्ड संस्कृति सभी स्थानों पर जस की तस अपनायी गई। कंप्यूटर ही युवाओं के लिए रेडियों, लाइब्रेरी, फैक्स, फोन और टी.वी. बन गया।उत्तर आधुनिकता युवाओं के लिए एक प्रकार की मानसिक उत्तेजना तथा वैचारिक स्वतन्त्रता बना।युवाओं ने अत्यधिक उर्जा में विश्वास रखते हुए यौन स्वच्छन्दता को स्वीकार किया और इस स्वतन्त्रता ने ग्लोबल रूप धारण किया।उत्तर आधुनिकता को प्रौद्योगिक विकास, विज्ञान, सूचना-संचार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की उपलब्धियों में देखा जा सकता है जिसने युवाओं के जीवन और दिनचर्या को पूरी तरह प्रभावित किया।अर्थ के विलय-विस्तार से युवाओं में धनाढ़य बनने की अभिलाषा जगी।युवाओं का जीवन, चिंतन अंतर्विषयीय हो गया। युवाओं का एक अन्य लक्ष्ण था-संस्कृति से पलायन। ज्ञान-विज्ञान, कला-साहित्य की सीमाएं मिट गई। जीवन का हर क्षेत्र फैशन, विज्ञापन, सूचना, कथा-साहित्य, इलेक्टानिक कम्यूनिकेशन, समाज की हर वस्तु तथा विचार की गति एक-दूसरे से घुल-मिल गए।आज कोई विचार, कोई दर्शन, कोई इच्छा उनके लिए शाश्वत, पूर्णत और अंतिम नहीं। सभी कुछ अस्थिर और अस्थाई हो गया।
उत्तर आधुनिकता ने साहित्य पर गहरा प्रभाव डाला। सौन्दर्यशास्त्र, फ्रायडवाद, नई समीक्षा, संरचनावाद, प्रतीकवाद, माक्र्सवाद व्यक्तिवाद और अस्तित्ववादी आदि विचारधाराओं को नकार दिया।उत्तर आधुनिकता ने साहित्य के संदर्भ में इन सभी अनुपस्थितियों की पुनःव्याख्या के साथ इनकी अभिव्यक्ति को लोकतान्त्रिक शिष्टता के साथ स्वीकार किया। भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण की आंधी के साथ ही युवा नव उनिवेशवाद, संचार क्रान्ति और कंप्यूटरीकरण की गिरत में आ गया।उपन्यास के माध्यम से युवा चेतना ने उत्तर आधुनिकता से उपजी समस्याओं मूल्यहीनता, अकेलेपन, विश्व में बढती हिंसा को विश्लेषित किया।संजीव का जैविकी आधारित‘रह गई दिशाए इसी पार‘ उपन्यास उत्तर आधुनिकता की विभिन्न प्रवृत्तियों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। यह उपन्यास प्राणी-शरीर की वैज्ञानिकता, जैविकी के लोमहर्षक, सृष्टि और जीवन की बाबत स्फुट विचारों, अछोर प्रकृति और विज्ञान के उन्मुक्त ब्योरों की कहानी है जो सृष्टि और संहार, जीवन और मृत्यु के बफर-जोन पर खड़े व्यक्ति की स्थिति से साक्षात्कार कराता है। परंपरागत  ढांचे में गैर परंपरागत हस्तक्षेप और तज्जनित रचाव और रसाव इसकी पहचान है। जीवन-मृत्यु के आर-पार झांकता यह उपन्यास मिथ, इतिहास, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, नए-नए विषय और चिंतन की प्रयोग भूमि है। जहां अनंत काल में दिशाएं भी छोटी पड़ जाती है। संजीव जीव वैज्ञानिकों द्वारा क्लोनिंग और जेनेटिक्स के क्षेत्र की अभूतपूर्व उपलब्धियों तथा इससे मानवीय संबंधों में उठने वाली जटिलताओं को उजागर करते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा जीवन-मृत्यु, काम-प्रजनन और पदार्थ-अध्यात्म के पीछें की वास्तविकताओं को दृशाते हैं। सरोगेट मातृत्व से लेकर जींस और हारमोंस के जरिए व्यक्तित्व परिवर्तन, टैलीपैथी से लेकर लिंग परिवर्तन का कोई मुद्या इसमें छूट नही पाता है।‘‘अब इस इन्सानी खोल से किस महामानवी खोल में, किस महाकाश में छलांॅग लगाने और किस चांॅद-सितारे को छू लेने का इरादा है मेरे दोस्त‘‘ संजीव जिस युवा पात्र जिम को अपना प्रवक्ता बनाते हैं वह कोई सामान्य व्यक्ति नही बल्कि एक टेस्ट ट्यिूब बेबी है जो उन्मादपूर्ण एकाग्रता के साथ वैज्ञानिक प्रयोगों में लगा रहता है और कृत्रिम गर्भाधारण से जुड़ी तमाम खोजों का सम्पन्न कर प्रकृति से भिन्न वैज्ञानिक प्रयोशाला में प्रजनन पर निरकुंश सत्ता स्थापित कर लेना चाहता है।उसमें प्रकृति से प्रतिरोध तथा सत्य को अनावृत करने की लालसा है। उसकी प्रयोगशाला और तमाम वैज्ञानिक खोजें जीवन, प्रकृति और विज्ञान के अंतःसंबंधों को जानने की कोशिशें बन जाती है। कभी-कभी जिम अपनी धुरीविहिन, जड़विहिन होने पर थराता है। वह विज्ञान की उपज है प्रकृति की नहीं और वह जानना चाहता है कि विज्ञान ‘सिंथेटिक इन्सान‘ की इस नस्ल के पोषण में कहा तक सहायक होगा। विचित्रता उसका परिचय तथा अनास्था, निस्संग, अजनबीपन जिम की परिचालक शक्तियां है। वह मानवीय गुणों का जानते हुए भी उनसे परे है। उसका लक्ष्य एक समानांतर प्रतिसंसार की रचना करना है। संजीव चाहते है कि युवाओं की क्रान्तिकारिता स्वेच्छाचारिता लेकर उभरे। वह रिश्तें-संवेदनाओं को परंपरागत ढ़ाचे से बाहर निकाल उन्हें सहानुभूति से देखने तथा मनःस्थिति अनुकूल करने पर बल देते हैं, ‘‘ये ब्रह्मा-सरस्वती, यम-यमी, ईडीपस-उसकी मदर-एक तरह से देखिए तो एन्क्रोचमेंट्स हैं, दूसरी तरह से देखिए तो साधारण मामला। बस, ऊपरी अर्थ-क्रस्ट की तरह थोड़ी सी संवेदनाओं की परत बिछा दी गई हैं, भावनाएं हैं, बाकी नीचे तो वही आदमी अनुर्वर पत्थर है और उसके नीचे पिघला हुआ लोहा।‘‘ पीटर एक सिंथेटिक मून है। एक ऐसा युवा जो अपनी माॅ की मृत्यु के पश्चात् संबंधों को ही नहीं खोता बल्कि जीवन के प्रति आस्था और अनुराग को भी खों देता हैं। निरंतर भटकते हुए उसका अंतर्मन उसे कचोटता है कि, ‘‘उसने मुझे क्यों जन्म दिया।’’ पीटर के माध्यम से संजीव प्रश्न उठाते हैं कि क्या प्रजनन मात्र एक बायॅलाजिकल घटना है? या फिर वह एक सांस्कृतिक मूल्य, सामाजिक दायित्व और मानवीय संबंधों का स्त्रोत नहीं।? जिम द्वारा लारा के पिता का क्लोन बनाने के लिए लारा के गर्भ का प्रयोग और शहनाज का लिंग परिवर्तन युवाओं के उत्तर आधुनिक बनते जाने की पहचान है। युवाओं में नैतिकतावादियों की आर्त-पुकार पर तीखें व्यंग्य दिखाई देते हैं। पिता का क्लोन बनाने के लिए पिता के स्टेम सेल को अपने गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर उत्साह से भरी लारा के पास अपने कृत्य के औचित्य के भावनात्मक तर्क हैं, ‘‘आप दुर्लभ नस्ल की प्रजातियों को बचाने के लिए खासा परेशान रहते हैं। अगर में अपने ईमानदार पिता की नस्ल को बचाना चाहती हूं तो कौन-सा गुनाह कर रही हूँ। मुझे न धर्म की परवाह है, न नैतिकता की।’’ प्रयोगशाला और बूचड़खाने के दुर्दांत दृश्यों के समांतर जुड़ी है मछुआरिन बेला जो अपने जीवन के रोमांस, यथार्थ और संघर्ष के साथ मछली व्यापार में कोल्ड स्टोरेज में काम की अमानवीय स्थितियों और मछुआरों की रोजी छीनते बड़े पूंजी के ट्र्ालरों की वास्तविकता को उजागर करती है।अजय समृद्धि और ग्लैमर की तेज रोशनियों के बीच फल-फूल रहे यौन-उद्योग, धन-कुबेर बनने की चाह में अनेकोनेक प्रजातियों के नष्ट होते जाने और इसके कारण उत्पन्न पारिस्थितिकीय संकट से रुबरु होता है।शहनाज की दुर्गति, लारा की हत्या, पीटर की विक्षिप्तावस्था, डाॅली की अकाल मृत्यु से जिम जान पाता है कि प्रकृति और विज्ञान के संघर्ष में विज्ञान की हार हुई है।उत्तर आधुनिक युग की परिवर्तित परिस्थितियों में संजीव प्रश्न उठाते हैं कि क्या अपनी ही विकृतियों और दुर्बलताओं से निरंतर क्षरित होता मनुष्य क्या नष्ट होने के लिए अभिशप्त है? क्या मृत्यु ही उसकी जीवन यात्रा का अंतिम पड़ाव है? संजीव नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के धन-कुबेरों के बीच क्लोनिंग की प्रासांगिकता का परिक्षण करते हैं जिसे उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभावों और दबावों ने नए मूल्य के रूप में विकसित किया है। द्वंद्व, आत्मसाक्षात्कार और आत्मपरिष्कार में ही युवा उलझतें चले जाते हैं। संजीव यह सिद्ध करते हैं कि विज्ञान और दाशनिकता के संगुफन से ही मुकम्मल मनुष्य गढ़ा जा सकता है। यह उपन्यास औद्योगिक संदर्भ में मनुष्य बनाम यंत्र को सुचिंतित परिणति देता है। मनुष्य को यंत्र बना दिए जाने तथा उपभोक्तावादी मानसिकता से उत्पन्न खतरों को संकेतित करता हैं जो आतंकवाद और सामंतवादी व्यवस्था के दुष्प्रभावों से कहीं ज्यादा भयंकर है। बाजार ने युवाओं की चेतना पर कब्जा कर उसे निजता, अस्मिता और जीवंतता से शून्य बना दिया है। संजीव इस स्थ्तिि को अजय के दुःस्वंप्र मे गूथते हैं, ‘‘पूरा देश बैठा है बेचने। क्या बेच रहे हैं लोग?… लोग हथेलियों पर रख कर अपना माल दिखा रहे हैं- ये देखो, ये डिंब, ये वीर्य, ये कोख, ये….सब बेच रहे हैं खुद को, झेपने की जरूरत नहीं। शील, अश्लील, मूल्य, संस्कार की सारी रेखाएं मिट गई हैं।….यहां न पूरब है, न पश्चिम, न उत्तर, न दक्षिण, न ऊपर न नीचे, न कोई रिश्ता है, न कोई संस्कार… स्वयं में समाहित है यह ब्रांड, मैं भी।… किसी का कोई केंद्र नहीं, मेरा भी नहीं। मैं स्वयं अपने आप का केंद्र हूं।‘‘ विज्ञान की भित्ति पर टिकी मार्केटिंग के जीवन मूल्यो से आगे बढ़ जाने के यहीं परिणाम है। संजीव अब तक हुए विकास को रेखांकित करनई संभावनाओं को गढ़ने के प्रयास करते हुए वर्तमान युवा की नियति पर प्रश्न उठाते हैं। वैज्ञानिक खोज का यह उपन्यास है, उपन्यास लेखन में एक नया मोड़ है।

सन्दर्भ ग्रन्थ –

1. सुधीश पचैरी, उत्तर आधुनिक साहित्य विमर्श, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996 ई., पृ.-96.
2. संजीव, रह गई दिशाएं इसी पार, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृ.-169.
3. वहीं, पृ.-221.
4. वहीं, पृ.-163.
5. वहीं, पृ.-138.
6. वहीं, पृ.-303.

 

सविता रानी
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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