शमशेर की काव्य- रचना प्रक्रिया – रीता रानी

शमशेर प्रयोगशील कवि हैं जो प्रयोगवाद से चलकर प्रगतिवाद की और आकर्षित हुए फिर नई कविता से जुड़े है। अपनी स्वगत संलाप शैली में कविता करना उनके कवित्व को उनके […]

आधी आबादी की आवाज़: इदन्‍नमम – डॉ. तेज नारायण ओझा / रजनी पाण्डेय / रश्मि पाण्डेय

सार : स्त्री जीवन के अनेक पहलू हैं जो उम्र, स्थान, प्रस्थिति के अनुरूप नये नये ढंग से परिचालित होती नजर आती हैं। इसे उभारने का काम जब से लेखिकाओं ने किया […]

कवि द्विजदेव – डाॅ. ममता सिंगला

हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में द्विजदेव ऐसे कवि हैं, जिन्होंने किसी राजदरबार में आश्रय ग्रहण नहीं किया, वरन् वे स्वयं अनेक कवियों के आश्रयदाता थे। द्विजदेव, जिनका वास्तविक नाम मानसिंह […]

साहित्यकार दूधनाथ सिंह का आखिरी कलाम : एक सामाजिक अनुशीलन-    डॉ. दिग्विजय कुमार शर्मा

   प्रत्येक इतिहास अपने आप को दोहराता है। यह दोहराव केवल स्थितियों या चरित्रों का नहीं, बल्कि आपसी विचारों का होता है। जो अपने अनुकूल घटित होते हुए स्थितियों और चरित्रों को […]

केदारनाथ सिंह के काव्य में प्रकृति – रणजीत कुमार सिन्हा

तीसरे सप्तक के महत्वपूर्ण कवि ,प्रकृति और जीवन के उल्लास के  गीतकार के रूप में कवि जीवन की शुरुआत करने वाले केदारनाथ सिंह की काव्य संवेदना अत्यंत विशिष्ट रही है […]

कुँवर नारायण के काव्य में सामाजिक संचार – डॉ. चन्देश्वर यादव

साहित्य और संचार पूर्णतया सहगामी हैं। जब भी साहित्य की सर्जना होती है तो वह निश्चय ही संचार की प्रक्रिया के जरिए अन्तःवैयक्तिक से जनसंचार को पूर्ण करता है। कोई […]

मिथकों के सहारे सत्ता से संघर्ष के कवि: कुँवर नारायण  – बीरज पांडेय 

साहित्य, समाज, सामाजिक परिस्थितियों, काल अथवा समसामयिकता से गहरे स्तर पर प्रभावित होता है ,किन्तु वह संस्कृति का, संस्कृति की पहचान का, उसकी गरिमा और गौरव का और उसकी विशिष्टता […]

संगीत, नृत्य और कला –  शुभांगी

संगीत सुव्यवस्थित ध्वनियाँ जो रस की सृष्टि करे वह संगीत कहलाती है।गायन ,वादन और नृत्य तीनों के सामवेद को संगीत कहते हैं।भारतीय संगीत का जन्म वेद के उच्चारण के रूप […]

आज के प्रश्न और कुँवर नारायण – नौशाद अली

साहित्य और समाज दोनों का गहरा संबंध है। ये दोनों एक-दूसरे के सहयोगी हैं ।एक के अभाव में दूसरा अधूरा है । साहित्य का केंद्र मानव होता है और मानव […]

हिन्दी कथा साहित्य : बाजारवाद और उपभोक्तावाद – डॉ. कमलिनी पाणिग्राही

आज भूमण्डलीकरण के दौर में उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण सारा विश्व बाज़ार के रूप में स्थापित हो चुका है। बाज़ारवाद से आज समाज का कोई वर्ग, क्षेत्र अछूता नहीं है। […]