प्रेमचंद ने हिंदी कथा साहित्य में उपन्यास को ऐयारी और तिलिस्मी दुनिया से बाहर निकाल कर सहज जीवन में स्थापित किया तथा समाज में आदर्शवाद की नींव रखी । प्रारंभिक उपन्यासों में किसी एक कथावस्तु का निर्वाह करते हुए उन्होंने कुछ आदर्श प्रस्तुत भी किए ,लेकिन प्रेमचंद का उपन्यास कायाकल्प उस आदर्श के कथानक को संभल नहीं पाता ।उनके द्वारा कथानक और चरित्र में किया गया प्रयोग आदर्शों को प्रतिपल परिवर्तित करता रहता है जो उन्होंने अपने इसके पूर्व के कथानकों में स्थापित किया था । जिस आदर्श या आदर्शोन्मुख यथार्थ की बात वे करते आये थे वह इस उपन्यास में बिखरता हुआ दिखाई देता है । यह उपन्यास आदर्श और यथार्थ के साथ बरजोरी करता हुआ एक अजीब तरह का रहस्य पैदा करता है ।

यह कायाकल्प नाम ही इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत है । इस उपन्यास में प्रेमचंद ने अलग रूपक गढ़ते हुए प्रकारांतर कथा और उपसंहार जोड़ा है , जिसका मूल कथा से उतना मेल दिखाई नहीं देता बस वह कथा रहस्यात्मक ढंग से मुख्य कथा से मिल जाया करती है । यह रूपक ही कथानक के विरासत की मुख्य वजह मालूम पड़ती है । इसी कारण यह उपन्यास शायद आलोचकों के निगाह में उतना नहीं चढ़ा तथा इसे उतनी तवज्जो नहीं दी गई जितनी प्रेमचंद के अन्य उपन्यासों को प्राप्त हुई । क्योंकि तमाम पाठकों तथा आलोचकों ने इसे प्रेमचन्द के बाकी उपन्यासों के बरअक्स खड़ा किया और उन्हें यह सबसे अलग दिखाई दिया जिसकी वजह से यह उन्हें प्रेमचन्द के लेखन की कसौटी पर शायद खरा उतरते उन्हें नहीं दिखा हो । लेकिन इस उपन्यास की मुख्य वस्तु ही  इसका प्रयोग है , जो शायद पाठकों और आलोचकों को उतना आकर्षित नहीं कर सकी । इसीलिए इस उपन्यास को उतनी प्रसिद्धि नहीं मिली जितनी बाकी उपन्यासों को मिली तथा यह उपन्यास उनकी आलोचना का शिकार हुआ ।

रामविलास शर्मा इस उपन्यास के संबंध में लिखते हैं कि “इस उपन्यास का कथानक प्रेमचन्द की और रचनाओं की भांति साफ़ सुथरा नहीं है । कहानी का एक भाग जिस पर उपन्यास का नाम रखा गया है ,पूर्वजन्म की बातों से भरा हुआ है । फिर भी अधिकांश भाग में राजाओं के जीवन का चित्रण है और उसे चित्रित करते हुए प्रेमचन्द ने उनकी निराली दुनिया की सभी छोटी-बड़ी चीजों को पुस्तक में लाने की चेष्टा की है । यह भी संभव है कि वह उपन्यास के इस क्रांतिकारीपन को छिपाना चाहते हों और इसीलिए साथ में पूर्वजन्म की एक मनगढ़ंत कथा जोड़कर उसका नाम कायाकल्प रख दिया हो ।”

जाहिर है कि उपन्यास का नामकरण एक बड़ा पप्रश्न खड़ा करता है ,जैसा कि रामविलास शर्मा जी ने कहा कि वह मनगढ़ंत पूर्वजन्म की कथा ही उसके नामकरण का कारण है । जबकि ध्यान दें तो वह कथा छिटपुट ढंग से ही उपन्यास में नजर आती है और प्रकारांतर से ही मुख्य कथा से सम्बन्ध रखती है । फिर ऐसी कथा जो नेपथ्य में चलती हुई दिखाई देती है , जिसे पाठक कई बार कथानक के क्रम में भूल भी जाता है वह भला उपन्यास का केंद बिंदु कैसे हो सकती है ?

आप उपन्यास में देखेंगे कि प्रत्येक चरित्र की शुरूआती संरचना जैसी लेखक ने गढ़ी है वह चरित्र अंत तक जाते जाते अजीब तरह के रहस्यमयी परिवर्तन से जूझता हुआ दिखाई देता है । उपन्यास के प्रारम्भ में वह जिन आदर्श चरित्रों को ढोता है वह अंत तक जाते जाते रहस्यात्मक ढंग से टूट जाते हैं ।कुछ उदाहरणों के द्वारा उन्हें समझने का प्रयास करेंगे ।

इन चरित्रों में जो प्रमुख चरित्र सामने आते हैं उनमें चक्रधर सबसे प्रमुख हैं । जब हम चक्रधर के चरित्र को देखते हैं तो प्रारम्भ में उसका उद्देश्य सेवाभाव और सामजिक परिवर्तन दिखाई देता है । वह हिन्दू मुस्लिम दंगों में अपना सहस दिखता है तथा उनके बीच पनपने वाले मनमुटाव को दूर करने का प्रयास करता है जिसके एवज में उसे घायल भी होना पड़ता है ,वह गरीब और पीड़ित जनता जिससे जबरदस्ती बेगारी करायी जा रही है उनके लिए सम्पूर्ण राज सत्ता से लोहा लेने के लिए तैयार हो जाता है ,जिसमें स्वयं उसके पिता भी शामिल होते हैं , वह शिक्षा का मूल रहस्य समझता है और देश हित में खड़ा होता है इसके लिए उसे जेल भी जाना पड़ता है ,वह अहिंसा का दमन थामे हुए है जो लोग उसके खिलाफ खड़े हैं उसके उपर हिंसक प्रहार कर रहे है उसे ही बचने की कवायत करता है ,उसका नैतिक आचरण पिता के स्वार्थपूर्ण दबाव के कारण भी विचलित नहीं होता है ।

 प्रारंभिक प्रसंग के एक दृश्य में लेखक चक्रधर के चरित्र की उच्चता को स्पष्ट करते हुए उनके जीवन और जगत के बारे में सोच का विवरण देते हुए लिखता है कि “ अगर पेट पलना ही जीवन का आदर्श है तो पढने की जरुरत ही क्या है ? मजदूर एक अक्षर भी नहीं जानता ,फिर भी वह अपना और अपने बाल बच्चों का पेट बड़े मजे से पाल लेता है । विद्या के साथ जीवन का आदर्श कुछ ऊँचा न हुआ तो पढना व्यर्थ है । विद्या को जीवन का साधन बनाते उसे लज्जा आती थी ।…… दीनों की सेवा और सहायता में जो आनंद और आत्मगौरव था , वह दफ्तर में बैठकर कलाम घिसने में कहाँ?” 2

चक्रधर का यह आदर्श ही उसके चरित्र की विशालता दिखाता है । जिसे वह जेल के कष्टमय दिनों में भी पालित करता है । वह दरोगा को बचने के लिए ख़ुद चोट भी खा लेता है जिससे उसकी जान पर बनाती है । जनता की सेवा के लिए वह हर कष्ट सहता है । पिता के विपरीत जाकर अहिल्या से विवाह करता है । परिवार द्वारा किया गया अहिल्या का अपमान वह नहीं सहता है,और उसे अपने साथ ले चलता है तथा गृहत्याग कर देता है ।

 लेकिन अचानक ही उसके चरित्र में एक रहस्यमयी परिवर्तन आता है ,जिससे पाठक को भरोसा ही न हो कि ऐसा चरित्रवान आदमी यह कुकृत्य कैसे कर सकता है ? जेल के दिनों में अपने लिए भगत जी की उपाधि पाने वाला चक्रधर भला किसी के लिए हिंसात्मक कैसे हो गया ? धन्ना सिंह के भाई के ऊपर प्रहार करने पर धन्ना सिंह का यह कथन इस प्रसंग में महत्वपूर्ण है  जहाँ धन्ना सिंह चक्रधर से कहता है कि ,“हाँ साहब , यह आदमी , जिसे आप ठोकरें मार रहे हैं , मेरा सगा भाई है । खा रहा था । खाना छोड़कर जबतक उठूँ ,तब तक तो तुम गरमा ही गये । तुम्हारा मिजाज़ इतना कड़ा कब से हो गया? जेहल में तो तुम दया और धर्म के देवता बने हुए थे । क्या दिखावा ही दिखावा था ?निकला तो कुछ और ही सोचकर ,मगर तुम अपने पुराने साथी निकले । कहाँ तो दरोगा को बचने के लिए छाती पर संगीन रोक ली थी , कहाँ आज जरा-सी बात पर इतने तेज पड़ गये ।”3

यह चारित्रिक परिवर्तन चक्रधर में क्यों हुआ यह रहस्य ही उपन्यास का केंद्र है । यह रहस्य कहीं भी स्पष्टतया दिखाई नहीं देता बल्कि एक मनोवैज्ञानिक ढंग से होता है । कई दिनों से अपने कर्तव्य को न कर पाने का दुष्प्रभाव उसके व्यवहार में दिखाई देने लगता है । जिस माहौल से वह सर्वथा दूर जाना चाहता है ,उस माहौल में रहना उसकी मजबूरी बन गई है । लेखक ने इसको स्पष्ट नहीं किया है बल्कि इसका रहस्य पाठक पर छोड़ दिया है । इस घटना के बाद जो चक्रधर समाज सेवा का बीड़ा उठाये थे उनका मोहभंग होता दिखाई देता है और वह आध्यात्म की तरफ रुख कर लेते हैं । जिस चक्रधर ने सामाजिक परिवर्तन के लिए इतने कष्ट झेले वही अचानक साधू बन जाते हैं और गाँव गाँव घूमकर रोगियों की सेवा में लग जाते हैं ।

यह परिवर्तन केवल चक्रधर में ही नहीं बल्कि अन्य प्रमुख पात्रों में भी देखने को मिलता है । मसलन मनोरमा और अहिल्या जैसा चरित्र ,जो प्रारम्भ में चक्रधर से प्रभावित होकर उसके नक्शेकदम पर चलता है । ये दोनों ही महिलाएं चक्रधर को ही अपना आदर्श मानती हैं और उसके साथ चलने को भी तत्पर हैं ,वह अचानक धन और प्रतिष्ठा के पीछे भागती हुई दिखाई देती हैं । उनका मानना है कि सामाजिक परिवर्तन धन के बगैर संभव नहीं है ,लेकिन धन पते ही वह उससे चिपकी सी नजर आती हैं । उन्हें अमीरी का नशा हो जाता है और इसको न छोड़ पाना जैसे उनकी मजबूरी बन जाती है । इस मोह और लालसा के लिए उनके मन से बाकियों की परवाह भी जाती दिखाई देती है ।

जो मनोरमा सीता के विषय में सवाल करती है तथा चक्रधर को सीता का पक्ष राम के बरअक्श लेते हुए सुनती है और समर्थन करती है,जो अपने पिता के चरित्र को जानते हुए अपनी सौतेली माँ के समर्थन में रहती है ,जिसके लिए चक्रधर का आदर्श इतना ऊँचा है कि पिता के विपरीत होते हुए भी वह चक्रधर के लिए खड़ी रहती है,वह अपने से उम्र में लगभग दोगुने राजा विशाल सिंह से विवाह के विषय में कोई विरोध नहीं करती ,जबकि वह स्वयं चक्रधर से प्रेम कर रही होती है ,फिर भी सिर्फ धन के लिए विवाह करने को तैयार हो जाती है । मुंशी वज्रधर के पूछने पर वह कहती है कि “मैं तो समझती हूँ कि जो दिन खाने-पहनने ,सैर-तमाशे के होते हैं अगर वे किसी गरीब आदमी के साथ चक्की चलाने और चौका -बरतन करने में कट गये तो जीवन का सुख ही क्या ?”4  हालांकि विवाहोपरांत मनोरमा राजकोष को सेवा कार्यों में ही लुटाती है ,लेकिन तभी तक जब तक राजा का प्रेम उसपे बना रहता है । जैसे ही राजा अपने स्वार्थ में अपना प्रेम और सत्कार त्यागता है उसकी मर्यादा उसकी सेवा को रोकने लगती है ।

वहीं दूसरी ओर अहिल्या के चरित्र के विषय में यशोदानंदन चक्रधर को बताते है और उसका बखान करते हैं । वह विवाह प्रस्ताव के लिए अहिल्या का चरित्र वर्णन करते हुए कहते हैं कि “उसे कपड़े का शौक नहीं ,गहने का शौक नहीं,अपनी हैसियत को बढ़ाकर दिखाने की धुन नहीं । आपके साथ वह मोटे से मोटे वस्त्र और मोटे से मोटे भोजन में संतुष्ट रहेगी । अगर आप इसे अत्युक्ति न समझें, तो मैं यहाँ तक कह सकता हूँ कि ईश्वर ने आपको उसके लिए बनाया है और उसको आपके लिए । सेवा- कार्य में वह हमेशा आपसे एक कदम आगे रहेगी ।”बल्कि अहिल्या का प्रारंभिक चरित्र इतना ही उज्ज्वल दिखाई भी देता है । उसका साहस भी अद्भूत दिखता है जब वह मुल्ला साहब के बेटे से अपनी अस्मिता की रक्षा करती है, उसका धैर्य और समर्पण दिखता है जब वह चक्रधर के साथ इलाहाबाद में अपना वक्त काट रही होती है ।

ऐसी अहिल्या यह पता होते ही कि वह राजा की पुत्री है और उसका पुत्र ही आगामी राजा होगा ,धन ,वैभव और अधिकार के मद में मतवाली हो जाती है इस विषय में प्रेमचंद लिखते हैं कि “अहिल्या इस जीवन का चरमसुख भोग कर रही थी । बहुत दिनों तक दुःख झेलने के बाद उसे यह सुख मिला था और वह उनमें मग्न थी । अपने पुराने दिन उसे बहुत जल्द भूल गये थे और उनकी याद दिलाने में उसे दुःख होता था ।”6

ऐसा लगता है कि मनोरमा और अहिल्या का चरित्र एक दूसरे का पूरक है । इन दोनों का प्रेम चक्रधर की तरफ है । ये उसका सम्मान करती हैं और उससे प्रभावित भी रहती हैं । लेकिन जैसे ही धन की बात आती है इनका कायाकल्प होते समय नहीं लगता । ऐसा लगने लगता है कि जो पुराना चरित्र इनका गढ़ा गया था वह महज दिखावा था । किन्तु इसी चरित्र परिवर्तनों के बीच स्थित अनकहे प्रसंगों में शायद इस उपन्यास का रहस्य है और लेखक का उद्देश्य भी, जिसे वह बताना तो चाहता है लेकिन इस तरह कि सत्ता उस रहस्य को समझ न पाए ।

आप देखेंगे कि इन तीनों प्रमुख चरित्रों के विषय में एक बात महत्वपूर्ण है ,जिसकी वजह से हम इनके कायाकल्प को परिलक्षित कर पाते हैं । वह महत्वपूर्ण बिंदु है राजसत्ता । यह तीनों ही चरित्र समाजसेवा का बीड़ा उठाये हुए तो रहते हैं,लेकिन सत्ता का समर्थन और सहयोग मिलते ही इनका चरित्र परिवर्तन,इनका कायाकल्प हो जाता है । चक्रधर जहाँ अन्ततः मोहभंग की स्थिति में चला जाता है और देश-देश घूमकर रोगियों का इलाज करने लगता है ,वहीं दूसरी ओर दोनों महिला चरित्र उस महल की परिधि में ही अपनी स्थितियों से बेबस होती हैं अंततः कुछ भी प्राप्त नहीं कर पातीं ।

इस उपन्यास की समय सीमा देखने पर यह भारत में अंग्रेजी हुकूमत का दौर मालूम पड़ता है । इस उपन्यास में अंग्रेजी सत्ता की क्रूरताओं तथा उस वक्त हो रहे सांप्रदायिक झगड़ों को भी उपन्यासकार ने वर्णित किया है । किन्तु एक बात ध्यान देने की यह है कि सत्ता का मूल चरित्र केवल  ब्रिटिश शासन का नहीं है बल्कि राजा विशाल सिंह में दिखता है । संभव है बाकी के चरित्र शायद वे लोग हों जो सत्ता में जाते तो परिवर्तन के लिए हैं किन्तु अंततः उन्हीं के लिए काम करते हुए दिखाई देते हैं ।

राजा विशालसिंह का चरित्र हुकूमत का चरित्र है । प्रारम्भ में वह सत्ता की संरचना सुधरने के लिए बड़ी बड़ी डींगे हांकता है ,लेकिन जैसे ही राजा बनता है पहले ही दिन जनता पर हमले करा देता है । कुछ इसी तरह से अंग्रेजी शासन का भी चरित्र रहा था । विशाल सिंह का चरित्र उसके जीवन में होने वाले छोटे छोटे परिवर्तनों से बदलता रहता है और उसका भुगतान हमेशा जनता को करना पड़ता है । वह कई शादियाँ करता है ,जनता अथवा अपने प्रियजनों ,परिवारजनों की कोई परवाह नहीं करता,अपने स्वार्थ के लिए ही उसके सभी निर्णय होते हैं और जब स्थितियां उसके प्रतिकूल होती हैं तो वह जनता का भरसक शोषण भी करता है । वहीं राजा विशाल जो रानी देवप्रिया के रोज डॉक्टर बुलाने पर तंज कसता है और उनकी भोग-विलासी प्रवृत्ति पर सवाल खड़े करता है ,राज सत्ता मिलते ही राजसत्ता मिलते ही उसका चरित्र रानी देवप्रिया से भी निकृष्ट नजर आने लगता है ।

इन्द्रनाथ मदान इस उपन्यास के परिवेश के सम्बन्ध में लिखते हैं कि “उपन्यास की रचना राजनीतिक निराशा और सामाजिक विश्रृंखलता के युग में हुई थी । इसीलिए लेखक का दृष्टिकोण अस्पष्ट और मलिन है । देश के राजनीतिक जीवन के छोटे-से-छोटे परिवर्तन के प्रति सजग रहने वाले प्रेमचन्द इस युग में बहुत दिन तक बनी रहने वाली सांप्रदायिक समस्या को नहीं भुला सकते थे । उन्होंने सांप्रदायिक दंगों  की जिम्मेदारी उन धर्म के ठेकेदारों और सांप्रदायिक नेताओं पर रखी है ,जिन्होंने अपने स्वार्थ साधन के लिए उस समय परिस्थिति से लाभ उठाया जबकि राजनीतिक जीवन बिल्कुल उतार पर था और जब कि जनता के ध्यान को खींचने के लिए कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं था ।”

जाहिर है कि जब ज्यादातर तथाकथित नेता और धर्माध्यक्ष सत्ता से चिपके हुए हों ऐसे में सीधे -सीधे सामान्य कथा कहना कठिन काम था । शायद इसीलिए प्रेमचन्द ने इस उपन्यास के कथानक में थोड़ी विचित्रता और रहस्यात्मकता पैदा की हो और राजा महेंद्र और देवप्रिया की विचित्र पूर्वजन्म की कथा और कायाकल्प का समावेश किया हो । देवप्रिया और महेंद्र की कथा केवल रूपक ही जान पडती है जिसके माध्यम से कायाकल्प का संकेत किया जाता है । इस कथा का मूल कथा से कोई खास सम्बन्ध नहीं दिखता लेकिन प्रकारंतर से यह चलती रहती है । किन्तु इसका सर्वाधिक नुकसान इस बात में होता है कि यह रहस्यात्मकता यथार्थ से दूर ले जाती है । यदि उस कथा  के बगैर ही इस कथानक की दृढ़ता पर जोर दिया जाता तो यह उपन्यास और प्रभवि होकर हमारे सामने आता और ज्यादा सुदृढ़ प्रतीत होता ।

इस रहस्यात्मकता का एक और संकेत लेखक ने उपन्यास के उपसंहार में किया है जहाँ वह पक्षी रखने वाला बहेलिया पक्षी रखकर चला जाता है और मनोरमा उन पक्षियों के रहस्य को ढूंढने की कोशिश करती है । सम्भव है वह पक्षी उस स्वतंत्रता का प्रतीक हो ,क्योंकि इस कहानी के लगभग सभी प्रमुख पात्र उस स्वतंत्रता की ही कामना करते है , वह स्वतंत्रता आंतरिक हो या बाह्य । यह स्वतंत्रता का रहस्यात्मक दरवाजा तभी खुलेगा ,जब लालच और लालसा का नाश होगा , अन्यथा निरंतर व्यक्ति का कायाकल्प होता रहेगा और चारित्रिक और जीवन की स्थिरता भी नहीं रहेगी । इसीलिए शंखधर जो मूलतः राजा महेंद्र है उसका यह कथन अत्यंत महत्वपूर्ण है कि “यह लीला उस दिन समाप्त होगी जिस दिन प्रेम में वासना न रहेगी ।”8 तात्पर्य यह कि चारित्रिक बदलाव और जीवन की स्थिरता तथा स्वतंत्रता तभी संभव है जब मन का लालच और स्वार्थपूर्ण भावनाओं का लोप होगा । निस्वार्थ भावना के साथ सामाजिक उत्थान करने पर ही सफलता हासिल होगी ,शायद यही इस उपन्यास का ध्येय है ।

सन्दर्भ ग्रन्थ

  1. रामविलास शर्मा , प्रेमचन्द आलोचनात्मक परिचय , राधाकृष्ण प्रकाशन ,पांचवां संस्करण ,2018, पृ.-56
  2. प्रेमचन्द ,कायाकल्प ,प्रखर प्रकाशन ,संस्करण 2013 , पृष्ठ –9
  3. वहीं , पृष्ठ –264
  4. वहीं, पृष्ठ – 147
  5. वहीं, पृष्ठ – 15
  6. वहीं , पृष्ठ –259
  7. इन्द्रनाथ मदान , प्रेमचंद – एक विवेचन , राधाकृष्ण प्रकाशन, आवृत्ति 2011 , पृष्ठ –61
  8. प्रेमचन्द ,कायाकल्प ,प्रखर प्रकाशन ,संस्करण 2013 , पृष्ठ –382

हर्षित तिवारी
शोधार्थी
जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय