बीसवीं सदी के मध्य से ही अँग्रेजी की साहित्यिक दुनिया में आधी आबादी के प्रश्नों को गंभीरता से जगह मिलने लगी। यह वह दौर था जब ‘उग्रवादी नारीवाद’ का तेजी से प्रसार हो रहा था, जिसकी कन्द्रीय परिकल्पना थी-‘स्वायत्त स्त्री’। जो स्वजीवन में अपने चयनित रास्ते पर आगे बढ़ती है। उग्रवादी नारिवाद को समझाते हुए क्रिस बीसली लिखती हैं, “रेडिकल नारिवाद, पुरुषाधिपत्य की सामाजिक व्यवस्था के यौन-शौषण को मिटाने का राजनीतिक अभियान हैं।“1  स्त्रीवाद की यह शाखा स्त्री-केन्द्रित परिवार-व्यवस्था, आर्थिक स्वावलंबन, चयनित एवं स्वायत्त जीवन, अपनी देह पर अपना अधिकार, चयनित प्रजनन का हक तथा पुरुषवादी यौनता के नकार को अपने केन्द्रीय मूल्य के रूप में प्रस्तावित करती है। इस दौर में विभिन्न भाषाओं के साहित्य और कला के विविध रूपों में लैंगिक-विमर्श के प्रश्न को वाजिब जगह मिलने लगी, पुरुष-प्रभुत्व के इर्द-गिर्द निर्मित समस्त सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संरचनाओं को विमर्श की निगाह से देखने और उन्हें पुनर्परिभाषित करने की माँग उठने लगी। पश्चिमी दुनिया में तेजी से हो रहे इस परिवर्तन और साहित्य में इसकी अभिव्यक्ति ने हिन्दी सिनेमा की दुनिया को भी प्रभावित किया। हालाँकि अँग्रेजी साहित्य की अस्मितावादी बहसें हिन्दी सिनेमा तक देर से पहुँची। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि पिछली सदी के आखिरी दशक से हिन्दी सिनेमा ने अँग्रेजी की उन कृतियों में दिलचस्पी लेनी शुरू की। यद्यपि भारत में अँग्रेजी साहित्य के सिनेमाई रूपांतरण के कुछ पुराने उदाहरण भी मौजूद हैं- सन् 1965 में विजय आनंद ने आर.के. नारायण की कहानी ‘The Guide’ पर ‘गाइड’ फिल्म बनायी,  जिसे देवानंद के शानदार अभिनय के लिए याद किया जाता है। सन् 1979 में रस्किन बांड के ‘A Flight of Pigeons’ पर श्याम बेनेगल ने ‘जुनून’ नाम से फिल्म बनाई। 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि पर आधारित इस कथा में स्त्री के अंतर्मन में झाँकने की कोशिश भी की गई है। एक अधूरी प्रेम कहानी की कसक भी है यहाँ। एक ऐसा प्रेम जिसका गला हालात घोंट देते हैं। शशि कपूर, शबाना आजमी, जेनिफर कंडल और नसीरूद्दीन शाह इस फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में थे। इन कुछ उदाहरणों को छोड़ दें तो अँग्रेज़ी साहित्य के सिनेमाई रूपांतरण के ज्यादातर प्रयास सन् 1990 के बाद ही हुए है, खासतौर से उन कृतियों का रूपांतरण, जिनमें स्त्री-अस्मिता के विभिन्न पहलू मौजूद रहें।

इस दिशा में पहला मुकम्मल प्रयास दीपा मेहता के यहाँ दिखाई देता है। सन् 1998 में दीपा मेहता ने वापसी सिचवा के उपन्यास ‘Cracking India’ पर ‘अर्थ (Earth)’ बनाईं। यह फिल्म देश बँटने की त्रासदी के बीच स्त्री के टूटने की कथा है। दुनिया की तमाम मानवीय और प्राकृतिक त्रासदियों का कुफ्र स्त्री पर टूटता है। युद्ध हो या अकाल, विभाजन की त्रासदी हो या साम्प्रदायिक दंगे, इसकी पीड़ा सबसे अधिक औरत के हिस्से आती है। अनामिका लिखती हैं- ‘‘मार-पीट, गाली-गलौच, बलात्कार, दहेज हत्या, पोर्नोग्राफी, वेश्यावृत्ति, यांत्रिक संभोग, दुनिया के जितने अपराध हैं, प्रायः सबका प्राइम साइट, सबकी आधार-पीठिका स्त्री-देह ही तो है।“2  दीपा मेहता ने इस फिल्म के जरिए बँटवारे के दौर की हिंसा, नफरत और मनुष्यता के क्षरण को बारीकी से पकड़ा है और इनके बीच सबसे अधिक पीड़ित-प्रभावित कौम के रूप में स्त्री-जाति की पहचान की है। नंदिता दास, राहुल खन्ना और आमिर खान के अभिनय और दीपा मेहता के निर्देशन ने इस फिल्म को एक क्लासिक पूर्णता दी है। शांता (नंदिता दास) एक पारसी परिवार में नौकर है, जिसे हसन प्रेम करता है, इन दोनों का एक साझा मित्र है- दिलनवाज, वह भी शांता को पाने की इच्छा रखता है। शांता दिलनवाज के प्रेम-प्रस्ताव को ठुकरा देती है क्योंकि वह हसन से प्रेम करती है। प्रतिशोध में दिल नवाज हसन की हत्या कर देता और शांता को दंगाइयों के हवाले कर देता है। दीपा मेहता ने इस फिल्म में घृणा के समाजशास्त्र और उसके मनोविज्ञान को पकड़ा है। इस फिल्म की एक और उल्लेखनीय बात है कि इसमें एक बारह-तेरह साल की बच्ची नैरेटर की भूमिका में है। एक बच्चे से देखी ओर बयान की गई कहानी है। इसके निर्देशक ने मासूमियत और हैवानियत के द्वन्द्व का एक मार्मिक क्रॉफ्ट रचा है और यह प्रश्न खड़ा किया है कि हम अपनी अगली पीढि़यों को कैसी दुनिया हस्तांरित करेंगे?

इक्कीसवीं सदी के पिछले दो दशकों में हिन्दी सिनेमा काफी परिपक्व हुआ है। अस्सी और नब्बे के दशक में जिस तरह का सरलीकरण और जिस तरह की फॉमूर्लेबाजी दिखाई दे रही थी, उससे सिनेमा आगे बढ़ा है। इसका एक बड़ा कारण दर्शकों की निरंतर परिपक्व होती रूचि ओर इंटरनेट के जमाने का ‘ग्लोबल कम्पीटिशन’ भी है। साथ ही नई आर्थिक नीतियों के बाद बदलते सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य, सामाजिक और पारिवारिक संरचनाओं में निर्णायक परिवर्तनों ने भी सिनेमा के पुर्जे और मुद्दे बदले हैं। लैंगिक-विमर्श के प्रश्नों पर भी आज के हिन्दी सिनेमा में अधिक गंभीरता और प्रतिबद्धता की गुंजाइश बनी है। हालाँकि बढ़ते बाजार ने स्त्री को निरंतर एक ‘सेक्स-डॅाल’ के रूप में भी प्रस्तुत किया है। हिन्दी सिनेमा का अतीत और वर्तमान बाजार के इस भोगवाद से वंचित नहीं है। बाजार ने देह-मुक्ति के नारे की आड़ में स्त्री को अर्थतंत्र का गुलाम बनाया है। अभय कुमार दुबे लिखते हैं- ‘‘आज स्त्री केवल अपने या अपने परिवार के लिए गुलामी नहीं कर रही वरन् पूरे अर्थतंत्र के लिए गुलामी कर रही है। वह प्रवासी मजदूर है।’’3  उदारवादी दौर के हिन्दी सिनेमा में स्त्री का कॉमोडिटीकरण भी है और कॉमोडिटीकरण की साजिश का पर्दाफाश भी।

इक्कसवीं सदी की स्त्री की विद्रोही चेतना की बात जब हम कर रहे हैं तो निश्चित रूप से विशाल भारद्वाज का ‘सात खून माफ’ मील का पत्थर है। इस सदी में साहित्यिक कृति के सिनेमाई रूपांतरण का यह एक बेहद सर्जनात्मक उदाहरण भी है। रस्किन बॉड की कहानी ‘Susanna’s Seven Husbands’ पर बनी यह फिल्म स्त्री की छवि के लिए गढ़े गए सारे प्रतिमानों को धराशायी कर देती है। अनामिका ने लिखा है- ‘‘अपने से कमतर पुरुष से स्नेह तो किया जा सकता है, उस पर ममता तो लुटाई जा सकती है, किन्तु प्रेम सुलगाने लायक जो प्यारी-सी चुनौती सामने वाले के व्यक्तित्व में होनी चाहिए, उसके बिना प्रेम तो असंभव है।’’4  प्रेम की इसी प्यारी-सी चुनौती की तलाश में एक स्त्री सात ब्याह करती है और सात खून भी करती है। उसे तलाश है एक अदद पुरुष की जो उसे डूबकर प्रेम करे, बदले में वह उसे टूटकर चाहेगी। उसे तलाश है प्रेम की उस पूर्णता की और प्रेम की पूर्णता अपने से कमतर पुरुष से हासिल नहीं की जा सकती।

विशाल के ‘सात खून माफ’ को केतन मेहता की ‘माया मेमसाहब’ के साथ रखकर देखा जा सकता है,  इस तरह हम निरंतर मजबूत होती स्त्री के बदलते विचार-जगत को समझ सकते हैं। ‘सात खून माफ’ एक ओर जहाँ ‘माया मेमसाहब’ की अगली कड़ी-सी दिखती है- तो दूसरी ओर वह केतन की इस फिल्म का विलोम भी रचती है। लेकिन संबंध है कहीं न कहीं। परिस्थितियाँ एक तरह की हैं, स्त्री की आकांक्षाएँ एक तरह की हैं दोनो फिल्मों में, प्रतिक्रिया अलग है, ट्रीटमेंट अलग है। केतन की यह फिल्म स्त्री के भीतर जाती है। यह उसके बाहरी ढाँचे का पोट्रेट-भर नहीं है। यह सही मायने में आधुनिक स्त्री की आधुनिक त्रासदियों के भीतर की यात्रा है। भले ही यहाँ हाथ में हँसिया लिए ‘मिर्च मसाला’ की सोनाबाई नहीं है, पर यहाँ वह स्त्री है, जिसे सपने देखना आता है। अपने जीवन के, अपने संबंधों के, प्रेम के, उन्मुक्तता के सपने, जो आज से बीस-तीस साल पहले की अधिकांश भारतीय स्त्रियों के लिए उपलब्ध ही नहीं थे। सपनों की डीलरशिप पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों के पास ही रही है। गुरूदत, महबूब खान, कमाल अमरोही, मुजफ़्फ़र अली की नायिकाएँ भले ही पर्दे पर सपने देखती-बुनती दिख जाएँ, तब के समाज की स्त्रियाँ अगर कुछ देखती थीं तो बस अपने पति-बेटे का मुँह, अगर कुछ रंगीन बुनती थीं तो बस उनके लिए एक जोड़ी स्वेटर। गुस्ताव फेलेवेयर की ‘मादाम बावेरी’ को केतन ने अपने गूढ़ रूपकों से एक रहस्यमयी दिव्यता दे दी है।

‘सात खून माफ’ और ‘माया मेमसाहब’,  दोनों फिल्में को यदि एक जगह से देखें तो यह एकाधिक पुरुषों के साथ स्त्री के यौन-संबंधों की कहानी है- महज दिल्लगी भरा एक खेल, देह का। दूसरी जगह से देखने पर यहाँ प्रेम के उद्दाम आवेश की तलाश दिखाई देती है। ‘सात खून माफ’ की साहेब केतन की माया से कहीं अधिक मजबूत है। ऐसा लगता है जैसे माया के भीतर कहीं दब चुका प्रतिरोध यहाँ दोगुनी ताकत से मुखर हो उठा है और माया के हिस्से के सपने को विशाल की नायिका कुछ उन्मुक्त मिजाज में जीने लगी है, बिना हार माने। यह फिल्म हिन्दी सिनेमा में स्त्री के स्टीरियोटाइप को तोड़ती है। जिन विशेषताओं को सदियों से स्त्री का स्वभाव कहा जाता रहा है, यह फिल्म ‘स्त्री-स्वभाव’ के उस चौखटे का अतिक्रमण करती है। बहु-विवाह अब तक पुरुषों के हिस्से की उपलब्धि थी, स्त्री ने उस उपलब्धि में सेंध लगाई। दहेज-हत्या अब तक स्त्रियों के हिस्से की चीज थी, लेकिन अब एक मजबूत स्त्री एक क्रूर और बेवफा पति को इस जीवन से मुक्त कर सकती है। समस्याओं के समाधान के जो तरीके इस फिल्म में सुझाए गए हैं- वह विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन यह मानने में किसी को कोई संकोच नहीं हो सकता कि यह फिल्म स्त्री की एकल आकांक्षाओं के बरक्स उसे तोड़ती नहीं, लगातार उसे उसकी तलाश की दिशा में अग्रसरित करती है।

‘सात खून माफ’ में केन्द्रीय प्रश्न यौन-शुचिता के आग्रह-दुराग्रह का न होकर प्रेम की पूर्णता का है। देह तो यहाँ अदेह की यात्रा के बीच कहीं एक सोपान मात्र है। देह यहाँ उद्दाम भावावेग में महज एक उपलब्धि-भर है। जिस दिन स्त्री को पुरुष में एक पति नहीं, एक महबूब मिल जाएगा, उसकी तलाश पूरी हो जाएगी। त्रासदी यह है कि स्त्री की यह तलाश इस लोक में पूरी नहीं होती। इस त्रासदी को रस्किन बाँड ने अपनी कहानी में और विशाल भारद्वाज ने अपनी फिल्म में बड़ी शिद्दत से उभारा है।

अँग्रेजी साहित्य के सिनेमाई रूपांतरण पर चर्चा के क्रम में हम जेन ऑस्टेन की रचना ‘Emma’ पर राजश्री ओझा द्वारा बनाई गयी फिल्म ‘आयशा’ को भी देख सकते हैं। उदारवादी दौर का उच्च-मध्यवर्ग एक खाया-अघाया और आत्ममुग्ध वर्ग है। बाजार ने इस आत्ममुग्धता को बढ़ाया है। यह अनायास नहीं है कि सन् इक्यानवे के बाद की पीढि़यों के जीवन में समाज, संस्कृति, राजनीति आदि के सरोकारों के लिए स्पेस कम हुआ है। ‘आयशा’ के मुख्य किरदार के रूप में सोनम कपूर एक ऐसी ही आत्ममुग्ध, आत्मकेन्द्रित युवती की भूमिका में हैं। निर्देशन और पटकथा के लिहाज से यह एक कमजोर फिल्म है, लेकिन अगर नई स्त्री की पहचान की दृष्टि से देखें तो इसमें जरूर कुछ सूत्र दिखाई देते है। इक्कीसवीं सदी की पढ़ी-लिखी लड़कियों का आत्मविश्वास, भले ही उसमें एक तरह की आत्ममुग्धता क्यों न हो, यह सामाजिक बदलाव का सूचक है। यह जेंडर की पुरानी चौहद्दियों में हुई टूट-फूट है। आज की आत्मनिर्भर लड़कियाँ डिक्टेशन नहीं लेती, वे पुरुषों को अपने से अधिक होशियार या समर्थ नहीं मानती। रमणिका गुप्ता लिखती हैं कि ‘‘सशक्तिकरण की सबसे बड़ी शर्त है चेतना, स्वावलंबन और निज की पहचान, यानि स्वाभिमान, अर्थात् आत्मसम्मान। इसके बिना स्त्री सशक्तिकरण संभव नहीं है।’’5  इन पहलुओं को पन्नों से पर्दे तक ले आने के लिहाज से ‘आयशा’ का अपना एक सीमित महत्व जरूर है।

हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में साहित्य के सिनेमाई रूपांतरण के साथ-साथ नए संदर्भों या नई कथा, नए किरदारों के ताने-बाने में मूल कृति का ‘अडैप्शन’ भी बहुत बार हुआ है। इस संदर्भ में एक समानांतर सच यह भी है कि अधिकांशतः इस तरह के ‘अडैप्शन’ का श्रेय मूल कृतिकारों को नहीं मिला है। लेकिन इक्कीसवीं सदी के एक बड़े निर्देशक एवं फिल्मकार विशाल भारद्वाज ने हिन्दी सिनेमा को साहित्यिक कृतियों के कुछ लाजवाब अडैप्शंस दिए हैं। ‘मैकबेथ’, ‘ओथेलो’, और ‘हैमलेट’ के मूल सूत्र को नए और स्थानीय संदर्भों में पर्दे पर उकेरती ‘मकबूल’, ‘ओमकारा’, और ‘हैदर’ जैसी फिल्में न सिर्फ एक बड़े निर्देशक व पटकथाकार की सृजन क्षमता के प्रमाण हैं बल्कि ये हिन्दी सिने-उद्योग की परिपक्वता और चुनौतियों को स्वीकारने की क्षमता के प्रमाण भी हैं।

शेक्सपीयर की कालजयी कृतियों पर बनी ये फिल्में स्त्री-पुरुष संबंधों की बेहद जटिल दुनिया में जाती हैं और परत-दर-परत उन्हें उघाड़ती है। ‘मकबूल’ में विशाल ने ‘काम और पश्चाताप’ के द्वन्द्व को बेहद बारीकी से पर्दे पर उतारा है। निम्मी (तब्बू) माफिया जहाँगीर खान की रखैल है, जिसे मकबूल से प्रेम हो जाता है। निम्मी की शारीरिक जरूरतें पूरी करने में बूढ़ा जहाँगीर खान उर्फ अन्ना जी असमर्थ है और देह की यह अधूरी प्यास उसे मकबूल (इरफान) तक ले जाती है। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को एक सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह देखा गया है। स्त्री काम की इच्छा पूरी करने वाली एक टूल के तौर पर इस्तेमाल हुई है, किन्तु छः सौ साल पहले शेक्सपीयर ने स्त्री की निजी और स्वायत्त काम-भावना को पहचाना और इक्कीसवीं सदी में विशाल भारद्वाज ने इसे अपनी फिल्म के जरिए अभिव्यक्त किया है। यह सिर्फ अवैध संबंध की कहानी नहीं है, यह स्त्री की अपनी स्वतंत्र यौन-इच्छा की कहानी भी है। वह ‘रिसीवर’ की अपनी भूमिका से बाहर आ रही है। सिमोन ने लिखा है- ‘‘स्त्रियों को तो वही मिला, जो पुरुष ने इच्छा से देना चाहा। इस स्थिति में भी पुरुष दाता के रूप में और औरत ग्रहीता के रूप में ही हमारे सामने आई है।’’6 जॉन स्टुअर्ट मिल ने भी इस तथ्य को रेखांकित किया है कि “अपने सुख के लिए पुरुषों पर निर्भरता स्त्री को कमोडिटी के रूप में रिड्यूस करती है|”लेकिन यहाँ स्त्री ने ग्रहीता की अपनी भूमिका को अस्वीकार कर दिया है। इस फिल्म में निम्मी (तब्बू) सत्ता को अपने हाथ में लेने के लिए मकबूल (इरफान) को भी मोहरे की तरह इस्तेमाल करती है। मकबूल के माध्यम से वह एक तरफ बूढ़े जहाँगीर और उसके द्वारा किए जा रहे मेरिटल रेप से मुक्ति पाना चाहती है और दूसरी तरफ आर्थिक स्वावलंबन के माध्यम से अपने जीवन की बागडोर अपने हाथ में लेना चाहती है। बारबरा कुक ने लिखा है- “देह अपनी तभी हो सकती है, जब अपने पैर उसका बोझ उठाने में सक्षम हों | यहाँ स्त्री के सामने दो विकल्प होते हैं- पहला, सांचे के आसानीपन का स्वीकार और दूसरा, उसका नकार |”8 यह नकार ही देहमुक्ति की पूर्वपीठिका है | निम्मी अपने जीवन पर अधिकार पाने के लिए किसी भी रास्तें के चयन से गुरेज़ नहीं करती।

शेक्सपीयर के ‘ओथेलो’ पर विशाल भारद्वाज ने सन् 2006 में ‘ओमकारा’ बनाई। बड़े सितारों और बॉलीवुडियन मसाले ने इसे व्यावसायिक सफलता भी दिलाई। सोलहवीं सदी की इस रचना को इक्कीसवीं सदी में अँग्रेज़ी जमीन से उतार कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाहुबलियों के बीच जिस प्रकार से विशाल भारद्वाज ले आते हैं, वह अभूतपूर्व है। ‘ओथेलो’ को एक कालजयी त्रासदी के रूप में याद किया जाता है, ‘ओमकारा’ में इस त्रासदी को जितनी सफलता से स्थानीय रंग में रंगा गया है और पितृसत्तात्मक संरचना के भीतर स्त्री-पुरुष संबंधों को समझने की जो कोशिश है उसमें विशाल का निजी अंदाज नज़र आता है। यह फिल्म भी स्त्री के ‘पण्यीकरण’ और पुरुष की निगाह में संदिग्ध बने रहने की उसकी शाश्वत नियति को नए सिरे से व्याख्यायित करती है। यौन-शुचिता 16वीं सदी में और 21वीं सदी में भी सिर्फ स्त्रियों के हिस्से की चीज है। पुरुष के लिए देह की कोई वर्जना नहीं होती, यौन-शुचिता पद उसके संदर्भ में अप्रासंगिक है, चाहे पुरुष सामंती दौर का हो या उत्तर आधुनिक दौर का। सत्ता और यौनिकता के इस संबंध को प्रभा खेतान ‘पितृसत्तात्मक कंस्ट्रक्ट’ के रूप में देखती हैं। शक और प्रेम एक घर में नहीं पलते, वे साथ-साथ नहीं रह सकते, इनमें से एक, जिसका पलड़ा भारी होगा, दूसरे को खा जाएगा। यह फिल्म बेहद बारीकी से स्त्री-जीवन की इस त्रासदी को और शक के मनोविज्ञान को हमारे सामने रखती है।

इस विश्लेषण के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि अँग्रेजी की साहित्यिक कृतियों पर समर्थ निर्देशकों ने कुछ बेहद प्रासंगिक फिल्में बनाई हैं। हालाँकि चेतन भगत सरीखे कुछ रचनाकारों की कृतियों पर कुछ बेहद कमर्शियल और फार्मूलाबद्ध फिल्में भी बनी हैं, किन्तु कुछ उम्दा उदाहरण यहाँ मौजूद हैं। स्त्री-जीवन की पीड़ा के विवरणों में जाती हुई इन फिल्मों में स्त्री-यथार्थ के साथ फार्मूलाबद्ध ट्रीटमेंट नहीं है। ये फिल्में स्त्री-जीवन से संबद्ध कुछ बेहद मौजूँ सवालों से मुठभेंड़ करती हैं मसलन, आज की स्त्री का सत्य क्या है? उसके प्रेम का आधार पुरुष के अतिरिक्त भी कहीं हो सकता है? क्या औरत महज एक गर्भ है? क्या वह अपने प्रजातांत्रिक स्पेस को पाने के लिए किसी भी सीमा तक जूझने को तैयार है? क्या वह अपने जीवन की निर्णायक स्वयं है? इन सवालों के वाजिब जवाब हमें इन फिल्मों में मिलते हैं।

  1. प्रमीला के.पी, स्त्री अध्ययन की बुनियाद, राजकमल प्रकाशन, पृ- 42
  2. अनामिका, स्त्री विमर्श का लोकपक्ष, वाणी प्रकाशन, पृ- 18
  3. अभयकुमार दुबे, भारत का भूमंडलीकरण, पृ- 226
  4. अनामिका, स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष, पृ- 09
  5. रमणिका गुप्ता, स्त्री विमर्श: कलम और कुदाल के बहाने, पृ- 11
  6. सिमोन द बोउआर, स्त्री-उपेक्षिता, पृ- 25
  7. जॉन स्टुअर्ट मिल, स्त्री ओर पराधीनता, पृ- 41

मनीषा अरोड़ा

शोधार्थी 

जामिया मिल्लिया इस्लामिया 

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