समकालीन समाज में विज्ञापन की दुनिया ने स्त्री की एक नयी तस्वीर बनाई है, जिसमें नारी को एक ओर सशक्तीकरण की ताकत भी मिली है तो साथ ही उसे उपकरण की तरह प्रयोग करने का प्रावधान भी निर्मित किया है | इस तथ्य की गहराई में जाकर वह विचार करती है | मीडिया ने और खास तौर से विज्ञापनों ने भारतीय स्त्री की छवि को तोड़ दिया है | जिस कारण भारतीय संस्कृति खतरे में है | दरअसल जो लोग भारतीय संस्कृति वाली स्त्री की बात कर रहे है, वह स्त्री छवि वह है जिस पर आसानी से शासन किया जा सकता है| शर्मा जी साथ ही स्त्री परिधान पर भी विस्तार से प्रकाश डालती है | औरतें नौकरी भी कर ले और छह गज की साड़ी पहनकर घूँघट भी काढ ले- यह संभव नहीं |

इक्कीसवीं सदी की बात की जाए तो, आखिर इक्कीसवीं सदी की स्त्री से हम क्या चाहते हैं? वह जी सीता जैसी हो कि अगर प्रतिरोध न कर सके तो धरती में समां जाए या कि काली जैसी जी सर्वनाश कर दे या कि जरुरत पड़ने पर शत्रु पर टूट पड़े या मीराबाई जो कि प्रेम के लिए अपनी जान न्यौछावर कर दे या कि मदर टेरेसा जी एक बड़े लक्ष्य के लिए अपना घर- बार छोड़ कर निकल पड़े | या कि सिमोन द बुआ जी इतने वर्ष पहले सेकेंड सेक्स लिखने की हिम्मत दिखाए या इंदिरा गाँधी जी अपनी क्षमता से सारे खिलाड़ियों को धूल चटा दे या उन्नीसवीं सदी की पंडिता रमाबाई और सावित्रीबाई फुले | शायद इन सबका थोड़ा- थोड़ा हिस्सा अपने पाँव पर खड़ी स्त्री जी दहेज के लिए न जले, जिसे गर्भ में न मार दिया जाए, जो शिक्षित और मानवीय ही, जी सताए जाने पर सताने वाले का नाम बता सके | यही असली शक्तिशाली स्त्री होगी | बहुत से लोग सामर्थ्यवान स्त्रियों से डरते है |

शक्तिशाली, तेजस्वी, सजग, मानवीय यही तो हमारी काम्य स्त्री हैं, इक्कीसवीं सदी की स्त्री | यह औरत अकेले नहीं बनेगी, पुरुष वर्ग को भी उसके बनने में हाथ बँटाना होगा | घर और बाहर के कामों में नया वितरण होगा, भूमिकाओं में संतुलित परिवर्तन होगा, तब एक दिन वह नारी जरुर नजर आएगी |

यदि इक्कीसवीं सदी को ‘महिलाओं की सदी’ के रूप में मानना है, तो हमें महिला वर्ग को गरीबी, निरक्षरता, बीमारी, यौन- अत्याचार, मानवाधिकार हनन व कन्या शिशु- हत्या जैसी चुनौतियों से मुक्त करना होगा | गरीबी, विशेष रूप से महिलाओं की गरीबी का शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्वतंत्रता आदि के समग्र विकास से नजदीकी रिश्ता है | बदले में, इनका संबंध महिलाओं और बच्चों, खासकर बालिकाओं के अधिकारों के संरक्षण से होता है | आर्थिक नीतियाँ बनाते समय लिंग- परिपेक्ष्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए, ताकि निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की समस्याएं और दृष्टिकोण पृष्ठभूमि पर सिमट कर न रह जाए | हमें खासकर निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी को सुगम बनाना होगा |

‘स्त्री : स्वायत्तता के अर्थ’ राजी सेठ द्वारा रचित लेख है | वह स्त्री के लिए सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता मानती है, खुद को समझना | हमारी संस्कृति का युगों पुराना सार है – ‘अपने को जानो |’ अपनी नियति, स्थिति को जानो | अपने गुण-दोष को जानो और अपने हिस्से का योगदान करो | हर काम को कर्म के भाव से करो, प्रतिक्रिया के भाव से नहीं, तो तोड़-फोड़ का वातावरण खुद थम जाएगा और जीवन में स्थिरता, अनुकूलता पैदा होगी | एक पुरुष के बिगड़ने या सुधरने में केवल एक ही व्यक्ति का सुधार या बिगाड़ होता है, जबकि एक स्त्री के साथ पूरे परिवार का भविष्य जुड़ा होता है | बहुत समय पहले गाँधी जी ने कहा था, ‘जब आप किसी महिला को शिक्षित करते है तो आप एक पूरे परिवार को शिक्षित करते हैं |’ स्त्री-शिक्षा समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण है |

स्त्री जीवन के आवश्यक पहलूओं को उजागर करने के क्रम में इस पुस्तक में एक महत्वपूर्ण लेख चित्रा मुद्गल द्वारा रचित ‘स्त्री दलित है?’ माना जा सकता है | स्त्री को दलित कहा जाए या नहीं, दलितों की श्रेणी में वह आती है या नहीं- एक ऐसा जटिल प्रश्न है, जो यथातथ्य रेखांकित एवं परिभाषित करने के लिए गहरी समाजशास्त्रीय पड़ताल की माँग करता है | शिक्षित और आत्मनिर्भर स्त्री समाज का एक वर्ग स्वयं को दलित मानने से इंकार करता है |

स्थिति में अंतर का भ्रम, केवल पिंजरे का भ्रम है | पिंजरा चाहे लोहे का हो या हीरे-मोती जाड़े सोने का | पिंजरा पिंजरा होता है | उसके भीतर झूलती अलगनी पर पाँव टिकाने भर की जमीन स्त्री की जमीन है और उसकी तीलियों के बाहर का आसमान- उसका आसमान | शूद्र वर्ण को वर्ण व्यवस्था के अनुशासन के चलते, गाँव में रहते हुए भी गाँव के बाहर रहना पड़ता है | स्त्री का समाज को तथाकथित सवर्णता के मुखौटे के भीतर, वैसी ही विसंगतियों, विडम्बनाओं को झेलते-घुटते मान-मर्यादा के भीतर |

सच तो यह है कि जो महिलाएँ समाज में स्त्री को दलित नहीं मानतीं, वे निस्संदेह उसी मानसिक अनुकूलन की परिणति प्रतीत होती हैं, जिसने उन्हें सदियों से इसी रूप में संस्कारित किया है कि वे स्वयं को किस रूप में देखें-पहचानें | जन्म से ही वे सिंचित स्त्रीत्व की परिभाषा को स्वयं के होने का पर्याय माने बैठी हैं |

‘सहस्त्राब्दी और स्त्री’ मृणाल पांडे द्वारा रचित लेख है | इस लेख में पांडे जी पिछले हजार बरसों में स्त्री के इतिहास पर विचार करती है | मार्क्सवादी विचारधारा से लेकर वह १९२०-१९३० में महाराष्ट्र के विद्वान विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े के बारे में बताती है | जिन्होंने महाभारत की तह में जाकर हिंदू विवाह संस्था का इतिहास लिखने की कोशिश की, जिसका परिणाम उनको मारने की धमकी मिलना हुआ | पिछले पचास वर्षों से इतिहास क्रम में स्त्रियों की स्थिति और उनके लोकतांत्रिक तथा मानवीय अधिकारों के बारे में क्रांतिकारी पुनर्विचार- चिंतन हुआ है | हमारे समय में स्त्रियों के लिए अपनी जमात को जाति, धर्म और परिवार के नाम पर बाँटने वाले इस सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ से पूरी तरह से समग्रता से सामना करना न केवल एक कड़वा, बल्कि खतरनाक अनुभव भी हो सकता है |

‘प्रगतिशीलता के नाम पर रिश्तों की तिजारत’ नासिरा शर्मा द्वारा रचित लेख है| इस लेख के माध्यम से नासिरा जी ने आधुनिकता के सवाल में उलझी एक नारी के आवश्यक प्रश्नों पर विचार किया है | साथ ही उन्हें विविध परिस्थितियों में सामने आने वाली कश्मकश से निकलने का उपाय बताने का प्रयत्न किया है | आज की औरत की आवाज़ क्या है ? वह इतनी मुखर कैसे हुई ? वह क्या कहना चाहती है अपने बारे में ? उसका नजरिया समाज, अर्थ, राजनीति, परिवार, धर्म को लेकर क्या है ? साथ ही इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि स्त्री को प्राप्त उपलब्धियों के बीच जो चीज औरत-मर्द के बीच से धीरे-धीरे गायब हो रही है, वह है आपसी संबंधों में कोमलता, आकर्षण और अनुराग |

आज जब हम अपनी पिछली सदियों को निचोड़कर इस सदी के दावेदार बने हैं, तो हमको अपनी अच्छाइयों और बुराइयों का अवलोकन करते हुए खुली आँखों से यह देखना पड़ेगा कि हमने क्या खोया, क्या पाया? आज का हमारा हर कदम कल हम से आगे आनेवाली कई पीढ़ियों की बरबादी और आबादी का खुलासा माँगेगा, इसलिए इस सदी की औरत की आवाज बराबरी की माँग और इंसान की तरह जीने की स्वतंत्रता के लिए जितनी भी मुखर हुई हो, तो भी अंतरध्वनि इस स्वर की बड़ी गहरे रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करती है कि इस विकास की दौड़ में, स्वतंत्रता की इस ललक में नैतिकता का मापदंड क्या होगा और इसको लेकर चलनेवाली महिलाओं को जड़ एवं रुढ़िवादी कहनेवाले छद्म बुद्धिजीवियों एवं नारी समर्थकों को अपने आचरण से बताना पड़ेगा कि वास्तविक प्रगतिशीलता किसको कहते हैं, उसका अर्थ पतन नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों की गरिमा है, जो रिश्तों की तिजारत से अलग एक ठोस जमीन देती है और यही इस शताब्दी की औरत की आवाज़ होनी चाहिए |

भारत में नारियों को प्रेम, बलिदान तथा विनम्रता के प्रतीक के रूप में सराहा गया है | इसके बावजूद यह एक विडंबना है कि महिलाओं को, जिन्होंने उनके परिवार तथा समाज के विकास के लिए वस्तुतः स्वयं को मिटा दिया, वह सर्वाधिक उपेक्षित है, उस अपने वास्तविक स्वरूप में आने और अपनी पूर्ण क्षमता का अवसर नहीं दिया गया है | पुरुष- प्रधान समाज ने, काफी हद तक, अपनी घिसीपिटी मान्यताओं को मजबूत किया है तथा महिलाओं के मानस को नियंत्रित किया है | अंततः यह कहा जा सकता है कि स्त्री समकालीन समाज एवं जीवन दोनों में अपना स्थान बना रही है | उसकी स्थिति का एक उजला पक्ष आज के साहित्य में उसकी सजग उपस्थिति से समझा जा सकता है | आज वह एक समीक्षक के रूप में अपने ही चले आया रहे रूप की जाँच पड़ताल करती दिखती है, वह स्वलोकन कर रही है |

आज उसका संघर्ष केवल समाज से नहीं है उसका संघर्ष विकास की दौड़ में भाग उस स्त्री का भी अवलोकन करता है जो परिवार व रोजगार के दोहरे स्वरूप में संतुलन बनाने का प्रयास कर रही है | स्त्री अंततः स्त्री ही होती है यदि वह अग्निपरीक्षा देने के लिए कष्ट झेलती है तो वह सही समय आने पर स्वयं को धरती में समा लेने का कठोर निर्णय भी लेने में सक्षम है |

आशु मंडोरा
शोधार्थी
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय

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