
संपादकीय- डॉ. आलोक रंजन पांडेय शोधार्थी साहित्यकार दूधनाथ सिंह का आखिरी कलाम : एक सामाजिक अनुशीलन- डॉ. दिग्विजय कुमार शर्मा केदारनाथ सिंह के काव्य में प्रकृति – रणजीत कुमार सिन्हा […]
संपादकीय- डॉ. आलोक रंजन पांडेय शोधार्थी साहित्यकार दूधनाथ सिंह का आखिरी कलाम : एक सामाजिक अनुशीलन- डॉ. दिग्विजय कुमार शर्मा केदारनाथ सिंह के काव्य में प्रकृति – रणजीत कुमार सिन्हा […]
प्रत्येक इतिहास अपने आप को दोहराता है। यह दोहराव केवल स्थितियों या चरित्रों का नहीं, बल्कि आपसी विचारों का होता है। जो अपने अनुकूल घटित होते हुए स्थितियों और चरित्रों को […]
तीसरे सप्तक के महत्वपूर्ण कवि ,प्रकृति और जीवन के उल्लास के गीतकार के रूप में कवि जीवन की शुरुआत करने वाले केदारनाथ सिंह की काव्य संवेदना अत्यंत विशिष्ट रही है […]
साहित्य और संचार पूर्णतया सहगामी हैं। जब भी साहित्य की सर्जना होती है तो वह निश्चय ही संचार की प्रक्रिया के जरिए अन्तःवैयक्तिक से जनसंचार को पूर्ण करता है। कोई […]
साहित्य, समाज, सामाजिक परिस्थितियों, काल अथवा समसामयिकता से गहरे स्तर पर प्रभावित होता है ,किन्तु वह संस्कृति का, संस्कृति की पहचान का, उसकी गरिमा और गौरव का और उसकी विशिष्टता […]
साहित्य और समाज दोनों का गहरा संबंध है। ये दोनों एक-दूसरे के सहयोगी हैं ।एक के अभाव में दूसरा अधूरा है । साहित्य का केंद्र मानव होता है और मानव […]
जादूगरनी हो तुम ! कितने सजीले रंग चुनती हो । चित्र की एक-एक रेखा हू-ब-हू ऐसे खींच डालती हो कि सच्चाई भी फीकी लगने लगे । उस पर ये मिश्रित […]
बदलते लोग दीवारों की दरारों से लोग हालात भांपने लगे, आँखो में दिखती लाली से लोग जज्बात मापने लगे, खुल कर मुस्कुराया जब कोई, तब लोग उसकी मुस्कुराहट के पीछे […]
कंक्रीट के जंगल आइए मैं लू चलूं आपको कंक्रीट के जंगल में जहां आप महसूस करेंगे भौतिकता के ताप को मानवता नैतिकता दया-करुणा यहां बैठो रहे मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन […]
“बिशेश्वर| ऐ भाई बिशेश्वर! कौना सोच में डूबे हो भैया?” “कुछ नहीं |” अनमने से बिशेश्वर ने बात टाल दी। “चाह पियोगे?” जरनैल सिंह ने बात पलट दी| बिशेश्वर ने […]