आधुनिक कविता में जटिल विचारों के संप्रेषण के लिए मिथक का व्यापक प्रयोग किया गया l आचार्य हजारी प्रसाद दिव्वेदी ने अग्रेज़ी के( myth )शब्द के समानार्थी के रूप में हिंदी के मिथक शब्द को प्रचलित किया l अंग्रेजी का myth शब्द ग्रीक के ‘मुथोस ;व लेटिन के ‘मिथास ‘’का व्युत्पन्न है l जो सीधे संगतियुक्त वक्तव्यों या सीधे अर्थ देने वाली कथाओं logos के विपरीत अर्थ में प्रयुक्त किये जाते थे ,यानि मिथ से सीधा अर्थ प्राप्त नही होता होता बल्कि ये सांकेतिक प्रतीकात्मक शैली की कथाएं है l

                                              जिनकी भाषा ,कथा का बाहरी आवरण झूठा होता है ,लेकिन कथ्य ऐतिहासिक सच्चाइयों को प्रकट करने वाला होता है l हर काल में ऐसे सत्य होते है l जिनका अभिधा में सीधे अभिव्यक्त करना संभव नही होता l इनकी अभिव्यक्ति मिथकों से की जाती रही है ,जैसे –जैसे भाषा का विकास हुआ उक्तियाँ सीधी कही जाने लगी ,अतीत के जीवन बिंब –प्रतीक मात्र ही रह गये l इन मिथकों का प्रयोग शोषक वर्गों ने रूठ रीति के रूप में किया l हर काल में महान कलाकारों ने इन मिथकों को पुनसृजित कर इनके मूल्य सत्यों से अपने सामाजिक सत्यों की अभिव्यक्ति की है l वाल्मिकी की ‘रामायण’ हो या तुलसी’ रामचरित मानस’;निराला की’ राम की शक्ति पूजा हो ;प्रसाद की कामायनी ;या मुक्तिबोध की कविताएँ हो ,अलग –अलग समय पर मिथकों का प्रयोग शोषक वर्ग के विरुद्ध जनता के हक़ में कलाकारों ने किया है l प्रत्येक संस्कृति के अपने ह्जारों मिथक है इनमें देवताओं ,परियों ,दैत्यों ,प्राकृतिक शक्तियों की अनंत कथाएं है जो लोक विश्वास के साथ गहरी जुडी है l

                                   आधुनिक समय मर इतिहास ,भाषाशास्त्र .समाजशास्त्र ,मनोविज्ञान आदि कर दवारा भी भी मिथकों की जाँच आरम्भ हुई और पाया गया कि दो अलग संस्कृतियों के मिथकों में अनेक प्रकार की समानताएं है l वर्तमान समय में मिथक खत्म नही हुई बल्कि रूपांतरित होकर नये अर्थ प्रदान करने लगे है

                         l “ यथार्थ को अधिक गहनता से जानने और व्यक्त करने के लिए कभी –कभी उससे एक खास दुरी अपेक्षित हो जाती है l मिथक इसका सकारात्मक अवसर देता है l य्थ्र्थ और मिथक का रिश्ता तब तक एक दुसरे के विरोधी का नही रह जाता l मिथक परम्परा की पूरी शक्ति से यथार्थ को उभारने और यथार्थ आधुनिक की पूरी शक्ति से मिथक को नया स्तर देने में द्वंदात्मक रूप देने से सन्नद्ध हो जाती है जिसकी परिणिति कला ,साहित्य और संस्कृति ,के विकास में होती हैl”1

 नरेश महेता के  (संशय की रात) में राम का मिथक एक बार फिर नये विचारधारात्मक सन्दर्भ की अभिव्यक्ति करता है l नयी कविता के लघु मानव में अपने अस्तित्व को लेकर जो प्रश्नकुलता थी ,निरर्थकता और इतिहास से विछिन्न हो जाने का भाव था ;उसे नरेश महेता एक सामाजिक प्रदान करने का प्रयास करते है l व्यक्तिगत स्वाधीनता  और सामाजिक प्रतिबद्दता का द्वन्व्द यहाँ राम के चरित्र में दिखता है l इसी प्रकार की संशय ग्रस्तता अंधायुग में भी दिखाई देती है l जो युगीन निराशा की अभिव्यक्ति करता है l

                                   अंधायुग की मिथकीय संरचना में साठवे दशक के सामाजिक परिवेश को देखा  जा सकता है l पश्चिमी जगत में अणु –आयुधों की होड़ ,निराशा ,हिंसा और छल प्रपंच की जिस संस्कृति का विकास हो रहा थाl  आज़ादी के बाद भारत मे आजादी से  मोहभंग और नेतृत्व विहीनता भटकाव के वातावरण की अभिव्यक्ति महाभारत के मिथकीय चरित्रों के माध्यम से धर्मवीर भारती जी ने कहा है l आधुनिक कवियों में नागार्जुन ने एक बार फिर जातीय परंपरा से खुद को जोड़ा ,तथा विधापति और कालिदास जैसे कवियों से ख़ुद को जोड़ा l प्रकृति और कवि के अन्तर्सम्बन्ध को मानवीय संवेदना के धरातल पर उतार कर लिखा है –“ उन पुष्करावर्त मेंघो का

साथी बनकर उड़ने वाला

कालिदास ,सच –सच बतलाना

पर  पीड़ा से पुर –पुर हो

थक –थक कर और चूर –चूर हो

अमल धवल गिरि के शिखरों पर /प्रियवर ,तुम कब सोये थे ?

रोया यक्ष कि तुम रोये थेl ”2

                                   निराला के बाद नागार्जुन ने पूजीवाद के प्रति अपने आक्रोश को व्यंग्य की धार दीlअकाल और उसके बाद’कविता में चूल्हे का रोना,चक्की की उदासी,छिपकलियों की गश्त ,कोएं का पाखें खुजलाना,व्यथा का विनोद में बदलने की उनकी खास शैली का उदाहरण है l निरंतर अभावों के बीच भी जीवन की थोड़ी सी आशा वे खोज ही लेते है l कई बार देव मिथकों को रुढ़िवादी स्तर पर स्वीकार कर के रह जाते है l

 नदी में श्रद्धालुओं के दवारा जो पैसा फेका जाता है उसको मल्लाह के बच्चे चतुर्भुज नारायण की तरह खोजते है l काली माई कविता में काली को जनद्रोही क्रूर के रूप में देखते हैl वे मिथकों का आधुनिक चेतना के सन्दर्भ में प्रयोग नही कर पाते ,बल्कि उसको मजाक बना देते है l लेकिन ऐसा सदेव नही होता ,1960 में भारत माता पर कविता लिखते हुए वे भारत माता के पिचके गाल कटी जीभ से जब शोषण दमन के मिथकीय स्वरूप की और संकेत करते है तो श्रमिको खेतिहरों के जीवन के असंख्य दुःख अभिव्यक्त होने लगते है l

                           “ जीभ कटी है- भारत माता न मचा पाती शोर

                               देखो धंसी- धंसी ये आँखे पिचके –पिचके गाल

                               कौन कहेगा आज़ादी के बीते तेरह साल

                               लाख –लाख श्रमिकों की गर्दन कौन रहा है रेत

                                छिन चूका  है कौर करोड़ो खेतिहरों के खेत

                               किसके बल पर कूद रहे है सत्ताधारी प्रेत l 3  ”

ये सब प्रकृति ,नदी ,पहाड़ की मिथकीय कथा साधारण में कहते ,प्रकृति में हर चीज़ कैसे जीवन पाती है ,फिर नष्ट होती है और फिर –फिर जीवन पाती है वैसे ही जीवन का संचार मनुष्य में भी होता है l क्ठ्फुला बांस ‘में वे गाँव के पुराने मिथकीय विश्वासों पर अनुवाद पर चोट करते है l कृषक जीवन के विलगाव से जूझने  का प्रयास करते है l आज का कवि अपनी परम्परा की उस धारा से जुड़ता है जो जातीय मिथकों की विकासशील भूमिका के सौंदर्य और संघर्ष के बीच स्वीकार करती है l इसी प्रकार वीरेन डबराल के यहाँ भी वन्य,इंद्र ,पर्जन्य ,अदिती आदि पर वर्तमान की कविताएँ है l

संदर्भ सूची ;

1 .डॉ .शम्भुनाथ –मिथक और आधुनिक कविता –भूमिका से

2 नागार्जुन –कालिदास –रचनावली खंड 1 पृ 22

3 बीते 13 साल वही –पृ 337

डॉ .मोनिका देवी
हिंदी प्रवक्ता ,हिंदी महाविधालय हैदराबाद

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