ख़ुसरो भारतीयता के रंग में रंगे कवि थे। उन्हें भारत की मिट्टी से प्यार था। वो यहाँ के फल-फूल, नदी-तालाब, रीति-रिवाज और परम्परा से प्रभावित थे। यहाँ के परिवेश में पूरी तरह घुले-मिले। वह गर्व से कहते थे – ‘किश्वरे हिन्द अस्त बहिश्ते बजमी’ अर्थात् भारत पृथ्वी पर स्वर्ग है। उन्हें हिन्दवी पर गर्व था –

          ‘‘चु मन तूतिए-हिन्दम अर रास्त पुर्सी।

          ज़े मन हिन्दुई पुर्स, ता नाज गोयम।।’

अर्थात् मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ; अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो जिससे कि मैं कुछ अद्भुत बातें बता सकूं।1 अमीर ख़ुसरो लोक में रचे-बसे कवि थे। उनकी रचनाओं में भारतीय समाज स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। लोक से उन्हें जो कुछ मिला उसे उन्होंने अपने जीवन और साहित्य का हिस्सा बनाया। ‘‘यह वह समय था जब भारत में यहाँ के नव-मुस्लिमों की अपेक्षा विदेश से आये मुसलमानों को अधिक सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त थी। इसलिए यहाँ बसे मुसलमान अपनी वंश-परम्परा को विदेशी मूल से मिलाने की होड़ में रहते थे। भेदभाव यहाँ तक था कि भारतीय मुसलमानों और गैर-मुस्लिमों को सामाजिक दृष्टि से निम्न स्तर का माना जाता था। गयासुद्दीन बलबन ने तो कई योग्य व्यक्तियों को सरकारी पदों से केवल इस अपराध में अपदस्थ कर दिया था कि वे भारतीय मूल के सिद्ध हो गये थे। किन्तु ये अमीर ख़ुसरो ही थे जिन्हें कभी भी अपने भारतीय होने पर ग्लानि अथवा हीनता का अनुभव नहीं हुआ और उन्होंने सीना तान कर गर्व से कहा कि हिन्द मेरी जन्मभूमि और मेरा देश है।2 अमीर ख़ुसरो ने ख़ुद को प्रमाणित करने का प्रयास नहीं किया। लोक-रंग में डूबे ख़ुसरो शादी-ब्याह के गीत रचते हैं, वसंत, सावन, बरखा पर झूम उठते हैं, कव्वालियों के माध्यम से इहलोक से परलोक तक का सफ़र तय करते हैं। ‘‘वह पहला मुसलमान लेखक था जिसने हिन्दी शब्दों तथा भारतीय अलंकारों और विषय-वस्तु का प्रयोग किया। दुर्भाग्यवश परवर्ती लेखकों ने उसका अनुसरण नहीं किया और जानबूझकर विदेशी शब्दावली, अलंकारों तथा विषय-वस्तु से चिपटे रहे।3 ख़ुसरो एक योद्धा थे, कवि थे, फक़ीर थे, संगीतज्ञ थे। उन्होंने अनेकानेक गीतों की रचना की। कुछ गीतों में वह आत्मा-परमात्मा के मिलन की बात करते हैं तो कुछ गीतों में विभिन्न पर्व, उत्सवों, त्योहारों की बात करते हैं। ख़ुसरो स्त्री-मन को समझते हैं। उसके दुःख-दर्द और तकलीफ़ को समझते हैं। ख़ुसरो की रचनाएँ स्त्री-मन को छूती हैं: तभी तो इतने सौ सालों बाद भी ये लोकजीवन का हिस्सा हैं। आज भी गाँव-गिरान में ये गीत लोगों के जीवन का अभिन्न अंग है –

          ‘‘अम्मा मोरे बाबा को भेजो री

          कि सावन आया।

          बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री,

          कि सावन आया।

          अम्मा मोरे भाई को भेजो री,

          कि सावन आया।

          बेटी तेरा भाई तो बाला री,

          कि सावन आया।

          अम्मा मेरे मामूं को भेजो री,

          कि सावन आया।

          बेटी तेरा मामूं तो बांका री,

          कि सावन आया।’’

          अपने घर से दूर, अपने माँ-बाप से दूर बैठी लड़की के मन में कसक है, पीड़ा है। वह उस आँगन में लौट जाना चाहती है जहाँ उसका बचपन बीता। जहाँ वह अपने सखी-सहेलियन के संग खेली-बड़ी हुई। एक ही घर में जन्मी बेटी ब्याह कर भेज दी जाती है और बेटा सदा उस घर का होकर रह जाता है –

          ‘‘काहे को ब्याहे बिदेस

          रे लखि बाबुल मोरे।

          भईया के दी है बाबुल महला-दुमहला,

          हमको दी है परदेस, लखि बाबुल मोरे।

          मैं तो बाबुल तोरे पिंजड़े की चिड़िया

          रात बसे उड़ि जाऊं, लखि बाबुल मोरे।

          कोठे तले से पलकिया जो निकली

          बिसा ने खाई पछाड़, लखि बाबुल मोरे।

          परदा उठाके जो देखी

          आए बेगाने देस, लखि बाबुल मोरे।’’

          ख़ुसरो स्त्री-मन को समझते हैं। उसके दर्द को समझते हैं। स्त्री-प्रकृति है। प्रकृति को समझे बिना रचा गया साहित्य कोरे अक्षर मात्र रहेंगे, अर्थहीन। पर ख़ुसरो के हृदय में लोक बसता है और ख़ुसरो का रचा लोक के हृदय में बसता है।

          ख़ुसरो उस स्त्री के दर्द और पीड़ा को समझते हैं जिसका पति विदेश चला गया है। जिसके आने की आस उसे लगी है –

          ‘‘परदेसी बालम धन अकेली मेरा बिदेसी घर आवना

          बिर का दुःख बहुत कठिन है प्रीतम अब आजावना

          इस पार जमुना उस पार गंगा बीच चंदन का पेड़ ना

          इस पेड़ ऊपर कागा बोले कागा का वचन सुहावना।।’’

          लोक-जीवन में मुंडेर पर कागा के बोलने को शुभ माना गया है। कागा के बोलने का अर्थ है – कोई आने वाला है। साहित्य में ऐसे कई प्रसंग हैं जहाँ कागा की चोंच को सोने से मढ़वाने और उसे दूध-भात खिलाने की बात कही गई है। लोक-जीवन के इसी भाव को ख़ुसरो ने अपने काव्य में गढ़ा है।

          ‘‘आज घिर आई दई मारी घटा कारी

          बन बोलन लागे मोर दैया री बन बोलन लागे मोर

          रिम झिम रिम झिम बरसन लागी छाय री चहूं ओर।

          आज बन बोलन लागे मोर।

          कोयल बोल डार-डार पर पपीहा मचाए शोर

          ऐसे समय साजन परदेस गए बिरहन घोर।’’

          अमीर ख़ुसरो बारहमासा भी रचते हैं। वर्षा के गीत गुनगुनाते हैं, वसन्त के राग गाते हैं। लोक-जीवन मे ख़ुसरो को जो भी प्रिय लगा, उसे उन्होंने सहज रूप से अपनाया। ख़ुसरो ने वसन्त के गीतों को दरगाहों और ख़ानकाहों में लोकप्रिय बनाया। कहा जाता है कि जब हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के प्रिय भान्जे मौलाना तकीउद्दीन का देहान्त हो गया था तो औलिया को बहुत दुःख पहुँचा था। वे शोक में डूब गये। ख़ुसरो भी औलिया को ऐसे देखकर दुःखी रहते थे। इन्हीं दिनों हिन्दुओं का वसन्त का मेला था। लोग सरसों के पीले फूल हाथ में लेकर, मस्त होकर वसन्त राग गा रहे थे। अमीर ख़ुसरो उधर से निकले तो इस दृश्य को देखकर इतने भाव-विभोर हुए कि तुरन्त ही हिन्दी और फ़ारसी के कुछ शेरों की रचना कर दी। सरसों के पीले फूल हाथ में लेकर पगड़ी को बड़ी मस्तानी अदा में टेढ़ा करके, झूमते और गाते हुए हज़रत निज़ामुद्दीन की सेवा में उपस्थित हुए। ख़ुसरो की ये अदा देखकर निज़ामुद्दीन मुस्कुरा उठे। इसके बाद तो यह परम्परा ही चल पड़ा कि हर साल चिश्ती निज़ामी दरगाहों में वसंत के मेले का आयोजन किया जाता है और सूफ़ी क़व्वाल आत्म-विभोर होकर क़व्वाली और वसंत के गीत गाते हैं। पीले फूलों और पीली चादर से दरगाहों को सजाया जाता है। क़व्वाल हिन्दी की ठुमरियों को पढ़-पढ़कर गीत गाते हुए नृत्य करते हैं। वसन्तु ऋतु और उसकी अद्भुत छटा पर अमीर ख़ुसरो रीझ जाते हैं –

          ‘‘सगन बन फूल रही सरसों

          अंबवा फूले, टेसू फूले

          कोयल बोले डार-डार

          और गोरी करत सिंगार

          मलनियाँ गेंदवा ले आई कर सों

          सगन बिन फूल रही सरसों

          तरह-तरह के फूल खिलाए,

          ले गेंदवा हाथन में आए।

          निज़ामुद्दीन के दरवज्जे पर

          आवन कह गये आशिक रंग

          और बीत गये बरसों।

          सगन बिन फूल रही सरसों’’

          ख़ुसरो पर मूर्तिपूजा का आरोप लगता है या जब कट्टरपंथी लोग उन पर ताना मारते हुए कटाक्ष करते हैं कि ख़ुसरो तो बुतपरस्त (मूर्तिपूजक) हो गया है, तो वह इन बातों से परेशान नहीं होते और कहते हैं –

          ‘‘ख़लक मी गोयद के ख़ुसरो बुत परस्ती मी कुनद

          आरे-आरे मी कुनम बा ख़लक व दुनिया कार नीस्त।’’

अर्थात् संसार कहता है कि ख़ुसरो मूर्तिपूजा करता है। हाँ, हाँ मैं करता हूँ। मुझे संसार से कोई सम्बन्ध नहीं। ख़ुसरो जिस समाज में हैं वहाँ मूर्तिपूजा का विधान है। ख़ुसरो के दिलो-दिमाग़ में कृष्ण की छवि स्पष्ट है। उनके कई गीतों में इसकी झलक देखने को मिल जायेगी।

          ‘‘बन के पंछी भये बावरे

          ऐसी बीन बजाई सांवरे

          तार-तार की तान निराली

          झूम रही सब वन की डाली

          पनघट की पनिहारी ठाड़ी

          भोली ख़ुसरो पनिया भरन को।’’

          कृष्ण जनमानस में बसे थे तो अमीर ख़ुसरो भला इससे कैसे अछूते रहते। कृष्ण की लीला और मनभावन रूप कहीं न कहीं उनकी आँखों में भी बस गया। इसी तरह का भाव उनके इस गीत में भी नज़र आता है –

          ‘‘बहुत कठिन है डगर पनघट की

          कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी

          मोरे अच्छे निजाम पिया

          कैसे भर लाऊँ मैं मधवा से मटकी

          जरा बोलो निजाम पिया

          पनिया भरन को जो मैं गई थी

          दौड़-झपट मोरी मटकी पटकी।

          बहुत कठिन है डगर पनघट की

          ख़ुसरो निजाम के बलि-बलि जाइये

          लाज राखे मोरे घूंघट पट की।’’

          भारतीय लोक-जीवन में गुरु का विशेष महत्व है। वैदिक युग से ही देखें तो इसके अनेक उदाहरण मिल जायेंगे। ख़ुसरो भी उसी भारतीय लोक-जीवन के संवाहक हैं। वह अपने गुरु निज़ामुद्दीन औलिया पर बलिहारी जाते हैं –

          ‘‘मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल।

          कैसे घर दीन्हीं बकस मोरी माल।

          निज़ामुद्दीन औलिया को कोई समझाए,

          ज्यों-ज्यों मनाऊँ वो तो रुसो ही जाये।

          चूड़िया फूड़ो पलंग पे डारूँ

          इस चोली को मैं दूंगी आग लगाए।

          सूनी सेज डरावन लागै।

          बिरह अगिन मोहे डस-डस जाए

          मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल।’’

          कई ऐसे गीत और कव्वालियाँ मिल जायेंगी जहाँ ख़ुसरो यह बताते हैं कि गुरु-प्रेम से गाढ़ा कोई रंग नहीं। इसलिए वो अपना तन-मन-धन सबकुछ निजाम पर निछावर करने की बात कहते हैं। ख़ुसरो ने ऐसा किया भी। निज़ामुद्दीन औलिया की मृत्यु के पश्चात उन्होंने अपना सबकुछ बाँट दिया और निजाम की दरगाह पर आ गये।

          ‘‘गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।

          चल ख़ुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस।।’’

          छः महीने बाद ख़ुसरो ने भी इस संसार से विदा लिया।

          ‘‘दैया री मोहे भिजोया री शाह निजाम के रंग में

          कपरे रंगने से कुछ न होवत है

          या रंग में मैंने तन को डुबोया री

          पिया रंग मैंने तन को डुबोया

          जाहि के रंग से शोख रंग सनगी

          ख़ूब ही मल-मल के धोया री

          पीर निजाम के रंग में भिजोया री।’’

          लोक-परंपरा का सबसे अच्छा उदाहरण अगर देखना हो जो ख़ुसरो की पहलियों में देखा जा सकता है। संस्कृत-साहित्य में कहीं-कहीं प्रहेलिका मिलती है। पर ख़ुसरो ने इसे अपने अनूठे अंदाज़ में प्रस्तुत किया है। ख़ुसरो की पहेलियों में सबसे ज़्यादा लोक-संस्कृति की महक है। लोक-संस्कृति का विकास अचानक नहीं होता। संस्कृति का निर्माण होने में सदियाँ लग जाती हैं। ‘‘संस्कृति ऐसी चीज़ नहीं कि जिसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास वर्षों में की जा सकती हो। अनेक शताब्दियों तक एक समाज के लोग जिस तरह खाते-पीते, रहते-सहते, पढ़ते-लिखते, सोचते-समझते और राज-काज चलाते अथवा धर्म-कर्म करते हैं, उन सभी कार्यों से उनकी संस्कृति उत्पन्न होती है।’’4  ख़ुसरो की पहेलियों में हर वो ख़ास-ओ-आम है जो जीवन की महत्वपूर्ण कड़ी है। इन पहेलियों में उस काल के वस्त्र-आभूषण, रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन तथा तत्कालीन समाज की झलक मिलती है। तेरहवीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते मुस्लिम संस्कृति का भी व्यापक प्रभाव पड़ा। हमारे घर-परिवार, रीति-रिवाज, सोचने के ढ़ंग, कला-संस्कृति, धर्म, साहित्य सभी इससे प्रभावित हुए। अमीर ख़ुसरो की रचनाओं में यही मिली-जुली संस्कृति है। ख़ुसरो की पहेलियाँ आज भी लोगों के जीवन की एक अहम कड़ी हैं।

          ‘‘बीसों का सर काट लिया

          ना मारा ना ख़ून किया’’

                                                                        नाख़ून

                     X                  X                  X

          ‘‘एक गुनी ने ये गुन कीना, हरियल पिंजरे में दे दीना।

          देखो जादूगर का कमाल डारे हरा निकाले लाल।’’

                                                                        पान

                     X                  X                  X

          ‘‘घूम घुमेला लहँगा पहिने, एक पाँव से रहे खड़ी

          आठ हात है उस नारी के, सूरत उसकी लगे परी।

          सब कोई उसकी चाह करे है, मुसलमान हिन्दू छत्री

          ख़ुसरो ने यह कही पहेली, दिल में अपने सोच जरी।’’

                                                                        छतरी

                     X                  X                  X

          ‘‘एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा।

          चारो ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।।’’

                                                                        आकाश

                     X                  X                  X

          ‘‘एक नारि के हैं दो बालक, दोनों एकहिं रंग।

          एक फिरे एक ठाड़ रहे, फिर भी दोनों संग।’’

                                                                        चक्की

                     X                  X                  X

          ‘‘खेत में उपजे सब कोई खाय।

          घर में होवे घर खा जाय।।’’

                                                                        फूट

          पहेलियों के साथ-साथ ख़ुसरो की कह-मुकरनियाँ भी ख़ूब प्रचलित हुई। कह-मुकरनियाँ अर्थात् किसी बात को कहकर मुकर जाना। ऐसी पहेलियाँ हँसी-मज़ाक़ के लिए भी ख़ूब प्रचलित हैं। अमीर ख़ुसरो की कह-मुकरनियाँ उनके विनोदी स्वभाव को भी दर्शाती हैं। उस समय के सामाजिक जीवन में ये मनोरंजन के महत्वपूर्ण साधन थे। कह-मुकरनियाँ लिखने का श्रेय निश्चित रूप से अमीर ख़ुसरो को मिलता है –

          ‘‘लिपट लिपट के वा के सोई

          छाती से छाती लगा के रोई

          दांत से दांत बजे तो ताड़ा

          ऐ सखि साजन? ना सखि जाड़ा’’

                     X                  X                  X

          ‘’ऊँची अटारी पलंग बिछायो

          मैं सोई मेरे सिर पर आयो

          खुल गई अँखियां भयी आनंद

          ऐ सखि साजन? ना सखि चाँद’’

          अमीर ख़ुसरो की ही तर्ज पर भारतेन्दु ने भी कह-मुकरनियां लिखी –

          ‘‘सब गुरुजन को बुरा बतावे, अपनी खिचड़ी आप पकावे।

          भीतर तत्व न झूठी तेजी, क्यों सखी साजन? नहीं अंग्रेज़ी।।’’5

          अमीर ख़ुसरो उस समय के खान-पान में इस्तेमाल भुटटा, बड़ी, पान, अरहर, चना, फूट, रोटी, शकरकन्द, खिचड़ी, पराठा, समोसा आदि का वर्णन अपनी हिन्दी रचनाओं में करते हैं।

          अरहर के सौन्दर्य का वर्णन इस प्रकार करते हैं –

          ‘‘गौरी सुन्दर पातली, केहर काले रंग।

          ग्यारह देवर छोड़ के, चली जेठ के संग।’’6

          मध्यकाल में इस्तेमाल होने वाली लगभग सभी घरेलू वस्तुओं का ज़िक्र अमीर ख़ुसरो ने किया है। आईना, मूढ़ा, चिक, चारपाई, हँडिया, गगरी, लोटा, टोकरी जैसी वस्तुओं को खुसरो ने अपने काव्य का विषय बनाया। लोटे के लिए कहते हैं –

          ‘‘खड़ा भी लोटा, पड़ा भी लोटा

          है बैठा और कहे हैं लोटा

          खुसरो कहे समझ का टोटा’’7

          इस काल में भवनों में कुआँ, स्नानघर तथा पानी की निकासी के लिए नालियाँ होती थीं। इनको भी ख़ुसरो ने अपने काव्य का साधन बनाया है। नाली की पहेली कुछ इस प्रकार है –

          ‘‘अन्दर है और बाहर बहे

          जो देखे सो मोरी कहे।’’8

          पहेलियाँ, कह-मुकरनियाँ, निस्बतों में जन-साधारण के रोज़मर्रा का कार्य-व्यापार छुपा है। इनका जवाब ढूंढ़ना किसी चुनौती से कम नहीं और जवाब दे देना किसी जीत से कम नहीं।

          अमीर ख़ुसरो की ‘निस्बतें’ भी ख़ूब लोकप्रिय हुईं। ‘निस्बतों’ में दो चीज़ों में समानता या तुलना ढूंढ़नी होती है। जैसे –

          ‘‘आदमी और गेहूँ में क्या निस्बत है?’’9

                                                              ‘बाल’

          इसी तरह ‘दो सुखना’ या ‘दो सखुना’ की भी रचना अमीर ख़ुसरो ने की। ‘दो सुखना’ वह है जिसमें दो या तीन प्रश्नों का एक ही उत्तर होता है। दो तरह के सुखने मिलते हैं। एक वह जिसमें दोनों लाइनें हिन्दी में होती है और दूसरा वह जिसमें पहली लाइन फ़ारसी में और दूसरी लाइन हिन्दी में है।

दो सुखना (हिन्दी)

                     राजा प्यासा क्यों?

                     गदहा उदासा क्यों?10

                                                   लोटा न था

दो सुखना (फ़ारसी)

                     ‘‘माशूक रा चे मी बायद कर्द?11

                     हिन्दुओं का रख कौन?

                                                   राम

          अब बात करते हैं ख़ुसरो के ढ़कोसले या अनमेलियां की। ढ़कोसले का अर्थ है – कुछ ऐसी बात जिससे किसी को धोखा दिया जा सके और अनमेलियां का अर्थ है – बेमेल, बेतुका। तो ऐसी कविता जो बेमेल, बेतुकी और बे-सिर-पैर की हो, वह ढ़कोसला या अनमेलियां है। वास्तव में इस तरह की कविता का कोई अर्थ नहीं होता। यह सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए रची जाती है। ख़ुसरो के एक ढ़कोसले को हम देख सकते हैं –

          ‘‘भैंसा चढ़ा बबूर पर लप-लप गूलर खाय।

          पोछ उठा के देखा तो पूनमाँसी के तीन दिन।’’

          संगीत भारतीय लोक-जीवन का सबसे सशक्त पक्ष है। अमीर ख़ुसरो ने संगीत के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान दिया है। ‘‘अमीर ख़ुसरो अपनी क़व्वाली के लिए सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। उनके नाम से अनेक क़व्वालियाँ हिन्दी में प्रचलित हैं।’’12

          ‘‘छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके

          प्रेम भटी का मदवा पिलाई के

          मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाई के।

          गोरी-गोरी बईयाँ, हरी-हरी चूड़ियाँ

          बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

          बल-बल जाऊं मैं तोरे रंगरेजवा

          अपनी-सी रंग दीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

          ख़ुसरो निजाम के बल-बल जइहे

          मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

          छाप तिलक सब छीनी रे ………….’’

          इसके साथ ही ख़ुसरो के यहाँ ऋतु सम्बन्धी गीत भी ख़ूब देखने को मिलते हैं। इसके साथ ही ख़ुसरो की आध्यात्मिक रंग में रंगी रचनाएँ आज भी ख़ूब गाई जाती हैं –

          इसके साथ ही ख़ुसरो के यहाँ ऋतु सम्बन्धी गीत भी ख़ूब देखने को मिलते हैं। इसके साथ ही ख़ुसरो की आध्यात्मिक रंग में रंगी रचनाएँ आज भी ख़ूब गाई जाती हैं –

          ‘‘ऐ री सखी मोरे पिया घर आए

          भाग लगे इस आंगन को

          बल-बल जाऊँ मैं अपने पिया के, चरन लगायो निर्धन को

          मैं तो खड़ी थी आस लगाये, मेंहदी कजरा मांग सजाये।

          देख सुरतिया अपने पिया की, हार गई मैं तन-मन को।

          जिसका पिया संग बीते सावन, उस दुल्हन की रैन सुहागन।

          जिस सावन में पिया घर नाहिं, आग लगे उस सावन को

          अपने पिया को मैं किस विध पाऊँ, लाज की मारी

          मैं तो डूबी-डूबी जाऊँ

          तुम ही जतन करो ऐ री सखी री, मैं मन भाऊँ साजन को।’’

ख़ुसरो के गीतो में प्रेम की परिपक्वता नज़र आती है। वहाँ मिलन भी है, विरह भी।

          इस तरह से देखा जाये तो ख़ुसरो का काव्य लोक-जीवन का दस्तावेज़ है जिसे भारतीय जनमानस को सहेजकर रखा है। ख़ुसरो जहाँ फ़ारसी के महानतम कवियों में गिने जाते हैं, वही एक ग्रामीण व्यक्ति भी ख़ुसरो से परिचित है। निश्चित रूप से भारत में ख़ुसरो की पहचान उनकी खड़ीबोली की रचनाओं के कारण है। दुर्भाग्यवश, ये रचनाएँ संग्रहित नहीं है। जिसके कारण हम बहुत कुछ जानने से वंचित रह जाते हैं या फिर यह भी कह सकते हैं कि बहुत कुछ ऊल-जलूल ख़ुसरो के नाम से चल पड़ा। फिर भी अमीर ख़ुसरो का हिन्दी-काव्य अपनी लोकप्रियता के कारण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचता रहा और इतने शताब्दियों बाद भी वह हमारी लोक-परंपरा या लोक-साहित्य का अंग बना हुआ है। ख़ुसरो के काव्य में तत्कालीन समाज नज़र आता है। भारतीय लोक-संस्कृति को अमीर ख़ुसरो सिर्फ अपनी काव्य तक सीमित नहीं रखते बल्कि अपने जीवन का अंग बनाते हैं। हम उन्हें एक ऐसी कवि के रूप में देख सकते हैं जो मुस्लिम संस्कृति और भारतीय संस्कृति के बीच छाये मौन और अजनबियत को तोड़ने का काम करते हैं। उन्हें मध्ययुगीन भारत का सांस्कृतिक पुरुष कह सकते हैं।

संदर्भ ग्रंथ –

  1. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, बच्चन सिंह, पृ. 66.
  2. भारत की महान विभूति-अमीर ख़ुसरो, व्यक्तित्व और कृतित्व, डॉ. परमानन्द पांचाल, पृ. 11.
  3. भारत का इतिहास, आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव, पृ. 275.
  4. अमीर ख़ुसरो और हिन्दुस्तान, डॉ. ताराचन्द, पृ. 2.
  5. संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, पृ. 652.
  6. अमीर ख़ुसरो और उनकी हिन्दी रचनाएँ डाॅ. भोलानाथ तिवारी, पृ. 91.
  7. अमीर ख़ुसरो और उनकी हिन्दी रचनाएँ डाॅ. भोलानाथ तिवारी, पृ. 68.
  8. ख़ुसरो की हिन्दी कविता, सं. ब्रजरत्नदास, पृ. 21.
  9. हिन्दी के लोकप्रिय संत कवि: अमीर ख़ुसरो, सं. सुदर्शन चोपड़ा, पृ. 121.
  10. हिन्दी के लोकप्रिय संत कवि: अमीर ख़ुसरो, सं. सुदर्शन चोपड़ा, पृ. 103.
  11. हिन्दी शब्दसागर, प्रथम भाग, सं. श्यामसुन्दर दास, पृ. 189.
  12. भारत की महान विभूति: अमीर ख़ुसरो, डॉ. परमानन्द पांचाल, पृ. 50.
डॉ. संगीता राय
हिन्दी विभाग
मिरांडा हाउस
दिल्ली विश्वविद्यालय

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