आधुनिक समय में सिनेमा जीवन का एक ऐसा अंग बन चुका है जिसे उससे अलग कर पाना संभव नहीं है। सिनेमा ही ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा समाज के विभिन्न वर्गों और समुदायों के जीवन को सशक्त दृश्यबंधों द्वारा सजीव किया जा सकता है। सिनेमा वस्तुतः रंगमंच, लोकनृत्य, लोकनाट्य, साहित्य, संगीत, शिल्प वा छायांकन के कलात्मक सामंजस्य का अनूठा समावेश है। यह कला अपने शैशव काल में यांत्रिक माध्यम की बजाय लोक शैली के रूप में प्रारंभ हुई है। इसका विकास चित्रों के माध्यम से हुआ है, इसीलिए इसे चित्रपट भी कहा जाता है।
“भले ही किन्हीं पूर्वाग्रहों के कारण अथवा साहित्य शास्त्र की बँधी हुई परिपाटी के कारण चित्रपट को किसी साहित्यिक विधा अथवा कला का स्तर प्रदान न किया गया हो, किन्तु आज इस तथ्य से विमुख नहीं हुआ जा सकता कि सामाजिक क्षेत्र में चित्रपट ने अपना एक निजी सांस्कृतिक परिवेश धारण कर लिया है और इसी परिवेश में साहित्य एवं कला के विभिन्न अलंकारों की जगमगाहट लक्षित की जा सकती है।”
फ्रांसीसी निर्माता निर्देशक श्री आस्त्रुक का कहना है कि “लिखे हुए शब्दों की तरह पढ़ने के लिए नए दृष्टिकोण की आवश्यक है।” डाॅ. कालिदास नाग की धारणानुसार “अपने वास्तविक अर्थों में सिनेमा केवल गतिशील खिलौने का चित्र मात्र नहीं है प्रत्युत वह जनशिक्षण का प्रभावशाली माध्यम है।”
मोशन पिक्चर एसोसिएशन के प्रेसीडेंट जाॅनस्टन के अनुसार- “यदि यह कहा जाता है कि एक चित्र एक सहस्र चित्रों से अधिक मूल्यवान है तो निश्चय ही एक चलचित्र एक सहस्र चित्रों से अधिक गुणवान है।”ख् फिल्म फेयर- जनवरी‘ 1964., सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे ने कहा है- “सिनेमा साधन है चरित्र या स्थिति के विकास की सच्ची अभिव्यक्ति का छायांकन की बारीकियों और गहराई में भावना की प्रखरता में, साधना की सीधे-सीधे, सही और सशक्त उपयोग में सिनेमा की समानता कोई कला नहीं कर सकती।”ख् धर्मयुग- मई’ 1964, पृ.- 39.,
सिनेमा वस्तुतः जनरुचि का परिष्कार करता है। निर्माता निर्देशक चेतन आनन्द सिनेमा को एक रचनात्मक माध्यम स्वीकार करते हुए कहा है- “सिनेमा कहानी प्रस्तुत करने का एक ज़रिया है, इसलिए फिल्म एक जुबान है, भाषा है। कहानी कई तरीकों से प्रस्तुत की जा सकती है- बोले हुए शब्दों में, लिखे हुए शब्दों में, नृत्य में, कविता में, गीत में, हाव-भाव में, तस्वीर में। सिनेमा में ये सब समा जाते हैं, सिनेमा सब ज़रियों का एक समूह है सिनेमा सिर्फ कला नहीं कलाओं में महान कला है। सिनेमा एक बौद्धिक माध्यम नहीं है और न ही वह निबंध लेखन है, यह एक कविता है, एक नाटक है।”
एरिक जाॅनस्टन ने सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का अभिव्यक्ति माध्यम बताते हुए लिखा है- “सिनेमा आज के समाज में संवहन का सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम है, शिक्षा और अंतर्राष्ट्रीय सद्भावनाओं की वृद्धिका एक सबलतम साधन है।”
सिनेमा में वस्तुतः सभी रचनात्मक कलाओं को अपने भीतर समाहित किया हुआ है। आधुनिक व पारंपरिक कला के विभिन्न तत्त्व एक साथ सिनेमा में दिखाई देते हैं जिसके कारण उनका प्रभाव और सार्थकता, बहुआयामी रूप ले लेती है। सिनेमा साहित्य के लोकरंजक रूप का प्रतिनिधि समानता है। मानव अपनी सहज रूप लिप्सा की शाश्वत वृत्ति का शमन, पूर्ण आनन्द उपभोग के साथ साहित्य और सिनेमा तथा विभिन्न कला उपादानों के माध्यम से करता है। यह वह स्वतंत्र और आधुनिक यांत्रिक कला है जो जीवन के सम विषम और भौतिक अभौतिक स्वरूपों संकेतों व भावों को सर्वथा एक नवीन कला शिल्प के रूप में सजीव, सचित्र और मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करने की शक्ति रखती है।”
वर्तमान युग में सिनेमा की रचनात्मकता बहुविध रूपों में प्रस्फुटित हुई है। यद्यपि विकसित होती इस रचनात्मकता में व्यावसायिकता भी आई है जिसने सिनेमा के सामने अनेक प्रश्नचिन्ह भी खड़े कर दिये हैं। आज सिनेमा की सीमाएँ केवल व्यावसायिक दृष्टिकोण को स्पर्श करके दर्शक का हल्का मनोरंजन करने के पक्ष में नहीं है वरन् एक ऐसी प्रौढ़ व गंभीर कला के संलग्न है जिसमें समृद्ध कला के समस्त वर्तमान युग में अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बनकर उभरा है।
आज सिनेमा से जुड़े अधिकांश लोगों के लिए सिनेमा अनुभव और अन्वेषण का माध्यम है। ऐसे अनुभव से गुज़रना जीवन को नये सिरे से समझने के समान है। सिनेमा में मानव मन की जटिल गुत्थियों को चित्रित करने का प्रयास होता है सिनेमा की अपनी भाषा है, उसकी अपनी संप्रेषणीयता है। एक अरसे से सिनेमा समाज के दर्पण के रूप में अपनी भूमिका का कुशलतापूर्वक निर्वाह कर रहा है। आज समाज में होने वाले परिवर्तनों का स्रोत सिनेमा को माना जाता है तो इसलिए कि सिनेमा ने मानव जीवन को गहराई तक प्रभावित किया है। इसी तरह सिनेमा के कथ्य और प्रस्तुतीकरण में जो बदलाव दिखाई दे रहे हैं उनकी प्रेरणा भी सिनेमा ने अपने समकालीन समाज से ही प्राप्त की है। कई बार ये परिवर्तन इतने स्पष्ट और मुखर होते हैं कि इन्हें आसानी से चिन्हित किया जा सकता है। समाजशास्त्रीय शोधों के अनुसार सिनेमा ने आज समाज के हर पक्ष को गहराई तक प्रभावित किया है और यह प्रभाव समाज की सामूहिक चिंतन प्रक्रिया पर भी नज़र आता है। सिनेमा में प्रयुक्त चित्रात्मक अभिव्यकितयाँ लोगों के मानस पटल पर विशेष प्रतिक्रियाएँ छोड़कर उन्हें अन्यतम दिशा व बोध दे रही हैं।
अपने सौ साल के सफर में सिनेमा ने बड़े उतार-चढ़ाव देखे हैं। प्रारंभिक दौर में सिनेमा को समाज ने स्वीकृति नहीं दी थी। लोगों के अंदर पूर्वाग्रह इतने प्रबल थे कि सिनेमा की सच्चाई को समझा ही नहीं जा रहा था लेकिन धीरे-धीरे समाज ने इसे अपनी स्वीकार्यता प्रदान की। कई बार सिनेमा लड़खड़ाया, अपने आंतरिक विरोधाभासों और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के कारण सिनेमा कभी एक निश्चित धारा का अनुसरण नहीं अलग शख्सियत, अलग कथ्य व अलग भाषा रही है। सिनेमा का एक चेहरा ग्लैमर व चकाचैंध से युक्त है तो दूसरा अंतद्र्वन्द्व व अपराधबोध से युक्त भी रहा है। सिनेमा के बिंबों और प्रतीकों को समझने की दृष्टि से भी इसका ग्लैमर अनूठा है। सिनेमाई चरित्रों में खुद को तलाशने की दर्शकों की ललक व उत्कंठा ने भी सिनेमा का एक नया समाजशास्त्र विकसित किया है। मनोरंजक सिनेमा में भी समाज की चिंतन प्रक्रिया का प्रतिबिंब झलकता है। दर्शकों की भावनाओं, परंपराओं व संवेदनाओं को नया मोड़ देने की अद्भुत क्षमता ने सिनेमा को अद्भुत आयाम प्रदान किया। इस अद्भुत कला के, बिना वर्तमान समाज की कल्पना भी असंभव है।
आज संसार के लगभग हर देश में सिनेमा एक विकसित उद्योग का पर्याय बन चुका है। हर छोटे-बड़े देश में मनोरंजन की दुनिया सिनेमा से शुरु होती है और उसी पर विराम पाती है। मनोरंजन के अत्याधुनिक माध्यमों टेलीविजन, वीडियो तथा सैटेलाइट चैनलों ने भी सिनेमा को अपनाया है और इन सभी की बढ़ती लोकप्रियता के पीछे सिनेमा के महत्त्वपूर्ण योगदान को कतई नकारा नहीं जा सकता। भारत जैसे देश के संदर्भ में सिनेमा के क्रांतिकारी प्रभावों को सहज रूप में ही देखा जा सकता है। सिनेमा के जादू ने दर्शकों को बहुत गहराई तक प्रभावित किया है। सामाजिक असंतोष, अन्याय और शोषण को उजागर करने वाली फिल्मों को दर्शकों ने सदैव सराहा है। फिल्मों के अतिरेकपूर्ण दृश्यों में दर्शक अपने अनुभव ही तलाशते हैं।
“आज सिनेमा की सीमाएँ केवल व्यावसायिक दृष्टिकोण को स्पर्श करके दर्शक का हल्का मनोरंजन करने के पक्ष में नहीं है बल्कि यह एक ऐसा गंभीर और प्रौढ़ कला के रूप में अपने स्वरूप का निर्माण करने में संलग्न है जिसमें एक पूर्ण और समृद्धकला के प्रायः सभी गुण विद्यमान हैं। यह रचनात्मककला आज उन अनुभूतियों और संवेदनाओं को गंभीरता पूर्वक दर्शकों तक पहुँचाने के लिए प्रयत्नशील है जिनका अतीतकाल से साहित्य के द्वारा प्रकाशन किया जाता रहा है।”
आज के सिनेमा का दिलचस्प तथ्य यह है कि सिनेमा में हर दस साल में उसमें नए परिवर्तन व नई शब्दावली दिखाई दे रहे हैं। हिन्दी में मुख्यधारा सिनेमा के समानांतर, समानांतर सिनेमा या कला सिनेमा का प्रारंभ हुआ। कभी न्यू वेब सिनेमा का काफी चलन था। इसे पैरेलल या आर्ट सिनेमा भी कहा जाने लगा। इसी कड़ी में एक नयी संकल्पना है क्राॅसओवर सिनेमा। आज ग्लोबलाइजेशन के दौर में क्राॅसओवर सिनेमा का अपना अलग ही आकर्षण है। माॅनसून वैडिंग बैंड इटलाइक बेकहम, वाॅटर, ईस्ट इज़ ईस्ट, प्रवोक्ड इत्यादि क्राॅसओवर सिनेमा की श्रेणी की फिल्में हैं। आम धारणा के अनुसार वह सिनेमा जो देश और समाज की सीमाओं को पार करते हुए दूसरे देशों में भी जाए उसे क्राॅसओवर सिनेमा की संज्ञा दी जा सकती है। जो राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पहचान से निकलकर दूसरे देशों के सिने प्रेमियों का दिल जीत ले, क्राॅसओवर सिनेमा कहलाता है। आज बाॅलीवुड में क्राॅसओवर सिनेमा का प्रयोग एक ‘कार्यशैली’ के रूप में किया जा रहा है। ऐसा सिनेमा जो देसी कहानियों और घरेलू पात्रों पर आधारित होने केे बावजूद यूरोप और अमेरिका में बाॅक्स आॅफिस पर कामयाबी का परचम फहरा सके। बाॅलीवुड की जयादातर फिल्में घरेलू दर्शकों को ध्यान में रखते हुए बनाई जाती है। इन फार्मूला फिल्मों में जो तकनीक इस्तेमाल की जाती है उनमें घरेलू व देसी फ्लेवर होता है। पश्चिमी देशों में आप्रवासी लोग जिन क्राॅसओवर फिल्मों को दिलचस्पी से देखते व सराहते हैं वहीं ‘अप्रवासी सिनेमा’ है। इस लिहाज से ब्रिटेन, कनाडा व अमेरिका आदि देशों में बड़ी संख्या में ऐसी फिल्में रिलीज़ हो रही हैं तथा अच्छा कारोबार कर रही हैं।
खाड़ी के देशों मस्कट, ओमान, शारजाह, दुबई व सऊदी अरब में हिन्दी फिल्मों का खासा समृद्ध व विस्तृत बाज़ार है। पाकिस्तान में भी भारतीय (हिन्दी) फिल्में काफी पसंद की जाती हैं। लंदन, टोरंटो व कनाडा में हिन्दी फिल्में बड़ी दीवानगी व चाव से देखी जाती है। हिन्दी फिल्म स्टार्स को पसंद किया जाता है। उनके प्रति दीवानगी दिखाई देती है। हालाँकि दशकों के समूह में अधिकतर संख्या प्रवासी भारतीय लोगों की अथवा दक्षिण ऐशियाई देशों के लोगों की होती है। इन दर्शकों के रुझान की वजह से बाॅलीवुड की सामान्य फिल्में भी कई बार अधिक मुनाफा कमा लेती हैं।
क्राॅसओवर फिल्मों की शुरुआत प्रायः ‘सलाम बाॅम्बे’ फिल्म से मानी जाती है। इस फिल्म ने राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में काफी धूम मचाई थी। यह आॅस्कर अवार्ड के लिए नामांकित भी हुई थी। मुंबई की सड़कों पर ज़िन्दगी बिताने वाले बच्चों की व्यथा को प्रभावी अभिव्यक्ति देने वाली इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले थे। मीरा नायर की ‘कामसूत्र’, ‘माॅनसून वैडिंग’, ‘द नेमसेक’ जैसी फिल्मों ने क्राॅसओवर फिल्मों को नया क्षितिज प्रदान किया। ‘माॅनसून वैडिंग’ फिल्म को ब्रिटिश फिल्म फेस्टिवल में नामांकित भी किया गया। यह फिल्म दिल्ली के एक पंजाबी परिवार में होने वाली शादी की मनोरंजक प्रस्तुति करने के कारण यूरोप, कनाडा और अमेरिका के सिनेमाघरों में काफी प्रसिद्ध हुई।
युगांडा से अमेरिका आकर बसे गुजराल परिवार की कहानी पर आधारित ‘मिसी-सिपी मसाला’ हो या प्रेम के रंग में रंगी ‘कामसूत्र ए टेल आॅफ लव’ हो या अमेरिका में रहने वाले भारतीय लोगों की दास्तान ‘द पैरेज फैमिली’ हो, इन सभी में अपनी जड़ों से जुड़ने की मीरा की ललक दिखाई देती है। अप्रवासी फिल्मकार दीपा मेहता ने भी मीरा नायर के पदचिन्हों पर चलते हुए इसी शृंखला को विस्तार दिया। उन्होंने 1991 में इसके बाद ‘बाॅलीवुड- हाॅलीवुड’ तथा ‘फायर’ जैसी फिल्मों में माध्यम ने दीपा ने अप्रवासी फिल्मों में अपनी लैंगिकता की समस्या पर आधारित फायर ने देश-विदेश में सिनेमा प्रेमियों को उद्वेलित किया। नंदिता दास तथा शबाना आज़मी की अभिनय कुशलता के द्वारा समकालीन समाज की ज्वलंत समस्या को उठाकर सत्री-सम्बन्धी नए सवाल खड़े किये। इसी कड़ी को बढ़ाते हुए ‘अर्थ- 1947’ व ‘वाटर’ फिल्में निर्मित कीं। ‘वाटर’ फिल्म में हिन्दू समाज की बड़ी समस्या ‘विधवा’ स्त्रियों की यंत्रणापूर्ण दशा को साकार कर दर्शकों को आत्ममंथन के लिए विवश कर दिया। इसके प्रभावस्वरूप कई संगठनों के द्वापरा इस फिल्म का विरोध व बहिष्कार भी उन्हें झेलना पड़ा। विदेशी फिल्म वर्ग में यह फिल्म नामांकित भी हुई। ‘हैदराबाद ब्लूज’, ‘इकबाल’ और ‘डोर’ जैसी फिल्में बनाकर नागेश कुकनूर भी इसी परम्परा के कुशल निर्वहणकत्र्ता बन गए हैं। शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ भी इसी श्रेणी की चर्चित व उल्लेखनीय फिल्म है।
क्राॅसओवर सिनेमा की ही भाँति एन.आर.आई. आप्रवासी सिनेमा की धूम भी विश्व मंच पर मची हुई है। अपने देश से दूर वर्षों से परदेस में रहने वाले भारतीय लोगों को अपनी जड़ों से जोड़े रखने का काम आप्रवासी सिनेमा बखूबी कर रहा है। स्वाभाविकतः ऐसी फिल्मों में उन्हें अपने देश के रीति-रिवाज़ों परम्पराओं, रहन-सहन, संस्कारों व संस्कृति के दर्शन होते हैं। विदेश में रहते हुए अपने संस्कारों को जीवित रखने के संघर्ष में पुरानी पीढ़ी के साथ-साथ नई पीढ़ी के फिल्म प्रेमियों को भी आप्रवासी सिनेमा ने अत्यधिक आकृष्ट किया है। ऐसी फिल्मों का प्रारंभ आदित्य चोपड़ा की सुपर हिट फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे’ से हुआ और करण जौहर की ‘कुछ-कुछ होता है’ से इसने रफ्तार पकड़ी। ‘दिल तो पागल है’, ‘यस बाॅस’ और ‘परदेस’ जैसी फिल्मों ने दर्शकों का एक नया प्रशंसक समूह पैदा कर दिया। आज करण जौहर की फिल्में इस श्रेणी में जबर्दस्त लोकप्रिय हैं। यश चोपड़ा बैनर की फिल्मों की भी यही स्थिति है। ‘कभी खुशी कभी गम’, ‘कभी अलविदा न कहना’ को यूरोप व अमरीका में बेशुमार शोहरत मिली। यश चोपड़ा तथा करण जौहर जैसे फिल्मकारों ने इन फिल्मों के सहारे आप्रवासी भारतीयों के सपनों तथा अरमानों को भारतीय खूबसूरती व खुशबू प्रदान की। उन्हें उनकी भारतीय जड़ों व मिट्टी से पुनः जोड़ते हुए उन्हें अपनेपन का खुशनुमा अहसासा कराया व उनकी समस्याओं के समाधान देने की कोशिश भी की। विदेशी प्लेटफाॅर्म पाकर भारतीय सिनेमा भी काफी संपन्न व विस्तृत हुआ। अभिव्यक्ति व प्रस्तुति के नए-नवीन बिन्दु व आयाम उसे प्राप्त हुए। आप्रवासी सिनेमा को भी एक रूप में क्राॅसओवर सिनेमा का ही अंग या विस्तारित रूप कहना अधिक युक्तियुक्त होगा।
वर्ष 2000 में प्रारंभ आइफा अवाॅर्ड श्रेणी में ऐसी फिल्मों का निरंतर नामांकन निःसंदेह भारतीय सिनेमा के लिए शुभ संकेत है। आप्रवासी तथा क्राॅसओवर सिनेमा ने भारतीय कला एवं सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय मंच एवं पहचान प्रदान किए हैं। यहाँ तक कि गैर-भारतीयों के मध्य भी भारतीय रचनात्मकता को लोकप्रिय बनाया है। यहाँ तक कि जिन देशों या क्षेत्रों में भारतीयों की संख्या गिनी चुनी है, वहाँ भी भारतीयता का परचम लहराने व प्रशंसा पाने में आप्रवासी सिनेमा खूब सफल रहा है। दक्षिण अफीका, नीदरलैण्ड इत्यादि देशों में भारतीय फिल्मों के प्रति लोगों की दिलचस्पी काफी बढ़ी है। आज विश्व सिनेमा के पटल पर परिदृश्य काफी बदला है। भारतीय फिल्मों के प्रशंसकों में 25 गैर भारतीय शामिल हैं। यह परिर्वतन निश्चित ही यह संकेतित कर रहा है कि सिनेमा के नए-नए प्रारूपों क्राॅसओवर तथा आप्रवासी सिनेमा ने भारतीय (हिन्दी) सिनेमा को नया बाज़ार, नई अभिव्यक्ति, नए प्रशंसक, नया शिल्प, नई भाषा, नई आलोचना, नई जमीन प्रदान की है।
इस नए आधार के कारण भारत के साथ नए सांस्कृतिक सम्बन्धों का भी सूत्रपात हुआ है। सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका, दुबई, मलेशिया, नीदरलैण्ड जैसे देशों तक में भारतीय फिल्मों की नई वितरण प्रणाली विकसित हुई है। भारतीय फिल्मों में विदेशी योगदान की प्रतिशतता बढ़ी है। राकेश रोशन ने सिंगापुर के सहयोग से ‘कृष’ फिल्म का शानदान निर्माण किया और उसका प्रीमियर सिंगापुर में ही भव्य स्तर पर आयोजित किया। यह भारतीय फिल्मों की सफलता तथा लोकप्रियता की ही ठोस पहचान है। कला के लोकतांत्रीकरण एवं वैश्वीकरण के एक अभिनव प्रयोग का नाम है ‘अप्रवासी सिनेमा’ और सम्बन्धों, संस्कारों तथा कलाओं के उन्नयन का यह प्रयास निःसंदेह सिने पे्रमियों के लिए सकारात्मक दस्तक है।
एक आलोचक ने सही कहा है- “आज हम सिनेमा को ‘मास स्केल’ वाली कला कह सकते हैं जिसमें मानव के लिए शाश्वत मनोरंजन उसके जीवन का विश्लेषण, संस्कृत के परंपरित स्वर, शिक्षा-दीक्षा और साहित्यिक संवेदनाओं की रम्य चित्रानुभूति समाविष्ट रहती है और जिसे साहित्य एवं कला के विभिन्न पक्ष, सिनेमा के रूप में, अपने संगठित प्रयास से अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। इस तरह कला व रचना के अनेक रूपों को एक ही धरातल पर कार्य सिनेमा ने किया है।”

सहायक पुस्तकें –

1सिनेमा और साहित्य- हरीश कुमार- संजय प्रकाशन, दिल्ली।
2फिल्म पत्रकारिता- विनोद तिवारी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली।
3एनसाइक्लोपीडिया आॅफ हिन्दी सिनेमा- संपा. गुलज़ार, गोविन्द निहलानी, एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका प्रकाशन, नई-दिल्ली।
4सिनेमा एक समझ- सं- विनोद भारद्वाज- मध्यप्रदेश फिल्म विकास निगम, भोपाल।
5हिन्दी सिनेमा का सच- सं.- मृत्युंजय, समकालीन सृजन, कोलकाता।
6हिन्दी फिल्म का दस्तावेज- वीरेन्द्र त्रिपाठी- साहित्य प्रकाश, दिल्ली।
7हिन्दी सिनेमा का इतिहास- संजीव श्रीवास्तव- प्रकाशन विभाग, दिल्ली।
8बालीवुड द इंडियन सिनेमा स्टोरी- नसरीन मुन्नी कबीर- मैकमिलन, लंदन।
9हिन्दी सिनेमा का इतिहास- मनमोहन चड्डा, सचिन प्रकाशन, दिल्ली।
10सिने पत्रकारिता- श्याम माथुर- राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर।
11भारतीय फिल्मों की कहानी- बच्चन श्रीवास्तव- राजपाल एंड संस, दिल्ली।
12हिन्दी सिनेमा का सुनहरा सफर- बद्रीनारायण जोशी- बंबई।
13भारतीय चलचित्र- महेन्द्र मित्तल- अलंकार प्रकाशन, दिल्ली।
14साहित्य में दायित्व और व्यक्तित्व का प्रश्न-विजयेंद्र स्नातक।
15सिनेमा और समाज- विजय अग्रवाल- सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली।
16भारतीय नया सिनेमा- सुरेन्द्रनाथ तिवारी, अनामिका पब्लिशर्स, दिल्ली।
17समय और सिनेमा- विनोद भारद्वाज- प्रवीण प्रकाशन, नई-दिल्ली।

राकेश दूबे

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