
‘गोदान’ मुंशी प्रेमचंद का अंतिम पूर्ण उपन्यास है, जिसमें ग्राम जीवन और कृषि संस्कृति का चित्रण किया गया है। ‘होरी’ कृषक जीवन का प्रतिनिधित्व करता है। होरी का जीवन आर्थिक संघर्षों की करुण कहानी है। जीवन निर्वाह के लिए भोजन की समस्या सबसे भयंकर है भोजन दोनों जून न सही एक जून तो मिलना चाहिए। भरपेट न मिले, आधा पेट तो मिले। पेट भरने की समस्या जहाँ ऐसा भयंकर रूप धारण कर चुकी हो, वहाँ महाजन भी मुँह फेर लेता है। ऐसी अवस्था में आसपास के लोगों की दया से ठण्डा चूल्हा जलता है।
‘गोदान’ उपन्यास में होरी की आर्थिक दयनीय स्थिति समग्र कृषक वर्ग की स्थिति का प्रतीक है। होरी अपने जीवन की कैसे छोटी-छोटी जरूरतें पूरी नहीं कर पाता। भरपेट भोजन और वस्त्र ही जब उसे नहीं मिलते तब घी-दूध का व्यंजन मिल जाए यह कैसे संभव था। पाँच साल पुरानी मिर्जई और पैतृक-सम्पति के रूप में मिला कम्बल जाड़े में उसका साथ नहीं दे पाते। उसकी पत्नी धनिया का छत्तीस वर्ष की आयु में ही चेहरा झुर्रियों से भर गया। उसे आँखों से भी कम दिखाई देता है। उसके तीन पुत्र बचपन में ही मर गए और वह एक धेले की दवा भी नहीं मँगा सकी। जीवन-भर संघर्ष करके भी वह कुछ पा नहीं सका। वह मौन रहकर सहता है। उसकी विवशता उस समय चरम बिन्दु पर पहुँच जाती है, जब भगवान की आरती में चढ़ाने के लिए उसके पास एक छोटा-सा पैसा भी नहीं निकलता है।
मुंशी प्रेमचंद की लेखनी से उनकी दुरवस्था का बहुत ही सूक्ष्म एवं मार्मिक चित्रण हुआ है। उन्होंने स्वंय ग्राम जीवन के सुख-दुःख सहे थे, इसी कारण ग्राम जीवन का चित्रण करते समय उनकी अपनी अनुभूतियाँ भी उसमें साकार होकर आयी थी। उन्होंने जो लिखा वे स्वंय उनके अपने जीवन की अनुभूतियाँ है, जो ‘स्व’ और ‘पर’ की सीमाओं को तोड़कर जन-जन की अनुभूतियाँ बन गई है। मुंशी प्रेमचंद ने ग्राम जीवन की आर्थिक स्थिति पर विचार करते समय उन कारणों पर भी प्रकाश डाला है, जो उस स्थिति के मूल में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में विद्यमान थे। जमींदार और उसके सहायक लोगों का प्रभुत्व उन्हीं को अधिक आतंकित करता था जो नितांत सीधे-साधे, सरल स्वभाव के व्यक्ति होते थे। जो किसान तेज होता था, उससे न जमींदार बोलता और न महाजन। ऐसे लोगों से ये मिल जाते और उनकी सहायता से दूसरों का गला दबाते। परंतु देहातों में ये लोग ही थे। अधिकांश लोग होरी के वर्ग में आते थे जो शोषण की चक्की में भाग्य और धर्म के नाम पर पिस-पिसकर कुचल जाते थे। होरी की मान्यता है कि ब्राह्मण का कर्ज लेकर देना जरूरी है। उसका कहना है, “अगर ठाकुर या बनिये के रुपये होते तो ज्यादा चिंता नहीं होती। अगर ब्राह्मण के रुपये उसकी एक पाई भी बच गयी हड्डी तोड़कर निकलेगी।”(1) गोदान का गोबर आदि एक-दो व्यक्त ही ऐसे है जो शोषण के अनवरत चक्र को रोकना चाहते है।
भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि तथा उद्योग-धंदो पर आधारित है। प्रेमचंद युग में गावों के आर्थिक जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यहाँ के अधिकांश निवासी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर थे। गोदान में कृषि-संस्कृति एवं कृषिसंबंधी विपत्तियों का उल्लेख करते हुए एक स्थान पर मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है- “मगर जब चौमासा आ गया और वर्षा न हुई तो समस्या, अत्यंत जटिल हो गयी। सावन का महीना आ गया था और बगुले उठ रहे थे। कुओं का पानी भी सूख गया था और ऊख तार से जली जा रही थी। नदी से थोड़ा-थोड़ा पानी मिलता था मगर उसके पीछे आए दिन लाठियाँ निकलती थी। यहाँ तक की नदी ने भी जवाब दे दिया।”(2) खेतों की फसल खलिहानों में आ सके, उससे पहले उसकी रक्षा करने का उत्तरदायित्व भी कृषक पर है। माघ पूस की रात में खेतों में मड़ैया डालकर उसकी रक्षा करना भी सरल नहीं है। दरिद्रता किसान की साथिन है। उसके पास इतने कपड़े भी नहीं कि रात की ठण्ड मिटाई जा सके। ‘गोदान’ में होरी अपने साथी कम्बल में शीत को छिपा लेना चाहता है। “माघ और महावट, घटाटोप अँधेरा, जाड़ों की रात, मौत का-सा सन्नाटा। होरी पुनिया के मटर की खेत की रक्षा कर अपना कर्तव्य पूरा करता है। कृषक अपने जीवक की सुख शांति इन खेतों में स्वाहा कर देता है। कभी-अभी बैल खेत जोतते-जोतते ही मर जाते। इस समय खेत जोतना कठिन हो जाता। होरी ‘गोदान’ में ऐसी ही स्थिति का सामना करता है। भोला गाय के बदले उसके बेल खोलकर ले जाता है और होरी सोचने लगता है- “मगर बैलों के बिना खेती कैसी। गावों में बोआई प्रारंभ हो गयी। कार्तिक मास में किसान के बैल मर जाएँ तो उसके दोनों हाथ कट जाते है।”(3) होरी के दोनो हाथ कट थे और सब लोगों के खेतों में हल चल रहे थे। बीज डाले जा रहे थे। कहीं-कहीं गीत की ताने सुनाई देती थी। होरी के खेत किसी अनाथ-अबला के घर की भाँति सुने पड़े थे। होरी दिनभर इधर-उधर मारा- मारा फिरता था। कहीं इसके खेत में जा बैठता, कहीं उसकी बोआई करा देता। खेती की दुरवस्था के मूल में अनेक ऐसे छोटे-छोटे कारण थे, जिन्होंने एक साथ मिलकर एक विकट समस्या का रूप धारण कर लिया था। समय के साथ समस्या जटिल से जटिल होती जाती थी। ‘गोदान’ तक आते आते वह इतनी उग्र हो चुकी थी कि उसमें उलझा होरी दम हो तोड़ देता है। डॉ. गोपालराय के शब्दों में- “प्रेमचंद ने किसानों की दयनीय स्थिति के कारणों का भी निर्देश किया है। क्योंकि किसान अशिक्षित, दलित और धर्म-भीरु हैं इसलिए जमींदार, महाजन, पटवारी, पुलिस और पुरोहित सब निर्भय होकर उनका शोषण करते है।”(4)
‘गोदान’ उपन्यास में लगान समस्या का भयंकर रूप भी दृष्टिगोचर होता है। किसान अनपढ़ है। वह कानून नहीं जानता वह लगान चुका भी देता है तो रसीद नहीं मिलती। जो हेकड़ और समझदार किसान होता रसीद उन्हीं को मिलती और शेष पर लगान लेकर भी तकाजे किए जाते थे।
‘गोदान’ भारतीय कृषक की आत्मकथा है। इसके रचना काल के समय स्वयं मुंशी प्रेमचंद ऋण ग्रस्त थे। अतएव उनकी अनुभूतियों ने भी ‘गोदान’ में अभिव्यक्ति पाई है। ‘गोदान’ में होरी की दयनीय स्थिति है। दातादीन के यहाँ वह सपरिवार मजदूर बनता है। भोला से बैल मिलने पर यह खेती करता है और ऊख भी अच्छी होती है परंतु मंगरू शाह अपने डेढ़ सौ रुपए के लिए होरी पर दावा कर देता है और उसकी ऊख नीलाम हो जाती है। महाजन अब उसे ऋण नहीं देता। बेटी की विवाह के लिए भी दुलारी पैसा नहीं देती। वह फिर विवश होकर बेटी को बेच देता है। बीज के लिए भी उसके पास पैसे नहीं रहते। वह फिर मजदूर बनता है। हारी जीवन संघर्षों से पराजित होता है। “पर यह दशा कुछ होरी की ही नहीं थी, सारे गाँव पर यह विपत्ति थी। ऐसा एक आदमी भी नहीं, जिसकी रोनी सुरत न हो, मानो उसके प्राणों की जगह वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों की तरह नचा रही हो। चलते-फिरते थे, काम करते थे, पिसते थे, घुटते थे, इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था। जीवन में कोई आशा है न उमंग… जैसे उनके जीवन के सोते सुख गए हो आर सारी हरियाली मुरझा गयी हो। जेठ के दिन है, अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद है, मगर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है। बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुलकर महाजनों और कारिन्दों की भेंट हो चुका है और जो कुछ बचा है वह भी दूसरों का है। भविष्य अंधकार की भाँति उनके सामने है।”(5)
किसान स्वभाव से ही सरल है। उसमें देवत्व इस सीमा तक है कि परिस्थितियों की विषमता पहचान नहीं पाता। होरी का यह देवत्व उसको पराजित रखता है। अपने भाईयों के परिवार के प्रति वह ईमानदारी से अपना कर्तव्य पूरा करना चाहता है और इसी प्रयास में वह पूरा टूट जाता है। प्रो. मेहता ने इसी देवत्व को लक्ष्य कर कहा है- “काश! ये आदमी ज्यादा और देवता कम होते तो यों न ठुकराये जाते। देश में कुछ भी हो, क्रान्ति ही क्यों न आ जाए, इससे कोई मतलब नहीं। कोई दल उनके सामने सबल के रूप में आए, उसके सामने सिर झुकाने को तैयार; उनकी निरीहता जड़ता की हद तक पहुँच गई है, जिसे कठोर आघात ही कर्तव्य बना सकता है। उनकी आत्मा जैसे चारों ओर से निराश होकर अब अपने अन्दर ही टाँगे तोड़कर बैठ गयी है। उनमें अपने जीवन की चेतना ही जैसे लुप्त हो गयी है।”(6)
मुंशी प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में ग्राम्य-जीवन एवं कृषक संस्कृति को सूक्ष्मता से समाज के माध्यम से चित्रित किया है। ग्राम-जीवन में औद्योगिक समस्याएँ भी उभर कर आती है। ‘गोदान’ में पूँजीपति खन्ना के साथ मजदूरों का संघर्ष होता है। पूँजीपति विजयी होता है। ‘गोदान’ में गोबर अपने पिता होरी की दयनीय स्थिति से दुःखी होकर सोचता है- “वह गुलामी करता है, लेकिन भरपेट खाता तो है। केवल एक ही मालिक का तो नौकर है। यहाँ तो जिसे देखो, वही रोब जमाता है। गुलामी है पर सूखी। मेहनत करके अनाज पैदा करो और जो रुपये मिले, वे दूसरों को दे दो।”(7)
मुंशी प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में ग्राम-जीवन के सामाजिक पक्ष को भी चित्रित किया है। उन्होंने गोबर के माध्यम से टूटते हुए संयुक्त परिवार का सशक्त और यथार्थ ढंग से किया है। इस प्रकार समाज तथा बिरादरी का भी महत्व ‘गोदान’ में दिखाया गया है। होरी अपने पुत्र की पत्नी को आश्रय देता है, परंतु बिरादरी की दृष्टि में यह सर्वथा अनुचित है-अन्याय है और अधर्म भी। होरी विवश है किंतु उसकी पत्नी धनिया बिरादरी की पूरी उपेक्षा करती है। इनके अतिरिक्त मुंशी प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में ग्राम-जीवन के अंतर्गत धार्मिक मान्यताओं का भी चित्रण किया है। ‘गोदान’ के दातादीन की धर्मश्रेष्ठता का प्रभाव इतना फैल चुका है कि कोई उसके अत्याचारों का विरोध नहीं कर पाता। ‘गोदान’ में होरी की गाय को हीरा माहुर दे देता है। दातादीन के पास इस अधर्म के लिए दण्ड-विधान है। झुनिया होरी के द्वार पर आश्रय माँगती है। होरी अपने ही पुत्र की पत्नी को आश्रय देता है। दातादीन इस अधर्म के लिए दण्ड व्यवस्था कर देते है। वास्तव में मुंशी प्रेमचंद जाति-भेद के पीछे धर्म के इस पाखण्ड का भाँडाफोड़ करना चाहते है। उनकी दृष्टि में, “जो अपना धर्म पाले, वही ब्राह्मण है, जो धर्म से मुँह तोड़े वही चमार है।”(8) ‘गोदान’ में रामसेवक किसानों की दुर्गति का रहस्य खोलते हुए कहता है, “संसार में गऊ बनने से काम नहीं चलता। जितना दबो उतना ही लोग दबाते हैं।… यहाँ तो जो किसान है वह सबका नरम चारा है। …यह सब तुम्हारे दब्बूपन का फल है।”(9)
मुंशी प्रेमचंद का ‘गोदान’ उपन्यास ग्राम्य जीवन और कृषक संस्कृति का महाकाव्य है। मुंशी प्रेमचंद ने होरी के माध्यम से ग्राम के जीवन की गतिविधियों का जहाँ एक ओर सूक्ष्मता तथा यथार्थवादी दृष्टिकोण से चित्रण किया है वहाँ दूसरी ओर ग्रामों में विद्यमान कृषि-संस्कृति का समुचित रूप में वर्णन किया है कि कृषकों को किस प्रकार खेती के लिए अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
संदर्भ:
- प्रेमचंद – ‘गोदान’ (1936), हिंदी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित
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- डॉ. गोपालराय – हिंदी उपन्यास का इतिहास, (2002, पुनः 2011)
- प्रेमचंद – ‘गोदान’ (1936), हिंदी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित
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