भारतेंदु हरिश्चंद्र सफल संपादक, कवि, उपन्यासकार, अनुवादक एवं नाट्यकार हैं। उनका साहित्य मोटे तौर पर सन् 1858-1885 के बीच एक ऐसे ऐतिहासिक काल की उपज है, जिसके एक छोर पर भारतीय किसानों और सिपाहियों का राष्ट्रीय विद्रोह था तो दूसरे छोर पर ह्यूम के नेतृव्य में राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म की घटना। भारतेंदु ने अपने संपूर्ण साहित्य में जनचेतना का संचार किया है। परन्तु उनकी सभी विशेषताओं के साथ एक तथ्य यह भी है कि उन्होंने बड़े पैमाने पर अनुवाद कार्य किया है। भारतेन्दु के अनुवादों और उनकी मूल रचनाओं से ज्ञात होता है कि अनुवाद उनका साधन मात्र है साध्य नहीं। उनकी अनूदित कृतियाँ संख्या में नौ है; जो संस्कृत, बांग्ला, प्राकृत और अंग्रेजी से अनूदित हैं ।

हिंदी साहित्य के नवोत्थान में भारतेन्दु हरिश्चंद्र (सन् 1850-1885) का महत्त्वपूर्ण योगदान है। उनकी विचार-पद्धति संस्कृत विद्वान पंडित कृष्णमिश्र, पं कांचन कवि, विशाखदत्त, राजशेखर और अंग्रेजी के प्रसिद्ध विचारक दि अर्देन शेक्सपीयर से मेल खाती थी। वह इन चिंतकों के विचारों से भारतीयों को परिचित कराना चाहते थे। इसी उपक्रम में उन्होंने इन विचारकों की प्रसिद्ध पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया। उनकी अनुवादों में पहली कृति रत्नावली (सन् 1868) है जो हर्ष कृत संस्कृत नाटिका रत्नावली का हिन्दी अनुवाद है। दूसरी कृति विद्यासुंदर ( सन् 1868) महराजा यतीन्द्र ठाकुर कृत संस्कृत नाटक ‘विद्यासुन्दर’ का छायानुवाद है। तीसरी कृति पाखंड विडंबन (सन् 1872) कृष्ण मिश्र कृत संस्कृत के ‘प्रबोध चन्द्रोदय’ नाटक के तीसरे अंक का हिन्दी अनुवाद है। चौथी कृति धनंजय विजय (सन् 1873) कृत संस्कृत नाटक का हिन्दी अनुवाद है, पांचवी कृति कर्पूर मंजरी (सन् 1875) राजशेखर कृत प्राकृत सट्टक का हिन्दी अनुवाद है, सत्य हरिश्चंद्र (सन् 1875), भारत जननी (सन् 1877), मुद्राराक्षस (सन् 1878) विशाखादत्त कृत मुद्राराक्षस का हिन्दी अनुवाद है । अन्तिम कृति दुर्लभ बंधु (सन् 1880) दि अर्देन शेक्सपीयर के अंग्रेजी नाटक  द मर्चेन्ट ऑफ वेनिस का हिन्दी अनुवाद है । भारतीय नवजागरण में संस्कृत और अंग्रेजी के अनुवाद की भूमिका एक समान रही है। इसमें भारतेन्दु हरिश्चंद्र का अनुवाद कार्य उल्लेखनीय है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र का दुर्लभ बंधु’ (सन् 1880)

भारतेंदु हरिश्चंद्र का दुर्लभ बंधु  अंग्रेजी के द मर्चेंट ऑफ वेनिस  का हिंदी में अनुवाद है। इस नाटक में भारतेंदु ने समाज के सामने एक सच्चे मित्र का ऐसा प्रतिबिंब रखा है जो सभी के लिए प्रेरणा स्रोत है। नाटक में भारतेंदु ने आवश्यकतानुसार जहां कुछ प्रसंगों को हटाया है, वही आवश्यकतानुसार कुछ प्रसंगों, पात्रों और नए विचारों को जोड़ा है। भारतेंदु सजग प्रवृत्ति के साहित्यकार थे। उनकी दृष्टि में राष्ट्रहित से बढ़कर कुछ नहीं था। भारतेंदु ने नाटक की रचना कुल पांच अंकों में की है जिसमें लगभग बीस दृश्य हैं। इन्हीं दृश्यों के माध्यम से वह पूरी नाट्य वस्तु को प्रस्तुत करते चले हैं।

नाटक के पहले अंक में तीन दृश्य हैं। दुर्लभ बंधु के पहले दृश्य में अनंत की चिंता को दिखाया गया है। जिसका प्रमुख कारण समुद्र में फंसे उसके मालवाहक जहाज हैं। इन जहाज़ो पर उसकी जीवनभर की पूंजी और सम्मान लगा है। इस अन्तर्गत दो मित्रों अनंत और सरल के मध्य संवाद से हमें ज्ञात होता है कि यह नाटक व्यापारिक सौदागरों से पूर्ण है। अनंत एक व्यापारी है जो निर्धनों, गरीबों और निर्बलों की सहायता करता है। इस समय वह अधिक ब्याज पर ऋण लेने में असमर्थ हैं। कारण, अनंत सीधा-सादा, दयालु व्यापारी है। जिसकी सारी पूंजी समुद्री जहाज में लगी है। जिसमें किराने का सामान, रंग-बिरंगे रेशमी कपड़े हैं। उसे उनके डूबने की चिंता है।

अनंत की चिंता देखकर सलोने कहता हैमैं जानता हूँ कि आपको अपनी जोखों का ही सोच है।[1] तब अनंत कहता है कि वह तो ईश्वर का धन्यवाद हैं कि मैंने सारा माल एक ही जहाज पर नहीं लादा और नहीं सब जहाजों को एक ही दिशा में भेजा। इसलिए इस नुकसान से मेरे पूरे वर्ष का घाटा-फायदा नहीं होता। अपने व्यापारी मित्र से ठिठोली करते हुए सरल कहता है तो कहीं किसी से प्रेम तो नहीं हुआ। इस पर अनंत हँसकर कहता है—नहीं। तब सरल कहता है कि तो झूठी उदासी को छोड़, हंसो, खेलो, कूदो, बोलो और प्रसन्न रहो। प्रायः संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक ऐसे जो बिना सोचे-समझे छोटी-छोटी बातों पर खूब खिलखिलाते हैं और दूसरे ऐसे जो चाहे कितना ही बड़ा परिहास क्यों न हो उनका मुंह गुब्बारे की भांति सदैव फूला ही रहता है। वह तनिक भी मुस्कुरा नहीं सकते। इसलिए चिंता त्यागकर शुभ चिंतन-मनन कर प्रसन्न रहो।

इसमें भारतेन्दु ने संसार की भौतिकता को ऐसा जंजाल बताया है जिससे मनुष्य चाहकर भी उबर नहीं पाता। इसलिए आवश्यक है कि सत्यकर्म करते हुए मुनष्य को अपना जीवन यापन करना चाहिए। जिसका प्रकाश केवल हमारे जीवन में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के उत्थान का कारण बने। जिसे उनका नाट्यपात्र गिरीश व्यक्त करते हुए अनंत की उदासी देखकर कहता है— भाई अनन्त! आप उदास से लग रहे हैं। मनुष्य सांसारिक कार्य में जितना फंसा रहता है उन्हें उतनी ही अधिक चिंता रहती है इसलिए प्रसन्न रहो। मैं सच कहता हूं कि आपकी सूरत बिल्कुल बदल गई है।[2]

इसी दृश्य में अनंत और बसंत का बड़ा बातूनी मित्र गिरीश भी नज़र आता है। जिसके ज्यादा बोलने की आदत ने सबको परेशान कर रखा है। दूसरे दृश्य में पुरश्री के विवाह के लिए तय किए गए नियम का उल्लेख है। विवाह के नियमानुसार उसके पिता की कुछ शर्तें है जिसमें तीन संदूको का उल्लेख है। पहला सोने का, दूसरा चांदी और तीसरा शीशे का। शीशे के संदूक का चयन करने वाला पुरुष ही पुरश्री के साथ विवाह कर सकता है। यही कारण है कि वह सब कुछ जानते हुए भी अपने प्रेमी वसंत को सत्य बताकर उसकी मदद नहीं कर पाती। इस अंक के घटनाक्रम में नेपाल का राजकुमार, पुरश्री और उसका एक नौकर और देश का धनी पालक नज़र आता है।

अनंत और बसंत दोनों दयालु स्वभाव के पुरुष हैं। बसंत अपने परम मित्र अनंत के पास तीन हजार रुपये का ऋण लेने जाता है। ताकि वह अपने प्राणों से प्रिय विल्वमठ की राजकुमारी पुरश्री से मिलने और विवाह के लिए वहां जा सके। इसके लिए उसे अधिक धन की आवश्यकता है जो इस समय न ही उसके पास है और न ही उसके परम मित्र अनंत  के पास। धन प्राप्ति के लिए अभी केवल शैलाक्ष ही उपलब्ध है। फलतः इस ऋण के लिए शैलाक्ष और अनंत के बीच एक अनुबंध तैयार किया जाता है। जिसमें तीन महीने का समय ऋण से उऋण होने के लिए तय किया गया है। अनुबंधानुसार यदि बसंत समय से ऋण नहीं चुका पाया तो शैलाक्ष उसके मित्र अनंत के शरीर से आधा सेर मांस काटने का अधिकारी होगा।

दूसरे अंक के पहले दृश्य में मोरकुटी का राजकुमार विल्वमठ की राजकुमारी पुरश्री के साथ अपना मंगल विवाह करने की इच्छा से अपने परिजनों सहित विल्वमठ आता है। वह हर संभव प्रयास करता है कि पुरश्री से उसका मंगल विवाह हो जाए। किंतु सही संदूक का चयन न करने की दशा में मोरकुटी का राजकुमार पुरश्री से विवाह नहीं कर पाता। संदूक चयन से पूर्व पुरश्री मोरकुटी के राजकुमार से कहती है कि यदि वह सही संदूक का चयन नहीं कर पाया तो जीवनपर्यंत किसी भी स्त्री से विवाह करना तो दूर उसकी ओर देखेगा तक नहीं। इस संवाद के साथ दृश्य पूर्ण हो जाता है। दूसरे दृश्य में वृद्ध गोप, गोप, बसंत, लोरी और गिरीश का संवाद प्रमुख है। इसमें वृद्ध युवा गोप को अपना पुत्र नहीं मानता। युवा गोप उसे समझाने का बहुत प्रयास करता है कि वही उसका वर्षों पहले बिछड़ा हुआ पुत्र है जिसकी तलाश में वह विल्वमठ आया है। बहुत वाद-विवाद के बाद गोप स्वयं को वृद्ध गोप का पुत्र सिद्ध करने में सफल हो जाता है। तत्पश्चात दोनों पिता-पुत्र सहर्ष इस संबंध को स्वीकार कर लेते हैं।

तीसरे दृश्य में जसोदा और गोप के प्रेम का उल्लेख है जिसमें वह शैलाक्ष के अत्यधिक कठोर दिल होने की बात कहता है तो जसोदा कहती है— मैं उसके रक्त में उत्पन्न हूं पर मेरा चित्त उसका-सा नहीं है। ऐ लवंग, यदि तू अपने वचन पर दृढ़ रहा तो मैं इस झगड़े को निबटा दूंगी और आर्य्य होकर तेरी प्यारी स्त्री बन जाउंगी।[3]

 

नाटक के चौथे दृश्य में अनेक पात्र हैं। जिसमें सलोने, सलारन, गिरीश, लवंग और गोप आदि भेष बदले हैं। ये सब भेष बदलकर जसोदा को उसके घर से भगाने के लिए उसके बताए अनुसार आते हैं। दृश्य पांच में जसोदा और शैलाक्ष का वियोग है। इस दृश्य में शैलाक्ष अपनी बेटी जसोदा को समझाता है कि तुम समाज के दूषित पुरुषों से स्वयं की रक्षा करना और कहता है— अच्छा जसोदा, अब तुम भीतर जाओ, कदाचित् मैं अभी लौटा जाऊं। जिस भांति मैंने समझा दिया है वैसा ही करना। द्वारों को बंद करती जाओ— जागै सो पावै, सोवै सो खोवै यह कहावत बहुत ठीक है।[4] 

जब जसोदा अपने पिता से दूर घर से नगद रुपया और एक कीमती अंगूठी लेकर भाग जाती है तो शैलाक्ष उसे बहुत खोजता है। मन ही मन उसके मरने की कामना करता है। कारण, जो अंगूठी वह अपने साथ ले गई है। वह उसकी दिवंगत पत्नी लीया ने दी थी। पिता-पुत्री के बिछोह पर जसोदा कहती है—

“गर बर आई आर्जू मेरी तो रुखसत आपको,

आप ने  बेटी को खोया और मैंने बाप को।”[5]

छठे दृश्य में शैलाक्ष के घर के सामने गिरीश और सलारन भेष बदलकर आते हैं। इसमें जसोदा एक लड़के का भेष बनाकर लवंग के साथ घर से भागने में सफल हो जाती है। सातवें दृश्य में मोरकुटी का राजकुमार पुरश्री से विवाह करने की शर्त को पूरा करने के लिए सोने, चांदी और शीशे के तीनों संदूक क्रमशः खोलता है। इन तीनों संदूको पर कुछ न कुछ लिखा है। जिसमें पहला संदूक सोने का है जिस पर लिखा है कि— “जो कोई मुझे पसंद करैगा वह उस वस्तु को पावैगा जिस की बहुत लोग इच्छा करते हैं।[6]

दूसरा चांदी का संदूक है जिस पर एक प्रतिज्ञा लिखी है— जो कोई मुझे पसंद करैगा वह उतना पावैगा जितने के वह योग्य है।[7]

तीसरा संदूक शीशे का है जिस पर वैसे ही खतरनाक धमकी लिखी है— “जो कोई मुझे पसंद करै वह अपनी सब वस्तुओं को भय में डाले और उन से हाथ धोवै।[8]

आठवें दृश्य में शैलाक्ष अपनी बेटी जसोदा को ढूंढने के लिए कई लोगों को विभिन्न स्थानों पर भेजता है। इसके लिए वह बसंत कि नाँव की तलाशी तक करवाता है। किंतु उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सलोने शैलाक्ष की मानसिक स्थिति को उसी के शब्दों में व्यक्त करता हुआ कहता है— मेरी अशरफियां और मेरी बेटी! एक सरबमुहर तोड़ा, दो सरबमुहर तोड़े अशरफियों के, कलदार अशरफियों के मेरी बेटी चुरा ले गई!— और रत्न; दो नगीने, दो अमूल्य अलभ्य नगीने, जिन्हैं मेरी बेटी चुरा ले गई—न्याय! लड़की का पता लगाओ! उसी के पास अशरफियां और पत्थर हैं।”[9]

नौवें दृश्य में भारतेन्दु ने आर्य्यग्राम के राजकुमार द्वारा यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि मनुष्य को अपने जीवन में लक्ष्य प्राप्ति से पूर्व अपनी योग्यता का अवलोकन अवश्य करना चाहिए। ताकि लक्ष्य प्राप्ति में किसी प्रकार की बाधा न हो; लक्ष्य शत-प्रतिशत प्राप्त हो जाए। इस सत्य को प्रकट करने के लिए आर्य्यग्राम का राजकुमार कहता है— हां! मुझ में और पुरश्री के स्वरूप में क्यौं सादृश्य। और मुझसे और मेरी आशाएं और योग्यता से क्या संबंध! क्या मेरे मुंह के योग्य यही मूर्ख का मस्तक है? क्या मेरे लिए यही पारितोषिक है? क्या मेरी योग्यता इससे अधिक नहीं है।[10] तथ्यत: लक्ष्य की हानि पर निराशा न देखनी पड़े। जैसी आर्य्यग्राम के राजकुमार को देखनी पड़ी।

नाटक का तीसरा अंक अत्यंत रोचक है। इसके पहले दृश्य में व्यापारी अनंत के माल से भरे जहाजों के नष्ट होने; सौदागरों के बीच ऋण के लिए शैलाक्ष की क्रूर शर्तों की चर्चा का उल्लेख मिलता है। जिसमें सौदेगर स्पष्ट करते हैं कि प्रायः मछली को अपने जाल में फांसने के लिए दाना रूपी लालच जरुर परोसा जाता है। वैसा ही शैलाक्ष ने अनंत के साथ किया है। शैलाक्ष को बसंत पर सन्देह है कि वह उसका ऋण नहीं  दे पाएगा। इसलिए वह दुर्बल नामक व्यक्ति को उचित दंड व्यवस्था के लिए तैयार रहने को कहता है। कारण, वचन पूर्ति न होने पर वह बच न सके एवं उसका व्यापार बिना किसी बाधा के मनचाहा चल सके। जिसकी पूर्ति दूसरे दृश्य में होती है। दूसरे दृश्य में बसंत पुरश्री को अपने जीवन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण सत्य बताता है कि उसके ऊपर शैलाक्ष रूपी संकट मंडराह रहा है। इस संकट का कारण वही है, विल्वमठ आने के लिए उसने शैलाक्ष से तीन हजार का बड़ा ऋण लिया है जिसकी समय सीमा समाप्त हो गई है। दृश्य के अंत में पुरश्री और बसंत के विवाह का वर्णन है। इस दौरान जसोदा—लवंग और गिरीश—नरश्री के प्रेम प्रसंग को फलता-फूलता दिखाया गया है। बसंत जब सही संदूक का चयन कर पुरश्री को पाकर अपनी खुशी व्यक्त करते हुए उसका चुंभन कर कहता है—

कहं द्वै जन की होड़ मैं जीतते बाजी कोय।

तौ सब दिसि सों एक संग ताकी जय धुनि होय।।

सो कोलाहल सुनत ही तासु बुद्धि अकुलाय।

ठाढ़ी सोचत सांच ही जीत्यो मैं इत आय।

तिमि सुंदरी संदेह यह मेरे हू जिय माहिं।

कै जो देखत में दृगन तौन सांच की नाहिं।।

सो मम भ्रम तुम करि दया बेगहि देहु मिटाय।

मम जयपत्र सकारि पुनि सुन्दरि मुहि अपनाय।।[11]

 

बसंत के ऐसे प्रेम व्याख्यान को सुनकर पुरश्री कहती है कि कभी वह अपने मन की मालिक थी और अब वह—  अपने भोले चित्त को आपको सौंपती हूं कि वह आपको अपना स्वामी, अपना नियन्ता, अपना अधिपति समझकर जो आप कहैं सो किया करैं। मैं और जो कुछ मेरा है अब वह सब आपका हो चुका।[12]

 

बसंत-पुरश्री दोनों अपने प्रेम को एक-दूसरे के सामने व्यक्त कर सहर्ष एक-दूसरे का होना स्वीकार करते हैं। उसी समय सलोने एक पत्र लेकर आता है जिसमें अनंत के जहाज समुद्र में डूबने का वर्णन है। तब पुरश्री बसंत से कहती है कि— बसंत, मुझे क्षमा कीजिएगा। मैं आपके शरीर का अर्द्धागं हूं और इसलिए जो कुछ कि उस पत्र में लिखा है उसमें से आधा हाल सुनने की मैं भी अधिकारी हूं।[13]  

 

पत्र का समाचार सुनकर बसंत परेशान हो जाता है। एक लंबी सांस भरकर पुरश्री से कहता है कि यह वही मेरा सबसे प्रिय मित्र है जो उपकार करने में एकमात्र व्यक्ति है। उसके जैसा शील, दयालु, कृपालु और स्नेही अन्य कोई नहीं। वह अकेला एक मनुष्य है जिसमें मारवाड़ के प्राचीन लोगों की उत्तम बातें और उच्च विचार पूरी तरह पाए जाते हैं। वह संस्कार, सभ्यता और क्षमा की सजीव प्रतिमूर्ति हैं। जिसकी बराबरी अन्य कोई मित्र कभी नहीं कर सकता। अनंत के जीवन पर संकट जानकर पुरश्री बसंत से कहती है कि वह ऋण के बीस गुना रुपए देकर अनंत को छुड़ा लाएँ। उसे विश्वास दिलाती है कि जब तक वह वापिस नहीं आएगा तब तक वह और नरश्री उनकी प्रतीक्षा करेंगी। पुरश्री बसंत से कहती है कि— इस बीच में मैं और मेरी सहेली नरश्री कुमारी और विधवा स्त्रियों की भांति अपना समय काटैंगी।[14]

इस प्रकार अनंत बसंत दोनों मित्रता निभाने के लिए अपने जीवन को दाव पर लगाने से पीछे नहीं हटते। हम भारतीयों को भी अपने देश के प्रति सदैव समर्पित भाव रखना चाहिए। यदि दायित्व निर्वाह के मार्ग में हमें अपने भौतिक सुखों  का त्याग  करना पड़े तो सहर्ष करना चाहिए। इस भाव को भारतेन्दु का दुर्लभ बन्धुनाटक बड़ी सजीवता से प्रकट करता है। फलतः अनूदित होने के लगभग एक सौ बीस वर्ष बाद भी यह प्रासांगिक है। इसमें घटित घटनाएँ वर्तमान की घटनाओं और पात्रों की ओर संकेत करते हैं।

तीसरे दृश्य में कारागार के प्रधान का उल्लेख मिलता है। यह प्रधान शैलाक्ष को बड़ी मनुष्यतापूर्वक अपना धन वापिस लेने की बात समझाता है किंतु वह समझाने में असफल हो जाता है। कारण, शैलाक्ष ऋण की आड़ में बसंत से बदला लेना चाहता है। अतः वह बसंत को दिए गए अपने ऋण के पक्ष में न्यायाधीश के सामने अपना भाव व्यक्त करता है। जिससे स्पष्ट होता है कि वह वास्तव में बसंत के प्राणों का शत्रु है। दृश्य में जसोदा और लवंग के पवित्र प्रेम की चर्चा है। लवंग अपने प्रेम की तुलना देव—प्रेम से करता है। अंक का पांचवा दृश्य इसी प्रेम को साकार करता है।

चौथे अंक के पहले दृश्य में मंडलेश्वर न्यायाधीश है जो अनंत, बसंत और शैलाक्ष के मुकदमे की सुनवाई के मुख्य न्यायाधीश है। मंडलेश्वर शैलाक्ष को समझाने का बहुत प्रयास करता है किंतु जब वह नहीं समझता जो मामले को न्यायिक प्रक्रिया के भरोसे छोड़ देता है। फलतः शैलाक्ष न्यायिक प्रक्रिया के पाश में फंसकर मृत्यु की ओर अग्रसर हो जाता है। तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिए आशा करते हुए कहता है कि—“जब मैंने कोई अपराध ही नहीं किया है तो फिर किस बात से डरुँ? आप लोगों के पास कितने मोल लिए हुए दास और दासियाँ उपस्थित हैं जिन्हैं आप गधों, कुत्तों और खच्चरों की भांति तुच्छ अवस्था में रखकर उनसे सेवा कराते हैं और यह क्यौं? केवल इसलिए कि आपने उन्हें मोल लिया है। यदि मैं आपसे यह कहूं कि आप उन्हें स्वतंत्र करके अपने कुल में ब्याह कर दीजिए, … यदि आप दिलवाना अस्वीकार करैं तो आपके न्याय पर थुड़ी है। मैं राजद्वार की आज्ञा सुनने के लिए उपस्थित हूं, कहिए मुझे मिलैगा या नहीं?”[15]

 

शैलाक्ष कि दलील सुनकर मंडेलेश्वर कहते हैं कि उसकी मांग मनुष्यता के विरुद्ध है। की इस बात से वहां उपस्थित सभी लोग मंडेलेश्वर की बात से सहमत होकर शैलाक्ष के लिए उचित दंड की मांग करते हैं। तब वकील बालेसर ऐसी दलील रखता है कि शैलाक्ष की संपत्ति को हर्जाने के रूप में आधी अनंत को और शेष आधी उसकी बेटी जसोदा और दामाद लवंग को देने की सजा सुनिश्चित होती हैः जो शैलाक्ष की मृत्यु के पश्चात उन्हें मिल जाएगी। दूसरे दृश्य में नरश्री और पुरश्री दोनो अपने-अपने पतियों को उनकी सौगंद याद दिलातीं हैं।

नाटक का अंतिम अंक पुरश्री के राजमहल की छवि को प्रस्तुत करता है। जिसमें एक-एक करके गिरीश, लवंग, बसंत, अनंत, नरश्री एवं पुरश्री स्वयं नज़र आती है। इस अंक में सारी समस्याएँ समाप्त होती दिखाई देती हैं। अब सब अपने-अपने जीवन में बड़े प्रेम, हर्ष, उल्लास और प्रसन्न दिखाई देते हैं। इसी दौरान नरश्री और पुरश्री अपने-अपने पतियों के साथ झूठा झगड़ा करती हैं। किन्तु सत्य ज्ञात होने पर सब दंग रह जाते हैं कि वकील बालेसर (पुरश्री) और उसका लेखक (नरश्री) थे। इस प्रकार यह नाटक अंत में सुखांत है।

नाटक में सहयोग, समर्पण, त्याग, करुणा, प्रेम, मनुष्यता और दया जैसे भावों का मानव जीवन में बड़ा महत्त्व दिखाया गया है। यदि मनुष्य अपने भावों को नियंत्रित करना जानता है तो वह कठिन से कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकता है। भारतेंदु इस नाटक के द्वारा भारतीय जनता को विषम परिस्थितियों में धैर्य, संयम, संतोष और कर्मठ बने रहने की प्रेरणा देते हैं। ताकि ब्रिटिश सरकार और उसकी कूटनीतियों के अनुकूल वह व्यवहार कर सकें। अनंत और बसंत जैसे मित्र का होना इस भौतिक संसार में दुर्लभ है। फलतः भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इस नाटक का नाम दुर्लभ बंधु रखना उचित समझा। इसमें दुर्लभ स्वयं अनंत है और बंधु उसका परम मित्र बसंत। अर्थात् दुर्लभ बंधु अनंत—बसंत की मैत्रीपूर्ण जोड़ी है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनूदित नाटक दुर्लभ बंधु  की महत्ता पर प्रो. देवशंकर नवीन लिखते हैं— “सन् 1880 में दुर्लभ बंधुसंसार के विश्वविख्यात नाटककार शेक्सपीयर कि कृति द मर्चेंट ऑफ वेनिस का अनुवाद कर उन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में एक दुर्लभ उदाहरण प्रस्तुत किया।[16]

 

भारतेंदु हरिश्चंद्र मनुष्य को सरल, सौम्य, दयालु, समर्पित और मृदुभाषी होने की बात कहते हैं। उनके अनुसार मनुष्य को स्वहित से अधिक परहित पर कार्य करना चाहिए। क्योंकि जब हम दूसरों के लिए कुछ करते हैं तो उससे उसके जीवन में जो प्रकाश आता है वह अतुलनीय है। इस सत्कर्म से जीवन में निर्मलता आती है। इसी निर्मलता को वह नाटक के पात्र गिरीश के द्वारा प्रकट करते हैं। गिरीश अभिमान के संबंध में कहता है— “बहुतेरे मनुष्य ऐसे होते हैं कि बंधे पानी के तालाब की भांति उनके मुख का रंग सदा गंदला बना रहता है और यह समझ कर कि लोग हमको बड़ा सोचने वाला, विचारवान, पंडित और गंभीर कहैंगे व्यर्थ को भी मुंह फुलाए रहते हैं उनका मुंह देखने से स्पष्ट प्रकट होता है कि वह लोग अपने को वेदव्यास से भी बढ़कर लगाते और अपनी बात को वेदव्याक्य से भी बढ़कर समझते हैं।[17]

 

अंततः नाटक सांसारिक गतिविधियों का जीवंत चित्र प्रस्तुत करता है। जिसे पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि वह सम्मुख न होकर नाटक की स्थितियाँ, पात्र और उनके बीच संवाद हैं। यह सब मिलकर नाटक की सजीवता को बनाए रखने में सहयोग करते हैं। वाक्यों में देशज शब्दों का प्रयोग वाक्य को और अधिक सजीव और स्वाभाविक बना देता है। विभिन्न दृश्य एवं पात्रों के आवागमन ने इस स्वाभाविकता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। नाटक में एक पात्र दूसरे पात्र का स्थान बड़ी सहजता से ले लेता है जिससे कथा का प्रवाह और कथानक बिना बाधित हुए धाराप्रवाह चलता रहता है।

संदर्भ ग्रंथसूची

  • ओझा, डॉ. दशरथ, हिन्दी नाटक का उद्भव एवं विकास, राजपाल एंड संस, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2006, मुद्रित।
  • नगेंद्र (संपा), अनुवाद विज्ञान : सिद्धांत और अनुप्रयोग, हिंदी कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली, 1993, मुद्रित।
  • नवीन, देवशंकर, अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, प्रथम संस्करण, 2016, मुद्रित।
  • सिंह (संपा), ओमप्रकाश, भारतेन्दु हरिश्चंद्र ग्रंथावली भाग 2, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, 2008, मुद्रित।
  • सिंह, डॉ राम गोपाल, अनुवाद विज्ञान, पृष्ठ-259

 

 

[1] सिंह, ओमप्रकाश (संपा), भारतेन्दु ग्रंथावली भाग-2, पृष्ठ-206

[2] वही, पृष्ठ-207

[3] सिंह, ओमप्रकाश, भारतेन्दु ग्रंथावली भाग-2, पृष्ठ-228

[4] वही, पृष्ठ-232

[5] वही

[6] वही, पृष्ठ-236

[7] वही

[8] वही

[9]वही, पृष्ठ-239

[10] वही, पृष्ठ-242

[11] वही, पृष्ठ-254

[12] वही, पृष्ठ-255

[13] वही, पृष्ठ-257

[14] वही, पृष्ठ-259

[15] वही, पृष्ठ-270-71

[16] डॉ. देवशंकर नवीन, अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य, पृष्ठ-121

[17] वही, पृष्ठ-207

सुमन

शोधार्थी

दिल्ली

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