प्रेमचंद के विपुल साहित्य में से किसी एक बिंदु पर बात करना समुद्र-मंथन जैसी ही क्रिया है। उसमें से एक बूँद भी निकाल लेना बहुत महत्त्व की बात है। प्रेमचंद का साहित्य मात्र साहित्य नहीं, कथा जगत का विश्वविद्यालय है। इसे पढ़-पढ़कर न जाने कितने ही लेखकों ने कलम पकड़नी सीखी। साहित्य की तो बात ही क्या यदि सामाजिक ज्ञान का विद्यार्थी भी उनके समस्त साहित्य को पढ़ ले तो आश्चर्यजनक रूप से समृद्ध हो जाए।

प्रेमचंद के अनुसार साहित्य ‘सत्य’ का वाहक होता है। साहित्य में यह गुण तब आता है जब उसमें जीवन सापेक्ष सच्चाई और संवेदनाएँ समाहित होती हैं। स्त्री-चित्रण के संबंध में यही सत्य स्थान-स्थान पर अभिव्यक्ति पाता है। प्रेमचंद ही के शब्दों में ‘जीवन की आलोचना’ साहित्य है। तत्कालीन जीवन की वे कदम-कदम पर स्त्री की स्थिति के विषय में आलोचना करते हैं और पाठक को उसके लिए समाधान प्रस्तुत करने को प्रेरित करते हैं। उनका मत था कि जो साहित्य केवल शृंगारिक भावनाओं तक ही सीमित रहता है, जिसमें जीवन की कठिनाइयों से पलायन ही काम्य होता है, यह कभी भी पूर्ण रूप से हमारे विचार और भाव संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता।

कवि बिहारी का दोहा मुझे यहाँ उद्धृत करना बहुत उपयुक्त जान पड़ता है-

नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल।

अली कली ही सौं बंध्यौ, आगैं कौन हवाल॥

इसी प्रकार प्रेमचंद जी भी भारतीय सामंती जीवन के भोग-विलास में डूबे हुए साहित्य को देख दुखित थे। उनका मानना था कि जिस समाज में साहित्य ऐसी भावनाओं में ही गुम हो, उस जाति का पतन हो गया समझो। मैं यहाँ कवि शैलेंद्र की विचारधारा का भी उल्लेख आवश्यक समझती हूँ। वह क्षण पीढ़ियों तक संततियों तक साहित्यकारों द्वारा स्मरण रखा जाना चाहिए, जब वे अपने एक गीत में संगीत-निर्देशक के अनुसार परिवर्तन करने से मना करते हैं और कहते हैं कि- रुचि की आड़ में हमें उथलेपन को नहीं थोपना चाहिए। पाठक की रुचियों का परिष्कार करना भी साहित्यकार का कर्त्तव्य है। साहित्य का उद्देश्य नीति-शास्त्र से भिन्न नहीं है। उपदेशों के स्थान पर संवेदनाएँ मानव मन और बुद्धि को प्रभावित करने की सामर्थ्य अधिक रखती हैं। साहित्य हमारी सुरुचि को जागृत करने वाला होना चाहिए जो आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति प्रदान करता हो, और मनुष्य में शक्ति, गति, संकल्प, कठिनाइयों पर विजय पाने की दृढ़ता और सौंदर्य-बोध पैदा करता हो।

प्रेमचंद का समस्त साहित्य उपन्यास और कहानी विधा में है। इसके अतिरिक्त उन्होंने नाटक, आलेख, सम्पादकीय, जीवनी, पत्र, बाल साहित्य तथा अनूदित साहित्य भी लिखा। यहाँ हम मुख्यत: उनके उपन्यासों पर चर्चा करेंगे और कुछ कहानियों पर भी। प्रेमचंद जी ने उर्दू और हिंदी दोनों में उपन्यास लिखे। सेवासदन उनका पहला हिंदी उपन्यास था। जो उर्दू में ‘बजारे हुस्न’ नाम से स्वयं उन्होंने पहले लिखा था। प्रेमाश्रम और रंगभूमि भी उर्दू में लिखे गए फिर हिंदी में। सीधा हिंदी में पहले लिखा जाने वाला उपन्यास ‘कायाकल्प’ है। उनके अन्य उपन्यास -निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि हैं। उर्दू से हिंदी में अनुवाद कर वे वरदान, प्रतिज्ञा, प्रेमा को भी हिंदी साहित्य में लाए। ‘मंगलसूत्र’ उनका अंतिम उपन्यास है जो अधूरा भी छूट गया और उनकी मरणोपरांत प्रकाशित हुआ।

उनके लेखन द्वारा पाठक, पात्रों के मनोजगत में प्रवेश करने के अवसर पाता है। किसानों, मज़दूरों, दलितों, स्त्रियों, वेश्याओं के प्रति गहरी सहानुभूति उनके उपन्यासों में मिलती है। प्रेमचंद से पहले मध्यवर्ग, साहित्यकारों की कलम को छू नहीं पाया था। प्रेमचंद ने उन्हें अपने कथ्य में शामिल किया। मध्यवर्गीय अंतर्विरोधों पर मुंशी प्रेमचंद ने ही प्रकाश डाला। जितना सजीव उनका मध्य वर्ग का चित्रांकन है उतना ही अद्वितीय ग्रामीण-जीवन का चित्रण है।

उनके साहित्य में गहरी पैठ बनाए स्त्री विमर्श रूढ़ हो चुकी मान्यताओं के प्रति असंतोष व उससे मुक्ति का स्वर है । पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे नैतिक मापदंड, मूल्यों व अंतर्विरोधों को समझने व पहचानने की गहरी अंतर्दृष्टि है । विश्व चिंतन में यह एक नई बहस को जन्म देता है ।

‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास में उन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत, किसानों और ज़मींदारों के संबंधों को दर्शाया है। आर्थिक शोषण, मानवीय मूल्यों का हनन, अधिकारों की उपेक्षा, दमन की नीति, यह सब साहूकार और महाजन समुदाय द्वारा प्रशासन तंत्र करवा रहा था। इसी शोषण नीति से पैदा हुई किसानों की निर्धनता, दयनीय स्थिति व अमानवीय परिस्थिति का यथार्थ और सजीव चित्रण वे अन्य उपन्यास- रंगभूमि, कायाकल्प, कर्मभूमि, गोदान में भी करते हैं।

भारतीय जीवन के यथार्थ का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष समाज और परिवार में नारी की स्थिति है। भारतीय नवजागरण नारी की परम्परागत स्थिति में सुधार से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। यह वह समय था जब मध्य वर्ग और उच्च वर्ग की नारी दासता की शिकार थी। पारिवारिक सम्पत्ति में उसका कोई अधिकार न था और न ही वह स्वतंत्र रूप से अपनी जीविका अर्जित करने में ही सक्षम थी। शिक्षा से स्त्री समाज वंचित था। स्त्री की जगह केवल घर के चूल्हे-चौके तक ही सीमित थी। उनके विवाह को दहेज जुटाना हर परिवार की समस्या थी। विवाह के पश्चात भी उनकी कोई बेहतर स्थिति नहीं थी। समाज उनके प्रति बड़े कठोर रुख को अपनाता था। अत: वे पितृगृह और पतिगृह दोनों ही स्थानों पर दोहरी कैद में रहती थीं। सामाजिक बंधन और पारंपरिक प्रथाएँ उनके लिए गुलामी से कम न थीं। दहेज देने में असमर्थ माता-पिता अपनी बेटी का विवाह अयोग्य, निर्धन, बूढ़े और विधुरों से कर देते थे जहाँ उनका जीवन नरक से बेहतर न होता था। ‘सेवासदन’ और ‘निर्मला’ में मार्मिक रूप से इस यथार्थ का सजीव अंकन हुआ है। प्रेमचंद स्वयं कहते हैं कि “मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मात्र समझता हूँ।”

प्रेमचंद की विचारधारा नारी की सामाजिक स्थिति से असंतुष्ट दिखाई देती है। विधवा विवाह के वे प्रबल समर्थक ही नहीं थे, स्वयं एक विधवा से विवाह कर उन्होंने समाज के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया था। प्रेमा उपन्यास में उन्होंने विधवा विवाह का सहानुभूतिपूर्ण चित्रण किया है। ‘गोदान’ में झुनिया और सिलिया के विवाह के रूप में अंतरजातीय विवाह का भी समर्थन किया है। गाँधी जी के आह्वान पर स्त्रियों ने विदेशी वस्तुओं की दुकानें, शराबघरों, सरकारी संस्थानों पर धरना दिया और और हज़ारों स्त्रियाँ जेल गईं। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी भी जेल गईं। इसका प्रभाव उनके नारी पात्रों पर भी पड़ा है। ‘गबन’ की जालपा नारी जागरण का संकेत देती है। ‘कर्मभूमि’ की सुखदा हरिजनों के मंदिर प्रवेश आंदोलन का नेतृत्व कर जेल जाती है। सकीना, बुढ़िया पठानिन, रेणुका देवी, मुन्नी भी ब्रिटिश सरकार का विरोध कर जेल जाती हुई दिखाई देती हैं। ‘गोदान’ की मालती देश और समाज सेवा के हित विवाह न करने का व्रत लेती है। नैना तो जुलूस का नेतृत्व करती हुई शहीद हो जाती है। त्याग और बलिदान करती हुई नारी एक सम्मानजनक स्थिति को और जाग्रत नारी के स्वरूप को उनके उपन्यासों में प्राप्त करती है।

‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ मात्र कहने भर के लिए कहा गया। समाज के सारे आचार-व्यवहारगत बंधन केवल नारी पर ही आरोपित रहे। ‘सेवासदन’ में प्रेमचंद ने नारी पराधीनता के विभिन्न रूपों को अंकित किया है। उपन्यास सेवासदन में मध्यमवर्गीय नारी की अभिशप्त जीवन की एक पृथक कोण से करुण गाथा प्रस्तुत की है। एक प्रताड़िता और परित्यक्ता नारी किस प्रकार वेश्या बनने को मजबूर हो जाती है, इसका प्रामाणिक चित्र सेवासदन में मिलता है। इसमें उन्होंने वेश्या जीवन से सम्बद्ध समस्याओं का चित्रण किया है। वेश्यावृत्ति के मूल में तिलक-दहेज की प्रथा, पति द्वारा पत्नी की उपेक्षा, अविश्वास और क्रूर व्यवहार, समाज की उपेक्षा और असहानुभूति को जिम्मेदार बताया है।

‘प्रेमाश्रम’ की स्त्री पात्र विद्या पर ध्यान दिलाना चाहूँगी। यह पतिपरायण सरल स्त्री पति ज्ञानशंकर को भी सरलता के मार्ग पर चलने को उद्यत करती रहती है। पति के दुर्गुणों को अनदेखा कर केवल सद्गुण तलाशने का प्रयत्न करती है। जब तक उसका मोहपाश टूटता है, बहुत देर हो चुकी होती है और वह निराशा में विषपान कर लेती है। समाज को आज आवश्यकता है ऐसी बेड़ियों में कैद स्त्रियों की आँखें खोल उन्हें सच्चाई देखने और उसका आकलन करने का सामर्थ्य प्रदान करने की।

‘रंगभूमि’ में अभिजात वर्ग की इंदु की विवशतापूर्ण स्थिति यह सिद्ध करती है कि स्त्री चाहे सम्पन्न वर्ग की ही क्यों न हो, दासता की जंजीरों में जकड़ी हुई है। यहाँ हिंदू मान्यताओं से ऊपर नारी की राष्ट्रवादी सोच को प्रेमचंद ने बढ़ावा दिया है। यह राजकुमारी इंदु के ही माध्यम से रेखांकित किया गया है। अंग्रेज़ों के समर्थक पति राजा महेंद्रकुमार का त्याग कर वह माता रानी जाह्नवी के पास आ जाती है।

‘गबन’ उपन्यास में पति की मृत्यु के बाद स्त्री पात्र रतन की दुर्दशा विधवा की असहाय स्थिति का सटीक उदाहरण है। इस उपन्यास में पाँच नारी चरित्रों जालपा, रतन, जोहरा, जग्गो और रामेश्वरी के माध्यम से प्रेमचंद ने राष्ट्रीय आंदोलन को सामाजिक प्रश्न से जोड़ा है। परिस्थितियों के अनुसार विलासिनी जालपा एक विचारशीला नारी के रूप में परिणत होती है। उस समय की स्त्रियों को प्राप्त निर्णय के न के बराबर अधिकारों को जालपा का चरित्र चुनौती देता हुआ प्रतीत होता है। इन सब में भी रामेश्वरी अपनी परम्परागत भूमिका में ही बँधी रहती है।

प्रेमचंद के नारी पात्र अपनी सामाजिक स्थिति के प्रति बेचैन हैं परंतु उनकी यह छटपटाहट उन्हें विद्रोह तक नहीं ले जाती। इसका एक कारण भी अशिक्षा और आर्थिक परतंत्रता है। प्रेमचंद स्त्री की दयनीय स्थिति के प्रति संवेदनशील होकर उनका चित्रण करते हैं परंतु वे भी नारी को उसके आदर्श रूप में ही देखते हैं। उनके पात्र मन में विद्रोह का अंकुर फूटते ही कशमकश के शिकार होकर आदर्शों की बलि चढ़ जाते हैं। इसी को यथार्थ कहते हैं। साहित्य का कर्त्तव्य है सामाजिक यथार्थ को प्रस्तुत करना और बदलाव या सुधार को प्रेरित करना। उसे बदला हुआ दिखाकर भ्रम की स्थिति पैदा करना या ऐसा सुझाव प्रस्तुत करना जो कि उस काल की रीति के विपरीत हो, यह साहित्य का कार्य नहीं है।

इसी क्रम में उनकी स्त्री पात्र सेवासदन की शांता, प्रेमाश्रम की श्रद्धा और विद्या, रंगभूमि की इंदु, निर्मला स्वयं, कर्मभूमि की नैना आदि नारी-आदर्श के प्रतीक के रूप में रचित पात्र हैं। रंगभूमि की सोफ़िया, गबन की जालपा, कर्मभूमि की सुखदा, गोदान की मालती जैसी तेजवान और विद्रोहिणी स्त्रियाँ भी परम्परागत आदर्शों की शिकार हो जाती हैं। नारी अगर आधा नरक देखती है तो अछूत नारी पूरी तरह नरक भोगती है।

स्त्री के पक्षधर होते हुए भी आवश्यकतानुसार स्त्री के तिरिया चरित्र और कुटिलता का भी बखूबी चित्रण करते हैं। ‘सेवासदन’ में पं उमानाथ की पत्नी द्वारा परिवार की उपेक्षा, ‘रंगभूमि’ में ताहिर अली की विमाताओं की कपटलीला भी चित्रित है। अपने कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ में वे लिखते हैं- “जब पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वह महात्मा बन जाता है और अगर नारी में पुरुष के गुण आ जाएँ तो वह कुलटा बन जाती है”। ‘गोदान’ में उद्धृत ये पंक्तियाँ प्रेमचंद का नारी को देखने का संपूर्ण नज़रिया बयां करती हैं।

भारतीय नारी की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति प्रेमचंद को आंदोलित करती है। पत्रिका चाँद में प्रकाशित उनकी लगभग डेढ़ दर्जन कहानियों में समकालीन नारी की दयनीय नियति के सजीव चित्र उपलब्ध होते हैं। ये सभी कहानियाँ ‘प्रेम प्रमोद’ शीर्षक से संग्रह में भी प्रकाशित हुईं। परीक्षा, तेंतर, नैराश्य, निर्वासन, उद्धार, स्त्री और पुरुष, नरक का मार्ग, एक आँच की कसर, स्वर्ग की देवी, धिक्कार, शूद्रा आदि कहानियँ स्त्री विमर्श की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। नारी के प्रति प्रेमचंद की करुणा इनमें भरपूर उभर के आई है। ‘ठाकुर का कुआँ’ की गंगी अपने अधिकार के लिए कदम उठाने जाती है किंतु परिस्थितियों के आगे हार मान जाती है। अन्य कुछ अति प्रसिद्ध कथाएँ हैं जो कि अपने नारी चरित्रों के कारण ही जानी जाती हैं। ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘पूस की रात’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘दूध का दाम’, ‘कफ़न’, इत्यादि में प्रस्तुत नारी छवि समाज में मनोवांछित गुणों की वाहक के रूप में आती है।

प्रेमचंद ने स्त्री के कई अधिकार जरूरी माने हैं। ‘बेटों वाली विधवा’ की दुर्दशा बेशक बेटों के ही कारण हुई हो पर ‘फूलमती’ की बात सर्वमान्य थी। वे स्त्री के सक्षम होने में विश्वास रखते थे। पति के होने या न होने पर भी उसके आत्मविश्वास में कोई कमी नहीं आई। वे स्त्री मन के पारखी थे। उन्होंने बेटा-बेटी में कोई फर्क नहीं माना। वे जानते थे कि घरों में फूट इसी कारण से पड़ती है। ‘बेटों वाली विधवा’ की फूलमती ने जिद पकड़ ली और कहा- “विवाह तो मुरारीलाल के पुत्र से ही होगा, चाहे खर्च पाँच हजार हों या दस हजार। मेरे पति की कमाई है। मैने मर-मर कर जोड़ा है। अपनी इच्छा से ही खर्च करूँगी। तुम्हीं ने मेरी कोख से जन्म नही लिया, कुमुद भी उसी कोख से जन्मी है। मेरी आँखों में तुम सब समान हो।”

प्रेमचंद अपनी रचनाओं में महिला चरित्रों को कर्म, शक्ति और साहस के क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष प्रस्तुत करते हैं पर महिला की नैसर्गिक अस्मिता, गरिमा और कोमलता को वे क्षीण नहीं होने देते।

स्त्री सहभागिता कदम-कदम पर दिखाई देती है। वे स्त्री अधिकारों की बात करते हैं। स्त्री स्वातंत्र्य की बात करते हैं। स्त्री-पुरुष समानता की बात करते हैं। कोरी शिक्षा देना और फिर साक्षरता के आदर्शों से स्त्री को ढक देना मात्र प्रेमचंद का उद्देश्य नहीं था। वे स्त्री शिक्षा को जीवन का आवश्यक अंग मानते थे जिससे स्त्रियाँ जागरूक बनें, निर्भीक बनें, स्वयं अपनी दयनीय स्थिति पर तरस खाएँ और उचित कदम उठाएँ।

मुंशी प्रेमचंद की कलम से जो पात्र निकले वे अमर हो गए। अब उन नामों को सुनकर ऐसा नहीं लगता कि ये काल्पनिक रूप से गढ़े गए थे। यद्यपि कल्पना का आधार कभी भी निराधार या सम्पूर्णत: हवा में नहीं होता तथापि वे इतने सजीव और व्यक्तित्व की दृष्टि से इतने फैले हुए होते हैं कि हर मनुष्य में दिख जाते हैं। उनके नारी पात्र तो मुझे हर स्त्री में समाए हुए और हर स्त्री से निचोड़े हुए-से लगते हैं। ऐसा एक भी स्त्री पात्र न गढ़ा गया होगा जो पढ़ लेने के बाद मस्तिष्क में घर न बना ले। फिर भी जब एक का ही उल्लेख करना ठहरा तो ‘निर्मला’ से मुझे सबसे अधिक आत्मीयता और लगाव अनुभव होता है। एक सीधी-सी बात तो यह है कि यह उपन्यास निर्मला के लिए ही रचा गया है और समाज में ऐसी ही कितनी निर्मलाओं का प्रतिनिधित्व करता हुआ सृजित हुआ है जिनके विवश माता-पिताओं ने अभावों के चलते अपनी बेटियों के अरमानों का खून कर उन्हें एक दुहेजु के गले मढ़कर, माता-पिता रूप में अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली। अपने बराबर के बच्चों के संग खेलने की बजाय उनकी माँ बनकर उनका ध्यान रखना किसी कन्या के लिए कितना कष्टकारी है, यह तो निर्मला पढ़ने वाला ही जान सकता है। स्त्री-सुलभ अपनी ममता का कोष उँडेल कर कंगाल होने के बाद, तिस पर बूढ़े पति की अविश्वासी दृष्टि और निर्ममता का सामना करना क्या किसी नवयुवती के लिए सहज हो सकता है। यह सब निर्मला ने झेला। और नहीं सहन कर पाई तो उसकी चिता की अग्नि के साथ ही उसकी ग्लानि की ज्वाला शांत हो सकी। कहना न होगा ऐसी ही कितनी बालिकाओं की बलि वेदी उनका कर्त्तव्य पथ और पतिपरायणता ही हुई है। समूचे समाज को झकझोर के रख देने वाली, जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है, स्वच्छ मन की निर्मला के प्रति मेरी सहानुभूति और पूरे पाठक वर्ग की सहानुभूति कभी कम न होगी।

स्त्री संदर्भ में प्रेमचंद के विचार युग-प्रवर्तक रहे हैं। जैसा कि हम संत कबीर के विषय में कहते हैं कि जो धर्मांधता संबंधी, धार्मिक कट्टरता और पाखंड के जो दोहे उन्होंने उस काल में लिख दिए, यदि वे आज लिखते तो कितनी ही धाराएँ उन्हें ऐसा करने से रोकतीं और वे कई बार कारागार गए होते। ऐसे ही प्रेमचंद को अपने युग का क्रांतिकारी लेखक कहा जा सकता है। स्त्री की गुलामी और उसकी स्वाधीनता का स्वर जितना मुखर उस समय में रहा उतना आज नहीं रह सकता। जैसे पीतल के बर्तन पर चाँदी की कलई चढ़ाकर उसे चमकीला प्रस्तुत कर देते हैं, आज स्त्री की वही स्थिति है। बाहर से आज़ादी का मुलम्मा चढ़ाए साधारण और सामान्य स्त्री आज भी उतनी ही गुलाम है। इसे ऐसे ही समझें कि जैसे हिंदी सिनेमा की कोई मूवी ही कभी टर्निंग प्वाइंट ले आती है। उदाहरण के तौर पर ‘थ्री इडियट्स’ जिसे देखकर हर माता-पिता समाज में यह दम भरने लगे कि वे अपने बच्चों को वही पढ़ने देते हैं जिसमें बच्चे की रुचि है। घर के अंदर इसके ठीक विपरीत स्थिति बनी रहती है। हाँ, अब माताएँ इस विषय में सच्चाई के साथ जाग्रत हैं और बालकों की पसंद और रुचि को सर्वोपरि रखने में जुट जाती हैं। स्त्रियों में भी जो यह जागृति आई है वह स्त्री शिक्षा का परिणाम है। स्त्री यदि शिक्षित हो तो तीन पीढ़ियों और दो कुलों में प्राण प्रतिष्ठा होती है। प्रेमचंद शिक्षा के उद्देश्य के आधार को स्थापित करते हुए हमें समझा जाते हैं ‘बड़े भाईसाहब’ में- ज़ेहन के साथ आत्मगौरव की रक्षा ही शिक्षा है। तेज़ भी दौड़िए और धीरे भी… बस इसी सामंजस्य का नाम शिक्षा है। स्त्री ने जो पग अपनी प्रगति में और अन्याय न सहने के लिए उठाए हैं उसमें इसी सामंजस्य की मुख्य भूमिका है जिसका वृत्तांत प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रेमचंद ने स्त्री जाति को सिखाया। स्त्रियाँ साक्षर न होतीं तो कैसे यह सीख ग्रहण कर पातीं।

संदर्भ ग्रंथ

  1. नेपाल जर्नल, प्रेमचन्द के उपन्यासों में स्त्री विमर्श: एक अध्ययन
  2. द वायर, प्रेमचंद के साहित्य में स्त्रियां: परंपरा और प्रगतिशीलता का द्वंद्व
  3. शोध शौर्यम्, प्रेमचंद की कहानियों में नारी जीवन की समस्याएँ और नवजागरण
  4. कुतुब मेल दिल्ली, मुंशी प्रेमचंद के कथा -साहित्य का नारी -विमर्श
  5. प्रेमचंद के साहित्य में नारी चेतना, विजय कुमारी
  6. गाँव कनेक्शन, प्रेमचंद का नारीवाद और आधुनिक समाज में उसकी प्रासंगिकता

 

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डॉ. आरती ‘लोकेश’
दुबई, यू.ए.ई.