सन् 1975 में प्रदर्शित हिंदी फिल्म ‘आँधी’ भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक अनूठी और यादगार फिल्म है। इस फिल्म में मुख्य कलाकार संजीव कुमार और सुचित्रा सेन थे, जिन्होंने जे.के. और आरती देवी की भूमिका निभाई थी। दोनों ही अपने दमदार अभिनय से दर्शकों को प्रभावित करने में अत्यंत सफल रहे थे। अन्य कलाकारों में ओम शिवपुरी, ए.के. हंगल, मनमोहन, ओमप्रकाश, कमलदीप आदि प्रमुख थे। गुलजार द्वारा निर्देशित, जे. ओमप्रकाश द्वारा निर्मित, राहुल देव बर्मन के संगीत और लता मंगेशकर, किशोर कुमार और मोहम्मद रफी द्वारा गाये अमर गीतों से सजी यह फिल्म अपने समय में काफी चर्चित रही।

फिल्म ‘आँधी’ प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर के एक उपन्यास ‘काली आँधी’ पर आधारित है। यह उपन्यास राजनीति के स्याह चेहरे को उजागर करने के उद्देश्य से लिखा गया था। उपन्यास की भूमिका में कमलेश्वर ने लिखा है- ” ‘काली आँधी’ राजनीति के विद्रूप चेहरे को उजागर करने के उद्देश्य से लिखी गई थी। भारतीय राजनीति में अवसरवादिता बढ़ने, गरीबी और भूख की खोखली मुहिम चलाने और खासतौर पर भ्रष्टाचार पनपने का यही दौर रहा है। वोट के वक्त जिस प्रकार के वादे किए जाते हैं और उसके परिणाम वास्तविक तौर पर क्या होते हैं- ‘काली आँधी’ में यह भी एक प्रमुख मुद्दा है। ‘काली आँधी’ आज भी समय की धार पर खरी है।”1 काली आँधी’ उपन्यास से ‘आँधी’ फिल्म बनाने में कुछ परिवर्तन किए गये हैं, जो कथा के चलचित्र में रूपांतरित होने की आवश्यकता के अनुरूप प्रतीत होते हैं। ‘काली आँधी’ के मुख्य पात्र मालती देवी, जगदीश बाबू उर्फ जग्गी बाबू, लिली फिल्म में आरती देवी, जे.के. , मन्नू हो गए हैं। शेष नाम उपन्यास और फिल्म में समान हैं ।

 ‘आँधी’ फिल्म अपने प्रदर्शन के समय काफी चर्चा में रही। एक तो इसकी विषयवस्तु राजनीति केंद्रित होना और दूसरे इसकी मुख्य किरदार सुचित्रा सेन अर्थात्  आरती देवी में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी की छवि दिखाई देना। यह महज एक इत्तफाक हो सकता है, क्योंकि उस समय की राजनीति में इन्दिरा गाँधी जैसी वर्चस्वी महिला नेता कोई दूसरी नहीं थी। फिल्म निर्माताओं द्वारा किसी दबंग महिला नेता के किरदार को जीवंत करने के उद्देश्य से श्रीमती इन्दिरा गाँधी से प्रेरणा लेना स्वाभाविक ही है। यह फिल्म 13 फरवरी, 1975 को रिलीज हुई और रिलीज होने के कुछ महीनों बाद 1975 के राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। 1977 के चुनावों के बाद सत्तारूढ़ जनता पार्टी ने इसे मंजूरी दी और इसको सरकारी टेलीविजन चैनल पर दिखाया गया।

 फिल्म की कहानी इस प्रकार है – जे.के. (संजीव कुमार) एक होटल में मैनेजर है। एक दिन शहर के बड़े उद्योगपति की बेटी आरती नशे की हालत में उनके होटल में कमरा लेकर एक रात ठहरती है। दोनों का परिचय होता है, प्रेम होता है और दोनों विवाह करने का निर्णय कर लेते हैं। आरती के पिता इतनी जल्दी शादी के पक्ष में नहीं है। क्योंकि आरती एक उच्च शिक्षित लड़की है और उसकी शिक्षा विदेशों में हुई है। इतना पढ़-लिखकर केवल वैवाहिक जिम्मेदारियों में जीवन गँवाने के पक्ष में वे नहीं है। वे चाहते हैं कि आरती राजनीति के क्षेत्र में अपना भविष्य बनाये । वे अनेक प्रकार से आरती को समझाने का प्रयास करते हैं, लेकिन आरती अपने निर्णय पर अडिग रहती है और जे.के. से विवाह कर लेती है। प्रारंभ के कुछ वर्षों तक दोनों का वैवाहिक जीवन सुखमय चलता है। साथ-साथ आरती अपने पिता के साथ राजनीतिक कार्यक्रमों, मीटिंगों में भी भाग लेती रहती है। जे.के. को आरती का रोज-रोज इस तरह मीटिंगों में जाना अखरने लगता है। धीरे-धीरे इस विषय को लेकर दोनों में तनाव बढ़ता जाता है, और एक दिन कहासुनी इतनी बढ़ जाती है कि जे.के. अपनी बेटी को लेकर घर छोड़ कर चला जाता है। बेटी का दाखिला शिमला के एक बोर्डिंग स्कूल में करवाकर स्वयं भोपाल के होटल आशियाना में होटल मैनेजर के पद पर नौकरी करता है। उधर आरती भी घर छोड़कर अपने पिता के घर चली जाती है, और पूरी तरह राजनीति में प्रविष्ट होकर सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई राजनीति के उच्च मुकाम पर पहुँच जाती है। भोपाल से चुनाव लड़ने के दौरान उनकी पार्टी का दफ्तर होटल आशियाना में रखा जाता है, जहाँ आरती और जे.के. की नौ साल बाद मुलाकात होती है। चुनाव की राजनीति के दांव-पेंच, उठा-पटक के बीच फ्लैश बैक पद्धति से कहानी पीछे जाकर दोनों की जिंदगी के नरम-गरम किस्से दर्शाती है। होटल में रहते हुए आरती का जे.के. के साथ घूमना-फिरना चर्चा का विषय बन जाता है। विरोधी पार्टी का नेता चन्द्रसेन इस विषय को उछालकर, आरती की बदनामी कर वोट अपने पक्ष में बटोर लेना चाहता है, लेकिन आरती जे.के. के साथ अपने वैवाहिक रिश्ते की सच्चाई को खुले रूप से स्वीकार कर, जनता के वोट अपने पक्ष में बटोरने में सफल हो जाती है। जीत आरती की होती है, और अंत में वह अपने स्थान पर पुनः लौट जाती है। जे.के. और आरती जल्द ही पुनः एक होने की आशा के साथ एक-दूसरे से भावपूर्ण विदाई लेते हैं।

 इस फिल्म में दो खास बातें हैं, जो उसे आज भी प्रासंगिक बनाए हुए है या कहे कि इसे समय की धार पर खरी सिद्ध करते हैं। एक तो जिस प्रकार की चुनाव की राजनीति का इसमें चित्रण हुआ है, वैसा तब से लेकर आज तक चुनावों के समय हमें दिखाई देता है। दूसरे, फिल्म की मुख्य भूमिका में मौजूद आरती का चरित्र-चित्रण, जो अपने आत्मविश्वास और स्वनिर्णय की शक्ति के कारण अविस्मरणीय और प्रेरणादायी है। इन दोनों ही कारणों से फिल्म सिनेमा के इतिहास में अमिट छाप छोड़ने में सफल हुई।

 चुनाव की राजनीति, राजनीतिक दलों की आपसी खींचातानी, राजनीति में धनशक्ति और गुंडाशक्ति का प्रभाव, राजनीति में प्रविष्ट मूल्यहीनता, चुनावी तिकड़म, राजनीतिक हिंसा आदि को यह फिल्म बखूबी दिखाती है। फिल्म का शुरुआती दृश्य ही राजनीति में प्रविष्ट चरित्रहीनता और विद्रूपता को उजागर करने वाला है। भोपाल शहर में इलेक्शन का तूफान चल रहा है। एक बहुत बड़े पंडाल में लोग इकट्ठे हैं। शहर के एक बड़े नेता चन्द्रसेन का स्टेज से भाषण चल रहा है। जिसमें वह कहता है- ” मैं तो सिर्फ इतना पूछता हूँ कि इस इलेक्शन से पहले वे कहाँ थीं। यह काले दामों से खरीदी, अनाज की बोरियाँ, कौन से गोदामों में छिपी पड़ी थीं, जो पहले पैसे देकर मुट्ठी-भर अनाज नहीं मिलता था, अब जैसे ही इलेक्शन आया, मिलने लगा सब कुछ।… लेकिन जानता हूँ , यह सब ढकोसला है, दिखावा है। आप लोगों से वोट लेने का। भाइयों ये पंछी किसी के नहीं होते, ये पंछी, किसी के नहीं होंगे, उड़ जाएँगे आपका दाना, पानी, वोट लेकर और जाकर बैठेंगे किसी राजधानी की शाख पर और आपको हमेशा-हमेशा के लिए भूखा-प्यासा छोड़ जाएँगे…”2 यहाँ पर चन्द्रसेन जो कुछ कहता है, वह एक तो राजनीतिक पार्टियों द्वारा एक दूसरे पर की जाने वाली छींटाकशी और जनता को दूसरे के खिलाफ भड़काकर अपना उल्लू सीधा करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है, तो दूसरे राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों द्वारा केवल चुनाव के समय ही जनता की सुध लेने के चलन को उजागर करता है, फिर यह नाम भले ही आरती देवी हो, चन्द्रसेन हो, गुलशेर अहमद हो या कोई और। हर राजनीतिक चेहरे की यही हकीकत सामने आती है।

चुनावों में मीडिया, प्रेस का अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति भी तब से अब तक दिखाई देती है। फिल्म के एक दृश्य में चन्द्रसेन प्रेस मालिक ज्ञानी जी से कहता है – ” चुनाव से पहले आप हमारा ख्याल रखिए – चुनाव के बाद हम आपका ख्याल रखेंगे।”3 राजनीतिक पार्टियों द्वारा विपक्षी नेताओं की व्यक्तिगत जिंदगी के पहलुओं को ढूँढ-ढूँढकर उछालने की प्रवृत्ति को भी ‘आँधी’ फिल्म में दर्शाया गया है। होटल मैनेजर जे.के. और आरती देवी के एक साथ घूमने-फिरने के प्रमाण के लिए छिपकर उनकी फोटोग्राफी करवायी जाती है, अखबार में उन पर कीचड़ उछाला जाता है, सभा में उनके रिश्ते को लेकर प्रश्न पूछे जाते हैं। यह भी एक चुनावी हथकंडा है, जिसके माध्यम से पार्टियाँ जनता को बहकाकर अपने पक्ष में वोट बटोरना चाहती हैं। आरती देवी के चुनाव कार्यालय में आग लगवाना, सभा में भगदड़ मचाना, पत्थरबाजी करवाना और चोट लगने को भी भुनाना – ये राजनीतिक हिंसा के तो परिचायक हैं ही, चुनावी तिकड़मों भी दर्शाते हैं। पत्थरबाजी के दौरान आरती देवी को चोट लग जाती है तो डॉक्टर को बुलाने से पहले प्रेस वालों को बुलाने की बात कही जाती है। आरती देवी का चुनावी सलाहकार लल्लू लाल कहता है- “पहले प्रेस को तो पहुंचने दो,… जरा उड़ने दो ना खबर, आग लगी है तो उसे हवा दो, जलने दो, भड़कने दो…।”4

फिल्म को अमर बनाने वाला दूसरा पहलू है- आरती देवी का प्रभावशाली व्यक्तित्व। आरती देवी के माध्यम से राजनीति में प्रवेश करने वाली एक महिला के दबंग और आत्मविश्वास पूर्ण व्यक्तित्व को दर्शाया गया है। प्रश्न चाहे जीवन साथी चुनने का हो, या राजनीतिक जीवन में प्रवेश का, वह अपना मार्ग स्वयं चुनती है और स्वनिर्णय की जिंदगी जीती है। जब तक वह वैवाहिक जीवन जीती है, वहाँ अपनी भूमिका पूरी कुशलता से और खुशी-खुशी निभाती है और जब राजनीति के क्षेत्र में एक बार पदार्पण कर लेती हैं तो उसे फिर पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ता। निरंतर सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई वह राजनीति के उच्च मुकाम पर पहुँच जाती है।

 आरती देवी का चरित्र अनेक जगह अत्यंत प्रभावित करता है। प्रारंभ में वह पारिवारिक जीवन के साथ ही धीमी गति के साथ राजनीति की ओर कदम बढ़ाती है। लेकिन इस बात को लेकर जब पति-पत्नी में झगड़ा होता है और घर का पुराना नौकर बिन्दा कहता है कि पति की इच्छा में ही तुम्हारी इच्छा होनी चाहिए, तो वह स्पष्ट शब्दों में कहती है- “पति है ना कोई बोस तो नहीं, कोई नौकर तो नहीं हूँ उनके घर पे कि उनकी मर्जी से नहीं चलूँगी तो निकाल देंगे मुझे।”5 और कुछ समय बाद ही घर-परिवार छोड़कर वह पूर्णतः राजनीतिक जीवन में प्रवेश कर जाती है। जहाँ एक कुशल और सफल महिला नेता के रूप में उभरती है। पार्टी कार्यकर्ताओं की मीटिंग के दृश्य से प्रमाणित होता है कि पार्टी के सभी बड़े निर्णयों में प्रमुख भूमिका आरती देवी की ही रहती है। वे अपनी बात इतने दमदार ढंग से रखती है कि फिर किसी को बोलने की हिम्मत नहीं होती। केंद्रीय और प्रादेशिक स्तर की कुछ महिला नेताओं की बात छोड़ दें तो, आज भी अधिकांशत राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश करने वाली महिलाएँ अपने पति, परिवार-रिश्तेदार या पार्टी कार्यकर्ताओं के हाथ में स्टाम्प बन कर रह जाती है। अपना निर्णय देने या ठोस कदम उठाने का साहस और आत्मविश्वास उनमें नहीं होता। ऐसे में आरती देवी का चरित्र अनुकरणीय है और मार्गदर्शक बनकर राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करने वाली महिलाओं को आत्मविश्वास से भर देने वाला है।

 आरती देवी कुशल वक्ता है, भाषण देने की कला में कुशल हैं और स्पष्टवादी है। उनका यह गुण भी उन्हें एक विशिष्टता प्रदान करता है। चुनावी सभा में पत्थरबाजी से उनके घायल होने पर प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई जाती है। इस कॉन्फ्रेंस के दौरान प्रेस वालों  द्वारा उन पर अलग-अलग तरह के प्रश्नों की बौछार की जाती है। आरती देवी बहुत ही संयमित ढंग से, सधे हुए शब्दों में विवेकपूर्ण, तर्कपूर्ण जवाब देती है और सभी प्रेस वालों को निरुत्तर कर देती है। कहीं उनकी जबान अटकती नहीं, लड़खड़ाती नहीं, बल्कि अपना बचाव और विरोधी पक्ष पर प्रहार करती हुई धीरे से अखबारों की हेडलाइन बन जाती है। आरती देवी की स्पष्टवादिता, साफ कहने और स्वीकार करने की शक्ति उनके व्यक्तित्व का एक सशक्त पहलू है। होटल आशियाना, जिसमें जे.के. होटल मैनेजर है, में ही आरती देवी का चुनावी कार्यालय बनाया जाता है। एक ही जगह पर पति-पत्नी के रहने के कारण दोनों का पुराना रिश्ता फिर साँस लेने लगता है। जे.के. और आरती देवी एक साथ घूमते-फिरते हैं, मिलते-जुलते हैं। विरोधी पक्ष द्वारा इसे अखबार की सुर्खियां बना दिया जाता है, और दोनों के आपसी रिश्ते को लेकर सवाल उठाये जाते हैं। चन्द्रसेन चुनावी सभा में भी सवाल पूछता है। आरती देवी की पार्टी के सभी कार्यकर्ता घबरा जाते हैं कि अब तो चुनाव गया हाथ से। लेकिन आरती देवी घबराती नहीं, बल्कि गाड़ी लेकर अकेले ही निकल जाती है और चन्द्रसेन की चुनावी सभा में पहुँचकर उसके सभी प्रश्नों का पूरी स्पष्टता और निर्भयता से जवाब देती है। वह स्पष्ट कहती है कि होटल मैनेजर मेरे पति हैं और अपने पति से मिलना अपराध है, तो इस अपराध की सजा दीजिए मुझे। आरती देवी के भावुक भाषण से जनता मुग्ध हो जाती है और तालियों की गड़गड़ाहट के साथ ही अपना वोट भी आरती देवी को देती है।

 इस प्रकार फिल्म ‘आँधी’ अपनी विषयवस्तु और अपने चरित्रों के कारण आज भी प्रासंगिक है। चुनाव की राजनीति के दृश्य देश की आजादी से लेकर आज तक की राजनीति के अनेक रंगों को दर्शाते हैं, तो आरती देवी की राजनीतिक कुशलता, अडिगता, आत्मविश्वास, स्पष्टवादिता सभी स्त्रियों का संबल और प्रेरणास्रोत बनने की क्षमता से युक्त है।

 संदर्भ ग्रंथ :-

  1. कमलेश्वर, 2011, समग्र उपन्यास- काली आँधी (भूमिका) राजपाल एंड संस, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या 363
  2. डायलॉग, फिल्म – आँधी -1975
  3. डायलॉग, फिल्म – आँधी -1975
  4. डायलॉग, फिल्म – आँधी -1975
  5. डायलॉग, फिल्म – आँधी – 1975
                                                 डॉ.अनिता प्रजापत
         सहायक आचार्य हिंदी
     डॉ. भीमराव अंबेडकर राजकीय, महाविद्यालय
         श्रीगंगानगर (राजस्थान)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *