स्वातंत्रयोत्तर हिंदी कथा साहित्य की अभिवृद्धि में जिन महिला कथाकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है उनमें कृष्णा सोबती का नाम कोई नया नहीं है। नारी की धीरे-धीरे बदलती जीवन दृष्टि, उनका मानसिक, बौद्धिक दृष्टिकोण, वैयक्तिक स्वतंत्रता व निजी व्यक्तित्व के प्रति जागृति, पितृसत्तात्मक व्यवस्था से विभिन्न संदर्भों में मुक्ति के लिए उसकी छटपटाहट तथा आज की तमाम आधुनिकता व प्रगतिशीलता के बावजूद उसकी स्थिति आदि ऐसी समस्याएँ जो लगभग हर स्वतंत्रयोत्तर कथाकार को नारी जीवन व तत्संबंधी प्रश्नों पर सोचने के लिए विवश करती रही है। कृष्णा सोबती ने अपने साहित्य में नारी की वैयक्तिक अनुभूतियों, आकांक्षाओं को गहरे मानवीय बोध के साथ अंकित किया है। इन्होंने नारी मन की अकुलाहट बेचैनी और स्वतंत्र होने की इच्छा को सार्थक अभिव्यक्ति दी है। इसी पंक्ति में तेलगू साहित्यकार गुडिपाति वेंकट चलम भी खड़े नजर आते हैं। ‘‘स्त्री का प्रेम बदल सकता है। अप्रिय पति और परिवार को छोड़ जाने का उसे अधिकार है।

उनके पात्र यथार्थ की मिट्टी में पनपे गूंथे और जीवंत हैं। प्रत्येक रचना में उन्होंने चुनौतीपूर्ण विषय को लिया है। मित्रो मरजानीमें नारी काम इच्छा को स्वाभाविक मानकर मित्रोका चित्रण किया है। सूरजमुखी अंधेरे केबलात्कार से पीड़ित रत्ती के जीवन की जटिल समस्या है। उनकी रचनाओं में नारी को चीज के पद से व्यक्ति के पद तक आने की क्रमिक प्रक्रिया है।

कृष्णा सोबती ने अपनी रचनाशीलता के विषय में स्वयं कहा है- ‘‘एक व्यक्ति के निज के आगे और अलग भी बड़ी दुनिया है उसे मात्र जानने को नहीं अपने पर उतारने की समझ जगाओ, तालीम बढ़ाओ, फिर जो उजागर हो उसे समेट लो। याद रहे कि जो तुम हो उसे संवेदन का मानदण्ड समझ लेना काफी नहीं, जो तुमने झेला संघर्ष इतना ही नहीं है। अपनी समय सीमाओं और क्षमताओं पर हाथ रखते हुए सफल और चैकसी ही कृतित्व को कृतार्थ करती है।  

इनके उपन्यासों में नारी की सामाजिक स्थिति और समस्याएँ ही मुखर नहीं है अपितु महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि उनके नारी पात्र स्वयं अपनी स्थिति से उभरने की कोशिश करती है।

कृष्णा सोबती जी की स्त्री दिलो दानिशतक आते-आते मानस लोक में भटकने की बजाय खुरदरे यथार्थ जगत में रहना सीख गयी है। समाज के रूबरू अकेले खड़े होने के फैसले ने उसे अधिक परिपक्व समझदार व बहादुर बनाया है। दिलो दानिशमें कृष्णा सोबती जी ने नारी को परम्परागत नियति से मुक्त किया है। नारी और पुरुष के सहज आकर्षण को सोबती जी स्वीकार करती है। दोनों तरफ के समान आवेग को वे नैतिक-अनैतिक से ऊपर मानती है, किन्तु किसी के भी अधिकारों का हनन उन्हें स्वीकार नहीं है। नैतिकता और अनैतिकता के संबंध में गुडिपाटि वेंकट चलम का मानना है कि- ‘‘स्त्री के लिए नैतिकता का एक प्रतिमान है तो पुरुष के लिए दूसरा। यह दुहरी नीति नहीं होनी चाहिए।  

दिलो दानिशमें महक, कुटुम्ब और छुन्ना के माध्यम से नारी की आधुनिक परिकल्पना हमारे समक्ष रखती हैं। इंसान होने के नाते नारी के अपने राग-विराग, दुख-सुख ही नहीं होते, उसकी अपनी सत्ता है, अस्तित्व है, सोच है, अपनी पहचान है। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रयत्नशील, अपने अधिकारों के प्रति सचेत और अपनी मंजिलों की ओर अग्रसर होती नारियों का चित्रण इस उपन्यास में हुआ है।

परिवार समाज की आधारभूत संस्था है इसकी उत्पत्ति विवाह से होती है। परिवार की मूलभूत विशेषताएँ परिवार के दोनों पहिओं पर लागू होती है किन्तु पितृसत्ता में इस नैतिक-अनैतिक का सारा बोझ नारी पर डाल दिया जाता है और पुरुष परिवार से बाहर भी संबंध बनाता है और इन संबंधों के विषय में कृपानारायण का कथन है कि- ‘‘जिस्म को राहत चाहिए होती है। पर दिलो-दिमाग भी कुछ माँगते हैं। सारा खेल खाने पीने-सोने और घर चलाने का ही तो नहीं।

यह कुछ चाहिए वाला भाव ही पुरुष कृपानारायण को बाहर की ओर ढकेलता है। पत्नी अपने अधिकारों पर हाय-तौबा मचाए रखती है लेकिन पति का दंभ कम नहीं होता है। कुटुम्बप्यारी, महक प्रसंग को जब जानती है तो उसे ऐसा लगता है कि वह अपना पारिवारिक स्वत्व खो रही है- ‘‘कुटुम्ब प्यारी और तड़पने लगी- उस बाजारू औरत से आपके दो बच्चे हैं और आपने हमें ख़बर तक न होने दी।

पत्नि-पति के घर को छोड़कर कहाँ जाएँ, कहाँ उसका आश्रय है? इस संबंध में एंगेल्स का मानना है कि- ‘‘आधुनिक परिवार पत्नी की स्पष्ट या प्रछन्न दासता पर टिका है परिवार के अंदर वह पुरुष बुर्जुआ है और उसकी पत्नी सर्वहारा का प्रतिनिधित्व करती है।  

बदलते परिवेश और बदलते समाज में अब नारी की सोच भी बदल रही है। वह अपनी सत्ता के प्रति जागरूक है और पुरुष की मनमानी नहीं सहती है। वह अपना स्वतंत्र अस्तित्व प्रतिष्ठित करती है। कुटुम्बप्यारी उस हवेली की बहू है जिसके अपने कायदे कानून है किन्तु जब उस परिवार में उसका दम घुटने लगता है तब वह अपनी मुक्ति का रास्ता बाबा की ओर खुला पाती है। वह बाबा के सत्संग में रंगने लगती है। सात्विक सत्संग को दैहिक सत्संग में बदलने में उसे देर नहीं लगती। इससे पारिवारिक संबंधों में दरार पड़ जाती है। कृपानारायण भी संभवतः इस बात को जानते हैं पर चुप रहते हैं क्योंकि- ‘‘पुरुष स्त्रियों की निष्ठा को अपने अहम् का जरूरी हिस्सा मानते हैं और कुलटा का पति होना बहुत गहरी लज्जा का विषय है।

दिलोदानिशकी महक वह स्त्री है जो स्त्री बने रहते हुए अपने व्यक्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षशील है और यह संघर्ष उसके अस्तित्वगत चेतना का ही परिणाम है। इस संबंध में राकेश कुमार का मानना है कि- ‘‘महक अपने व्यक्तित्व को विभाजित होने से बचाएँ हुए है यह उसकी अस्तित्व के प्रति सचेतनता है। वह वकील साहब के साथ भी है और वकील साहब के बिना भी पूर्ण यही उसका नायिका तत्व है जो कुटुम्ब, बउआ जी से लेकर छुन्ना बीबी के समंजन के विरूद्ध चैलेंजिंग है।  

महक कृपा की मनमानी को सहन तो करती परन्तु धीरे-धीरे उसे अपनी सत्ता का अहसास होने लगता है कृपानारायण मन बहलावे के लिए महक के गरीब खाने पर दस्तक देते हैं और फिर महीनो उधर की सुध नहीं लेते हैं-  ‘‘………..औरत मर्द की ओर से मुहब्बत चाहती है पर वह रोशनी तलबगार भी है। चाहती है, उसके दिल की तरह ही उसके घर की खिड़कियों और दरवाजों में भी उजाला उगे और जहान उसे देखे।  

महक को अपनी स्थितियों का भान होने लगता है उसके दोनों बच्चे बदरू ओर मासूम धीरे-धीरे उससे छीने जाने लगते हैं। कृपानारायण महक से मासूमा को कानून गोद लेने की बात करते हैं तो इस पर महक का विद्रोह फूट पड़ता है, वह व्यंग्य से कहती है- ‘‘बेटा हमेशा से आपका है। अब बेटी को भी गोद लिया जा रहा है। अहा-हा, हमसे जो पैदा हुए। वकील साहब, इन विचारे लावारिसों को ख़ानदानी जामा पहनाना तो जरूरी है।

मासूमा को गोंद लेने की बात से महक के दिल में जलजला सा उठ खड़ा होता है। महक की अम्मी जिस जेवर के लिए हलकान हुई महक ने जिन्दगी भर उनका नाम न लिया। वह तीखी आवाज में कह उठती है- ‘‘कहाँ है अपना जेवर! अम्मी के गए पीछे हमने सन्दूकची की शक्ल नहीं देखी। क्यों! आखिर क्यों! जिनके लिए अम्मी ने जान दी। उसके साथ-साथ हमारी सारी दुनिया भी समेटी जा रही है। न! हम ऐसा न होने देंगे।  

महक विद्रोही स्वर अख्तियार कर लेती है और उस आवेग की आँधी पर नियंत्रण पा लेती है। वह हिम्मत से अन्याय के खिलाफ उठ खड़ी होती है- ‘‘सच्चे विद्रोही के पास विद्रोह की भंगिमा नही होती न साधारण बोल चाल में, न वेश भूषा में और न दैहिक जीवन के दूसरे किसी ब्रह्मचर्य में। अक्सर वह बहुत सीधा-साधा-सा आदमी होता है जिसे यूँ देखकर शायद कोई विद्रोही के रूप में भी पहचान नहीं काट सकता। ऋतुजा उसके लिए चरित्र का आवश्यक गुण होता है विद्रोही चेतना को बल पहुँचाने के लिए, उसे संगठित करने के लिए अवसर उपस्थित होने पर यह निश्चय ही गंभीर शब्दों में तेजस्वी शब्दों में विद्रोह की अपनी व्याख्या और परिकल्पना लोगों के सामने रखता है। लेकिन अपने को विद्रोही प्रचारित करता हुआ हर समय उसकी दुग्गी नहीं पीटता।  

महक का अनवर खाँ के साथ होना वकील साहब के गले नहीं उतरता। वकील साहब जो खुद एकनिष्ठ नहीं है पत्नी और प्रेयसी से एकनिष्ठता की अपेक्षा रखते हैं। महक अपने हक के लिए सजग हो उठती है- ‘‘हक माँगना अगर लड़ाई है तो दूसरे का हक मारना भी बेइंसाफी है।  

बेटी (मासूमा) की शादी में अम्मी (महक) को दावत का कोई पैगाम नहीं मिलता ऐसे समय में महक बानो पीछे हटने वाली नही है। वह हदों को तोड़कर अपने अस्तित्व के लिए कृत संकल्प हो जाती है। अपने हक की प्राप्ति के लिए चारदीवारी के बंधन को तोड़ देती है- ‘‘भला हमने भी इस कमरे से निकलने में देर क्यों कर दी?”  

दिलोदानिशमें निर्णायक क्षण वह है जब वकील साहब की मनाही के बावजूद महक का अपनी बेटी की शादी में तामझाम से पहुँचना और वहीं सबके सामने उसकी नानी नसीम बानो के गहने भेंट करना। इस प्रकार महक बानों बंधनों और लाँछनों की परवाह नहीं करती और सामाजिक संकीर्णताओं के मध्य अपने स्वत्व को अपने हौसले पर कायम करने में सफल हो जाती है।

प्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र यादव का मानना है कि- ‘‘जागरूकता से बच सकती है, लड़कियों की जान और इज्जत।  

जागरूकता का अर्थ शिक्षा से है। लड़कियाँ घरों से बाहर निकलकर शिक्षित हो और उन पदों पर अपना कब्जा जमा लें, जो अब तक पुरुषों के लिए आरक्षित मानी जाती थी। दिलोदानिश की छुन्नाइन शिक्षित लड़कियों का प्रतिनिधत्व कर रही है। खुली सोच और एक अलग शख्सियत रखने वाली पात्र है छुन्ना, छोटी आयु में ही पति की मृत्यु का दंश झेल विधवा हो जाती है किन्तु वह जागरूक व विवेक शील स्त्री है- ‘‘स्वतंत्रयोत्तर काल की विधवा अपनी पुरानी स्मृति में घुट-घुट कर मरने वाली स्त्री नहीं है। वह स्वावलम्बी बनने के लिए प्रयत्न कर रही है। पुनर्विवाह के लिए वह तैयार है, हीन ग्रन्थि लिए जीने की बजाय वह पूरी अस्मिता के साथ अपने भविष्य का जीवन अकेले में या किसी और के साथ जीने को तैयार है।  

यह टिप्पणी छुन्ना पर लागू होती है सामाजिक, व्यवस्था के अनुरूप समाज जिसमें उसके परिवार के लोग भी शामिल है, चाहते हैं कि वह विधवा के अनुरूप आचरण करें। छुन्ना इन बातों का विरोध करती है वह अपनी सास से स्पष्ट कहती है ‘‘अम्मा इन रिवाजों में क्या रक्खा है हम ऐसी दुश्मनी अपनों पर कभी नहीं लादेंगे।  

स्त्री का किसी और मर्द से हँसना बोलना ही समाज की आँखों में खटकता है और विधवा स्त्री पर यह शक का फंदा और भी मजबूत है। किन्तु इस उपन्यास में लेखिका ने नारी नियति पुरुष के हाथों में नहीं सौंपी वरन उनके नारी पात्र स्वयं अपने अस्तित्व की रक्षा करती हैं और संघर्ष करके अपनी अस्मिता को स्थापित करती हैं। छुन्ना में आत्मसजगता है और निर्णय लेने की क्षमता भी। सिलाई-बुनाई ग़जल गुनगुनाने, सुबह-शाम पूजा आरती ही नहीं उसे पढ़ना भी है। छुन्ना नौकरी कर आत्म निर्भर बन जाती है और पुनर्विवाह कर वह किसी भी हीन ग्रंथि की अपराधी नहीं बनती बल्कि अपनी पूरी पहचान के साथ अपने भविष्य कर सामना करने को तैयार हो जाती है।

नारी स्वत्व को लेकर राजकिशोर का कहना है कि- ‘‘नारी स्वत्व की लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती।    निःसंदेह कोई स्त्री अपने स्वत्व के लिए अकेले नहीं लड़ सकती क्योंकि पुरुष और पुरुषों की सेना उन्हें तत्काल कुचल देती।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि भारतीय स्त्री शासक बनने की बात नहीं कर रही है वह शोषित बनी रहने से इंकार कर रही है। वह अपनी योग्यता दक्षता सिद्ध कर रही है। आज की स्त्री हर जगह चाहे वह देश हो, समाज हो, परिवार हो उसमें अपनी भागीदारी चाहती है। पुरानी परम्पराओं को तोड़ रही है अर्थात् अपने को पिता, भाई, पति, पुत्र के निर्णयों से मुक्त करते अपने जीवन के फैसले खुद ले रही है। कृष्णा सोबती ने महक, छुन्ना व कुटुम्बप्यारी के माध्यम से आधुनिक नारी की बदलती दृष्टि उनकी सोच, अस्तित्व व अस्मिता को उजागर किया है। ये नारियाँ हिम्मत और साहस के बल पर निर्णय लेकर अपने भविष्य के लिए नई राह चुनती है और अपनी पहचान बनाती है। अतः कृष्णा सोबती की नारियाँ अपने स्वत्व को पाने में समर्थ हैं।

लक्ष्मी विश्नोई
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय

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