प्रश्न 1 – सर सबसे पहले हम यह जानना चाहेंगे कि बिहार से लेकर मुंबई की यात्रा आपने कैसे तय की ?अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ साझा कीजिये|
उत्तर – बिहार से मुंबई की यात्रा कोई यात्रा थोड़े ही है, यात्रा तो ये कहिए कि उस लोक की इस लोक तक कैसे हुई | मेरे पिताजी की पृष्ठभूमि एक किसान परिवार की थी, उन्होंने शिक्षा ग्रहण करके आर्मी की नौकरी ज्वाइन की |वे द्वितीय विश्व युद्ध में भी सहभागी रहे |उसके बाद उनकी पोस्टिंग महुआ जिले में बतौर कस्टम विभाग में हुई |मेरी माता जी पुराने ख्यालों वाली एक सामान्य महिला थीं जैसे आमतौर पर हमारे क्षेत्र की महिलायें होती हैं| मेरी शिक्षा वहीं एक गुरुकुल में हुई |उस वक़्त हम सुबह चार बजे उठते थे और छः बजे तक गुरु जी के पास पहुँच जाते थे |गुरु जी की सेवा में हमेशा हम ही आगे रहने की कोशिश करते थे |

प्रश्न 2 – आपने गुरुकुल की बात कही तो आपको नहीं लगता कि जो हमारी पुरानी परंपरा थी गुरुकुल की, जिससे हम कुछ न कुछ सीखते थे,अब चीज़ें बदल गयी हैं | आज की शिक्षा व्यवस्था पर आपके क्या विचार हैं ?
उत्तर – आज की शिक्षा व्यवस्था बहुत लचर हो गयी है, जबसे निजीकरण हुआ है |चूंकि बच्चों की जो शिक्षा है वह कुछ अजीब है और विश्व के जितने शिक्षाविद् हुए हैं उन सबका यही कहना है कि जो मूलभूत शिक्षा है वह उनकी अपनी मातृभाषा में हो तो बच्चे बहुत मेधावी होंगे |आज की शिक्षा बच्चों की जड़ कमजोर कर रही है जबकि गुरुकुल जड़ों को मजबूत करते थे |

प्रश्न 3 – आपने अभिनय की शुरुआत कैसे की ?
उत्तर – जब मैं स्कूल में था तब मैं नाटक में भाग लिया करता था |सांस्कृतिक कार्यक्रम किया करता था स्कूल में और मेरे गाँव में दुर्गा पूजा में दो नाटक हुआ करते थे एक भोजपुरी और एक हिंदी | यह नाटक आज भी वहां होते हैं | मैंने जीवन का पहला अभिनय भोजपुरी नाटक “गौना की रात” से शुरू किया | यह नाटक बाल विवाह पर आधारित था | इस नाटक को हर साल मैं अभिनीत किया करता था |और छपरा में अमेचर ड्रामेटिक एसोसिएशन था जो डॉ. राजेंद्र बाबू के बड़े भाई महेंद्र बाबू ने स्थापित किया था | उस एसोसिएशन से जिले के प्रतिष्ठित लोग जुड़े हुए थे |उसमें मुझे मौका मिला और मैंने अभिनय की शुरुआत की |

प्रश्न -4 आप अपनी शिक्षा के बारे में हमारे पाठकों को कुछ बताइए |पढाई के साथ-साथ अभिनय कैसे साधते थे?
उत्तर- मैं पढाई में शुरू से बहुत कमाल नहीं था लेकिन ईश्वर की कृपया से मैं हमेशा प्रथम डिवीज़न से ही पास होता था | मैंने फिजिक्स ऑनर्स की है | मेरी माँ चाहती थी कि मैं इंजीनियर बनूँ इसलिए मैंने पटना में इंजिनियरिंग की कोचिंग भी की पर मैं उसमें सफल नहीं हुआ |फिजिक्स ऑनर्स जब पूरी हुई तो मुझे लगा कि मैं कहीं लेक्चरर न बन जाऊं और मैं वह नहीं बनना चाहता था | फिर मेरे ख्याल में अभिनय का ख्याल आया और मैंने तय किया कि मैं अभिनय करूँगा | लेकिन उस जमाने में माता-पिता फिल्म, टेलीविजन और नाटक को अच्छा नही समझते थे | जाने भी नहीं देते थे , कहते थे इतना पढ़ाया-लिखाया,अब नाटक में जाएगा |लेकिन अब पिताजी से कौन बोले , माँ से मैंने बोला तो माँ ने कहा ” भक्क एक्टर बनोगे , इंजीनियर तो बनना नहीं है |” ऐसे ही रोज माँ के पास जाकर कहता था माँ एक्टर बनना है , एक्टर बनना है |फिर एक दिन मैंने माँ से बोला कि माँ अगर मैं एक्टर बन गया तो इंजीनियर , डॉक्टर , वकील , कलेक्टर सब बन जाउंगा | माँ मेरी पुराने खयालात की थी , तो मुझसे पूछने लगीं कि ऐसा कौन सा नौकरी है जिसमे तू सब बन जाएगा ; मैंने फिर से वही दोहराया , एक्टर | तो इस तरह से धीरे-धीरे ये बातें मेरे घर के वातावरण में घुलने लगीं |ऐसे ही कहते कहते ये बातें मेरे पिताजी के कानों तक भी पंहुची |आखिरकार साल-दो साल के संघर्ष के बाद पिताजी से भी स्वीकृति मिली और मैं निकल पड़ा|

प्रश्न-5-आपका वास्तविक सफ़र मुंबई से शुरू हुआ|मुंबई यात्रा से जुड़े अपने संघर्ष के किस्से साझा कीजिये|
उत्तर-जब पिता जी से स्वीकृति मिलने के बाद मैं निकला फिर सोचा कि करूँ क्या ; एक्टिंग स्कूल में दाखिला लूँ या थिएटर करूँ? और थिएटर की सोचते हुए मैं मुंबई गया और मैं वहां इप्टा से जुड़ा| वहां मेरा शून्य से सफ़र शुरू हुआ | झाड़ू लगाना ,कुर्सी लगाना , मेज लगाना , बैकस्टेज देखना , कपड़े दिखाना , उन पर प्रेस करवाना , मार्केटिंग करना , आदि काम पहले पहल करने को मिले |उसके बाद कभी भीड़ का सीन करने को मिला ,फिर कभी उसी भीड़ में से एक लाइन बोलने को मिल गयी |कभी एक छोटा सा रोल करने को मिल गया और फिर इसी तरह प्रक्रिया चलती रही |पहले तो ऐसा भी लगता था कि मैं क्यों बैकस्टेज कर रहा हूँ , छपरा में तो मैं हीरो का रोल किया करता था लेकिन आज जब ये सब सोचता हूँ तो पता चलता है कि बैकस्टेज जिसको हिन्दी में नेपथ्य कहते हैं , एक ऐसी प्रक्रिया है जो एक अच्छे एक्टर के निर्माण के लिए बहुत आवश्यक है | एक नाटक की रिहर्सल लगभग चालीस से साठ दिन होती है , और जब आप हर रोज उस नाटक के हर रोल को देख रहे होते हैं तो आप अपने लिए इस तरह से सोचते है कि अगर मैं इस रोल को कर रहा होता तो कैसे करता |यही प्रक्रिया आपके मस्तिष्क में चल रही होती है और इस तरह से आप अपने आप में स्वयं की एक कार्यशाला हो जाते हैं – द सेल्फ वर्कशॉप |और इसका फायदा मुझे इस तरह से मिला कि जब किसी एक्टर की कमी हुई तो वहां मुझे वो रोल फटाफट से मिल गया और मैं उसके लिए तैयार था भी |ऐसा कई नाटकों के लिए हुआ |

प्रश्न-6-इन सब के दौरान कोई यादगार किसा जिसने आपके संघर्ष के दिनों में आपको प्रेरणा दी हो?
उत्तर-मुझे याद है एक नाटक की कास्टिंग हो रही थी ,नाटक का नाम था ‘राजदर्शन’ और उसके निर्देशक थे वामन केंद्रे | जब कास्टिंग हो रही थी तो मुझे उम्मीद थी कि मुझे भी एक अच्छा रोल मिलेगा | जिस रोल के लिए मैंने मेहनत की थी वह रोल मुझे मिला नहीं तो मैंने डायरेक्टर को चैलेंज कर दिया और पूछा कि मुझे क्यों नहीं कास्ट किया, क्या कमी लगी मुझमें और पूरी इप्टा बैठी हुई थी, तो हंगल साहब गुस्सा हो गये |हंगल साहब ने कहा कि आप इप्टा के डायरेक्टर की कास्टिंग चैलेंज कर रहे हैं, ये आज तक नहीं हुआ, आप ये कैसे कर सकते हैं तो मैंने कहा कि मैं तो पूछ रहा हूँ कि मेरी कास्टिंग क्यों नहीं की आपने , मैंने यहाँ नहीं पूछूंगा तो कहाँ पूछूंगा, ये मेरा घर है | तब उन्होंने कहा कि मैं बोलने भी नहीं दूंगा आपको तब मैं वहां से उठ कर चला गया |मैं काफी दिन वहां नहीं आया तब एक दिन मुझे पता चला कि हंगल साहब रोज मुझे ढूंढते हैं | जब मैं एक दिन वहां गया तो हंगल साहब ने मुझे बुलाया और कहा कि “मुझसे गलती हो गई, मैंने आपको डांट दिया, कभी कभी गलती हो जाती है डायरेक्टर से भी” और फिर हंगल साहब ने एक किस्सा सुनाया कि 1955 में उन्होंने एक नाटक डायरेक्ट किया था ‘डमरू’ और उसमें जो लड़का मेन रोल कर रहा था, वो लड़का आया नहीं तब एक बैक स्टेज का लड़का मेरे पास आया और बोला कि साहब आपको ऐतराज ना हो तो मैं ये रोल कर दूँ और उन्होंने उस लडके को डांट दिया | नाटक शुरू होना था और एक्टर गायब था तब उन्होंने उस बैकस्टेज वाले लडके को बुलाया और पूछा कि रोल कर दोगे, उसने जबाब दिया ‘जी’ और जब उस लडके ने वह रोले किया तो सब देखते ही रह गये और उस लडके का नाम था ‘संजीव कुमार’ |तब मुझे उनका समझाया हुआ समझ में आया |

प्रश्न -7- रंगमंच से सिनेमा तक आना और आज इस समय जहाँ वेब सीरीज, डेली शो इत्यादि सामने हैं ऐसे में आज आपको रंगमंच कितना रिलेवेंट दिखाई देता है ?
उत्तर – रंगमच हो तो बहुत रहा है लेकिन अधिकांश जो नाटक हो रहा है वह भारतीय संस्कृति से जुड़ा हुआ जो साहित्य है वह कहीं न कहीं खोता जा रहा है |चूंकि पश्चिमी नाटकों का ज्यादा प्रभाव है, उसी का अनुवाद या रूपांतरण आज हो रहा है | हमारे यहाँ के अच्छे नाटककारों के नाटक किए जा रहे हैं,कहानियों के रूपांतरण किए जा रहे हैं |यह जागरूकता अच्छी है|युग बदल गया है लेकिन प्रासंगिकता अभी बनी हुई है |सिनेमा के दर्शक कम हैं लेकिन नाटक के उससे भी कम हैं,जितने लोग मंदिर-मस्जिद जाते हैं उतने लोग नाटक देखने नहीं आते हैं|अगर उतने लोग जाएँ तो एक सांस्कृतिक परिवर्तन हो जाए देश में |

प्रश्न-8-आजकल १०० करोड़ी फिलोमों का दौर है|मसाला के चक्कर में,पैसा कमाने के लिए आपको ऐसा नहीं लगता कि सिनेमा की अंतर्वस्तु कुछ कमज़ोर हो रही है,व्यावसायीकरण इस पर काफी प्रभाव डाल रहा है?
उत्तर-स्तर तो गड़बड़ हुआ है| आज हम पश्चिम की कॉपी करने में लगे हैं |ये चीज़ें हो रही हैं,आपके यहाँ का जो ओरिजिनल साहित्य है,यहाँ कथाओं का भण्डार है,रामायण,महाभारत,जातक कथाएं या आधुनिक युग के रचनाकार रहे हों,खूब कथाएं हैं,लेकिन फ़िल्में उसी पर नहीं बन है | आज फिल्म की दुनिया में स्टार प्रभाव ज्यादा है, यदि आज साहित्यिक फिल्म बनती है तो कितने लोग देखते हैं?बिना स्टार वाली फ़िल्में कम देखी जाती हैं |तो ये सब मुख्य कारण हैं और आज कि सिनेमा की दुनिया कि सच्चाई है|

प्रश्न-9-यह बात कही जाती है कि बड़े – बड़े साहित्यकार फिल्म की कहानी लिखने मुंबई गए लेकिन असफल होकर वापस आ गए |ऐसा क्यों होता है?
उत्तर- देखिए कुछ उदाहरण हम देकर बात रख देते हैं,लेकिन हकीकत क्या है?अगर फिल्म का निर्देशक कहेगा कि इस पंक्ति को बदल कर ऐसा कर दो,इसको वैसा कर दो तो जो साहित्यकार है जिसके लिए शब्द ही सब है वह ऐसा क्यों करेगा ?इसलिए वे लोग वहां अपने साहित्य के कारण नहीं रहते|सच्चा साहित्यकार अपने शब्दों से समझौता क्यों करेगा?साहित्य एवं फिल्म लेखन बिल्कुल भिन्न है|

प्रश्न-10-आपको आज के समय ऐसा नहीं लगता कि स्टारडम कि परिभाषा बदल रही है,प्रतिभा को कुछ जगह मिल रही है?
उत्तर-हर बार ये बात आती है,हर दशक में यह बात होती है,जब नाशिरुद्दीन शाह आए,ओमपुरी आये,पंकज कपूर आये ,यशपाल शर्मा आये,हमेशा यह बात होती रहती है ,फिर तब तक २००० के बाद का समय आ गया,नयी पीढी की प्रतिभाएं आ गयीं|हमेशा ऐसी फ़िल्में बनी हैं लेकिन स्टारडम के सामने कोई ठहरा नहीं है,नयी प्रतिभा को तो लाना पड़ेगा क्योंकि दर्शक को एक नयी फ्रेशनेस चाहिए, और हर फिल्म का बजट १०० करोड़ तो हो नहीं सकता ,यहाँ 2-3-5-7- करोड़ में भी फिल्म बनती हैं |सिनेमा एक तरह का व्यापार भी है कि जितना पैसा लगे उतना वापस भी आये लेकिन सिर्फ व्यापार नहीं है |

प्रश्न-11-हमने भोजपुरी में ‘धरती मैया’ जैसे शानदार फिल्मों की परंपरा देखी है,आज की भोजपुरी फ़िल्में अपने मूल से क्यों कट गयी?आप भोजपुरी भाषी हैं,आपके मन में नहीं आया कि हम भी कोई अच्छी भोजपुरी फिल्म करें?
उत्तर-मन करने से क्या होता है?दिमाग में आने से क्या होता है|मैं तो चाहता हूँ कि मैं एक अच्छी भोजपुरी फिल्म करूँ,और एक क्यों लगातार करूँ|भोजपुरी इंडस्ट्री का पूरा पैटर्न बदल गया,अल्बम के सिंगर हीरो बन गए |एक फिल्म में अब इसी कारण 12 गाने आ रहे हैं,यह उनकी मजबूरी है|अब भोजपुरी भी शून्यता की तरफ चली जाएगी,अभी इसमें बड़े परिवर्तन की ज़रूरत है |

प्रश्न – 12- एक अभिनेता के लिए हर रोल महत्वपूर्ण है,लेकिन क्या आपको कभी ऐसा लगा कि इस रोल के बाद अब अभिनय सफल हुआ मेरा,जिस रोल को आपने पूरी-पूरी तरह से जिया?
उत्तर-मैंने हर रोल को अपना पहला रोल समझ कर किया है,मुझे लगा कि अभी ब्रेक मिला है|वीरगति के लिए बहुत मेहनत किया, वह भी अच्छी लगती है,लगान और सरफ़रोश भी नए प्रयोग थे|भगत सिंह में चंद्रशेखर आज़ाद का रोल मिला,एक अलग सम्मान मिला,और भावुक होकर मैं उससे जुड़ गया था |मैंने इसे जीवंत करने की कोशिश की और लोगों ने जब पसंद किया तो लगा सफल हुआ |

प्रश्न-13-क्रूर सिंह के रोल के चर्चा के बिना यह अधूरा होगा,आपने उस रोल को जीवंत करने के लिए कितनी मेहनत की,क्या किया?
उत्तर-कभी कभी कुछ अच्छा हो जाता है,इसमें से क्रूर सिंह का रोल है|जब स्क्रिप्ट पढ रहा था तो एक अभिनेता पढ़ते समय विसुअलाइज भी करता है,तो पढ़ते समय एक ध्वनि निकले ,फिर उसको मैंने य,क,क, करके लिखा और सोचा इस ध्वनि को नौ रस में प्रयोग करूँ| फिर सोचा यक को श्रृंगार ,रौद्र,करूण आदि में कैसे कैसे प्रयोग करूँगा |मैंने नीरजा गुलेरी जी से कहा कि मैंने एक तकियाकलाम सोचा है,यक,उन्होंने कहा क्या?यक?इसका मतलब जानते हो ?मैंने कहा नहीं|मैंने कहा कि मैं सेट पर रिहर्सल करता हूँ,अच्छा लगेगा तो ठीक नहीं तो नहीं रखेंगे|तो सेट पर उनको पसंद आया,फिर इसे शामिल कर लिया |और एक ही हफ्ते में जब सेट पर जाता था मैं तो पीछे से लाइट वाले जो होते हैं मेरे जाते ही यक,यक,यक,यक की आवाज़ करने लगें तो यह इस तरह से प्रसिद्द हो गया |

 

सहचर टीम से बात करने के लिए आपका  हार्दिक धन्यवाद…

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