साहित्य और समाज दोनों का गहरा संबंध है। ये दोनों एक-दूसरे के सहयोगी हैं ।एक के अभाव में दूसरा अधूरा है । साहित्य का केंद्र मानव होता है और मानव एक सामाजिक प्राणी है । साहित्यकार अपने साहित्य में मानव की भावनाओं,अनुभूतिओं एवं विचारों को लिपिबद्ध करता है । इसलिए यह स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि साहित्य या काव्य सामाजिक विषय हैं । इस कारण रचना में समाज के हर पहलू का चित्रण होता है । इसी कारण साहित्य को समाज का दर्पण भी कहा जाता है । लेकिन यह भी सच्चाई है कि रचनाकार अपनी रचना में वर्तमान परिदृश्य को शामिल कर उसे विभिन्न पात्रों के माध्यम से चित्रित करता है, साथ-साथ रचनाकार अपने विचारों के माध्यम से समाज में घटित होने वाली प्रत्येक घटना से जन-जन को परिचित भी कराता है ।

समाज के लक्षणों को  पहचानने की लय

 व्यक्ति भी हैअवमूल्यित नहीं

 पूरी तरह सम्मानित उसकी स्वयंता

   अपने मनुष्य होने के सौभाग्य को ।1”     

प्रत्येक कवि का अपना परिवेश होता है । वह वर्तमान,अतीत और भविष्य को अपने काव्य का माध्यम बनाता है । प्राय: रचनाकार अपने वर्तमान को अतीत रूपी आईने में देखने की कोशिश करता है । हिंदी में ऐसे कई कवि हुए हैं जिन्होंने अपने वर्तमान परिदृश्य को सामने रखकर अपनी रचना को पूर्ण किया है । इस दृष्टि से कुँवर नारायण का नाम हिंदी के उन विरले कवियों में शुमार है जो अपनी कविताओं में लगातार एक प्रश्न उठाते रहे हैं । उनकी चिंतनशीलता,कविता को बराबर गहराई देती रही है और उसे बहुआयामी बनाती रही है परन्तु आत्म-पक्ष के साथ बाह्य-पक्ष की साधना भी उनकी विशिष्टता रही है । पौराणिक आख्यान,इतिहास और देश-दुनिया की आज की तस्वीर उनकी कविता का फलक है ।

हिंदी साहित्य में कुँवर नारायण ऐसा नाम है जिनका समकालीन साहित्य में विशिष्ट स्थान है ।कुँवर नारायण ने अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिए वर्तमान को देखने की शुरुआत की है । नई कविता आन्दोलन के सशक्त हस्ताक्षर कुँवर नारायण अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तीसरे सप्तक’ (1956 ई.) के प्रमुख कवियों में रहें हैं । कुँवर नारायण का रचना संसार इतना व्यापक है कि उसको कोई नाम देना संभव नहीं,यद्यपि कुँवर नारायण की मूल विधा कविता रही है पर इसके अलावा उन्होंने कहानी,लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा,रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी से अपनी लेखनी चलाई है । इसके कारण उनके लेखन में सहज सम्प्रेषणीयता आई और वह प्रयोगधर्मी कहलाए ।कविवर  कुँवर नारायण का जन्म 19 सितम्बर 1927 ई.को हुआ था । उन्होंने इन्टर तक की पढ़ाई विज्ञान विषय से की लेकिन आगे चल कर वे साहित्य के सेवक के रूप में सामने आये । वर्ष 1956 ई.में 29 वर्ष की आयु में उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘चक्रव्यूह’ प्रकाशित हुआ । अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तीसरे सप्तक से कुँवर नारायण को हिंदी कविता में प्रसिद्धि मिली ।

कुँवर नारायण की कविताओं में सामाजिक चेतना के प्रत्येक पक्ष का बड़ा सुंदर चित्रांकन मिलता है ।कुँवर नारायण  के काव्य में जहाँ समाज के शोषण तथा अन्याय के प्रति आक्रोश व्यक्त हुआ है,वही मानव के प्रति आस्थावाद भी है ।इसी प्रकार कवि के काव्य में सामाजिक सरोकारों का चित्रण भी बड़े ही यथार्थ रूप में हमारे सामने आता है ।कवि व्यक्ति के हित में कविता करते नज़र आते है ।मनुष्य की सर्वोच्चता के कारण ही मनुष्यता जीवित रह सकती है ।इसके अतिरिक्त समाज में व्याप्त हर परिस्तिथि का भी चित्रण किया है ।उन्होंने अपनी कविता के जरिये न केवल अपने समय का सीधा,तीक्ष्ण और अंदर तक तिलमिला देने वाला भयावह साक्षात्कार किया,बल्कि हर आमानवीयता के विरुद्ध एक निर्मम और नंगी भिडंत की है:

 “अबकी अगर लौटा तो,

मनुष्यतर लौटूंगा

घर से निकलने सड़कों पर चलते

 बसों पर चढ़ते ट्रेने पकड़ते|’’2

कुँवर नारायण का काव्य सम्पूर्ण मानव जाति को एक रूप में देखने का अभिलाषी है । इसलिए कवि की कविताओं में मानवीय बोध का स्पर्श बहुत व्यापक है । कवि की कविताओं में एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि उनमें निहित पात्र या भाव किसी सम्प्रदाय या वर्ग विशेष के नहीं हैं –

आम तौर पर

आम आदमी

ग़ैर होता है

इसलिए हमारे लिए जो

ग़ैर नहीं

वह हमारे लिए

मामूली भी नहीं होता|’3

इसके साथ-साथ कवि दलित एवं स्त्री अस्मिता का प्रश्न भी मानवीयता के व्यापक परिदृश्य में उठाते हैं । साथ-साथ कवि जन-जीवन की दशा का मार्मिक चित्रण भी करते हैं। कुँवर नारायण एक सशक्त मानवतावादी साहित्यकार हैं जो चिराग की तरह दुनिया को रोशन करने की कोशिश करते हैं ।

अगर बात राजनीतिक सरोकारों की कि जाए तो कुँवर नारायण ने राजनीति के विविध रूपों का बहुत ही यथार्थ ढंग से चित्रण किया है । आज के शासक और शासित के संबंध कैसे हैं ? आज की राजनीति का वास्तविक रूप क्या है ? संविधान के अधिकारों का आज किस प्रकार क्षय हो रहा है ? शासक और जनता के बीच समरूपताओं को लेकर किस प्रकार हड़ताल,तोड़-फोड़ आदि हो रही है ? हमारी राजनीति किस दिशा में जा रही है ? इन सभी का विवेचन कवि के काव्य में मिलता है ।

                                  “ रात भर नारे लगते रहे कि आज़ादी मिले,

                                   रात भर मशालें जलती रहीं कि भेडिये भागे

                                   रात भर इश्तहार बांटते रहे कि सुबह करीब है

                                    रात भर जुलूस निकलते रहे कि लोग जागे4

कुँवर नारायण की कविता केवल नारेबाजी नहीं करती है, बल्कि अत्यंत तीखेपन से सामाजिक व्यवस्था के यथार्थ को आरेखित करती है । कवि की अधिकांश कविताएँ बर्बर ,दमनकारी वयवस्था के विरुद्ध खड़ी दिखाई देती है । यह भी ध्यान देने की बात है कि कवि की कविताओं में आमजन की पीड़ाओं को व्यक्त करने के लिए हत्या,मृत्यु,भय आशंका गोली आदि पीड़ित शब्दों का प्रयोग किया गया है । ये शब्द ही कवि की केन्द्रीय चिंता को व्यक्त करने में अत्यंत सक्षम दिखाई देते हैं ।कवि ने ऐसे शब्दों द्वारा व्यवस्था के दमन का भी चित्रण किया है । सत्ता के भय और क्रूरता को कवि ने बार-बार अपने काव्य के माध्यम से उभारा है ।

स्वतंत्रता के पश्चात भारत की जैसी स्थिति रही है,उससे कवि विद्रोही दिखाई देता है । कवि की आशाएं तत्कालीन परिवेश को देखकर नष्ट हो गई है । इसी कारण से कुँवर नारायण के काव्य में शोषण,पराजय,उत्पीडन और व्यवस्था की विसंगतियों की निर्भीक अभिव्यक्ति हुई है । उनकी आस्था का केंद्र ईश्वर नहीं,मनुष्य है । जबकि हमारे देश में इतना सब कुछ होते हुए भी भ्रष्टाचार की तरफ लोग मुख मोड़कर खड़े हैं और शासक वर्ग अपनी सुविधाओं के नाम पर आम जन के साथ खिलवाड़ कर रहा है । आज पहले से ज्यादा संख्या में लोग सड़क पर आ गए हैं –

हर दस कदम पर सामना है

  किसी न किसी ऐसी परिस्तिथि से

  जो सिर्फ अपनी ही बोली बोलती है|”5

कुँवर नारायण ने अपने काव्य के द्वारा युद्ध को किसी भी रूप में नैतिक नहीं बताया है । कवि ने हिंसा के परिणामों को समझा,उसने स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश में चन्द लोगों के शासन और विदेश नीति के प्रभाव को निर्भीकता से बयान किया है । कवि शासक- शासित संबंध एवं जन-अधिकार एवं क्रांति की भावना,असुरक्षा और युद्ध आदि को बड़े सुंदर ढ़ंग से निरुपित कर अपनी चेतना को स्पष्ट किया है ।

कुँवर नारायण ने अपने काव्य में नीति के विविध-रूपों का भी व्यापक विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत किया है । समाज के अनेक नैतिक दायित्वों का उल्लेख भी कवि ने अपने काव्य के माध्यम से किया है । अहिंसा,परोपकार,सत्य,दान,दया,उदारता,प्रेम,मनुष्यता और विवेक आदि नीति के आधार तत्वों को कवि ने अपनी कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की है । कवि ने नीति पर व्यापक विचार-विमर्श करते हुए व्यक्ति,परिवार समाज और राष्ट्र से जुडे अनेक नैतिक दायित्वों का उल्लेख किया है । कवि अहिंसा को अनैतिक मानते हुए  नचिकेता के माध्यम से कहते हैं-

तुम्हारे इच्छा करते ही हत्या होती है

तुम समृद्ध होंगे

लेकिन उससे पहले

समझाओ मुझे अपने कल्याण का आधार6

कवि ने अपनी कविताओं में प्रकृति,प्रेम और सौन्दर्य से जुडे अपने भावों को व्यक्त करने में अपार सफलता पाई है । कवि का काव्य-संसार प्रकृति प्रेम और सौन्दर्य से परिपूर्ण है । सौन्दर्य प्राकृतिक भी होता है और कृत्रिम भी । प्राकृतिक सौन्दर्य प्रकृति प्रदत्त होता है और कृत्रिम सौन्दर्य मनुष्य जनित । कवि ने अपनी कविताओं के माध्यम से रूप,भाव एवं कर्म सौन्दर्य के विभिन्न रूपों का बड़ा ही सुंदर एवं सहज चित्रण किया है । कुँवर नारायण ने अपनी कविताओं में जीवन के सुंदर और असुंदर दोनों रूपों का चित्रण किया है । लेकिन उनका आकर्षण जीवन की सुरूपता की ओर है । उन्होंने जीवन के संघर्षों के बीच कर्म के सौन्दर्य को जानने का प्रयत्न करते हैं । इसके साथ-साथ कवि ने प्रकृति की विभिन्न मनोभूमियों का चित्रण भी अपनी कविताओं में किया है । कवि का प्रकृति के साथ गहरा नाता रहा है । कवि ने प्रकृति के पुराने और अनेक नवीन उपमानों को इतनी कुशलता से प्रयोग किया है कि उसमें एक ओर नवीन चेतना की झलक मिलती है तो दूसरी ओर काव्य-सौन्दर्य की अभिवृद्धि होती है । कवि की दृष्टि प्रकृति प्रेमी है –

                                 “नदी की गोद में नादान शिशु-सा

                                  अर्द्ध सोया द्वीप-

                                  झिलमिल चांदनी में नाचती परियां,

                                  लहर पर लहर लहराती

                                  बजाकर तालियाँ गाती

                                  सुनाती लोरियां7

कुँवर नारायण ने समाजसापेक्षता के अनुरूप ही अभिव्यक्ति पक्ष को अपनाया है । कवि ने अपनी सामाजिकता को अलग काव्य भाषा के अनुरूप भाषा का सृजन किया । उन्होंने अपनी काव्य-भाषा की खोज में विद्रोही और आक्रामक सपाट बयान की भाषा को अपनाया । इसलिए उनकी भाषा में व्यंग्य, नाटकीयता और चमत्कारिक उक्तियोँ का समावेश देखा जा सकता है । इसी के साथ यह भी उल्लेख करना जरुरी प्रतीत होता है कि कवि की कविताओं में बिंब,प्रतीकों और मिथकों का बहुतायत रूप में प्रयोग हुआ है ।कवि ने बिम्बों,प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से समय,समाज और सत्ता के साथ परिवेशगत परिस्तिथियों को नई भंगिमाओं के साथ व्यंजित किया है ।

उपर्युक्त कथनों के आधार पर निष्कर्षतःकहा जा सकता है कि कुँवर नारायण बहुमुखी प्रतिभा के रचनाकार है, लेकिन उनकी सर्जना का केन्द्रीय रूप कविता ही है । उनकी कविता में आज का परिवेश,उस परिवेश की भयावहता-आतंक-अन्याय,शोषण,उदासी तथा समकालीन राजनीति अपने यथार्थ रूप में विद्यमान है । वास्तव में, कवि ने अपने काव्य में एक बड़ी सड़ी हुई व्यवस्था पर सिर्फ प्रहार ही नहीं किया बल्कि उसके साथ-साथ एक संघर्षरत मनुष्य को नए रूप में तलाशने की कोशिश की है ।

सन्दर्भ:-

  1. कुँवर नारायण – कोई दूसरा नहीं –राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,तीसरी आवृति- 2007 ई. पृ-48
  2. वही, पृ- 9
  3. वही, पृ- 25
  4. वही, पृ- 67
  5. वही, पृ- 68
  6. कुँवर नारायण – आत्मजयी – भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन,दिल्ली प्रथम संस्करण -1965 ई, पृ- 21
  7. कुँवर नारायण – परिवेश : हम-तुम – वाणी प्रकाशन,दिल्ली, द्वितीय संस्करण-1987 ई. पृ- 75                  

संदर्भ ग्रंथ

  1. अनिल मेहरोत्रा – कुँवर नारायण और उनका साहित्य – ज्ञान भारती प्रकाशन,दिल्ली, प्रथम संस्करण-1984 ई.
  2. विजय शर्मा – आत्मजयी चेतना और शिल्प – द मैकमिलन कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1979 ई.

 

नौशाद अली,
शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली

 

 

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