मैं बोलती हूँ ज़माने से
उनके आगे हो जाती हूँ चुप
ज़माना सोचता है इसे मेरी शर्म
वो सोचते हैं इसे मेरी रुसवाईयाँ
सिर्फ़ मैं जानती हूँ
इसके पीछे के कारण
क्या बोलूँ क्यों बोलूँ
जब सुना नहीं जाता
सोचती हूँ अक़्सर
मैंने ख़ुद से जुड़ी बहुत-सी बातों पर
सुनने का हक़
किसी और को
दिया ही क्यों
मैं जननी थी
सुनने वालों की भी
देर से ही सही
इस बात को स्वीकारा है
आज अपने अधिकारों को पहचाना है
अब बोलूँगी नहीं
न ही किसी को सुनाऊँगी
बस करती जाऊँगी
अपना कर्म स्वयं की सोच से
स्त्री की सोच
पुरुष की सोच से कम नहीं होती
इसे प्रमाणित नहीं करूँगी
बात-बात पर प्रमाण देने से
सीता की तरह
अपने अस्तित्व को
मिटा देना मैं
उचित नहीं समझती
अब न मुझे ज़माने की शर्म की परवाह है
और न सुनने वालों के प्रति रुसवाईयों की
चिंता है तो अपने मानवीय अस्तित्व की
जो पुरुषों का ही नहीं
स्त्री का भी होता है
आख़िर स्त्री भी तो मानव होती है…