
प्रस्तावना (Introduction):
मुंशी प्रेमचंद (1880–1936) हिन्दी कथा साहित्य के प्रमुख स्तंभ हैं। वे अपने यथार्थवादी दृष्टिकोण, जनसरोकारों से जुड़ी विषयवस्तु, और सरल-सुबोध भाषा के लिए जाने जाते हैं। ‘कफन’ उनकी अंतिम प्रकाशित कहानियों में से एक है, जो 1936 में पत्रिका हंस में छपी थी। यह कहानी एक निर्धन दलित परिवार की कथा है जो अपने जीवन की पीड़ा, असहायता, और समाज के प्रति कटुता को लेकर गहरी छाप छोड़ती है। कहानी में प्रेमचंद समाज की क्रूरताओं, जातिगत भेदभाव और व्यवस्था के प्रति विद्रोह को बेहद मार्मिक तरीके से चित्रित करते हैं।
बीज शब्द (Keywords):
कफन,सामाजिक यथार्थ, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, मानव मनोविज्ञान, नैतिक पतन, प्रतीकात्मकता, गरीबी और वर्ग संघर्ष, हिन्दी कथा साहित्य, यथार्थवाद, हाशिए का समाज
शोध उद्देश्य (Objectives):
इस शोध का मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
- ‘कफन’ कहानी में सामाजिक यथार्थ के स्वरूप को समझना।
- प्रमुख पात्रों – घीसू, माधव, और बुधिया – के माध्यम से मानवीय मनोविज्ञान का विश्लेषण करना।
- कहानी में प्रयुक्त प्रतीकों, भाषा शैली और व्यंग्य को पहचानना।
- स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श के संदर्भों की पहचान और मूल्यांकन करना।
- प्रेमचंद के यथार्थवाद के दर्शन को स्पष्ट करना।
शोध पद्धति (Research Methodology):
यह शोध कार्य साहित्यिक विश्लेषणात्मक पद्धति पर आधारित है। इसमें प्राथमिक स्रोत के रूप में प्रेमचंद की मूल कहानी ‘कफन’ का पाठ उपयोग किया गया है तथा द्वितीयक स्रोत के रूप में आलोचनात्मक निबंध, लेख और समीक्षा-साहित्य का सहारा लिया गया है।
शोध की सीमाएँ (Limitations):
यह शोध केवल प्रेमचंद की एकल कहानी ‘कफन’ पर केंद्रित है। इस कारण से प्रेमचंद के अन्य सामाजिक पक्षों, जैसे ग्रामीण अर्थनीति या सामंतवाद पर विस्तृत चर्चा नहीं की गई है। दलित और स्त्री विमर्श को भी सीमित संदर्भों तक ही विवेचित किया गया है।
साहित्य समीक्षा (Review of Literature):
प्रेमचंद की ‘कफन’ पर अनेक आलोचकों ने विविध दृष्टिकोणों से विचार किया है:
रामविलास शर्मा (1965) ने प्रेमचंद के साहित्य में वर्ग संघर्ष और सामाजिक यथार्थ को महत्त्वपूर्ण माना।
नामवर सिंह ने प्रेमचंद की कहानियों को “जनमानस की अभिव्यक्ति” बताते हुए ‘कफन’ को व्यवस्था पर कटाक्ष का नमूना बताया।
डॉ. रेखा सेठी ने ‘कफन’ में नारी की मौन उपस्थिति को अत्यंत मुखर बताते हुए इसे स्त्री विमर्श की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कहानी माना है।
हरिशंकर परसाई ने इस कहानी की विडंबना पर ध्यान दिलाते हुए कहा कि प्रेमचंद ने यहाँ नैतिकता के पारंपरिक अर्थों को चुनौती दी है।
गणेश देवी और ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे दलित आलोचकों ने ‘कफन’ को एक प्रारंभिक दलित चेतना का रूप माना है।
मुख्य विषयवस्तु (Main Body):
पात्र विश्लेषण:
घीसू: एक बुजुर्ग व्यक्ति जो अपने जीवन भर श्रम से बचता रहा है। यद्यपि वह आलसी, आत्मकेंद्रित और अवसरवादी है, फिर भी उसमें दुनिया को लेकर एक व्यंग्यात्मक समझ है। समाज के प्रति उसका अविश्वास उसकी मानसिकता को जन्म देता है – “दुनिया का दस्तूर है, मरने वाले के लिए आँसू बहाओ, चाहे जीते जी कुछ मत दो।”
माधव: घीसू का पुत्र, जो अपने पिता की ही तरह कामचोर है। बुधिया की मृत्यु के बाद उसकी प्रतिक्रियाएँ अमानवीय लगती हैं, परन्तु गहरे विश्लेषण में यह मनोवैज्ञानिक विद्रोह और सामाजिक विडंबना का परिणाम है।
बुधिया (माधव की पत्नी): कहानी की एकमात्र स्त्री पात्र, जो दिखाई नहीं देती पर उसकी पीड़ा कहानी की आत्मा है। प्रसव पीड़ा में तड़पती हुई स्त्री, जिसे कोई सहायता नहीं मिलती, वह इस समाज की संवेदनहीनता की प्रतीक बन जाती है। वह चुपचाप मर जाती है, और उसके शव के लिए लाया गया ‘कफन’ शराब में बदल दिया जाता है।
सामाजिक यथार्थ
प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी भारत के शोषित ग्रामीण जीवन का वास्तविक दस्तावेज़ है। इसमें घीसू और माधव जैसे पात्रों के माध्यम से लेखक ने यह दिखाया है कि किस प्रकार सामाजिक, आर्थिक और जातीय व्यवस्था ने इंसान को इतना निराश, टूटे हुए और संवेदनाहीन बना दिया है कि श्रद्धा, संवेदना, नैतिकता जैसे मूल्य भी बेकार हो जाते हैं।
गरीबी और श्रम से विश्वास उठ जाना:
घीसू और माधव काम नहीं करते — लेकिन इसका कारण उनका आलस्य नहीं, बल्कि बार-बार श्रम करने के बाद भी नतीजे में अपमान, भूख और शोषण मिलना है।
“एक बार एक काम में लगे भी तो इतने पीटे गए कि तीन दिन तक पड़े रहे। उस पर मजूरी भी नहीं मिली।”
यह संवाद बताता है कि श्रम का अपमान ही उन्हें श्रम से विमुख करता है। भूख और थकान ने उनके आत्म-सम्मान को कुचल दिया है।
भूख और लाचारी का प्रभाव:
भूख ने उन्हें न केवल शारीरिक रूप से कमज़ोर किया है, बल्कि मानसिक रूप से भी असंवेदनशील बना दिया है। मौत के समय भी उनकी प्राथमिक चिंता खाना और आराम है।
“बुढ़िया मर रही है। शायद कोई जंतर-मन्तर कर रही है।”
“दोपहर से कुछ नहीं खाया, चलो कहीं से कुछ जुगाड़ करें।”
पत्नी की मृत्यु की ओर बढ़ती स्थिति पर भी उनका ध्यान नहीं है, क्योंकि भूख और जीवन के संकट ने उनके अंदर की मानवता को कुंद कर दिया है।
सामाजिक बहिष्करण और जातीय पीड़ा:
वे समाज के उस वर्ग से हैं जिसे न नौकरी मिलती है, न इज्ज़त, न मृत्यु पर सम्मान। समाज उन्हें केवल घृणा और करुणा के बीच झूलते हुए देखता है।
“क्या जलेल होने का डर नहीं है?”
“अब तो तू जलेल भी न होगा। लोग समझेंगे, फूट-फूटकर रोये। पूछेंगे ही, तो कह देंगे — रात को रुपए खो गए।”
यह संवाद दिखाता है कि समाज उन्हें इतना हीन और गिरा हुआ मानता है कि उनसे अब और अधिक गिरने की कोई आशंका भी नहीं बची।
कफ़न: व्यवस्था पर व्यंग्य और विद्रोह:
कफ़न जैसी परंपरा पर भी वे कटाक्ष करते हैं। उन्हें लगता है कि जो समाज जीते जी भूखा मरने देता है, वह मरने पर कफ़न की औपचारिकता क्यों चाहता है?
“कफ़न उस लाश पर डाला जाता है जो लाज से नंगी न हो। यह लाश जो घर से दो कदम पर जंगल में पड़ी है, वह किसी की आँखों में खटकने वाली नहीं।”
यह संवाद सामाजिक रीति-नीति और औपचारिक संवेदना पर सीधा प्रहार है।
संवेदना का अंत और कड़वी सच्चाई:
जब माधव की पत्नी मर जाती है, तो वे उसे कफ़न भी नहीं देते, बल्कि उस पैसे से शराब पीते हैं — और फिर भी समाज की आलोचना को धैर्यपूर्वक और तर्कपूर्ण ढंग से खारिज करते हैं।
“हम क्यों कफ़न के लिए रुपए खर्च करें? क्यों? कौन देखता है, कौन देता है?”
“हमारा भी तो कोई कर्तव्य है कि नहीं? उसने मरते-मरते हमारी जिंदगी की लाज रख ली।”
यह संवाद स्पष्ट करता है कि उन्होंने मूल्य और कर्तव्य की परिभाषा ही पलट दी है, क्योंकि संवेदना को जीते जी कभी मूल्य नहीं मिला।
नैतिकता बनाम विवशता:
कहानी का सबसे गहन पक्ष यही है कि पाठक सोचने पर विवश हो जाता है — क्या घीसू और माधव सचमुच ‘नर-पिशाच’ हैं या समाज ने उन्हें ऐसा बना दिया है? उन्होंने अपने अनुभवों के चलते इंसानियत को एक अलग चश्मे से देखना शुरू कर दिया है।
“कफ़न उसके लिए है जो मर गया। हम तो कफ़न को जलाने वाले हैं।”
यह संवाद प्रेमचंद की लेखनी का व्यंग्यात्मक शिखर है — यह मृत्यु और उसके सामाजिक कर्मकांडों पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। यह उस व्यवस्था पर चोट करता है जहाँ मरने वाले के लिए कफ़न जरूरी है, लेकिन जीते हुए को रोटी देना कोई अनिवार्यता नहीं।
प्रतीकात्मकता और भाषा:
कहानी का शीर्षक ही प्रतीकात्मक है। ‘कफन’ मृत्यु का वस्त्र है, लेकिन यहाँ वह सामाजिक व्यवस्था, औपचारिकता और मानवीय संवेदनाओं की मृत्यु का प्रतीक भी बन जाता है।
प्रेमचंद की भाषा अत्यंत सरल, पर भीतर से मार्मिक और व्यंग्यात्मक है। उनका हास्य विचारोत्तेजक है, मनोरंजक नहीं।
“एक बार किसी रईस की बारात में गए थे। तब लोगों ने इन्हें इतना खिलाया कि ये खड़े न हो सके। तीन दिन तक बीमार पड़े रहे।”
यह संवाद दर्शाता है कि घीसू और माधव जैसे पात्रों के जीवन में भोजन एक उत्सव मात्र है, न कि एक अधिकार। उनके मूल्यबोध समाज से इतने अलग हो चुके हैं कि उन्होंने व्यवस्था पर विश्वास करना ही छोड़ दिया है।
प्रेमचंद की लेखन शैली:
प्रेमचंद हिंदी कथा-साहित्य में यथार्थवाद और सामाजिक व्यंग्य के प्रथम पुरोधा माने जाते हैं। ‘कफन’ उनकी शैली का श्रेष्ठ उदाहरण है।
- सरल, स्वाभाविक भाषा:
प्रेमचंद की भाषा आमजन की भाषा है — संवाद प्रधान, सहज, किंतु भावप्रवण। वे शिल्प की चकाचौंध नहीं, भाव की गहराई पर विश्वास करते हैं।
“तबीयत तो जब बहलती, जब कुछ मिलता। जब काम ही नहीं मिलता, तो क्या करें?”
यह संवाद जितना सरल है, उतना ही गहरे सामाजिक प्रश्न उठाता है।
- व्यंग्यात्मकता का प्रयोग:
कहानी में कई स्थानों पर प्रेमचंद ने गहरी व्यंग्यात्मक शैली अपनाई है, जो समाज की दिखावटी नैतिकता को उजागर करती है।
“कफ़न उस लाश पर डाला जाता है, जो लाज से नंगी न हो; यह लाश जो घर से दो कदम पर जंगल में पड़ी है, वह किसी की आँखों में खटकने वाली नहीं।”
यह संवाद व्यवस्था की औपचारिकता पर तीखा प्रहार है।
- प्रतीकों का प्रयोग:
‘कफन’ स्वयं एक प्रतीक है — यह न केवल मृत शरीर को ढकने वाला वस्त्र है, बल्कि एक मृतप्राय व्यवस्था का प्रतीक भी है।
स्त्री विमर्श और दलित विमर्श:
स्त्री विमर्श: बुधिया एक ऐसी स्त्री है जो कहानी में अधिक बोलती नहीं, पर उसकी चुप्पी ही उसकी करुणा बन जाती है। वह परिवार की रोटी का एकमात्र साधन है, फिर भी उसकी मृत्यु का कोई गहरा प्रभाव नहीं होता।
“बेचारी पेट में बच्चा लेकर काम करती थी। और कुछ नहीं तो हमें दाल-रोटी तो दे देती थी।”
यह संवाद दिखाता है कि स्त्री केवल सेवा और त्याग का प्रतीक है — उसके अस्तित्व की पहचान केवल उसकी उपयोगिता से है।
दलित विमर्श: घीसू और माधव जैसे पात्र उस वर्ग से हैं जो सदियों से समाज के हाशिए पर रहे हैं। उनके लिए न जन्म का उत्सव है, न मृत्यु का शोक — सब कुछ केवल एक बोझ है।
“जलील होने का डर तो नहीं है?”
“अब तो तू जलेल भी न होगा। लोग समझेंगे, फूट कर रोये। पूछेंगे ही, तो कह देंगे — रात को पैसे खो गए।”
यह संवाद उस सामाजिक ताने-बाने पर कटाक्ष है जहाँ दलितों का दुःख भी संदिग्ध माना जाता है और उनकी भावनाओं को कभी पूरी मान्यता नहीं मिलती।
निष्कर्ष (Conclusion):
‘कफन’ का सामाजिक यथार्थ केवल घीसू और माधव की गरीबी की कहानी नहीं है — यह उन लाखों-करोड़ों लोगों की प्रतिनिधि कथा है जो इस समाज के हाशिए पर जीते हैं। ये संवाद यह दिखाते हैं कि जब इंसान लगातार शोषण, भूख, जातीय अपमान और सामाजिक तिरस्कार का शिकार होता है, तब वह न केवल अपने श्रम से भरोसा खो देता है, बल्कि संवेदना से भी दूर हो जाता है।
‘कफन’ कहानी प्रेमचंद की यथार्थ दृष्टि और सामाजिक प्रतिबद्धता का श्रेष्ठ उदाहरण है। यह कहानी न केवल एक दलित परिवार की त्रासदी है, बल्कि यह समाज की विफलताओं, मानवीय मूल्यों के पतन और व्यवस्था के प्रति प्रतिकार का आख्यान है। आज के समय में भी जब आर्थिक विषमता और सामाजिक असंवेदनशीलता बनी हुई है, तब यह कहानी और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है। ‘कफन’ केवल एक कहानी नहीं, बल्कि एक धार्मिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विवेचना है। प्रेमचंद ने इसे ऐसा रूप दिया है जिसमें पाठक को संवेदना और विवेक दोनों से टकराना पड़ता है। घीसू और माधव के बहाने प्रेमचंद एक ऐसा सवाल खड़ा करते हैं जिसका उत्तर आसान नहीं — क्या भूखे पेट नैतिकता टिक सकती है? और क्या समाज को सिर्फ औपचारिक संवेदना दिखाने का ही अधिकार है, असल जिम्मेदारी नहीं?
प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी में मानव मनोविज्ञान का चित्रण केवल दो व्यक्तियों की सोच तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस समाजशास्त्रीय मनोविज्ञान को भी उजागर करता है जहाँ मनुष्य परिस्थितियों के कारण अपनी मूल प्रवृत्तियों से अलग व्यवहार करता है। घीसू और माधव जैसे पात्र नायक नहीं हैं, लेकिन वे यथार्थ के कटु, नग्न और सच्चे चेहरे हैं – जो हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि नैतिकता और अमानवीयता का आधार अक्सर मनुष्यता नहीं, परिस्थिति होती है।
संदर्भ सूची (References):
- प्रेमचंद, कफन, मानसरोवर खंड-8, राजपाल एंड संस, 2007।
- शर्मा, रामविलास, प्रेमचंद और उनका युग, राजकमल प्रकाशन, 1992।
- सिंह, नामवर, कहानी: नई कहानी, राजकमल प्रकाशन, 1997।
- सेठी, डॉ. रेखा, स्त्री विमर्श और हिन्दी कहानी, वाणी प्रकाशन, 2010।
- वाल्मीकि, ओमप्रकाश, दलित साहित्य की भूमिका, पुस्तकालय प्रकाशन, 2005
- परसाई, हरिशंकर, व्यंग्य युग में प्रेमचंद, लोकभारती प्रकाशन, 1982।
- देवी, गणेश, भारतीय साहित्य में उपेक्षित स्वरों की पहचान, साहित्य अकादमी, 2000।
प्रो. यशवंतकर संतोषकुमार लक्ष्मण
अध्यक्ष हिन्दी विभाग
कला विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्याल, शिवाजीनगर, गढी,





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