हिंदी सिनेमा यद्यपि मनोरंजन प्रधान और व्यावसायिक रहा है किन्तु सामाजिक मुद्दों और समसामयिक घटनाओं की अभिव्यक्ति से भी इसका जुड़ाव लगातार रहा हैI समाज के विभिन्न वर्गों-समुदायों को अपनी विषयवस्तु के अंतर्गत समेटते हुए हिंदी सिनेमा ने स्त्री जीवन के विविध पक्षों को भी बखूबी उजागर किया हैI शताब्दी से अधिक के अपने गौरवशाली इतिहास में हिंदी सिनेमा ने अनेक ऐसी फिल्में समाज को दी हैं जिनमें स्त्री जीवन की विभिन्न समस्याओं का चित्रण तो किया ही गया है किन्तु साथ ही स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में किये गए प्रयास की दृष्टि से भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा हैI हिंदी सिनेमा का आरंभिक दौर धार्मिक पृष्ठभूमि पर आधारित रहाI दरअसल, “सन 1913 में भारतीय कथा -चित्र के पितामह दादा साहब फाल्के द्वारा राजा हरिश्चंद्र बनाने के बाद सन 1922 तक धार्मिक पौराणिक फिल्मों का ही साम्राज्य रहाI हालांकि दादा साहब फाल्के स्वयं विविध विषयों पर फिल्में बनाना चाहते थे. किन्तु एक लोक प्रचलित विषय की आरंभिक सफलता ने उन्हें निर्माण-पथ बदलने नहीं दियाI”अतः ‘अहिल्या उद्धार’, ‘सती अनुसूया’ ‘सती अन्नपूर्णा’ जैसी पौराणिक तथा सती विषयक फिल्में ही सिनेमा के शुरूआती दौर में छायीं रहीं किन्तु शीघ्र ही बीसवीं शती के तीसरे दशक तक आते-आते वाडिया मूवी टोन की सुपर वूमन फीयरलेस नाडिया के पदार्पण ने स्त्री को असहाय और निर्भर छवि से बाहर निकालकर ‘हंटरवाली’(1935), मिस फ्रंटियर मेल(1936) जैसी फिल्मों के माध्यम से सबल और स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान किया. सच बात तो यह है कि “भारत में हिन्दुस्तानी पारसी थियेटर ही वस्तुतः हिंदी के लोकप्रिय फिल्मों का पूर्वज थाI हिंदी सिनेमा को इस थियेटर से विरासत में सिर्फ दर्शक ही नहीं, चरित्र-चित्रण और रोल अदायगी के ख़ास ढंग भी मिले हैंI”2 हिंदी सिनेमा के आरम्भिक दौर में कोई भी स्त्री फिल्मों में काम नहीं करना पसंद नहीं करती थीI फलतः पुरुष पात्रों से ही महिला किरदारों का काम भी कराया जाता थाI लेकिन धीरे -धीरे हालात बदले और महिला कलाकारों का पदार्पण भी इस क्षेत्र में हुआ, भले ही उनकी  भूमिकाएं धार्मिक-पौराणिक सीमाओं में ही बद्ध रहीI वैसे “अचम्भे की बात यह कि जिस वक़्त हमारी फिल्मों में औरतों के स्थान को लेकर इस प्रकार तलवारें खिंची हुईं थीं, हमारे समाज में स्त्री मुक्ति की पहली लहर बहने लगी थीI…लेकिन फिल्मों में, अभी भी तथाकथित ‘फॉरवर्ड’ और ‘बोल्ड’ रोल गोरी मेमों से ही कराये जाते रहे, जबकि भारतीय अभिनेत्रियों को सटी-सावित्री बनाकर ही प्रस्तुत किया गयाI आजाद-खयाल, शारीरिक रूप से चुस्त और खिलंदड़ी ‘आधुनिक’ स्त्री के रोलों में रूबी मेयर्स (फ़िल्मी नाम सुलोचना) ने वीरबाला (1925) जैसी फिल्मों से इतना नाम और पैसा कमाया कि रूबी पिक्चर्स के नाम से अपनी ही कंपनी बना डालीI”चौथे दशक के अंत तक आते -आते तस्वीर बदली और भारतीय अभिनेत्रियाँ परदे पर छाने लगींI तब से शुरू हुए इस सफ़र में अनेक सशक्त फिल्में समाज को देता हुआ हिंदी सिनेमा बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक और भी मजबूत हो गया. वैसे तो “पचास और साठ के दशक में भी हिंदी सिनेमा में अनेक अच्छी अभिनेत्रियाँ थीं लेकिन तब ऐसे निर्देशक और फ़िल्में नहीं थीं जो किसी अभिनेत्री की प्रतिभा का पूरा और अर्थपूर्ण इस्तेमाल कर सकेंI ऐसे पटकथा लेखक नहीं थे जो जो किसी अभिनेत्री की सामर्थ्य को सामने रखकर भूमिकाओं की रचना कर सकेंI वहीदा रहमान और नूतन सरीखी अभिनेत्रियों ने अपने समय में अपनी सीमाओं के भीतर अच्छा और अर्थपूर्ण काम कियाI लेकिन सत्तर के दशक में हिंदी सिनेमा में अभिनेत्रियों को ऐसे अनेक अवसर मिले जो स्त्री की बदलती छवि के साथ न्याय करते हों और जिनमें अभिनय की भी गुंजाइश होI इसी दशक में शबाना आज़मी और स्मिता पाटील सरीखी अभिनेत्रियों को उभरने का मौका मिलाI”4 बीसवीं सदी के उतरार्द्ध में स्थिति में और भी सुधार आया तथा अब अभिनेत्रियाँ अपनी भूमिकाओं और पटकथा का चुनाव तक करने लगींI इक्कीसवीं सदी आते-आते हिंदी सिनेमा की विषयवस्तु और भी परिपक्व और प्रौढ़ हुई और स्त्री जीवन से जुड़े उन विविध सरोकारों को बखूबी हिंदी सिनेमा ने अपनी विषयवस्तु का आधार बनाया जिन पर चर्चा करना भारतीय समाज में सहज नहीं रहा हैI फलतः स्त्री भूमिकाओं को महत्त्व मिलने लगा और स्त्री भूमिका केन्द्रित फिल्मों  के निर्माण में बढ़ोतरी हुई हैI इस शोधालेख में हिंदी सिनेमा की इक्कीसवीं सदी में प्रदर्शित हुईं उन फिल्मों को आधार बनाया गया है जिन्होंने महिला सशक्तिकरण की दिशा में किसी न किसी रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए स्त्रियों में नवीन चेतना का सृजन किया है, उन्हें नई राह दिखाई है और समाज को अपनी रूढ़िग्रस्त मान्यताओं का त्याग कर पुनर्विचार हेतु प्रेरित किया हैI

इक्कीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्ष में ही अर्थात मई, 2000 में  कुंदन शाह के निर्देशन में बनी स्त्री भूमिका केन्द्रित फिल्म ‘क्या कहना’ आई जो विवाह पूर्व गर्भधारण जैसे वर्जित मुद्दे को उठाते हुए समाज की उस एकपक्षीय सोच पर प्रहार करती है जो केवल स्त्री को दोषी करार देकर उसे अपमानित करती हैI इस फिल्म में एक अनब्याही गर्भवती युवती के दृढ़ निश्चय और समाज के पूर्वाग्रहों के विरुद्ध जाकर अपने बच्चे को जन्म देने की कथा संवेदनशील ढंग से कही गई हैI ऐसा नहीं है कि इससे पहले यह विषय कभी चित्रित किया ही नहीं गया, किन्तु ‘क्या कहना’ की नायिका पिछली सभी नायिकाओं से अलग हैI प्रेमी द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने पर भी वह अपने गर्भ को छुपाती नहीं और न ही किसी अन्य स्थान पर जाकर, दुनिया से छुपाकर अपने बच्चे को जन्म देना पसंद करती हैI वह स्वयं को पुनः संभाल समाज का सामना करने के लिए उठ खड़ी होती है, अपने गर्भ को लेकर शर्मिन्दा महसूस नहीं करती और फिर से सामान्य जीवन जीने की ओर अग्रसर होती हैI फिल्म का क्लाइमेक्स समाज की पुरातनपंथी सोच पर करारी चोट करता है जो मानती है कि अनब्याही माँ के समक्ष जब भी उसके बच्चे का जैविक पिता शादी का प्रस्ताव रखे तो उस स्त्री को स्वीकार कर लेना चाहिए फिल्म इक्कीसवीं सदी की चेतनायुक्त और सजग स्त्री की सोच को समाज के सामने प्रस्तुत करती हैI सन 2003 में मनीष झा के निर्देशन में बनी फिल्म ‘मातृभूमि: अ नेशन विदाउट वुमन’ स्त्रीविहीन होते समाज की रोंगटे खड़े कर देने वाली त्रासद स्थितियों का चित्रण करती हैI नायिका कल्कि अत्याचार, पीड़ा और  दुःख-दर्द की अमानवीयता का चरम छूने के बाद भी अंततः हारती नहीं. अपनी नवजात बच्ची को सुरक्षित जीवन देने जो चमक उसकी आँखों में प्रसव उपरांत आती है वह कल्कि के अदम्य साहस और उसकी जिजीविषा को बयान करती हैI कुल मिलाकार यह फिल्म स्त्री के महत्त्व को उजागर करती है, भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज़ उठाती है और स्त्री के साथ ‘वस्तु’ की भांति व्यवहार न कर इन्सान समझे जाने की पैरवी करती हैI टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में सितम्बर, 2005 में दिखाई गई तथा भारत में मार्च, 2007 में प्रदर्शित दीपा मेहता की फिल्म ‘वाटर’ की पृष्ठभूमि यद्यपि सन 1938 के गुलाम भारत की है किन्तु उसकी विषयवस्तु आज के दौर में भी अपनी सार्थकता लिए हुए है क्योंकि आज भी समाज में अनेक ऐसे समुदाय है जहां विधवा स्त्री को अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य कर दिया जाता है, विधवाओं के पुनर्विवाह को वर्जित माना जाता है और विधवा आश्रमों के नाम पर अनैतिक कारोबार चलाये जाते हैंI यह फिल्म वाराणसी के एक आश्रम में रहने वाली विधवाओं की अभिशप्त जिंदगी के माध्यम से बाल विवाह जैसी कुप्रथा का बहिष्कार तो करती ही है, विधवा विवाह का समर्थन भी करती है और उन्हें समाज में सम्मानपूर्वक जीने देने की बात कहती हैI शकुंतला जैसी विधवाओं में अन्याय के खिलाफ आती चेतना और साहस यहाँ दिखाई देता हैI सन 2006 में आई नागेश कुकनूर की फिल्म ‘डोर’ देश के दो अलग-अलग भागों में रहने वाली जीनत और मीरा नामक दो महिलाओं की विपरीत ज़िन्दगिओं को मित्रता और विश्वास की एक डोर से बाँध कर पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की, खासकर विधवा महिलाओं की करुण स्थिति को दिखाती ही है, साथ ही उनके सपनों और उनकी स्वतंत्र जीवन जीने की आकाँक्षा को भी समाज के समक्ष प्रस्तुत करती हैI निर्देशक मधुर भंडारकर की सन 2008 में आई ‘फैशन’ फिल्म एक छोटे शहर की एक महत्वाकांक्षी लड़की के सुपर मॉडल बनने और सुपर मॉडल से साधारण लड़की हो जाने की कथा के माध्यम से फैशन इंडस्ट्री की तमाम विद्रूपताओं को हमारे सामने लाती हैंI फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे यह इंडस्ट्री नव प्रतिभाओं का शोषण करती है और जब चाहे उनका मनमुताबिक इस्तेमाल कर बाहर रास्ते पर फेंक देती हैI पर नायिका मेघना माथुर अवसादग्रस्त स्थिति तक पहुँच जाने के बाद भी पुनः वापसी करती है और आत्मविश्वास के साथ फिर से रैंप पर चलकर सिद्ध करती है कि यदि स्त्री दृढ़ निश्चय कर ले तो परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी विपरीत हों वह उनपर विजय प्राप्त कर सकती हैI यह फिल्म सन्देश देती है कि “हर लड़की को ग्लैमरस, एंटरटेनमेंट इंडस्ट्रीज में अपना कैरियर बनाने से पहले उस क्षेत्र की दुनिया, संस्कृति, मानसिकता का अध्ययन करना चाहिएI…दूसरों की अपेक्षा स्वयं पर अधिक विश्वास करना चाहिएI तभी फैशन इंडस्ट्रीज में कैरियर बनाने के बारे में सोच रही हर लड़की मेघना की तरह एक सक्सेसफुल सुपर मॉडल  बन सकती हैI”5 यह फिल्म फैशन इंडस्ट्री की चमक-दमक के भीतर छुपी कालिम तस्वीर को तो दिखाती ही है पर साथ ही युवा प्रतिभाओं को इससे सचेत रहकर अपने बूते आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देती है और उनमें नवीन चेतना का संचार करती हैI

इक्कीसवीं सदी के हिंदी सिनेमा ने महिलाओं की आकांक्षाओं और सपनों, उनकी समस्याओं और परेशानियों, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के मामूली से लगने वाले किन्तु महत्वपूर्ण मुद्दों को वाणी प्रदान की है, जैसे- इंग्लिश-विन्ग्लिश, टॉयलेट: एक प्रेमकथा, पिंक, पंगा, लिपस्टिक अंडर माई बुरखा, तुम्हारी सुलु, थप्पड़I सन 2012 में प्रदर्शित निर्देशक गौरी शिंदे की फिल्म ‘इंग्लिश-विन्ग्लिश’ एक गृहणी के आत्मविश्वास को दिखाती हैI नायिका शशि एक छोटी उद्यमी है जो घर से ही स्नैक्स बनाने का कार्य करती है किन्तु अंग्रेजी भाषा में दक्ष न होने की वजह से अपने ही घर में मज़ाक का पात्र बनती रहती है और इसीलिए अपमानित महसूस करती रहती हैI बाहर भी उसे इसी तरह के अनुभवों का सामना करना पड़ता है. इस स्थिति से उबरने के लिए वह अपनी कमाई से चुपके से अंग्रेजी लर्निंग क्लास में दाखिला लेती है और अंग्रेजी में बात करने में स्वयं को समर्थ बनाकर सभी को आश्चर्यचकित कर देती हैI यह फिल्म एक स्त्री के दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास की कहानी है, जो भारतीय समाज के उस कटु सत्य को सहज ढंग से दिखाती है जहां अंग्रेजी में बात करने को शिक्षित होने के अप्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में देखा जाता हैI विकास बहल के निर्देशन में सन 2014 में बनी फिल्म ‘क्वीन’ मध्यवर्गीय संस्कारों में पली-बढ़ी घबराई-सकुचाई-सी, थोड़ी-थोड़ी ‘नर्वस’ सी रहने वाली पर जिंदादिल  लड़की के आत्मविकास की यात्रा हैI विवाह से एक दिन पहले ही मंगेतर द्वारा शादी से इनकार कर दिए जाने पर, वह भी यह कारण बताते हए कि रानी उसके ‘स्टेटस’ से मैच नहीं खाती है, रानी का आत्मविश्वास टूट जाता हैI हनीमून पर पेरिस जाने के सपने संजोने वाली रानी अपने परिवार का संबल पाकर अकेले ही हनीमून की यात्रा पर निकल पड़ती हैI वस्तुतः यह यात्रा ही उसके खोए हुए आत्मविश्वास को वापिस लाती है और जीवन को जीने का नया नज़रिया उसे मिल पाता हैI सम्पूर्ण फिल्म स्त्री जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों के ताने-बाने से बुनी गई है और सहज-स्वाभाविक रूप से एक ‘नर्वस’ स्त्री के आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी बनने का चित्रण करती हैI निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी की सन 2016 में प्रदर्शित फिल्म ‘पिंक’ तीन आत्मनिर्भर कामकाजी युवतियों के शारीरिक शोषण की कथा के माध्यम से स्त्री शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठती है; बिलकुल अलग और सहज अंदाज़ मेंI इस फिल्म ने पुरजोर तरीके से यह सन्देश समाज को दिया कि जब कोई भी स्त्री ‘नो’ कहती है तो उसका मतलब ‘नो’ अर्थात ‘नहीं’ ही होता है, ‘हाँ’ या ‘शायद’ नहीं. साथ ही इस फिल्म में समाज द्वारा स्त्री और पुरुष वर्ग के लिए निर्धारित दोहरे मापदंडों तथा स्त्रियों के प्रति पुरुषों की संकीर्ण रुढ़िवादी सोच पर भी चोट की गई हैI अलंकृता श्रीवास्तव के निर्देशन में सन 2016 में बनी फिल्म ‘लिपस्टिक: अंडर माई बुरखा’ चार महिला पात्रों की कथा के माध्यम से स्त्रियों की स्वतंत्रता और उनके सपनों- आकांक्षाओं को समझने की पैरवी करती हैI फिल्म के चारों पात्र अपनी-अपनी जिंदगियों से जद्दोज़हद करते हुए एक उम्मीद लिए अपनी परिस्थितियों से विद्रोह करते नज़र आते हैंI श्री नारायण सिंह के निर्देशन में सन 2017 में प्रदर्शित फिल्म ‘टॉयलेट- एक प्रेम कथा’ शौचालयों की अनुपलब्धता के कारण महिलाओं को होने वाली परेशानियों और समस्याओं से अवगत कराती है और शौचालयों की हर घर में जरूरत समझाती हैI फिल्म की नायिका जया के माध्यम से स्त्रियों में खुले में शौच की परंपरा के विरुद्ध आवाज़ उठाने और स्वछता के प्रति जागृत होती चेतना को दर्शाया गया हैI भारत के कई ग्रामीण इलाकों में आज भी महिलाओं को इस तरह की समस्या से जूझना पड़ता है क्योंकि आज भी अनेक ग्रामीण जन घर में शौचालय होने को सभ्य और उचित नहीं मानतेI यह फिल्म उनकी इसी सोच को बदलने का प्रयास हैI नवम्बर, 2017 में सुरेश त्रिवेणी के निर्देशन में आई फिल्म ‘तुम्हारी सुलु’ एक आधुनिक मध्यवर्गीय गृहणी सुलोचना उर्फ़ सुलु के माध्यम से महानगरीय मध्यवर्गीय जीवन की परेशानियों के बीच बेहतर जीवन जीने के सपने देखने वाली घरेलू स्त्रियों की कहानी को साकार करती हैI इस फिल्म की नायिका सुलु भी अपने परिवार को सुचारू रूप से चलने में आर्थिक सहायता करना चाहती है और इसके लिए वह रेडिओ कांटेस्ट में हिस्सा लेने से लेकर आरजे तक का सफ़र भी तय करती हैI कुल मिलाकर यह फिल्म दिखाती है कि वर्त्तमान समय में गृहणियों के लिए अनेक विकल्प मौजूद हैं जिन्हें वह पार्ट-टाइम जॉब के रूप में कर अपने सपनों को पंख दे सकती हैंI वर्ष 2018 में सिद्धार्थ पी मल्होत्रा के निर्देशन में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘हिचकी’ में नैना माथुर नामक टूरेट सिंड्रोम से ग्रस्त एक शिक्षिका के आत्मविश्वासी और प्रेरक व्यक्तित्व की कहानी दिखाई गई हैI अपनी इस बीमारी के चलते उसे जब-तब अजीब ढंग से हिचकियाँ आती रहती हैं जिसे उसके पिता भी पसंद नहीं करते है और वह अपने विद्यार्थियों में हंसी का पात्र भी बनती है पर आत्मविश्वासी नैना हार नहीं मानती है और अठारह बार इंटरव्यू देने के बाद उन्नीसवीं बार टीचर की नौकरी पाने में सफल हो जाती हैI विद्यालय और कक्षा में अनेक बार हतोत्साहित करने वाले पलों और घटनाओं का सामना उसे करना पड़ता है पर वह मजबूत इरादों के साथ डटी रहती है और अंततः विद्यार्थियों की प्रिय एवं उत्तम शिक्षिका बनकर दिखाती हैI इस तरह यह फिल्म एक स्त्री  द्वारा अपनी कमजोरी को अपनी ताकत में परिवर्तित्त कर देने की प्रेरक कथा का चित्रण हैI अश्विनी अय्यर तिवारी के निर्देशन में जनवरी,2020 में आई फिल्म ‘पंगा’ हर उस स्त्री के लिए प्रेरणास्रोत है जो अपने सपने किन्हीं कारणवश पूरा नहीं कर सकी थीं किन्तु उन सपनों को पूरा करने की दबी-दबी सी इच्छा ज़रूर रखती हैंI कभी कबड्डी चैम्पियन रही जया निगम, जो अब पत्नी और माँ बन चुकी हैं, अपनी हिम्मत और आत्मविश्वास से पुनः खूब अभ्यास करती हैं और मैदान में उतर फिर से सफलता प्राप्त करती हैंI अनुभव सिन्हा द्वारा सन 2020 में आई फिल्म ‘थप्पड़’ एक विवाहित स्त्री अमृता के माध्यम से स्त्रियों पर की जाने वाली घरेलू हिंसा के मुद्दे को सहज और अलग ढंग से उठाती हैI पति-पत्नी दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं किन्तु आक्रोशवश पति सबके सामने पत्नी अमृता को थप्पड़ मार देता हैI आगे चलकर पति अपनी पत्नी से माफ़ी भी मांगता है किन्तु अपमानित अमृता उस थप्पड़ की गूँज को भूला नहीं पाती हैI घर-परिवार के लोग उसे समझाते भी हैं कि एक थप्पड़ ही तो था, पति-पत्नी में लड़ाई- झगड़े तो होते ही रहते हैंI फिल्म के यह दृश्य समाज की उस संकीर्ण सोच को दिखाते हैं जहाँ  अप्रत्यक्ष रूप से पुरुषों को अव्वल समझा जाता है, जो मानती है कि यदि मानसिक परेशानियों के चलते पति अपनी ब्याहता पर हाथ उठा भी दे तो इस बात को ज्यादा तूल नहीं देना चाहिए किन्तु यहीं यह फिल्म पिछली फिल्मों से अलग हटकर इस सोच से पर्दा उठाने का प्रयास करती है कि बात सिर्फ एक थप्पड़ की नहीं होती है बल्कि एक स्त्री के अंतर्मन पर लगे आघात की होती है, उसके आत्मसम्मान की होती है, उसके वजूद, उसकी अस्मिता की होती हैI अमृता के पढ़े-लिखे आधुनिक स्त्री के सशक्त किरदार द्वारा यह सन्देश प्रभावशाली ढंग से सम्प्रेषित करती है यह फिल्मI निर्देशक उमेश बिष्ट की 2021 में प्रदर्शित फिल्म ‘पगलैट’ एक नये ढंग से स्त्रियों की आज़ादी की बात कहती हैI फिल्म का प्लाट नवीनता लिए है जिसमें एक मध्यवर्गीय आधुनिक पढ़ी-लिखी युवती संध्या के महज़ पांच महीने में विधवा होने के बाद उसके पति की तेरहवीं तक की कहानी बेहद सादे तरीके से कही गई हैI फिल्म में ऐसे प्रसंगों का ताना-बाना बुना गया है जिससे सहज स्वाभाविक रूप से दर्शकों तक यह सन्देश जाए और वे समझ लें कि किसी स्त्री के पति के न रहने पर उस स्त्री का जीवन समाप्त नहीं हो जाता, उसे भी सामान्य नारी की ही भाँति ही भूख-प्यास लगती है, उसकी ज़िन्दगी औरों के अधीन होकर नहीं रह जाती बल्कि वह अपने फैसले वह स्वयं कर सकती है और अपने जीवन को एक नई दिशा की ओर अग्रसर कर सकने की सामर्थ्य भी रखती हैI अतः विधवा नारी के सपनों और इच्छाओं का सम्मान कर उन्हें आगे बढ़ने का अवसर देना चाहिएI फिल्म का क्लाइमेक्स एक ट्विस्ट के साथ संपन्न होता है जिससे नायिका संध्या के चेतनशील और सजग व्यक्तित्व के दर्शन होते हैंI

 कुल मिलाकर इक्कीसवीं सदी का हिंदी सिनेमा स्त्रियों के जीवन की बड़ी-बड़ी समझे जाने वाली समस्याओं-परेशानियों के प्रति ही नहीं बल्कि रोज़मर्रा की मामूली -सी लगने वाली समस्याओं के प्रति भी गंभीर हुआ हैI पहले जहाँ धार्मिक फिल्मों में ही स्त्री चरित्र की प्रधानता अधिक देखने को मिलती थी और लीड रोल पुरुष पात्र के ही हिस्से आता रहा, सम्पूर्ण फिल्म की सफलता एक स्त्री प्रधान चरित्र वाली फिल्म को सोचा ही नहीं जाता था, वहीँ आज ऐसी फिल्मों का निर्माण हो रहा है जिन्हें स्त्री प्रधान चरित्र को ध्यान में रखकर ही लिखा जा रहा हैI क्वीन, तुम्हारी सुलु, पंगा, छपाक, मर्दानी आदि अनेक फिल्मों के नाम इस सन्दर्भ में लिए जा सकते हैंI यहाँ तक कि अब उम्रदराज़ अभिनेत्रियों को भी भाभी और माँ के रोल के अलावा अन्य महत्वपूर्ण भूमिकाएं भी दी जा रही हैंI इस सन्दर्भ में सन 2003 में ‘तहजीब’ फिल्म में केन्द्रीय भूमिका निभा चुकीं शबाना आज़मी कहती हैं कि “पिछले कुछ सालों में मुझे अपने कैरियर के अच्छे और जटिल किरदार मिलेI अच्छी बात है कि हिंदी फिल्मों में भी चालीस साल के ऊपर की उम्र की औरत की ज़िन्दगी पर फिल्में बन रही हैंI मुझे और दूसरी अभिनेत्रियों को अच्छे मौके मिल रहे हैं, अन्यथा मेरी उम्र की अभिनेत्रियाँ तो माँ और भाभी की घिसी-पीटी भूमिकाओं तक ही सीमित हो जाती हैंI”6 इस तरह आज स्त्री भूमिकाओं को भी पुरुषों के समान महत्त्व दिया जाने लगा हैI स्त्री जीवन और चेतना प्रधान फिल्मों की बढ़ती संख्या सार्थक और सामाजिक सरोकारों से सिनेमा के जुड़ाव का सकारात्मक सन्देश दे रही हैंI

सन्दर्भ सूची:

  1. भारतीय सिने-  सिद्धांत, डॉ.अनुपम ओझा, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, पहला संस्करण, 2002, पृष्ठ 89.
  2. हिंदी सिनेमा का सच,मृणाल पाण्डे का लेख, सं.मृत्युंजय, समकालीन     सृजन,कलकत्ता, प्रकाशन वर्ष 1997, पृष्ठ 99.
  3. हिंदी सिनेमा का सच, मृणाल पाण्डे का लेख, सं.मृत्युंजय, समकालीन सृजन, कलकत्ता, प्रकाशन वर्ष 1997, पृष्ठ 102.
  4. सिनेमा कल, आज और कल, विनोद भारद्वाज, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2012, पृष्ठ 63.
  5. मधुर भंडारकर की फिल्मों में स्त्रीवादी मीडिया दृष्टि, डॉ. अनिल काम्बले, शिवालिक प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016, पृष्ठ 340.
  6. सिनेमा समकालीन सिनेमा, अजय ब्रह्मात्मज वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2012, पृष्ठ 92.

    डॉ.सुषमा सहरावत
                                            कमला नेहरु कॉलेज
                                                        दिल्ली विश्वविद्यालय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *