अमृतलाल नागर हिंदी गद्य साहित्य के उन शिखर पुरुषों में गिने जाते हैं जिनके गद्य से हिंदी साहित्य ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं का साहित्य भी समृद्ध हुआ है। अमृतलाल नागर ने उपन्यास, कहानी, नाटक, व्यंग्य, निबंध, आलोचना, बाल-साहित्य, यात्रावृत्त, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, अनुवाद आदि गद्य की विविध विधाओं से हिंदी साहित्य और साहित्य के पाठक को एक नई दिशा और दृष्टि दी है। हिंदी साहित्य में या कहें प्रेमचंद के यथार्थवादी धारा के प्रमुख रचनाकारों में अमृतलाल नागर का नाम शीर्ष पंक्ति में शुमार है। जिस प्रकार स्वतंत्रता पूर्व, प्रेमचंद अपने लेखन से सामाजिक यथार्थ को समाज के सामने रख रहें थे उसी प्रकार स्वतंत्रता के बाद अमृतलाल नागर, इतिहास और वर्तमान के समन्वय से तात्कालिक समाज का यथार्थ रूप हिंदी पाठक के समक्ष रखते हैं। “नागर  जी का साहित्यकार व्यक्तित्व एक जनवादी व्यक्तित्व है। उनके लेखन की जड़ें जन-जीवन के बीच गहराई से जमी हुई है।”[1] ‘साहित्य समाज का दर्पण होता है।’ इस उक्ति को अमृतलाल नागर अपनी लेखनी में भली-भांति समायोजित करते हैं।

    इतने बड़े रचनाकार और उसके इतने वृहत रचना संसार की जन्मशती को या तो भूल जाना या फिर उनके तस्वीर पर माल्यार्पण कर देने भर से हम सभी का उत्तरदायित्व खत्म नहीं हो जाता है। जिस रचनाकार ने हिंदी साहित्य को ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को भी अपनी लेखनी से समृद्ध किया हो, जिसने हिंदी साहित्य को नया पाठक और लेखक वर्ग दिया हो, जिसने हिंदी फिल्मों में अपना योगदान दिया हो, जिसने समाज को एक नई दृष्टि देने की कोशिश की हो उस अद्भुत विभूति की जन्मशती को मात्र साहित्यिक कार्यक्रम के रूप में नहीं बल्कि एक सामाजिक उत्सव के रूप में मनाया जाना चाहिए था। जिस इंसान ने अपना पूरा जीवन लेखन-कार्य (साहित्य) में लगा दिया हो उसके लिए आज क्या हमारी यही श्रद्धांजलि है? बहुत कम साहित्य प्रेमियों को और अमृतलाल नागर के साहित्यिक पाठक को यह जानकारी होगी कि नागर जी उपन्यासकार और कहानीकार के साथ-साथ एक सफल पत्रकार, फिल्म पटकथा लेखक, ऑल इंडिया रेडियो में नाटक निर्माता के रूप में भी कार्य कर चुके थे। नागर जी ने हिंदी भाषा के अलावा, संस्कृत, बांग्ला, मराठी, उर्दू और अपनी मातृ भाषा गुजराती में भी लेखन और अनुवाद का कार्य किया। अमृतलाल नागर का लेखकीय जादू पाठक को मोहित कर लेती है। उनकी किसी भी रचना को पाठक एक बार पढ़ ले तो फिर स्वतः ही उनकी अन्य रचनाओं को पढ़ने के लिए विवश या मजबूर हो जाते हैं।

हिंदी में खरा या कहें कि विशुद्ध रूप से बाल-साहित्य की रचना करने वाले बहुत कम रचनाकार हुए हैं परंतु वयस्कों के लिए लिखने वाले दर्जनों साहित्यकारों ने अपनी बालपरक लेखनी से साहित्य को समृद्ध किया है। हिंदी के बड़े-बड़े लेखकों और साहित्यकारों ने वयस्कों के साथ-साथ बच्चों के लिए भी लिखा है। हिंदी का बाल साहित्य बहुत ही समृद्ध रहा है परंतु कहीं न कहीं वयस्क साहित्य के वजन से हमेशा दबा रहा। प्रेमचंद, श्रीधर पाठक, महावीर प्रसाद द्विवेदी, दिनकर, महादेवी वर्मा, रामनरेश त्रिपाठी, अमृतलाल नागर आदि न जाने कितने अनगिनत साहित्यकारों ने बच्चों को केंद्र में रख कर लेखन किया है। बाल साहित्य के प्रमुख अध्येता और लेखक डॉ॰ हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य की शुरुआत और उद्भव भारतेन्दु युग से मानते हैं और उसके लिए अपना तर्क देते हुए कहते हैं- “भारतेन्दु युग में, सन् 1874 ई. में ‘बालाबोधिनी’ पत्रिका का प्रकाशन एक ऐसी ऐतिहासिक घटना है, जो यह प्रमाणित करती है कि बाल-वर्ग के लिए भी पृथक साहित्य (स्कूली किताबों के अलावा ज्ञान देने वाला) लिखा जाना आवश्यक समझा था।”[2] बच्चों से संबंधित लेखन सर्वप्रथम ‘बालाबोधिनी’ में प्रकाशित होता है परंतु विशुद्ध रूप से ‘बालदर्पण’ बच्चों की पहली साहित्यिक पत्रिका मानी जाती है।

“हिंदी में बाल साहित्य की शुरुआत मुख्यतः भारतेन्दु हरिश्चंद्र से ही मिलने लगती है। शिवप्रसाद सितारेहिन्द को कुछ विद्वानों ने बाल कहानी के सूत्रपात का श्रेय दिया है।”[3] राजा भोज का सपना, बच्चों का इनाम, लड़कों की कहानी आदि सितारे हिन्द की कहानियाँ है। कालांतर में रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्रा कुमारी चौहान, प्रेमचंद और अमृत लाल नागर ने बाल साहित्य परंपरा को आगे बढ़ाया। प्रेमचंद की परंपरा में यथार्थवादी और प्रगतिशील धारा के अप्रतिम-संवाहक के रूप में अमृतलाल नागर की जबर्दस्त पहचान है। “प्रेमचंद की परंपरा के संवाहक के रूप में नागरजी ने बच्चों के परिप्रेक्ष्य में अपने बाल-साहित्य लेखन कथेतर विधाओं में जीवनी आदि से परिपूरित, अधिक विविध तथा बहुआयामी दिशाओं में विकसित किया; तभी तो वो कहते भी है  : मेरे मन में बच्चों-सी भरी चाह होती…. जरा देखा जाए कि हज़ार वर्ष पहले का व्यक्ति और समाज कैसा था?… किस्सागो के नाते मैं बड़ा बावला हूँ।”[4] जब प्रेमचंद का लेखन चरम (प्रौढ़ता) पर था तब नागरजी की लेखनी अपने शिशु काल में थी। नागरजी अपने प्रारंभिक कहानियों का संकलन ‘वाटिका’ नाम से प्रकाशित करके प्रेमचंद को भेजा करते थे और फिर प्रेमचंद उन्हें समय-समय पर भविष्य के लेखन के लिए मार्गदर्शन देते थे।

    साहित्य जैसा कि समाज का दर्पण होता है अर्थात् उसमें सम्पूर्ण समाज का रूप प्रतिबिम्बित होता है। मानव जीवन का सम्पूर्ण हाव-भाव, सुख-दुख, गरीबी-अमीरी, स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े आदि की वेदना और संवेदनाओं से संबंधित लेखन ही साहित्य है। साहित्य संपूर्ण जगत की बात करता है। एक सफल साहित्यकार वही है जिसको साहित्य की सभी विधाओं में पारंगत हो, जिसके साहित्य में समन्वय हो, जिसके साहित्य में लोक-मंगल और लोक-कल्याण का भाव हो। हिंदी साहित्य में सर्वाधिक प्रसिद्ध रचनाकार/उपन्यासकार/कथाकार की जब बात करते हैं तो प्रेमचंद का नाम सर्व प्रथम आता है। ऐसा क्या है जो अन्य रचनाकारों में नहीं है और वह प्रेमचंद में है? दरअसल प्रेमचंद का साहित्य सम्पूर्ण मानव जन का साहित्य है। उनके साहित्य में मानव के विविध रूप हैं, मानव जीवन का सम्पूर्ण आयाम है, सम्पूर्ण प्राणी जगत है, पूरी प्रकृति है। प्रेमचंद जितने प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार, पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं उससे तनिक भी कम अपने बाल साहित्य के लिए नहीं। “प्रेमचंद ने हिंदी कथा साहित्य के युग प्रवर्तक साहित्यकार होने का गौरव तो प्राप्त किया ही, बाल कहानी के क्षेत्र में भी कुछ कालजयी रचनाएँ प्रदान की।”[5] सही मायनों मे देखें तो साहित्य का समाज के प्रति जो ध्येय होता है वह बाल साहित्य से कहीं अधिक पूर्ण होता है। साहित्य समाज को विवेकशील और अनुशासित बनाता है और साथ ही मनुष्य को सही रास्ता दिखाने का कार्य करता है। साहित्य समाज को शिक्षित करता है खास कर के बच्चों को। साहित्य नैतिक मूल्यों को जागृत करता है। प्रेमचंद इसी नैतिक मूल्य की व्यापकता को अपने रचना संसार का विषय बनाते हैं और नागर जी उसी नैतिक मूल्य को अपनी बाल-कहानियों  में उकेरते हैं।

    बाल साहित्य का उद्देश्य बाल पाठकों का मनोरंजन करना मात्र ही नहीं होता है बल्कि उन्हें (बच्चों) को जीवन और सामाजिक मूल्यों के प्रति जागृत और शिक्षित करना भी। किसी भी राष्ट्र का भविष्य आने वाली पीढ़ी के ऊपर होता है और आने वाली पीढ़ी के सर्जक बच्चे ही होते हैं। “शिक्षा और बाल-साहित्य दोनों एक दूसरे पर परस्पर रूप से निर्भर है।”[6] जिस प्रकार से इस संसार में बदलाव समय की मांग है उसी प्रकार बाल साहित्य में भी समय-समय पर आमूल-चूल बदलाव परिलक्षित होता है। स्वतंत्रता के बाद बाल साहित्य में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिलता है। नयी-नयी विचारधाराओं के अस्तित्व में आने से  जिस प्रकार मुख्यधारा का साहित्य बदलने लगा उसी प्रकार बाल साहित्य में भी एक नयी और अलग परंपरा विकसित हुई। सही मायनों में स्वतंत्रता के बाद पहली बार बाल साहित्य को भारत के साहित्य में भी एक तरह से मान्यता मिली। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से पहली बार बच्चों की सम्पूर्ण पत्रिका ‘बालभारती’ प्रकाशित हुई।

    किसी भी राष्ट्र या समाज की आशा और आकांक्षा नई पीढ़ी अर्थात् बच्चों पर ही टिकी होती है। खास कर के आज इस यांत्रिकता और संवेदनहीन होते समाज में जहां बच्चें मोबाइल और इंटरनेट में उलझे रहते हैं, साहित्य से उनकी दूरी बढ़ती ही जा रही है। भारतीय परंपरा में बच्चों को बचपन से ही दादी-नानी की कहानी सुनाकर शिक्षित किया जाता है। “भारतेन्दु युग नयी और पुरानी पीढ़ी की मान्यताओं का संधियुग था। इस युग में ऐसा साहित्य रचा गया, जो बच्चों में देश प्रेम का भाव उत्पन्न करें, उन्हें देश सेवा का व्रत लेने योग्य बनाए तथा उनमें अच्छे संस्कार डाले। इसी प्रयोजन से पुराणों, उपनिषदों एवं प्राचीन धर्म ग्रन्थों की कहानियों को बच्चों के सामने प्रस्तुत किया गया।”[7] एक प्रकार से बच्चे उस कच्ची मिट्टी के समान होते हैं जिसे साहित्य रूपी कुम्हार किसी भी आकृति के रूप में गढ़ता है/गढ़ सकता है। बच्चे कहानी सुन-सुन कर ही बड़े होते हैं। बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास कहीं न कहीं दादी-नानी की कहानियों के सकारात्मक प्रभाव से ही होता है। बाल-साहित्य का मूल आशय बच्चों के लिए सृजनात्मक साहित्य से है। बालपरक कविताएँ, कहानियाँ, नाटक, उपन्यास आदि सभी का लेखन नागर जी ने किया है परंतु इसे संयोग कहें या फिर कहानी के प्रति एक विशेष अनुराग कि उनके लेखनी की शुरुआत बालकथा से ही शुरू होती है और अन्ततः बालकथा से ही अपने लेखन को विराम भी देते हैं।

    फूलों की घाटी, नटखट खरगोश, घमंड की सजा और बुधिया की चालाकी, निधन से कुछ महीने पूर्व लिखी कहानियाँ हैं। सर्व-प्रथम बाल लेखन नागरजी ने बच्चों के लिए ही किया था , जिसका जिक्र शरत नागर करते हैं- “नागर जी द्वारा संयोगवश सबसे पहले लिखा हुआ बाल-साहित्य लेखन मूलतः किशोरवय के बच्चों के लिए है। इसकी शुरुआत भी अचानक हुई! वस्तुतः इसके बानक यों बने थे- सन् 1938-39 में एक दिन बच्चों के लिए ‘बालविनोद’ पत्रिका निकालने वाले संपादक का आग्रह भरा प्रस्ताव मिला- ये कुछ चित्र हैं छपने के लिए। कृपया इनके आधार पर बच्चों के लिए कहानियाँ लिख दीजिए।”[8] और यहाँ से नागरजी की लेखनी कभी थमी नहीं। नागरजी  अधिकांश कहानियाँ 4-7 वर्ष तक के बच्चों के लिए है। नागर जी ने बाल-परक पत्रिका ‘चक्लस’ का सम्पादन भी किया है।

    हिंदी बाल साहित्य की बहुत ही समृद्ध परंपरा रही है। नारायण पंडित ने पंचतंत्र नामक पुस्तक में कहानियों को माध्यम बनाकर बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास किया है। साहित्य सिर्फ वयस्कों के लिए नहीं होता बल्कि कहा जाए तो यह वयस्कों से ज्यादा बच्चों के लिए होता है/होना चाहिए। हिंदी में दर्जनों रचनाकारों ने बच्चों को केंद्र में रख कर लेखन किया है परंतु बहुत कम ऐसे नाम है जिन्होंने बच्चों पर स्तरीय और ठीक-ठीक लेखन किया है। यहाँ बहुत कम इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि वयस्कों के लिए जिस प्रकार लेखन का वृहत संसार है उस प्रकार से बच्चों के लिए नहीं है। हिंदी के प्रसिद्ध बाल-साहित्यकारों में प्रेमचंद का नाम सर्वोपरि है। आगे चल कर हिंदी के बाल-साहित्य में एक बड़ा काम हरिकृष्ण देवसरे ने किया। उन्होनें 300 से अधिक बाल-परक साहित्यिक रचनाएँ की, जिनमें 100 से अधिक बाल कहानियाँ हैं।

    अमृतलाल नागर कहते हैं कि “बच्चे दर्पण की तरह अपने देश, समाज और घर के संस्कारों को झलकाते हैं। बच्चें जीवन देते हैं सबसे ज्यादा ताजगी मुझे बच्चों से मिलती है।”[9] प्रेमचंद के बाद हिंदी साहित्य में बच्चों पर लेखन करने वाले अमृत लाल नागर ही हैं। बाल साहित्य के संदर्भ में अमृतलाल नागर कहते हैं- “कलाकार का शिशु नितांत आवश्यक है। वह बच्चा नहीं होगा तो खेल कैसे खेलेगा, रमेगा कैसे?…. मेरे अंदर जब खेल की स्पीरिट ही नहीं रह जायेगी तब क्या होगा? टॉल्स्टॉय, तुलसी और प्रेमचंद को ही देखो। मैं सच कहता हूँ कि वे खिलाड़ी हैं, बच्चें हैं। टैगोर …. बच्चा था। …. रचनाकार में जो शिशु होता है उसे जागृत करना पड़ता है। उस शिशु को ही हम पालते हैं। उसी से तो मैं अमृतलाल नागर हूँ। जो रचनाकार हैं, वह शिशु होकर भी परम ज्ञानी, प्रौढ्सर्जक-विधाता है।… यह मत भूलों कि शिशु है, रचनाकार है, उसको मैं जितना ज्यादा देखता हूँ, उतना ही मुझको लाभ होता है यही मेरी जीवनोपलब्धि है।”[10] एक सच्चा रचनाकार, कलाकार या लेखक अपनी कृति की सफलता से कहीं अधिक हर्षित तब होता है जब उसकी लेखनी किसी मानव के लिए उपयोगी हो जाए।

    अमृतलाल नागर के लेखन में सामाजिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सभी प्रकार की चेतना, मानवीय मूल्य और अनुभव का सामंजस्य प्रतिबिंबित होता है। उनके लेखन में समाज के संपूर्ण वर्ग के साथ अपनापन और सहानुभूति है। “उनके साहित्य का मूल स्वर लोकधर्मी है और मूलभूत रूप से ऐसा किसी सैद्धांतिक आग्रह से नहीं, उनकी आंतरिक प्रवृति और समूचे व्यक्तित्व की बुनावट के कारण।”[11] उनके लेखन का प्रमुख प्रेरक तत्व उनका परिवेश है, जो देखा उसे ही अपना रचना संसार बना लिया। उनके युग की चेतना ही उनके साहित्य लेखन में निखर कर आयी,जैसा कि किसी भी रचनाकार या कलाकार को उसकी रचनात्मकता की प्रेरणा उसके आस-पास की विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों से ही मिलती है। समाज में घटित घटना जिससे लेखक का चित्त सकारात्मक या नकारात्मक किसी प्रकार से प्रभावित हुआ हो वही उसकी रचना संसार के माध्यम से समाज के समक्ष आता है। नागर जी के लेखन के बारे में डॉ॰ रामरती ने कहा है –“साहित्य सृजन अन्तः प्रेरणा से उद्भूत होती है। सृजनात्मक शक्ति सब में होती है, किन्तु तीव्र संवेदनशीलता अभिव्यक्त होकर व्यक्ति को सृजनशील बना देती है। परिवेश का प्रभाव मन पर पड़ता है और भावों विचारों का तीव्र आलोड़न-विलोड़न लेखक के लिए प्रेरणा बन जाती है।”[12] सामाजिक बुराइयों, कुरीतियों को अपने अड़ोस-पड़ोस में देख कर नागर जी के मन में जो द्वंद्व उठता रहा उसकी अभिव्यक्ति उनकी लेखनी में होती गयी। प्रेमचंद से नागर जी चिट्ठी के माध्यम से अपनी शुरुआती लेखन के संबद्ध में बात किया करते थे। एक बार प्रेमचंद ने उन्हें एक पत्र के जबाव में लिखा- “मैं तुमसे रियलिस्टिक कहानियाँ चाहता हूँ।”[13] नागरजी के जेहन में कहीं न कहीं प्रेमचंद की बात हमेशा बनी रही।

    “बच्चों के लिए कविताएँ, कहानियाँ आदि लिखते अमृतलाल नागर की रचनाओं में बच्चों के कल्पनालोक की परियाँ हैं तो लोक तथा परंपरागत कथाओं के भूत-राक्षस, राजा-रानी, राजकुमारी-राजकुमार, आदि की दुनिया भी और इसी के साथ समकालीनता भी!”[14] सच्चा रचनाकार वही है जो अपने आस-पास से जुड़ी घटनाओं को ही अपने लेखन में जगह दे साथ ही कल्पना भी एक सीमा तक ही हो। नागर जी इस कार्य में शत प्रतिशत सफल हुए हैं। अपनी बाल-कहानियों में नागर जी ने बच्चों के साथ बिताए अपने अनुभवों को व्यक्त किया है। उन्हें हमेशा से ही बच्चों के साथ रहना पसंद था और वह उनकी लेखनी में जाहिर भी होता है। इनकी कहानी ‘अमृतलाल नागर बैंक लिमिटेड’ बच्चों की कल्पना को यथार्थ से जोड़कर उनकी मनोवैज्ञानिक चेतना को परत दर परत खोलती हैं तो वहीं ‘एक पत्ता जो जासूस नहीं था’ कहानी तात्कालिक समाज में व्याप्त असमानता को रेखांकित करती है। एक तरफ राजसी ठाठ-बाट तो दूसरी तरफ गरीबी से त्रस्त जनता है। नेता, पुलिस और तांत्रिक के कुकर्मों को अपनी इस कहानी के माध्यम से बच्चों में उसके प्रति आक्रोश उत्पन्न कराकर उन कुकर्मियों के खात्मे के लिए एक नई पौध का निर्माण करना चाहते हैं। किस प्रकार एक निर्जीव वस्तु ‘पत्ता’ समाज और राष्ट्र के बारे में सोचता है और वहीं मनुष्य, भोग-विलासिता की जिंदगी जीने में लगा है। पत्ता को एक प्रतीक बनाकर बाल-कथा के माध्यम से उस जर्जर सामाजिक व्यवस्था को बच्चों के सामने रखते हैं ताकि आने वाले समय में बच्चें उसे समाप्त कर सकें।

    वैसे तो किसी भी लेखक या रचनाकार का रचना संसार उसके व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जन-जीवन के अनुभव के बिना पूर्ण नहीं हो सकता, तभी रचनाकार को यह स्वतंत्रता मिली हुई है कि वह इस संपूर्ण जगत से संबद्ध किसी भी सजीव या निर्जीव वस्तु या प्राणी को अपने रचना संसार का हिस्सा बना सकता है। कोई भी रचनाकार बिना किसी व्यक्तिगत और सामाजिक अनुभव के नहीं लिख सकता है। “साहित्यकार समाज में रहता हुआ अपने युग के वातावरण में विकसित होता हुआ, उसी वातावरण को अपनी रचनाओं में चित्रित करके उसे प्रभावित करता है।”[15]

    लेखन एक सहज रचनात्मक प्रक्रिया है। लेखक की रचनात्मकता उसके ज्ञान, अनुभव और अभिरुचि से निखरती है। लेखक के बारे में कहा जाता है कि वह यथार्थ को कल्पना का सहारा लेकर समाज के सामने रखता है। किसी भी लेखक, कवि या रचनाकार से यही उम्मीद की जाती है कि जो कह लिखता है या बोलता है उसे खुद के ऊपर लागू भी करें। साहित्यकार का लेखन उसका भोगा हुआ यथार्थ होता है। नागर जी का भी लेखन यथार्थ के करीब ही है। उनकी महानता इसलिए और ज्यादा बढ़ जाती है क्योंकि उन्होंने बच्चों के प्रति अपना प्रेम सिर्फ शब्दों में ही नहीं जताया है बल्कि सामान्य जीवन में उनके लिए कार्य भी किया है। नागर जी ने आगरा में अपने बच्चों के लिए घरेलू संस्था ‘गृहसमाज’ बनाकर इसके प्रतिफलन का प्रमाण दिया है। नागर जी ने किशोर बच्चों के लिए भी कहानियाँ लिखी हैं। नटखट चाची कहानी संग्रह की तीनों कहानियाँ सूअर की कहानी, नटखट चाची, लिटिल रेड इजिप्शिया 12-17 वर्ष के बच्चों के लिए लिखी गयी कहानियाँ हैं। तीनों घटना प्रधान कहानियों में स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की कल्पना, जिज्ञासा और समझ का योग है। 1940 के समय लिखी गयी ये कहानियाँ उनके बंबई जाने के पूर्व की हैं। बंबई जाने और फिर वहाँ से आने तक के 7-8 वर्ष के अंतराल में उनकी एक भी बाल कहानी नहीं मिलती है। बल्कि वे लगभग दो दशक तक बाल कथा लेखन से दूर रहें। शायद उनकी पारिवारिक उलझन की वजह से। 1961 ई॰ में ‘इकलौता लाल’ कहानी ज्ञानभारती में प्रकाशित होती है। 1960 से 80 के बीच इक्का-दुक्का कहानियाँ मिलती हैं, परंतु 80 के दशक में दर्जनों बाल कहानियाँ लिखते हैं। जिनमें साझा (1965), गुंडों के बच्चें (1970), सोने का चूहा (1978), पान की कहानी (1981), रानी मक्खी की चतुराई (1984), नटखट खरगोश (1989) आदि प्रमुख हैं।

    नागरजी ने अपनी बाल-कहानियों में कहावतों और मुहावरों का बहुतायत प्रयोग किया है। भाषा और शैली के स्तर पर कहानियाँ पूर्णतः खरी उतरती हैं। बच्चों की बोलचाल की भाषा साथ ही मुहावरों का एक अनोखा प्रयोग उनकी कहानियों में देखने को मिलता है। अमृतलाल नागर की बाल कहानियां आज 21वीं सदी में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी रचनाकाल के दौर में थी। आज जिस प्रकार से बाजार, इंटरनेट और तमाम नये-नये तकनीक बच्चों को साहित्य से दूर करने में सहायक हो रहे हैं वह बहुत ही चिंतनीय विषय है। आज जिस तीव्र गति से समाज बदल रहा है उसमें कहीं न कहीं नयी तकनीक का बहुत बड़ा हाथ है। आज बाल साहित्य को नये सिरे से लिखने और समझने की आवश्यकता है। बच्चों के बदले हुए स्वाद को ध्यान में रख कर बाल-साहित्य का लेखन होना चाहिए। “परिवर्तन की लहर ने आज वैश्विक फ़लक पर सूचना प्रौद्योगिकी और तकनीक की जो नयी इबारत लिखी है, उसने बालक एवं बाल साहित्य दोनों को ही प्रभावित किया है।”[16] कुछ मायनों में यह प्रभाव नकारात्मक है तो कुछ में सकारात्मक। “ऊपरी दृष्टि से देखने पर आज हिन्दी बाल साहित्य की दशा संतोषजनक ही नहीं, बल्कि पर्याप्त सराहनीय प्रतीत होती है पर यथार्थ में ऐसा नहीं है। उसकी तादाद तो यकीनन बढ़ी है, पर स्तर और गुणवत्ता में कमी आई है।”[17]

संदर्भ ग्रंथ-

[1] अमृतलाल नागर के उपन्यासों में चित्रित राजनीति, डॉ॰ रामरती, संजय प्रकासशन, 2008, पृष्ठ-9

2-हिंदी बाल साहित्य और बाल विमर्श, संपादक—उषा यादव, राजकिशोर सिंह, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-14

3-गद्य कोश, हिंदी का बाल-साहित्य: परंपरा, प्रगति, और प्रयोग, दिविष कुमार, gadyakosh.org

4-सम्पूर्ण बाल रचनाएँ, अमृतलाल नागर, संकलन एवं सम्पादन- शरद नागर, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ- 10 (भूमिका)

5-हिंदी बाल साहित्य और बाल विमर्श, संपादक—उषा यादव, राजकिशोर सिंह, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-16

7-blogspot.in, world of children’s literature, हिंदी में बाल साहित्य की वर्तमान स्थिति, रमेश तैलंग, 7 फरवरी 2015

8-हिंदी बाल साहित्य और बाल विमर्श, संपादक—उषा यादव, राजकिशोर सिंह, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-14

9- सम्पूर्ण बाल रचनाएँ, अमृतलाल नागर, संकलन एवं सम्पादन- शरद नागर, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ- 7(भूमिका)

10-वहीं, भूमिका, पृष्ठ-10

11-पक्षधर यथार्थ के कथाकार यशपाल, अमृतलाल नागर, रेणु और अमरकांत, संपादक- विष्णुचंद्र शर्मा, स्वराज प्रकाशन, 2001, पृष्ठ-71

12-अमृतलाल नागर के उपन्यासों में चित्रित राजनीति, डॉ॰ रामरती, संजय प्रकासशन, 2008, पृष्ठ-1

13-सम्पूर्ण बाल रचनाएँ, अमृतलाल नागर, संकलन एवं सम्पादन- शरद नागर, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ-7 (भूमिका)

14-सम्पूर्ण बाल रचनाएँ, अमृतलाल नागर, संकलन एवं सम्पादन- शरद नागर, लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ-15 (भूमिका

15-हिंदी उपन्यासों में मध्यवर्ग, हेमरज निर्मम, विभू प्रकाशन, 1978, पृष्ठ-10

16-हिंदी बाल साहित्य और बाल विमर्श, संपादक—उषा यादव, राजकिशोर सिंह, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-29

17-हिंदी बाल साहित्य और बाल विमर्श, संपादक—उषा यादव, राजकिशोर सिंह, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-31

अतुल वैभव
 शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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