
हिंदी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद ऐसे अद्वितीय साहित्यकार हैं, जिन्हें पढ़ने के लिए किसी विशेष विषय या पृष्ठभूमि की आवश्यकता नहीं होती। वे जनमानस के लेखक हैं, जिनकी रचनाओं में जीवन की सहजता, यथार्थ और सामाजिक चेतना का विलक्षण संगम दिखाई देता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्रेमचंद को जितना हिंदी साहित्य के विद्यार्थी पढ़ते हैं, उससे कहीं अधिक अन्य विषयों के छात्र, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता उन्हें पढ़ते हैं, क्योंकि उनका साहित्य समाज का दर्पण है। प्रेमचंद का साहित्यिक अवतरण हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। वे न केवल जनवादी और प्रगतिशील लेखक थे, बल्कि उन्होंने 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कार्य करते हुए 21वीं सदी की ज्वलंत समस्याओं को अपने लेखन में चित्रित कर दिया था। यदि यह कहा जाए कि प्रेमचंद ने आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व ही ‘महाभारत’ के संजय की भाँति अपनी दूरदृष्टि से आने वाले समाज की छवि देख ली थी, तो यह कथन अत्युक्ति नहीं होगा। प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से समाज की जिन समस्याओं का चित्रण किया है,जैसे-किसान की दयनीय स्थिति, दलितों की उपेक्षा और स्त्रियों की पीड़ा। वे आज भी हमारे समाज की सच्चाई बनकर विद्यमान हैं। उनकी रचनाएँ किसी विचारधारा की कठोरता में नहीं बँधतीं, बल्कि मानवीय संवेदना की ऊष्मा से भरी हुई हैं। ‘दो बैलों की कथा’ में झूरी की पत्नी का संवाद इस बात का प्रमाण है कि प्रेमचंद ने स्त्रियों के मनोभावों को कितनी गहराई और सहजता से समझा था। जब हीरा-मोती ससुराल से भागकर लौट आते हैं, तो झूरी की पत्नी कहती है- “कैसे नमक हराम बैल हैं कि एक दिन वहाँ काम न किया; भाग खड़े हुए।” यह संवाद केवल पशु-प्रेम नहीं, बल्कि उस स्त्री के भावनात्मक लगाव और घरेलू जीवन की सहज भावनाओं को भी दर्शाता है। प्रेमचंद ने यहाँ स्त्री के भीतर के उस भाव को दर्शाया है, जो अपने मायके से गहरा जुड़ाव रखती है। मायका एक स्त्री के लिए केवल घर नहीं, उसकी पहचान का पहला स्रोत होता है। वह स्थान जहाँ उसका बचपन बीतता है, वह उसे अपने ससुराल से कहीं अधिक प्रिय होता है। यह सामाजिक परंपरा है कि स्त्री को विवाह के बाद दूसरे घर जाना होता है, परंतु मायके के प्रति उसका भावनात्मक लगाव कभी कम नहीं होता। प्रेमचंद इस भाव को बार-बार अपने कथा-साहित्य में उजागर करते हैं।
प्रेमचंद की स्त्री-दृष्टि की बात की जाए तो प्रेमचंद के व्यक्तिगत जीवन के प्रसंग को भी जान लेना उचित रहेगा। उन्होंने माँ के रूप में विमाता का तिरस्कार झेला और पत्नी के रुप में की पहली पत्नी से कभी नहीं बनी। शिवरानी देवी के रूप में उन्हें एक आदर्श सहयोगी मिली। प्रेमचंद के निजी जीवन की घटनाओं ने ही प्रेमचंद की दृष्टि निर्मित करने में बड़ी भूमिका निभाई है। उन्होंने समाज के हर वर्ग को, हर तबके को अपने कथा साहित्य में स्थान दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि माँ, पत्नी, बहन, प्रेमिका, शिक्षिका, वेश्या जितने रूप स्त्रियों के हो सकते हैं प्रेमचंद के साहित्य में दृष्टिगोचर होते हैं। डॉ. इंद्रनाथ मदान प्रेमचंद के साहित्यिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए लिखते हैं—”प्रेमचंद ने पाठकों के मनोरंजन के लिए या स्त्रियों और पुरुषों की वासना तथा प्रेम की समस्या वाली कहानियों के प्रति उत्पन्न जिज्ञासा को शांत करने के लिए उपन्यास और कहानियों की रचना नहीं की। कला की उनकी भावना बड़ी ऊँची थी। जीवन की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं के संबंध में उनके जो विचार थे, उनको व्यक्त करने के साधन ही वे कला को समझते थे। प्रेमचंद के समय जो समाज था वह आज से बहुत अलग नहीं था। उस समय हम विदेशी सत्ता के गुलाम में थे किंतु आज अपनों के द्वारा शोषित हो रहे हैं। ऐसे में समाज के हाशिये पर खड़े लोग आज भी क्या केंद्र में आ पाए हैं? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। एक साहित्यकार की नज़र सिर्फ अपने वर्तमान पर ही नहीं होती बल्कि वह भविष्य पर भी दृष्टि बनाये रखता है।
प्रेमचंद के नारी पात्रों में गाँव का किसान समुदाय, शहरीय वर्ग और अभिजात्य वर्ग के दर्शन होते हैं। अतः इनके व्यवहार, आचरण, प्रतिक्रियाओं पर सामंती आर्थिक व्यवस्था का पूरा प्रभाव दिखता है। उनकी कृतियों में सामाजिक परिस्थितियाँ सत्यता लिए हुए ज्यों-की-त्यों नज़र आती हैं, इनकी लेखनी में कहीं कोई काल्पनिकता का आभास नहीं होता। इनकी रचनाओं में असफलताएँ भी नजर आती हैं और सफलताओं द्वारा नई दिशा भी दिखाई देती है। प्रेमचंद जी के नारी पात्रों में हम एक माँ, पत्नी, प्रेमिका, बहन, सौतेली माँ, दोस्त, भाभी, ननद, समाज सुधारक, देशप्रेमी, परिचारिका, आश्रिता, बदचलन, वेश्या आदि कई रिश्ते भी दिखाई देते हैं। प्रेमचन्द ने दहेज प्रथा को केन्द्र में रखकर सशक्त उपन्यास ‘निर्मला’ की रचना की है। इस उपन्यास के संदर्भ में डॉ. रामचन्द्र तिवारी लिखते हैं की- “’निर्मला’ किसी भी मध्यवर्गीय परिवार की शोभा हो सकती थी। दहेज के अभाव में उसे एक ऐसे अधेड़ व्यक्ति से जीवनभर के लिए बँधना पड़ा जो उसका कल्पना-पुरुष नहीं हो सकता था। अन्तर्मन से न चाहने पर भी निर्मला को प्रेम का अभिनय करना पड़ता है।”1
आज हमारा पूरा भारतीय समाज नारी को सशक्त बनाने के लिये जिस क्रांतिकारी दौर से गुज़र रहा है उस नारी को प्रेमचंद बहुत पहले ही सशक्त साबित कर चुके थे। प्रेमचंद के साहित्य की स्त्री सशक्त है वह ‘कर्मभूमि’ में उतरकर पुरुष के कांधे से कंधा मिलाकर देश की आजादी के लिए संघर्ष करती है, उसे ‘गबन’ कर लाये पैसों से अपने पति की भेंट में मिला चंद्रहार स्वीकृत नहीं है, वो एक गरीब किसान के दु:ख-दर्द की सहभागी बन अपना पतिव्रता धर्म भी निभाती है, वो ‘बड़े घर की बेटी’ भी है और उस सारे पुरुष वर्चस्व वाले परिवार में मानो अकेली मानवीय गुणों से संयुक्त है, वो मजबूरियों में पड़े अपने परिवार के लिये समाज के सामंत वर्ग से बिना डरे ‘ठाकुर के कुँए’ पर जाकर तत्कालिक व्यवस्था को चुनौती देती है और कभी एक माँ बनकर अपने बच्चे के लिये खुद की जान भी लुटा देती है। मुंशी प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य में जिस परिदृश्य को चित्रित किया है वो कतई नारी के अनुकूल नहीं रहा है और नारी उस काल में समाज के पिछले पन्ने का ही प्रतिनिधित्व करने वाली रहा करती थी, लेकिन इसके बावजूद मुंशी जी के साहित्य में नारी चरित्र उभरकर सामने आया है और इस साहित्य को देखकर लगता है कि मानो नारी समाज की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व कर रही है और पुरुष हाशिये पर फेंक दिये गए हैं।
प्रेमचंद का सम्पूर्ण साहित्य राष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त असमानता को लेकर लिखा गया है। इसी मायने में वे अपने समकालीन लेखकों से अलग खड़े मिलते हैं। असमानता से समाज में उपजी विद्रूपताओं, विनाशक वातावरण को ही प्रेमचन्द ने अपने साहित्य का विषय बनाया है। प्रेमचंद का सम्पूर्ण साहित्य दलित, पिछड़ों, उत्पीड़ितों के पक्ष में खड़ा है, साथ ही उन कारक तत्वों की भी पड़ताल की है, जो दुर्दशा के कारण हैं—यानी समाज में व्याप्त असमानता। यही प्रेमचन्द का विश्वास था। प्रेमचंद सदा अपनी राह पर चलते रहे, कोई भी बाधा या लोभ उनको अपने पथ से डिगा नहीं सका और प्रेमचंद की यही खासियत उनको सभी लेखकों में विशिष्ट बनाती है। ताजिंदगी प्रेमचन्द समाज में व्याप्त असमानता के खिलाफ लड़ते रहे, उनका पूरा साहित्य दलितों, गरीबों, उपेक्षितों के पक्ष में खड़ा रहा।साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम लिखते हैं- “उनके (प्रेमचंद) कहानी-उपन्यासों में भी दलित प्रायः अपना दुखड़ा ही रोते हुए नज़र आते हैं। अपने अधिकारों की बात वे नहीं कर पाते। अर्थात दलितों के अधिकारों के प्रति सजगता और समर्थन प्रेमचंद के कथा साहित्य में भी बहुत कम देखने को मिलता है… विभिन्न प्रयासों से ब्राह्मण समाज ने यह स्थापित करने की भरपूर चेष्टा की है कि सवर्ण सदगुणों की खान हैं और शूद्र और अंतयज यानी दलित दुर्गुणों का घर । … सारी अनैतिकता, अवगुण और बुराईयों का टोकरा दलितों के सर।”2
उनके दो दर्जन से अधिक उपन्यासों में से निर्मला, मंगलसूत्र, कर्मभूमि, प्रतिज्ञा तो ऐसे उपन्यास हैं जो पूर्णरूपेण नारी चरित्रों पर ही केन्द्रित रहे हैं अन्य भी जो उपन्यास रहे हैं उनमें भी स्त्री चरित्र को पुरुष के समानांतर ही प्रस्तुत किया है। प्रेमचंद की सैंकड़ो कहानियों में से जो कुछेक अति प्रसिद्ध कथाएँ रही हैं वो भी अपने प्रमुख नारी चरित्रों के कारण जानी जाती है जिनमें ‘पूस की रात’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘दूध का दाम’ अति प्रसिद्ध हैं। उनके साहित्य में प्रस्तुत नारी छवि को देख ऐसा जान पड़ता है कि मानों समाज में मानवोचित गुणों की वाहक मात्र नारी ही है और जो पुरुष मानवीय गुणों से संपन्न हैं, वे भी नारी के प्रभाव में आकर ही मानवीयता से संपन्न हुए हैं। कर्मभूमि के बाप-बेटे ‘समरकांत’ और ‘अमरकांत’ में देवत्व की स्थापना कर, उन्हें स्वतंत्रता के संघर्ष में झोंकने वाले नारी पात्र सकीना, सुखदा और मुन्नी को भला कौन भूल सकता है?
डॉ० रामविलास शर्मा ने माना है कि प्रेमचंद के उपन्यासों की विषय वस्तु भारतेंदुयुगीन उपन्यासों का विकास है। किंतु प्रेमचंद की मौलिकता समस्याओं के चित्रण एवं समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण में है। प्रेमचंद-पूर्व हिंदी के सामाजिक उपन्यासों में स्त्री को सनातनी आदर्शों से पुनर्गठित करने का विचार दिखाई दे रहा था। स्त्री की पराधीनता की बात करते हुए रसाल सिंह लिखते है, “प्रेमचंद के उपन्यासों में सामाजिक पराधीनता में छटपटाती स्त्री का चित्रण है। स्त्री के अतिरिक्त हरिजन और किसान उनकी मुख्य विषय वस्तु हैं। प्रेमचंद मात्र इनका ही चित्रण नहीं करते बल्कि इन्हें समस्या के रूप में परिवर्तित करते हैं और उनका स्रोत सामाजिक संरचना में ढूँढ़ते हैं। पहली बार जीवन की समग्रता को व्यवस्थागत ढाँचे में ढूँढने की कोशिश की गई।”3
प्रेमचंद महिला चरित्रों को कर्म और साहस के क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष प्रस्तुत करते हैं पर महिला की नैसर्गिक अस्मिता, गरिमा और कोमलता को वो अक्षुण्ण रखते हैं। प्रेमचंद का साहित्य उन तमाम आधुनिक शक्तिकरण के चिंतको के लिये उदाहरण प्रस्तुत करता हैं, जो नारी को सशक्त बनाने के लिये उसके चारित्रिक पतन की पैरवी करते हैं और उसकी अस्मिता के भौंडे प्रदर्शन को नारी शक्ति का प्रतीक मानते हैं। वे नारी के समावर्णन में पूर्वाग्रही नहीं है अपने एक उपन्यास में प्रेमचंद लिखते हैं, “नारी हृदय धरती की भाँति है, जिससे मिठास भी मिल सकती है और कड़वाहट भी”। स्त्री के पवित्रता पर प्रश्नचिन्ह उठाने वालों के लिये वो अपने उपन्यास ‘प्रतिज्ञा’ में लिखते हैं, “स्त्री हारे दर्जे ही दुराचारिणी होती है, अपने सतीत्व से ज्यादा उसे संसार की किसी वस्तु पर गर्व नहीं होता और न ही वो किसी चीज को इतना मूल्यवान समझती है”। ये पंक्तियाँ आज के उन तमाम बौद्धिक व्यायाम करने वाले तथाकथित आधुनिक लोगों पर तमाचा है जो स्त्री की वासनात्मकता को अनायास ही स्वर देकर उसकी भोग-वाञ्छा को साबित करना चाहते हैं और उसे सही ठहराकर नारी को सशक्त साबित करने का बेहुदा कृत्य करते हैं। एक अन्य जगह प्रेमचंद लिखते हैं “नारी स्नेह चाहती है, अधिकार और परीक्षा नहीं”। उसकी स्नेह की चाहत को कतई अन्यथा नहीं लेना चाहिए। डॉ. नगेन्द्र ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में लिखते हैं कि- “सेवासदन’, ‘रंगभूमि’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ में अंतर्जातीय विवाह के प्रश्न को उठाया गया है। उच्चवर्गीय और मध्यमवर्गीय समाज में नारी की स्थिति तथा अपने अधिकारों के प्रति उसकी क्रमशः उभरती गई जागरूकता तो प्रायः उनके सभी उपन्यासों में चित्रित है। विधवा-विवाह का प्रश्न ‘प्रतिज्ञा’ में उठाया गया है। मध्यमवर्ग की कुंठाओं का सबसे अच्छा चित्रण ‘ग़बन’ और ‘निर्मला’ में है, यद्यपि ‘सेवासदन’ और ‘कर्मभूमि’ में भी इसकी झलक देखी जा सकती है।”4
प्रेमचंद के साहित्य में स्त्री पात्र एक सुखद अहसास दिलाती हैं, वे पश्चिमी सभ्यता की ओर आकर्षित भारतीय स्री के समक्ष एक चुनौती बनकर खड़ी हो जाती हैं। एक स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु जितने भी मुक्ति संघर्ष हुए हैं उनमें से एक है स्री चेतना। आज वह अपने अधिकारों के प्रति सजग हुई है। लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो आज भी हमारे सामने ऐसी सामाजिक विसंगतियों हैं जो महिलाओं की गरिमा के अनुकूल नहीं हैं। आज साहित्यकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से विमर्श को रखा है। कहीं स्त्री-पुरुष दोनों को समान माना गया है तो कहीं स्त्री स्वयं को परंपराओं के बंधन से मुक्त कर आधुनिकता की दौड़ में दौड़ रही है। जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा है, “एक सावधानी बरतते हुए हम यह मान सकते हैं कि जो ज्ञान पुरुष स्त्रियों से उनके बारे में हासिल करते हैं, भले ही वह उनकी संचित संभावनाओं के बारे में न होकर, सिर्फ उनके भूत और वर्तमान के बारे में ही क्यों न हो, तब तक अधूरा और उथला रहेगा, जब तक कि स्त्रियाँ स्वयं वह सब कुछ नहीं बता देतीं, जो उनके पास बताने के लिए है।”5
प्रेमचंद का स्त्री-विमर्श केवल परंपरा या विद्रोह तक सीमित नहीं है, बल्कि उसमें संवेदना की गहरी धारा भी प्रवाहित होती है। वे उस समाज के लेखक हैं जो एक ओर रूढ़ियों में जकड़ा हुआ है, तो दूसरी ओर नवजागरण की लहरों से आंदोलित हो रहा है। प्रेमचंद ने अपने साहित्य में स्त्री को केवल करुणा की पात्र या अबला नहीं दिखाया, बल्कि उसे आत्मनिर्भर, कर्मठ, संघर्षशील और जागरूक रूप में प्रस्तुत किया। उनके साहित्य में स्त्री पात्रों की विविधता-कभी शोषित ग्रामीण महिला, कभी आत्मबल से युक्त शिक्षित स्त्री-समाज के बदलते स्वरूप की प्रतिनिधि बनकर सामने आती है। उन्होंने स्त्री की शिक्षा, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता को सामाजिक विकास का आधार माना। प्रेमचंद के लेखन में यह स्पष्ट है कि वे उस समय के समाज के बहुआयामी अंतर्विरोधों को गहराई से पहचानते थे और उन्हें साहित्यिक रूप में सजीव अभिव्यक्ति देते थे।
दरअसल, प्रेमचंद के समय का समाज केवल एक बदलाव के दौर से नहीं, बल्कि अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक संक्रमणों से गुजर रहा था। यही बहुसंख्यक संक्रमणताएँ उनके साहित्य को यथार्थ से जोड़ती हैं और उसे कालजयी बनाती हैं। यही कारण है कि प्रेमचंद की स्त्रियाँ आज भी हमें सोचने के लिए विवश करती हैं- क्योंकि वे परंपरा में बंधी होकर भी विद्रोह की बीजवपन करती हैं, और विद्रोह में भी एक मानवीय संवेदना को जीवित रखती हैं।
संदर्भ सूची
- हिन्दी का गद्य साहित्य, डॉ. रामचन्द्र तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, संस्करण 2011, पृ. 549
- अपेक्षा, अक्तूबर-दिसम्बर 2013, तेज सिंह, नई दिल्ली, पृ. 36
- हिन्दी साहित्य के इतिहास पर कुछ नोट्स, रसाल सिंह, अक्षर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स दिल्ली, संस्करण 2019, पृ.260
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ.नगेन्द्र & डॉ. हरदयाल, मयूर पेपरबैक्स, नोएडा, संस्करण 2012, पृ. 559
- बनास जन, जून 2021, सं. पल्लव, दिल्ली, पृ. 46
डॉ. आशीष कुमार ‘दीपांकर’
सहायक आचार्य
हिन्दी (भाषा विभाग)
स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालय,
मेरठ, उत्तर प्रदेश
डॉ. निशि राघव
सहायक आचार्य
हिन्दी (भाषा विभाग)
स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ, उत्तर प्रदेश




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