गुरुदेव’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर सम्पूर्ण विश्व के सर्वश्रेष्ठ मूर्धन्य विद्वानों, साहित्यकारों- दार्शनिकों, संगीतकारों एवं कलाकारों में हैं। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी। सारे संसार में उनका सम्मान है। ‘भारतवर्ष जिन दिनों राजनीतिक पराधीनता का शिकार था, उन दिनों रवीन्द्रनाथ की रचनाओं ने संसार के मूर्धन्य विचारकों को इतना अधिक प्रभावित किया था कि उसके शक्तिशाली शासकों का यह प्रचार अपने आप खण्डित हो गया कि भारतीय जनता पिछड़ी हुई असभ्य अवस्था में है, इसलिए उसे किसी सभ्य जाति के सहारे की अत्यन्त आवश्यकता है। रवीन्द्रनाथ के सम्मान ने देशवासियों में नवीन अपराजेय आत्मबल का संचार किया था। महात्मा गाँधी के सिवाय और कोई दूसरा नेता नहीं है जिसने देश में ऐसी आत्म गरिमा का संचार किया है, परन्तु रवीन्द्रनाथ की साहित्यिक कृतियाँ तो महत्त्वपूर्ण थी ही, उनका व्यक्तिगत जीवन भी उसी प्रकार महान और प्रेरक था।’
कविवर रवीन्द्र की प्रतिभा के प्रभाव से सारी दुनिया के साहित्यकार प्रभावित हुए हैं। मसलन उन्होंने ‘काव्य की उपेक्षिताएँ’ नामक अपने निबंध में ‘उर्मिला’ को काव्य की उपेक्षिताओं में गिनाया था। जिससे प्रभावित होकर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ नामक निबंध लिखा और इसी निबंध के प्रभाव ने हिन्दी को ‘साकेत’ (मैथिलीशरण गुप्त) जैसा महान ग्रन्थ दिया।
हिन्दी में रवीन्द्रनाथ के उपन्यासों, नाटकों, कविताओं और कहानियों आदि के अनुवाद काफी मात्रा में हुए हैं। जिन दिनों रवीन्द्रनाथ का साहित्य हिन्दी जगत में आया, उन दिनों हिन्दी का साहित्यकार काफी समर्थ हो चुका था। इसके पूर्व जिस प्रकार बँगला के उपन्यासों का अनुकरण चल रहा था वैसा इस समय नहीं हो रहा था- प्रेमचंद इसके प्रमाण हैं।
हमारा साहित्यकार अपनी बात अपने ढंग से कहने लगा था। इस समय हिन्दी साहित्य के विविध क्षेत्रों- में समर्थ और प्राणवान साहित्यकार उत्पन्न हो गये थे। उन्होंने रवीन्द्रनाथ का अन्धानुकरण नहीं किया, परन्तु रवीन्द्रनाथ के साहित्य से मिलने वाली प्रेरणा को वे स्वस्थ भाव से ग्रहण कर सके।
रवीन्द्रनाथ का हिन्दी साहित्य को सबसे बड़ा दान यही है कि उन्होंने इसकी ;हिन्दी स्वकीयता को उकसाया और बल दिया। उन्होंने हिन्दी के साहित्यकारों को दृष्टि दी है। उन्होंने लोभ और मोह से अभिभूत आधुनिक सभ्यता की कमजोरियों का ठीक-ठीक स्वरूप समझा है। प्रभावशाली लेखक दूसरों के व्यक्तित्व को अभिभूत कर देते हैं। वह प्रभाव स्वस्थ नहीं कहा जा सकता। स्वस्थ प्रभाव वही है जहाँ स्वकीयता की गति रूद्ध न हो, व्यक्तित्व का विकास अपने ढंग से हो, ग्रहण करने वाले में अपने-आपके प्रति अनास्था न उत्पन्न हो जाए। रवीन्द्रनाथ ने अपने साहित्य के द्वारा हिन्दी साहित्य के प्राणों को स्पन्दित किया है।
‘गुरुदेव’ रवीन्द्रनाथ की यह विशेषता रही है कि उन्होंने बाहरी प्रभाव को पचाकर ‘अपना’ बना लिया। इस प्रकार उनके माध्यम से आयी हुई भावधरा नवीन रूप में नयी प्राणशक्ति के साथ आयी है। उसमें उन्होंने भारतीय परम्परा से उपलब्ध जीवन-दर्शन का रस भरा है। उनका आविर्भाव न हुआ होता, तो कदाचित पश्चिम का प्रभाव हमें अन्ध-अनुकर्त्ता बना देता। उन्होंने वर्तमान सभ्यता की चकाचौंध को हटाकर, सात्विक जीवन और आन्तरिक शक्ति पर जोर दिया, इससे हमारे साहित्यकार मूलतः प्रभावित हुए। उन्हें स्वस्थ दृष्टि मिली।
रवीन्द्रनाथ युग द्रष्टा ही नहीं, युग-मार्ग-दर्शक भी सिद्ध हुए हैं। उन्होंने हमारे साहित्यकारों की दातृत्व शक्ति की उद्बत किया है। उन्होंने कहा है, ‘क्यों तू हाथ फैलाये खड़ा है? हमें दान की नहीं, दाता की जरूरत है।’
इस शोध-आलेख से यह प्रमाणित किया जा सकेगा कि रवीन्द्रनाथ के ‘विश्व मानवतावाद’ का प्रभाव हजारीप्रसाद द्विवेदी के सम्पूर्ण साहित्य पर रवीन्द्रनाथ के विचारों एवं दर्शन का गहरा प्रभाव है। वहीं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में जिस मानव धर्म की वकालत की गई है वह भी रवीन्द्रनाथ के मानवतावादी विचारों की ही देन है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का ‘विश्व-मानवतावाद’
रवीन्द्रनाथ टैगोर मानवतावादी थे। उन्होंने व्यक्ति के हितों को महत्त्व दिया। वह राष्ट्र एवं समाज से सर्वोपरि मानव को मानते थे। किसी भी राष्ट्र का कोई इतिहास नहीं सिर्फ मानव का इतिहास है। गरीब लोगों के प्रति उन्हें विशेष सहानुभूति थी।
‘आकाश कहाँ से आये हुए क्रन्दन से ध्वनित हो रहा है?
किस अंधकार पूर्ण कारागृह के भीतर
बंध से जर्जर अनाथिनी
× × × ×
इन सब मलिन, मूढ़, मूक मुखों को भाषा देनी होगी।
इन सभी श्रान्त, शुष्क, भग्न हृदयों में
आशा की ध्वनि उभारनी होगी।
पुकारकर कहना होगा,
‘एक क्षण के लिए सब-के -सब एकत्र हो’
मस्तक ऊंचा करके खड़े हो जाओ तो देखें,
जिसके भय से तुम डरे हुए हो,
वह अन्यायी तुमसे भी अधिक भीरु है।
जिस समय तुम जग पड़ोगे,
उस समय वह भाग खड़ा होगा।’
नारी जाति को उन्होंने उच्च स्थान देकर गौरव प्रदान किया। फ्देश का अर्थ है लक्ष्मी ;स्त्राद्ध, समस्त भारत के मर्म स्थान में प्राण के निकेतन में शतदल पथ के ऊपर ये बैठी है, हम ही इनके सेवक हैं। देश की दुर्गति से इन्हीं की अवमानना हुई है, उस अवमानना के प्रति हम उदासीन है, इसलिए हमारा पौरुष इतना लज्जित है। केवल पुरुष की दृष्टि से भारतवर्ष को संपूर्ण रूप से प्रकट नहीं किया जा सकता है। हमारी स्त्रियों के सामने जिस दिन वह आविर्भूत होगा उसी दिन उसका प्रकट होना पूर्ण होगा।
टैगोर जी अपने मानवतावाद को एक व्यापक रूप देकर, अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप में व्यक्ति की एकरूपता की अवधरणा को मूर्त रूप देने हेतु पूर्व और पश्चिमी सभ्यता का मिलन कराया।
विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना करते समय उन्होंने कहा कि ‘इसका उद्देश्य पूर्व और पश्चिम के संयुक्त समागम का अध्ययन करना और दो गोलार्धों मध्य विचारों के स्वतन्त्र आदान-प्रदान के द्वारा विश्व शान्ति की मूल अवधरणाओं को सशक्त करना है।
उनका मत था कि जब कभी भी किसी रचना का सृजन किया जाता है, तो वह रचना अथवा कृति किसी समाज या व्यक्ति अथवा वर्ग विशेष के लिए न होकर, संसार के समस्त लोगों के लिए होती है और सभी का उस पर समान अधिकार होता है और यही कारण है कि आज तक विश्व के महान साहित्य, कला एवं महापुरुषों कई विचार सम्पूर्ण मानव जाति की धरोहर स्वरूप है। रवीन्द्रनाथ का मानना था कि हमें पश्चिम से वैज्ञानिक दृष्टिकोण अवश्य ग्रहण करना चाहिए।
टैगोर जी का दृष्टिकोण इतना राष्ट्रवादी नहीं था जितना कि मानवतावादी। इसी कारण उनकी मूल भावना ‘वैश्विक मानवतावादी’ थी, जिसे आध्यात्मिक मानवतावाद भी कहा जाता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर प्रत्येक व्यक्ति को विश्व-नागरिक मानते थे।
रवीन्द्रनाथ के मतानुसार मनुष्य का होना ही मनुष्य की आवश्यकता है, इसीलिए कठिनाई के समय मनुष्य ही मनुष्य के काम आता है। यही कारण था कि उनके कवि हृदय ने किसी प्रकार की संकीर्णताओं को प्रश्रय नहीं दिया। सभी मनुष्यों की एक जैसी भावनाएँ होती है, इसलिए हमें यही नहीं मानना चाहिए कि हम इस देश के नागरिक तथा दूसरे उस देश के नागरिक। सभी की संवेदनाएँ एक ही प्रकार की होती हैं। इसी कारण ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का सिद्धांत उन्हें सर्वप्रिय था। वह देश अथवा प्रत्येक व्यक्ति की उसकी समग्रता में देखते थे। टैगोर जी ने हमेशा वैश्वीकरण की बात अपनी आध्यात्मिक आस्था के संदर्भ में की है। वे विश्व को महामानव समुद्र मानते थे।
हे आर्य, हे अनार्य आओ, आओ हिंदू-मुसलमान
आज आओ तुम अंग्रेज खीष्टान आओ
मन को पवित्र कर आओ ब्राह्मण, सबके हाथ पकड़ो
हे पतित आओ, अपमान का सब भार उतार दो।
माँ के अभिषेक के लिए शीघ्र आओ
सबके स्पर्श से पवित्र हुए तीर्थ-जल से
मंगल-घट तो अभी भरा ही नहीं गया है-
इस भारत के महामानव के सागर-तट पर।
‘आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के विश्व-मानवता का प्रभाव’
हिन्दी साहित्य में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का योगदान अन्यतम है। उनके सम्पूर्ण साहित्य को ‘दूसरी परम्परा की खोज’ ;आचार्य शुक्ल वाली साहित्यक पम्परा से भिन्नद्ध के समान समझा और देखा गया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का सारा साहित्य ‘मानवता की जय यात्रा’ के उद्घोघ का साहित्य है। मनुष्यता को केन्द्र में रखकर ही उनके सारे साहित्य का निर्माण हुआ है। उनके साहित्य में एक अखिल भारतीय व्यापक दृष्टि है जो विश्वव्यापक रूप धारण किए हुए हैं। उन्होंने मनुष्य को ही साहित्य का लक्ष्य माना। उनके अनुसार ‘सारे मानव-समाज को सुन्दर बनाने की साधना का ही नाम साहित्य है।’
आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों में कोरी बौद्धिक अवधरणा नहीं है बल्कि उसके पीछे समकालीन रचनाशीलता का प्रभाव और जीवन-संघर्षों से प्राप्त वह अविचल जीवन दृष्टि है जिसका आधर मानवतावादी चिन्तन और उसमें लेखक का अटूट विश्वास है। यहाँ उनके साहित्य से कुछ उदाहरण देना आवश्यक है-
‘यह क्या सत्य नहीं कि यवन-कन्या भी मनुष्य है और ब्राह्मण युवा भी मनुष्य है। महामाया जिन्हें म्लेच्छ कह रही हैं वे भी मनुष्य हैं। भेद इतना ही है कि उनमें सामाजिक ऊंच- नीच का ऐसा भेद नहीं है।’
‘जिस प्रकार हवा बांधने से नहीं रूकती, उसी प्रकार मनुष्य की प्रकृति भी बंधन से नहीं बंधती । एक तरफ बांधने से वह दूसरी ओर निकल पड़ती है- भयानक वेग से।’
‘सिद्धियां मनुष्य को कुछ विशेष बल नहीं देती। एक साधरण किसान, जिसमें दया-माया है सच-झूठ का विवेक है और बाहर-भीतर एक आकार है, वह भी बड़े-से-बड़े सिद्ध से ऊंचा है।’
‘धरती पर विश्वास करो। आकाश के ग्रह धरती के गुलाम है।’
‘जिसे आज अधर्म समझा जा रहा है वह किसी दिन लोक मानस की कल्पना से उठकर व्यवहार की दुनिया में आ जाएगा अगर निरन्तर अवस्थाओं का संस्कार और परिमार्जन नहीं होता रहेगा, तो एक दिन व्यवस्थाएँ तो टूटेगी ही, अपने साथ धर्म को भी तोड़ देगी।’
‘अपने में कुछ बटोरना नहीं, सब कुछ निःशेष भाव से निचोड़कर देती रहना।’
‘आज मैंने देखा है कि सेवा में अपने आप को खपा देने में क्या आनन्द मिलता है। और भी सिखाओ आर्य, और भी सिखाओं कि कैसे अपने आप को उलीच कर निःशेष भाव से दिया जा सकता है।’
‘मेरा विवाह मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह पिता ने एक ऐसे मनुष्य रूपधारी पशु से करा दिया जो पुरुष है ही नहीं। मैं उसे पति नहीं मान सकती। हलद्वीप के मुँह में कालिख लगती है तो सौ बार लगा करे। जो समाज इस प्रकार के विवाह की स्वीकृति देता है वह अपने मुँह में कालिख पहले ही पोत लेता है। मैंने आर्य को ही अपना पति माना था। वह मेरा था, और रहेगा।’
‘जिस कार्य से किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट होता है वह पाप कार्य है। पर जिससे किसी का दुःख दूर हो, उसका इहलोक और परलोक सुधर जाये, रोगी निरोग हो जाये, दुखिया सुखी हो जाये, भूखा अन्न पाये, प्यासा जल पाये, कमजोर लोग आश्वासन पायें वे सब पुण्य हैं।’
‘मुझे लगता है बेटा जिसे लोग आत्मा कहते हैं वह इसी जिजीविषा के भीतर कुछ होना चाहिए। वे जो बच्चे हैं किसी की टांग सूख गयी है, किसी का पेट फूल गया है, किसी की आँख सूज गयी है- ये जी जायें तो इनमें बड़े-बड़े ज्ञानी और उद्यमी बनने की सम्भावना है। सम्भावना की बात कर रही हूँ। अगर यह सम्भावना नहीं होती तो शायद जिजीविषा भी नहीं होती। आत्मा उन्हीं अज्ञात-अपरिचित-अनुध्यात सम्भावनाओं का द्वार है।’…. ‘मनुष्य सुसंस्कृत हो, इसके लिए आवश्यक नहीं कि सुशिक्षित भी हो। सुशिक्षित होना अच्छी बात है, पर वास्तविक रूप तो सुसंस्कृत होना है।’
आचार्य द्विवेदी के चिन्तन का मुख्य आयाम समाजवादी मानवतावाद है। उनके अनुसार मानवतावाद के दो प्रमुख लक्षण हैं-
मनुष्य की महिमा और मानवीय मूल्यों में विश्वास तथा मनुष्य के मर्त्यजीवन की किसी प्रकार के पाप-फल भोगने का परिणाम न समझकर उसे इसी दुनिया में दुःख शोक से बचाना और दुनिया में सुख – समृद्धि से युक्त करना।
उनकी दृष्टि में वही जगत महान है जो समाज पर अच्छा प्रभाव डाले- ‘समूची मनुष्यता जिससे लाभान्वित हो, एक जाति दूसरी जाति में घृणा न करके प्रेम करे, एक समूह दूसरे समूह को दूर रखने की इच्छा न करके पास लाने का प्रयत्न करे, कोई किसी का आश्रित न हो, कोई किसी से वंचित न हो, बस महान उद्देश्य से ही हमारा साहित्य प्राणोदित होना चाहिए।’
प्रश्न यह है कि द्विवेदी जी पर जिस मानवतावादी चिंतन का प्रभाव है उसका स्रोत कहाँ से निकला है? वह कौन सी व्यापक दृष्टि थी जिसने द्विवेदी जी को इतना प्रभावित किया है? हम सभी जानते हैं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का काफी लम्बा सानिध्य आचार्य द्विवेदी को प्राप्त हुआ था। ‘गुरुदेव’ की छत्राछाया में द्विवेदी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व में काफी निखार आया। डॉ. नामवर सिंह ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है- ‘द्विवेदी जी ने कम-से-कम हिन्दी को रवीन्द्रनाथ की प्रेरणा से वह दिया जो उनसे पहले किसी ने न दिया था।’
इस कारण आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के साहित्य में खासकर उनके उपन्यासों में रवीन्द्रनाथ के विश्व बन्धुत्व वाली मानवतावादी विचारों का गहरा प्रभाव दिखाई देता है।

आधार ग्रन्थ –
1. हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
2. रवीन्द्रनाथ टैगोर रचनावली ;व्याख्यान माला सीरीज ;हिन्दी अनुवाद – संपा.इन्द्रनाथ चौधुरी, सस्ता साहित्य मंडल।
3. जीम त्मसपहपवद वि डंदए रवीन्द्रनाथ टैगोर रचनावली ; हिन्दी अनुवाद – संपा.इन्द्रनाथ चौधुरी, सस्ता साहित्य मंडल।
4. राष्ट्रवाद – रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवाद- सौमित्र मोहन, एन.बी.टी
5. एवार पिफराओ मोरे, अनुवाद- रामधरी सिंह दिनकर
6. गोरा ;उपन्यासद्ध – रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवाद- अज्ञेय, साहित्य अकादमी
7. गीतांजलि, कविता संख्या-106 ;अनुवादक- प्रयाग शुक्ल
8. बाणभट्टठ्ठ की आत्मकथा – हजारीप्रसाद द्विवेदी
9. सूर-साहित्य – हजारीप्रसाद द्विवेदी
10. चारुचन्द्रलेख – हजारीप्रसाद द्विवेदी
11. पुनर्नवा – हजारीप्रसाद द्विवेदी
12. अनामदास का पोथा – हजारीप्रसाद द्विवेदी
13. दूसरी परम्परा की खोज – डॉ. नामवर सिंह
सहायक ग्रंथ
1. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी रचनावली ;11 खंड – मुकुन्द द्विवेदी एवं जगदीश नारायण द्विवेदी ;राजकमल प्रकाशन।
2. दूसरी परम्परा की खोज – डॉ. नामवर सिंह ;राजकमल प्रकाशन
3. व्योमकेश दरवेश – डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ;राजकमल प्रकाशन
4. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का साहित्य – डॉ. चौथी राम यादव ;हरियाणा साहित्य अकादमी, चण्डीगढ़, 2016
5. हिन्द आलोचना – विश्वनाथ त्रिपाठी ;राजकमल प्रकाशन
6. शांति निकेतन से शिवालिक – ;संपा. शिवप्रसाद सिंह ;एन.पी.एच.
7. हजारीप्रसाद द्विवेदी चिंतन और व्यक्तित्व – ;संपा. कृपाशंकर चौबे ;स्मारक समिति, प्रथम संस्करण, 1994
8. मानववाद और साहित्य – नवल किशोर ;राधकृष्ण प्रकाशन, 1972
9. पाश्चात्य दर्शन वेफ सम्प्रदाय – डॉ. शोभा निगम ;मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन
10. सामाजिक एवं मानववादी विचारक – डी.आर. जाटव ;एन.पी.एच., 1997
11. स्मृतिलेखा – ‘अज्ञेय’ ;भारतीय ज्ञानपीठ

 

अमन कुमार
हिन्दी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

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