‘आँसू’ छायावादी काव्य का ऐसा कीर्तिमय स्तम्भ है जिसमें प्रसाद जी ने अपने विरही मन की वेदना को विराट रूप में प्रकट किया है। यह ’प्रसाद के संसारी प्रेम व्यापार का वियोगात्मक आख्यान है जिसे कवि ने कला के आवरण में बड़ी कुशलता से सजाकर रख दिया है। इसका मुख्य भाव विप्रलम्भ शृंगार है जो करुणा से परिपूर्ण हो निखर गया है तथा लोक कल्याण की सुखद कल्पना से सिक्त हो उठा है। आँसू में कवि हृदय की वेदना एक लहर की भांति व्याप्त है। अतः स्वाभाविक ही उसमें वियोग शृंगार का प्राधान्य है। वैसे तो वेदना, दुःख तथा आह छायावादी काव्य की मूल प्रवृत्ति है किन्तु प्रसाद के काव्य की यह अमूल्य निधि है। इसका कारण स्पष्ट करते हुए डॉ. इन्द्रनाथ मदान कहते हैं कि ‘‘प्रसाद का जीवन किशोरावस्था के बाद से ही संघर्षों और दुःखों में बीता। प्रेम के क्षेत्र में भी उनका अनुभव कटु ही रहा। उन्होंने उसे नाहर कहा है। यही कारण है कि आरम्भ से ही वेदना के स्वर को उनके काव्य में विषाद या अन्य कविताओं के रूप में अभिव्यक्ति मिलती रही। यहाँ आकर कवि ने अपनी वेदना को विराट रूप में सामने रखा। आँसू का मेरुदण्ड कवि की वेदना ही है। … आँसू पढ़ने पर स्पष्ट लगता है। कि आरम्भ में एक वियोगी सिसक रहा है, पर अन्त में एक दार्शनिक सान्त्वना दे रहा है। निराशा-भरे करुण क्रन्दन के कर्दम से आशा, विश्वास और मंगल का कमल निकला है … यदि आँसू केवल रोना होता तो सत्य होता, सुन्दर भी होता पर शिव न होता।’’

            वस्तुतः प्रेम विरह की कसौटी है। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें प्रेम तपकर स्वर्ण के समान उज्ज्वल हो जाता है। विरह का आवेग जितना तीव्र होता है, उतना ही प्रेम प्रबल हो जाता है। विरह जनित परिस्थितियों में मानव मन अतीत के सुखद क्षणों को याद करता हुआ पीड़ामय हो उठता है। आँसू की पृष्ठभूमि भी कुछ इसी प्रकार की है। कवि अपने जीवन की युवावस्था के मादक क्षणों में अपने प्रिय से मिला, उसके अलौकिक रूप सौन्दर्य के प्रति वह आसक्त हुआ किन्तु उसका निष्ठुर प्रिय आलिंगन में आते-आते मुस्कराकर भाग गया। अतः चांदनी में खिल-खिलाकर हँसने वाली उस नायिका की स्मृति कवि के हृदय में एक टीस उत्पन्न कर देती है, जो आँसू में आकर साकार रूप धारण कर लेती है। प्रस्तुत रचना में कवि ने कहीं भी संयोगावस्था का वर्णन नहीं किया है, एक-दो चित्र जो अपवाद रूप में हमें मिलते हैं उन्हें विरह वर्णन की स्मृति दशा में स्थान मिला है। जिसे देखकर कुछ विद्वानों ने यह धारणा बना ली है कि ’आँसू’ एक स्मृति काव्य है। पर इसमें भी कोई संशय नहीं है कि ‘‘आँसू में कवि निःसंकोच भाव से विलास जीवन का वैभव दिखाता, फिर उसके अभाव में आंसू बहाता और अन्त में जीवन से समझौता करता है।’’ इसी सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि अभिव्यंजना की प्रगल्भता और विचित्रता के भीतर प्रेम वेदना की दिव्य विभूति का विश्व के मंगलमय प्रभाव का, सुख और दुःख दोनों को अपनाने की उसकी अपार शक्ति का और उसकी छाया में सौन्दर्य और मंगल के संगम का भी आभास पाया जाता है। कवि ने स्वयं कहा है-

            ‘‘आंसू वर्षा से सिचकर

            दोनों ही कूल हरा हो।

            उस शरद प्रसन्न नदी में

            जीवन द्रव अमल भरा हो।’’

            आँसू में वेदना के तीन रूप दिखाई देते हैं – व्यक्तिगत वेदना, आध्यात्मिक वेदना तथा जगत की वेदना। इसमें प्राधान्य व्यक्तिगत वेदना का है। आध्यात्मिक वेदना की तो कहीं-कहीं झलक मात्र दिखाई देती है, इसे हम आभास की भी संज्ञा दे सकते हैं। तीसरी अर्थात् जगत की वेदना के दर्शन रचना के अन्त में होते हैं। उसे समस्त जगत की वेदना में अपनी ही वेदना दिखाई देती है, तभी वह कहता है –

            ‘‘चुन चुन ले के कन-कन से, जगती की सजग व्यथायें

            रह जायेंगी कहने को, जनरंजन भरी कथायें।’’1

            व्यक्तिगत वेदना के भी तीन सोपान हैं- दैहिक, मानसिक एवं निर्वैयक्तिक। दैहिक वेदना से अभिप्राय उस वेदना से है जो प्रिय और प्रियतम के शारीरिक रूप से विच्छेद हो जाने की दशा में उत्पन्न होती है। प्रेमी की स्मृति आने पर नेत्र अशुओं से भर जाते हैं। प्रसाद ने इस स्थिति का चित्रण इस प्रकार किया है-

            ‘‘अपने आँसू की अंजलि आँखों में भर क्यों पीता

            नक्षत्र पतन के क्षण में उज्ज्वल होकर है जीता।

            वह हँसी और यह आँसू, धुलने दे मिल जाने दे

            बरसात नई होने दे, कलियों को खिल जाने दे।’’2

            व्यक्तिगत वेदना का दूसरा सोपान मानसिक है। इस स्थिति में पहुंचकर वेदना का दार्शनिक रूप प्रकट होता है। सृष्टि का कोई कण ऐसा नहीं है जहाँ कि वेदना की पहुँच न हो। वेदना यदि ज्वालामुखी के मूल में विद्यमान है तो जगत की गहन गुफाएँ भी उससे रिक्त नहीं हैं। यही कारण है कि प्रसाद ’मानवता के सिर की रोली कहकर’ इसका अभिनन्दन करते दिखाई देते हैं। ‘‘वेदना की चेतना के प्रकाश में ही सारा संसार करुणा प्लावित हो जाता है। अतः वेदना की समानुभूति ही करुणा की जननी है।’’ जिसे कवि इस प्रकार व्यक्त करता है-

            ‘‘निर्मम जगती को तेरा मंगलमय मिले उजाला

            इस जलते हुए हृदय की कल्याणी शीतल ज्वाला।’’3

            वेदना-दर्शन का अन्तिम सोपान कवि जीवन के उद्देश्य को इंगित करता है। इसी में उनकी वेदना के विराट रूप के दर्शन होते हैं। यहीं आकर कवि वेदना को सम्बोधित करते हुए जीवन जगत के चिर वंचित भूखे उपकरणों को दिखाता है और उससे अपने जीवन का सर्वस्व रस लेकर विश्व सदन पर बरसने का अनुरोध करता है। वेदना के इन्हीं सोपानों के आधार पर ’आँसू’ को पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध दो अंशों में विवेचित करने का प्रयास किया जाता है। पूर्वार्द्ध में कवि ने अपनी प्रिया की स्मृति को सजीव रखकर उसके वियोग में करुण क्रन्दन है तथा उत्तरार्द्ध में अपनी बेदना को समष्टि से जोड़कर समस्त प्राणियों की मंगल कामना की है-

            ‘‘वेदना मधुर हो जावें मेरी निर्दय तन्मयता,

            मिल जावें आज हृदय को, पाऊँ मैं भी सहृदयता

            मेरी अनामिका संगिनी सुन्दर कठोर कोमलते,

            हम दोनों रहे सखा ही, जीवन पथ चलते-चलते।’’4

            करुणा कलित स्थिति में भी कवि निराश नहीं हुआ, उसके मन में यह विश्वास था कि उसके अश्रुओं से द्रवित होकर प्रियतम फिर आ जाएगा। इसी आधार पर उसकी भावनाएँ उदात्त रूप ग्रहण कर सुख-दुःख विरह-मिलन आदि को जीवन का आवश्यक अंग मानकर जीवन का एक महान दर्शन प्रस्तुत करती हैं-

            ‘‘सुख मान लिया करता जिसका दुख था जीवन में

            जीवन में मृत्यु बसी है जैसे बिजली हो धन में।’’

            इसी दर्शन के कल्याणकारी रूप की ओर उल्लेख करते हुए प्रसाद कहते हैं कि वेदना ही वह निधि है, जो जीवन रूपी सरीता के दोनों किनारों को हरा-भरा रखती है। वेदना व्यथित हृदय ही दूसरों की विवशता एवं दुःख-दर्द को समझकर जीवन में से कलुषता को ही मिटा देना चाहता है-

            ‘‘आँसू वर्षा से सिंचकर दोनों ही कूल हरा हो

            उस शरद प्रसन्न नदी में जीवन द्रव अमल भरा हो।5

                        ग्                    ग्                    ग्

            जगती का कलुष अपावन तेरी विदग्धता पावे

            फिर निखर उठे निर्मलता यह पाप पुण्य हो जावे।’’

            कवि ने वेदना एवं वियोग को नियति का वरदान माना है। उनका विश्वास है कि जीवन में सुख-दुःख, संयोग-वियोग, हर्ष-विषाद का क्रम निरन्तर चलता रहता है। मनुष्य की जीवन रूपी वेदी पर मिलन तथा विरह दोनों का संयोग होता रहता है। कभी जीवन में वसन्त के हर्षोल्लास के समान मधुर क्षण आते हैं तो कभी उसे पतझड़ के समान अश्रुसिक्त कटु क्षणों को भी झेलना होता है, अतः विरह से व्यथित हो रोना नहीं चाहिए। यह तो नियति की लीला है-

            ‘‘मानव जीवन-वेदी पर परिणय है विरह-मिलन का,

            सुख-दुख दोनों नाचेंगे है खेल आँख का, मन का।’’6

            उनका मत है कि जब हृदय से वेदना का रंग छुटाने पर भी नहीं छूटता, तब इसका उपचार यही है कि उसे नियति के हाथों सौंप दिया जाए। यदि मन को उदात्त बना लिया जाए तो नियति के विविध क्रम जीवन में बाधक नहीं बनते। इसीलिए उन्होंने अपने जीवन का आदर्श प्रस्तुत करते हुए कहा है- ‘‘सुख मान लिया करता था, जिसका दुख था जीवन में।’’

            आचार्यों ने वियोग की दस दशाओं का वर्णन किया है- अभिलाषा, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण आँसू में इन सभी दशाओं का सम्यक् निरूपण हुआ है। ‘‘आँसू के विप्रलम्भ शृंगार की मूलभूत विशेषता यह है कि इन विरहावस्थाओं में उपर्युक्त क्रम तो विद्यमान है ही, सामान्य कृति की भांति इसका समापन जड़ता, मूर्खता और मरण में न होकर आत्मनिष्ठा और आत्म प्रसार में होता है।’’

            अभिलाषा – कवि में प्रिय से मिलने की अभिलाषा तो निरन्तर व्याप्त रही है। क्योंकि जिस दिन वह अपने प्रिय से मिल लेगा उस दिन उसके जीवन की अन्य सभी अभिलाषाओं का अन्त हो जाएगा। कवि उसकी प्रतीक्षा में बैठकर तारे नहीं गिनना चाहता वरन् स्वयं उठकर उसको ढूंढ़ लाना चाहता है-

            ‘‘मधुमालतियाँ सोती हैं, कोमल उपधान सहारे।

            मैं व्यर्थ प्रतीक्षा लेकर गिनता अम्बर के तारे।7

                        ग्                    ग्                    ग्

            चमकूंगा धूप कणों में सौरभ हो उड़ जाऊँगा

            पाऊँगा कहीं तुम्हें तो ग्रह पथ में टकराऊँगा।’’

            चिन्ता – चिन्ता विरही हृदय की एक स्वाभाविक क्रिया है। प्रिय के दूर होने पर विरही मन विविध प्रकार की चिन्ताओं से ग्रस्त हो जाता है। उसका हृदय अनेक प्रकार की आशा-निराशों से व्यथित हो अपने प्रिय के लिए चिन्तित हो जाता है। प्रस्तुत पंक्तियों में विरहजन्य इसी दशा का वर्णन मिलता है –

            ‘‘हीरे-सा हृदय हमारा

            कुचला शिरीष कोमल ने

            हिम शीतल प्रणय अनल

            बन अब लगा विरह से जलने।’’8

            स्मरण – आँसू एक स्मृति काव्य है। अपने प्रिय की निष्ठुरता से उपेक्षित होने पर, उसकी मधुर स्मृति में ही आँसू की सृष्टि की गई है। अतः उसमें आद्यन्त विरह की इस दशा के दर्शन होते हैं। प्रिय की याद आने पर कवि को उसके साथ बिताए गए मधुर क्षणों की स्मृति हो आती है उसकी लावण्यमय मुखमण्डल की शोभा को याद करते हुए प्रसाद कहते हैं-

            ‘‘प्यासी मछली सी आंखें थीं विकल रूप के जल में

            मादक थीं, मोहमयी थीं मन बहलाने की क्रीड़ा।

            गौरव था, नीचे आये प्रियतम मिलने को मेरे

            मधुराका मुस्काती थी, पहले देखा जब तुमको।’’

            अन्यत्र जब उनका हृदय मिलन की सुखद स्मृतियों के आवेग में बह जाता है, तब वे कहते हैं –

            ‘‘बस गई एक बस्ती है स्मृतियों की इसी हृदय में

            नक्षत्र लोक फैला है जैसे इस नील निलय में।

            ये सब स्फुलिंग है मेरे इस ज्वालामयी जलन के

            कुछ शेष चिह्न हैं केवल मेरे उस महामिलन के।’’

            गुणकथन – विप्रलम्भ शृंगार की एक अन्य महत्वपूर्ण कामदशा है गुण-कथन। विरह में प्रिय के उन गुणों की याद आना स्वाभाविक है, जिनसे वह प्रभावित हुआ था। अतः वियोग में प्रिय के गुणों को याद करके कवि अपने समय को आसानी से काट लेता है। प्रसाद ने आँसू में स्थान-स्थान पर नायिका के गुणों की चर्चा की है –

  1. विद्रुम सीेपी सम्पुट में मोती के दाने कैसे

            है हँस न शुक यह फिर क्यों चुगने को मुक्ता ऐसे?9

  1. शशीमुख पर घूंघट डाले, अंचल में दीप छिपाए

            जीवन की गोधूली में कौतुहल से तुम आए।10

            उद्वेग – कभी-कभी विरही मन अपने प्रिय को याद करते करते अत्यन्त उद्विग्न हो उठता है। उसका दुःखी हृदय प्रिय के वियोग की पीड़ा से झटपटाने लगता है। इस स्थिति को काव्यशास्त्रीय भाषा में उद्वे्ग कहा जाता है। निम्न पंक्तियों में वियोग की इसी दशा के दर्शन होते हैं-

            ‘जल उठा स्नेह दीपक सा नवनीत हृदय था मेरा

            अवशेष धूम-रेखा से चित्रित कर रहा अंधेरा।

            प्रलाप – इससे अभिप्राय है रुदन क्रन्दन। विरहजन्य पीड़ा की अतिशयता के कारण विरही का हृदय प्रलाप करने लगता है –

            ’रो-रोकर सिसक सिसक कर कहता में करुण कहानी

            तुम सुमन नोचते फिरते करते जानी अनजानी।’

            उन्माद – इस स्थिति में विरह व्यक्ति हृदय को प्रकृत स्थिति का भी बोध नहीं रहता, उसका मन किसी भी कार्य में नहीं लगता, उसका आचरण पागलपन की सीमा तक पहुँच जाता है। प्रसाद इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं –

            ‘‘इतना सुख ले पल भर में जीवन के अन्तराल से

            तुम खिसक गए धीरे से रोते अब प्राण विकल से

            क्यों छलक रहा दुख मेरा ऊषा की मृदु पलकों में

            हो उलझ रहा सुख मेरा संध्या की घन अलकों में।’’11

            व्याधि एवं जड़ता – प्रिय को याद करते-करते जब विरही-मन की सभी आशाएँ धूमिल हो जाती हैं तो उसकी स्थिति अत्यन्त कारुणिक हो जाती है। मन के भीतर की इस व्यग्रता को व्याधि कहते हैं। इस स्थिति में पहुँचकर कभी-कभी विरही पूर्णतः जड़ हो जाता है और अपने प्रेमी के रूप-सौन्दर्य को याद कर ठगा सा रह जाता है –

  1. ‘अभिलाषाओं की करवट फिर सुप्तव्यथा का जगना

            सुख का सपना हो जाना भीगी पलकों का लगना।’’12

  1. मैं अपलक इन नयनों से देखा करता उस छवि को

            प्रतिभा डाली भर लाता कर देता दान सुकवि को।

            निर्झर सा झिर-झिर करता माधवी कुंज छाया में

            चेतना बही जाती थी हो मन्त्र-मुग्ध माया में।’’13

            इस प्रकार आँसू में विरह की समस्त दशाओं का समग्र विवेचन किया गया है। अन्त में कवि की व्यापक दृष्टि उसकी विरह वेदना को एक सीमित धरातल से उठाकर विस्तृत भाव-भूमि पर पहुँचा देती है। यहाँ पहुँचकर उसका हृदय अत्यन्त उदार हो जाता है। वियोग व्यथित आँसू केवल कवि की आत्माभिव्यक्ति न रहकर सम्पूर्ण धरती के प्राणियों की व्यथा के सूचक बन जाते हैं। कवि अपने जीवन के व्यापक दर्शन को स्पर्श करता हुआ अपनी पीड़ा में समस्त संसार की वेदना को समेट लेने की अभिलाया करते हुए अपनी मानस ज्वाला से संसार में व्याप्त होने का अनुरोध करते हैं ताकि यह निर्मम विश्व प्रेममय हो जाए-

            निर्मम जगती को तेरा

                        मंगलमय मिले उजाला

            इस जलते हुए हृदय की

                        कल्याणी शीतल ज्वाला?14

            इस संदर्भ में बाबू गुलाबराय का कथन उल्लेखनीय एवं सराहनीय है – ‘‘आँसू में केवल विरह निवेदन ही नहीं है और न इसका अन्त भौतिक मिलन में है. वरन् इसमें एक जीवन-मीमांसा और तत्त्व चिन्तन भी है जिसके आलोक में वेदना वैयक्तिक बंधनों से मुक्त होकर एक दिव्य आत्मा धारण कर लेती है और कवि सौन्दर्य के एक मानसिक आदर्श में मग्न होकर एक उपेक्षामय शान्ति प्राप्त करता है।’’ डॉ. प्रेमशंकर के शब्दों में हिन्दी साहित्य में वेदना की परम्परा अनादि है। पर उसमें जीवन दर्शन का यह विनियोग प्रसाद जी की ही देन है। इस प्रकार व्यापक रूप से सिंहावलोकन करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रसाद ने वेदना को व्यापक रूप प्रदान कर समस्त सृष्टि से जोड़ने का प्रयत्न किया है। इसी में आँसू की मौलिकता, महानता एवं गम्भीरता निहित है।

संदर्भ ग्रंथ – 

  1. आँसू – जयशंकर प्रसाद, छंद संख्या-134.
  2. वही, छंद संख्या-132.
  3. वही, छंद संख्या-146.
  4. वही, छंद संख्या-162-163.
  5. वही, छंद संख्या-168.
  6. वही, छंद संख्या-104.
  7. वही, छंद संख्या-78.
  8. वही, छंद संख्या-62.
  9. वही, छंद संख्या-44.
  10. वही, छंद संख्या-34.
  11. वही, छंद संख्या-105.
  12. वही, छंद संख्या-12.
  13. वही, छंद संख्या-31.
  14. वही, छंद संख्या-146.
डॉ. ममता सिंगला
एसोसिएट प्रोफेसर
भगिनी निवेदिता कॉलेज

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