सारांश  –

भारतीय साहित्यिक परंपरा में आदिवासी अनुभव लंबे समय तक मुख्यधारा के विमर्श से उपेक्षित रहे। उनके जीवन, संस्कृति और संवेदना का चित्रण या तो बाहरी दृष्टि से हुआ या फिर बिलकुल अनुपस्थित रहा। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से आदिवासी लेखन अपनी अस्मिता और अस्तित्व की आवाज़ के रूप में उभरकर सामने आया, किंतु उसकी पहुँच और प्रभाव को व्यापक बनाने में अनुवाद की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। चूँकि अधिकांश आदिवासी भाषाएँ क्षेत्रीय और लोकभाषाई स्वरूप में विद्यमान हैं, इसलिए हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में उनके साहित्य का अनुवाद करना उनके विचारों और सरोकारों को राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाने का साधन बना। आदिवासी साहित्य जल-जंगल-जमीन, प्रकृति-संरक्षण, सामुदायिक जीवन और सांस्कृतिक स्मृति का दस्तावेज़ है। जब ये कृतियाँ संथाली, भीली, गोंडी या उराँव जैसी भाषाओं से हिंदी में अनूदित होकर आती हैं, तो वे न केवल पाठक को आदिवासी जीवन की जटिलताओं से परिचित कराती हैं, बल्कि भारतीय साहित्य की विविधता और बहुलता को भी मजबूत करती हैं।

 

बीज शब्द आदिवासी साहित्य, अनुवाद, संस्कृति, प्रकृति, भाषा

 

जब हम भारत के भौगोलिक क्षेत्र की बात करते हैं तो हम एक ऐसा भारत अपने सामने देखते हैं जो अलग-अलग राज्यों से मिलकर बना है और उन राज्यों की विभिन्नता वहाँ के निवासियों और वहाँ की संस्कृति में परिलक्षित होती है। आदिवासी साहित्य की अवधारणा भाषा के समीकरण पर आधारित नहीं है। हम आदिवासी साहित्य को हिंदी साहित्य में जोड़कर और उसे मुख्यधारा में लाने की कोशिशों के भीतर रखकर देखते तो हैं, लेकिन उसके अंदर भाषा के द्वंद पर हमारा ध्यान नहीं जाता। आदिवासी साहित्य किसी एक भाषा या बोली से संबंध नहीं रखता। यह साहित्य मुख्यधारा की मान्यताओं से अलग है और आदिवासी अनुभवों और चिंता को केंद्र में रखता है। इसमें अस्मिता की तलाश है और इसके साथ ही राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विमर्श भी है। जब अवलोकन किया जाता है तो यह सामने आता है कि मुख्य रूप से आदिवासी सभ्यताओं की मौखिक परंपरा, मिथकों, लोकगाथाओं, इतिहास और समकालीन जीवन को उजागर करता हुआ साहित्य ही आदिवासी साहित्य है। इस प्रकार यह तो निश्चित है कि सिर्फ़ हिंदी या अंग्रेज़ी या कोई प्रचलित भारतीय भाषा ही इस साहित्य के समाज में आने का ज़रिया नहीं हो सकती। यह साहित्य भाषाओं के मानदंडों पर खरा भले न उतरे लेकिन इसके अपने सौंदर्यशास्त्र के आधार पर इसे किसी भी दृष्टि से मुख्यधारा के साहित्य से कमतर नहीं माना जा सकता है। अपनी चिंताओं और अपने अनुभवों को सामाजिक दृष्टि देने के लिए आदिवासी साहित्य अनुवाद का सहारा लेता रहा है। यह ठीक भी है क्योंकि अनुवाद सांस्कृतिक संवाद का सबसे शक्तिशाली हथियार है।

 

भारत जैसे विभिन्न भाषाओं और बोलियों वाले देश में अनुवाद के माध्यम से सांस्कृतिक संवाद स्थापित किया जाता है। इसी संवाद के माध्यम से आदिवासी साहित्य को मुख्यधारा से जोड़ने की कोशिशें होती रही हैं। “आदिवासी साहित्य की अवधारणा से जुड़ा सबसे अहम सवाल यह है कि हिंदी अधिकांश आदिवासियों की मातृभाषा नहीं है। ऐसे में आदिवासी रचनाकारों द्वारा अपनी मातृभाषाओं में आदिवासी चेतना से लैस साहित्य और उसके अनुवाद को आदिवासी साहित्य की श्रेणी में रखेंगे या नहीं ? इस सवाल का जवाब सकारात्मक होना चाहिए। निश्चित तौर पर वह आदिवासी साहित्य है। बड़ी संख्या में आदिवासी रचनाकार भी मौजूद हैं, जो अपनी मातृभाषाओं के साथ हिंदी में भी लिख रहे हैं।”१ गंगा सहाय मीणा का यह प्रश्न अनुवाद की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। इस संदर्भ में अनुवाद की महत्ता को लेकर रमणिका गुप्ता लिखती हैं कि ‘आदिवासी भारत की भिन्न-भिन्न भाषाओं की नयी-पुरानी प्रतिभाओं की रचनाओं को हिन्दी में अनूदित कर समूचे भारत के सम्मुख लाना हमारा लक्ष्य है। इस अनदेखे भारत से बाक़ी भारत अनजान है। इसलिए उस भारत की समृद्ध सोच, भाषा, कल्पना ,जीवनशैली और मूल्यों से बाक़ी भारत को परिचित कराना भी हम ज़रूरी समझते हैं ताकि बाक़ी भारत का इससे दर्द का एक साझा रिश्ता क़ायम हो सके। भाषाएँ यह रिश्ता क़ायम कर सकती है।२  हिंदी एक समृद्ध भाषा है और यह समाज के हर तबके को स्थान देती है। यह विश्व में सबसे अधिक बोले जाने वाली भाषाओं में से एक है इसलिये भी ज़्यादातर आदिवासी साहित्यकारों ने सृजन कार्य के लिए अपनी मातृभाषा के साथ हिंदी को चुना है। इससे हिंदी साहित्य और आदिवासी लेखन दोनों को एक समान फ़ायदा पहुँचा है। आदिवासी संस्कृति के हिन्दी समावेशन से हिन्दी पट्टी के पाठक अपने ही देश की नवीन संस्कृतियों से परिचित हो रहे हैं साथ ही हिन्दी एक भाषा के रूप में अधिक विशिष्ट और संवर्धित हो रही है। जल-जंगल-ज़मीन के लिए आदिवासियों का संघर्ष अब छोटे समूह से निकलकर देश की जनता की चिंता बन रहा है और इसका श्रेय अनुवाद को दिया जाए तो वह अतिश्योक्ति नहीं है।

 

आदिवासी भाषाओं से हिन्दी में हो रहे अनुवाद कार्य की बात करें तो उसमें हम देख सकते हैं कि कुछ अनुवाद कार्य का प्रारंभ स्वयं आदिवासी रचनाकारों ने किया है और कुछ अनुवाद कार्य ग़ैर-आदिवासी रचनाकार कर रहे हैं। संथाली भाषा की कवयित्री निर्मला पुतुल का काव्य संग्रह ‘अपने घर की तलाश’ का अनुवाद अशोक सिंह ने 2004 में किया। वर्तमान समय में निर्मला पुतुल हिन्दी साहित्य में जानी-मानी कवयित्री का स्थान रखती हैं। अनुवाद की एक विशेषता यह है कि वह सभी विधाओं में संभव है। हालाँकि भाव रूपांतरण को लेकर स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा के बीच चिंता बनी रहती है। लेकिन हिंदी एवं अन्य भाषा विद्वानों ने इसको लेकर अच्छा कार्य किया है। रोज़ केरकेट्टा जो कि आदिवासी साहित्यकार हैं व हिंदी जगत में भी सक्रिय रही हैं, ने प्यारा केरकेट्टा की ‘बिरथअ बिहा’ कहानी का खड़िया भाषा से हिन्दी अनुवाद किया। मुंडारी और हिंदी भाषा के प्रमुख कथाकार मंगल सिंह मुंडा ने ‘हड़द सुकु’ नाम से कथा संग्रह निकाला जिसका प्रकाशन 2013 में हुआ। उन्होंने इस कथा संग्रह को द्विभाषी बनाया जिसका हिंदी नाम ‘तीता लौकी’ है। इसमें 10 कहानियां संकलित है। रमणिका गुप्ता द्वारा सम्पादित ‘आदिवासी कहानी संचयन’ अनुवाद के उद्देश्य से एक विस्तारित प्रयास है। इस संकलन में कुल 52 कहानियाँ है जो कि उराँव, चिक बड़ाईक, नागपुरिया, गोंडी, भिलोड़ी आदि जैसी विलुप्त होती भाषाओं से ली गई हैं। यहाँ तक कि इसमें एक कहानी मध्य प्रदेश की बैगा जनजाति की बैगानी भाषा से भी है। इस कहानी को कहन शैली में सुनकर दर्ज किया गया था और फिर उसका अनुवाद किया गया क्योंकि इस जनजाति में पूरे भारत में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति आठवीं क्लास तक पढ़  सका है। उस कहानी को सुनकर विजय चौरसिया द्वारा उसका हिंदी अनुवाद किया गया। इसके अलावा रमणिका गुप्ता द्वारा संपादित ‘पूर्वोत्तर आदिवासी सृजन स्वर’ एवं ‘पूर्वोत्तर की आदिवासी कहानियां’ भी महत्वपूर्ण हो जाती है। इन किताबों में अरुणाचल, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, मिज़ोरम, मणिपुर, और सिक्किम के आदिवासी कथा साहित्य को संकलित किया गया है। इसमें अकील कैस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और इस संबंध में वो लिखते भी हैं कि ‘पूर्वोत्तर की भाषाओं से सीधे हिंदी में अनुवाद करने वालों की भीषण कमी के कारण हमारे सामने एक चुनौतीपूर्ण स्थिति आ खड़ी हुई। हर रचना के मूल भाषा में अपना एक विशेष आस्वाद होता है। रचनाओं को दूसरी भाषा में उलथा करने पर उस विशिष्ट आस्वाद के आहत होने का ख़तरा तो रहता ही है फिर किसी रचना को दोहरे माध्यम से अनुवाद की प्रक्रिया से होकर गुज़रना पड़े तो इस संकट का अनुमान नहीं किया जा सकता है। इससे निपटने के लिए हमने पूर्वोत्तर के साहित्यकारों से अनुरोध किया कि वे अपनी रचनाओं का हिन्दी अनुवाद अपने निजी स्रोत से करवाकर हमें उपलब्ध कराए।’३ इस समस्या की जड़ इस बात में है कि पूर्वोत्तर में विभिन्न आदिवासी समूह हैं जिनकी साहित्यिक गतिविधियां भी भिन्न हैं। वहाँ प्रचलित भाषाएँ जैसे ख़ासी, मिज़ो, हो, बोरो आदि के साहित्यकार अधिक सक्रिय हैं क्योंकि उपयुक्त संसाधनों के माध्यम से वह हिन्दी और अंग्रेज़ी में लिख कर बाहरी जगत से भी जुड़ रहे हैं। लेकिन कुछ भाषाओं की साहित्यिक रचनाएँ अभी अपने शुरुआती दौर में है इसलिए अनुवाद यहाँ एक चुनौती भरा कार्य हो जाता है। इस संदर्भ में रमणिका गुप्ता द्वारा किया गया यह कार्य महत्वपूर्ण है। डॉ बासुदेव बेसरा का कथा संग्रह ‘मोंड़ें सोरोस कहानी’ का हिन्दी अनुवाद 2023 में ‘दामिन की तलहटी’ शीर्षक से हुआ जबकि यह ग्रंथ 1970 में प्रकाशित हुआ था। इसका अनुवाद सुंदर मनोज हेम्ब्रम ने किया है। प्रकाशन के इतने वर्षों बाद इस ग्रंथ का अनुवाद किया जाना इस बात का प्रमाण है कि ऐसे ग्रंथों का अन्य भाषाओं में आना और एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचना आवश्यक हो जाता है क्योंकि वह ऐसी चिंताओं को समाहित किये रहते हैं जो सामान्य वर्ग की पहुँच और समझ से बाहर है। कविताओं के क्रम में वंदना टेटे का कार्य लोकप्रिय है। वह खड़िया और हिंदी दोनों भाषाओं में साहित्य सृजन करती रही हैं। उनकी कविताएँ ‘आदिवासी’ पत्रिका में छपती रहीं। हाँसदा सौभेंद्र शेखर की रचना ‘द आदिवासी विल नॉट डांस’ अंग्रेज़ी में लिखा गया काव्य संग्रह है जो कि झारखंड की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इसका अनुवाद रश्मि भारद्वाज ने ‘आदिवासी नहीं नाचेंगे’ से किया है। इस प्रकार अनुवाद आदिवासी भाषाओं और बोलियों तक सीमित न रहकर अन्य भाषाओं में भी आदिवासी चिंतन की पहुँच को संभव बना रहा है जो कि उसे मुख्यधारा में स्थान दिलाने के लिए नई ज़मीन तैयार करने के समान है।

 

अनुवाद की भूमिका इसलिए भी ज़रूरी हो जाती है क्योंकि संथाली आदि भाषाओं को छोड़ दिया जाए तो इनके अलावा बहुत सी आदिवासी भाषाओं के पास अपनी कोई मानक लिपि नहीं और अगर लिपि है भी तो उस लिपि की प्रासंगिकता उतनी नहीं है जितनी क्षेत्रीय भाषाओं, हिंदी या अंग्रेज़ी की हो सकती है। इस तरह से एक पूरे विमर्श को लेकर भाषायी जगत में एक बड़ी समस्या है। अपनी मातृभाषा में न लिख पाना और उन मातृभाषाओं में उपयुक्त मात्रा में साहित्य न उपलब्ध होने का दोहरा दंश आदिवासी समाज को झेलना पड़ता है।

 

इसके अतिरिक्त आदिवासी साहित्य का मुख्य धारा में न आ पाने का पीछे का कारण यह भी है कि उनकी अपनी भाषाओं में प्रकाशकों का अभाव है। सभी प्रकाशक, स्थानीय हों अथवा राष्ट्रीय, हिन्दी, अंग्रेज़ी या क्षेत्रीय लिपियों को ही प्राथमिकता देते हैं। आदिवासी समाज के लिए एक और बड़ी समस्या भौगोलिक स्तर पर दूरी है। मुख्यतः आदिवासी समाज पूर्वोत्तर के राज्यों में अथवा उत्तर में स्थित राज्यों के दूरदराज़ इलाकों में उपस्थित है जिसकी वजह से उनकी पहुँच सीमित है। यह ठीक उसी प्रकार है कि जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। हमें कवि और लेखक तो मिल रहे हैं लेकिन उनके लिए पर्याप्त मात्रा में संसाधन उपलब्ध नहीं है। हालाँकि यह समस्या सभी राज्यों के आदिवासियों के साथ नहीं है। झारखंड में बहुत स्तर तक देवनागरी का प्रयोग हो रहा है, इसके अलावा कुछ लोग अंग्रेज़ी में भी लिखते हैं। महाराष्ट्र में भी मराठी लिपि का प्रयोग दृष्टव्य है। दक्षिण के राज्यों के जो आदिवासी हैं, उनके पास लिपि नहीं है इसलिए वो क्षेत्रीय भाषाओं में लेखन करते हैं और अंग्रेज़ी को भी अपने लेखन का माध्यम बनाया हुआ है। समकालीन साहित्य में विमर्शों की भूमिका इसी बात से निर्धारित होती है की साहित्य में किस तबके को कितना स्थान दिया जा रहा है और यह स्थान निर्धारण का प्रश्न सभी विमर्शों में उपस्थित है।

 

निष्कर्ष  –

 

भारतीय भाषाओं, बोलियों और आदिवासी चिंतन के क्रम में रचित साहित्य के अक्षय भंडार के अंतरभाषिक रूपान्तरण के लिए अनुवाद की प्रक्रिया महत्वपूर्ण है। अनुवाद के द्वारा ही विभिन्न भाषाओं के मध्य मौजूद संप्रेषण के गतिरोध को तोड़ा या मिटाया जा सकता है। कोई भी साहित्य किसी भाषा के माध्यम से ही पुष्पित और पल्लवित होता है। उपभोक्तावाद के इस दौर में यह आवश्यक हो चला है कि जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई को सार्वजनिक तौर पर जनता के बीच रखा जाये, इसके चलते हमारे पास भाषा के मसले बहुत कम होने चाहिए। वर्तमान सदी एक ऐसा समय है जब हम सिर्फ़ भाषा और बोलियों को लेकर किसी के अस्तित्व को नकार नहीं कर सकते, बल्कि हमारी कोशिश ये रहनी चाहिए कि समावेशन के सारे आधारों को परखा जाये। इस संदर्भ में अनुवाद एक आसान विकल्प भले ना हो, महत्वपूर्ण विकल्प जरूर है। कुछ तकनीकी चुनौतियों के साथ ही सही, इसकी महत्ता को कम आँकना इस समय में हमें असक्षम बना सकता है। इस समय की माँग है कि आदिवासियों के अस्तित्व के लिए सभी हथियारों को एकत्रित कर के हम भविष्य की ओर बढ़ें।

 

संदर्भ –

१- मीणा, गंगा सहाय, आदिवासी चिंतन की भूमिका, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, द्वितीय संस्करण-2019, पृ. सं. 55

२- बड़ाइक, सरिता, नन्हें सपनों का सुख, रमणिका फाउंडेशन, नई दिल्ली, 2013, पृ.सं. 8

३- गुप्ता, रमणिका, पूर्वोत्तर आदिवासी सृजन स्वर, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2018, पृ. सं. 28

४- बोरा, राजमल, अनुवाद क्या है, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, तृतीय संस्करण 2004

५- कुमार, सुरेश, अनुवाद सिद्धांत की रूपरेखा, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, तृतीय संस्करण 1996

६- मीणा, गंगा सहाय, आदिवासी साहित्य विमर्श, अनामिका पब्लिशर, 2014

७- गुप्ता, रमणिका, आदिवासी कहानी-संचयन, साहित्य अकादमी, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019

 

श्रद्धा वर्मा
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय