
प्रस्तावना:-
हिंदी साहित्येतिहास लेखन की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। विदेशी प्रयासों से आरंभ होकर भारतीय हिंदी साहित्येतिहासकारों तक पहुंचने में हिंदी साहित्येतिहास ने एक लंबा रास्ता तय किया है। अब समय के विराट पहलुओं में यह हिंदी की स्त्री साहित्येतिहासकारों के हाथों में भी लग चुका है। अपनी इस पूरी निर्माण प्रक्रिया में, हिंदी साहित्येतिहास की ये परम्परा सुदीर्घ के साथ-साथ कितनी तटस्थ और पूरक रही है? या रही भी है कि नहीं? इसका विश्लेषण ही इन स्त्री लिखित साहित्येतिहासों में उभारा गया आधारभूत प्रश्न है। जिनमें एक प्रमुख साहित्येतिहास है: सुमन राजे कृत हिंदी साहित्य का आधा इतिहास।
हिंदी साहित्य का आधा इतिहास : पूरक का आधा या आधे का पूरक? :
साहित्येतिहासों के विषय में, प्रचलित ध्येयवाक्य है कि ‘साहित्य का इतिहास लिखना निरंतर प्रवाहमान, सतत प्रगतिशील और एक बड़ी जटिल, दुरुह और न जाने क्या, क्या किंतु साहित्य विशेष के विकास के लिए अत्यन्त अनिवार्य प्रक्रिया है।’ इस ध्येयवाक्य में समर्थन देने पर भी बहरहाल कहना होगा कि युग-युगांतर से ही जब-जब नया इतिहास लिखा जाता रहा है, तब-तब उसे पुरातन इतिहास की तुलना में खड़ा कर जलील किए जाने का रिवाज़ प्रायः हर साहित्य में, और हिंदी में भी हर दौर में हुआ है। इतना ही नहीं हिंदी में कई बार तो साहित्येतिहासकार स्वयं किसी रचनाकार की-सी भूमिका में खड़े होकर अपने साहित्येतिहास के सम्मुख सबके प्रारंभिक प्रयासों को ‘कवि-वृत-संग्रह’ कहते हैं। और फिर कई बार तो आलोचकों को ही मोतियाबिंद हो जाता है कि अपने पसंदीदा इतिहास और इतिहासकार के आगे उनके लिए सब कुछ धुंधला जाता है। कारण संभव है “नये इतिहास से अंधश्रद्धा और यथास्थितिवाद को चोट पहुँचती है, जाने-अनजाने वर्ग-वर्ण-चेतना को धक्का लगता है। नया या दूसरा इतिहास इसी की कोख से पैदा होता है।”²
परंतु यह समझना जरूरी है कि केवल नए का आग्रह लेकर, नई सूचनाओं का संकलन कर साहित्येतिहास लिख देना केवल प्रयोग होता है और “प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है, वह साधन है।”³ इसीलिए नए इतिहासों के लेखन में जो सबसे अधिक अनिवार्य तत्व होता है, वह है नवीन इतिहासदृष्टि।
सुमन राजे का साहित्येतिहास इस दृष्टि से बहुत सार्थक ठहरता है। अस्मिताओं के संकट की पहचान करते हुए महिला लेखन के सौदर्यशास्त्र की खोज में निकला सुमन राजे का साहित्येतिहास नवजागरण की संकल्पना को आधार बनाकर अपना काल विभाजन तथा अपनी स्त्रीवादी दृष्टि में एक नया नामकरण भी प्रस्तुत करता है। समकालीन रचित स्त्री-साहित्य की भी ‘इत्यादि का साहित्येतिहास’ की संज्ञा देकर समीक्षा करता है। कहना होगा इस पूरे साहित्येतिहास में स्त्रीवादी दृष्टि का पूर्ण-पूर्ण निर्वाह हुआ है, जिसके कारण इसमें पुरुष रचित साहित्य संदर्भों की उपेक्षा भी है। किंतु यह इतिहास विकलांग नहीं है क्योंकि वे इसके तटस्थ होने का दंभ नहीं भरती, अपने कृत के प्रति सजग स्वयं स्वीकारती हैं:
“‘आधा’ इतिहास स्त्री विमर्श की पुस्तक नहीं है। यह साहित्य इतिहास ही है परंतु आधा।”⁴
किंतु यह केवल आधा भी इसीलिए नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि यदि यह आधा है, तो पूर्वरचित सभी साहित्येतिहास भी आधे ही माने जाए। और यदि आप यह मानते हैं कि पूर्वरचित सभी साहित्येतिहास किन्हीं भी वजहों से आधे छूट गए है या छोड़े गए है, तो स्वीकारिए कि यह उस आधे का भराव है। और इन संदर्भा में, इसके माने यही है कि यह पूरक का आधा भी है और आधे का पूरक भी। क्योंकि:
“जहाँ पुरुष मौन हो जाता है वहाँ जन्म लेता है महिला-लेखन। जो अंश खाली छूट गये हैं या छोड़ दिये गये हैं, उनके भराव में मिलता है महिला-लेखन।”⁵
मूल्यांकन की दृष्टि सेः स्त्री अस्मिता का सौंदर्यशास्त्रः
सुमन राजे के इस साहित्येतिहास का मूल्यांकन मोटेतौर पर तीन पड़ावों के अंतर्गत किया जा सकता है। पहला पड़ाव है: ‘साहित्येतिहासग्रंथ का अध्यायवार वर्णन।’ यह साहित्येतिहास मूलतः चार इकाइयों में विभाजित है। पहली इकाई ‘साहित्य का आधा इतिहास’ है, जिसमें इस साहित्येतिहास लेखन के पीछे उद्देश्य, महिला इतिहास लेखन के प्रयोजन, पूर्व परम्परा की पृष्ठभूमि व कारण आदि को रेखांकित किया गया है। वे स्वयं कहती है:
“साहित्य में ‘दूसरी परम्परा की खोज तो की गयी, परन्तु यह ‘तीसरी परम्परा’ जब तक नहीं खोज ली जाती, तब तक साहित्येतिहास ‘आधा इतिहास’ ही है।”⁶
यहां विवेचन योग्य है कि राजे ने काल विभाजन में समय सीमा को लांघ कर अपने काल विभाजन में नवजागरण रूपी विभाजन प्रस्तुत किया है। कहीं कोई काल या समय का विभाजन नहीं है बल्कि पूरे हिंदी साहित्येतिहास का विभाजन चार नवजागरण कालों में किया है और उसके ही अनुसार परस्पर तत्कालीन युगबोध की व्याख्या की है। यहां का युगबोध किसी भी विशिष्ट समय-सीमा का बोध नहीं करता, हालांकि मोटा-छोटा कालबोध होने पर भी युगीन चेतना को पूरा-पूरा समझा जा सकता है।
इसके पश्चात, इस साहित्येतिहास की दूसरी इकाई है : ‘विरासत’। इसमें ऋग्वेद के प्राचीनतम साक्ष्य के रूप में स्वीकृति के साथ वैदिक ऋषिकाओं से साहित्य इतिहास की पृष्ठभूमि को आरंभ किया गया है। फिर थेरी गाथाओं को प्रथम भारतीय नवजागरण का प्रतिनिधि स्वीकार कर यहां से नवजागरण का आरंभ माना गया है। और तत्पश्चात द्वितीय नवजागरण के अंतर्गत संस्कृत और प्राकृत कवयित्रियों को स्थान दिया गया है। यहां मुख्य तर्क यह है कि यहां सभी नवजागरणों में ही रचनाकार के रूप में केंद्र में स्त्री है और यह इस साहित्येतिहास की विषयवस्तु व इसके समस्त प्रस्तुत विभाजन पर सबसे बड़ी टिप्पणी है।
ग्रंथ की तीसरी इकाई ‘हिंदी साहित्येतिहास : मध्ययुग’ है। यहां राजे की स्थापना है कि उन्होंने हिंदी मध्यकाल और भक्ति आंदोलन का आरंभ तृतीय भारतीय नवजागरण से माना है। वे मध्ययुगीन नवजागरण का उद्भव द्विमुखी संघर्ष की भूमिका से मानती हैं। उनके मध्य युगीन नवजागरण में नव मानववाद पर बल, और उस बल के केंद्र में स्त्री है। “निश्चय ही भक्ति आंदोलन अवर्ण जातियों को भावना के धरातल पर समान लाने की ही तरह नारी को एक सीमा तक घर की धार-दीवारी से बाहर निकलने का निमंत्रण देता था। धर्म के ही नाम पर सही, वह नारी को भी पुरुष का सहभागी बनाकर इस क्षेत्र में उतारता था। उसे शारीरिक विलास का ही साधन नहीं मानता था। भक्ति आंदोलन में नारियों का योगदान कितना व्यापक था, यह इस तथ्य से भी प्रकट होता है कि हिंदी साहित्य के चारों काों में, संभवतः आधुनिक काल को छोड़कर, भक्तिकाल में कवयित्रियों की संख्या सबसे ज्यादा है।”⁷
वस्तुतः राजे भी भक्तिकाल में आई इस सशक्त महिला रचनात्मकता को सराहती है और कहती है किः
“मध्ययुगीन महिला रचनात्मकता का यह चेहरा कुछ सवाल खड़े करता है, और कुछ ऐसे जवाब भी देता है जो अभी तक दिये नहीं गये थे।”⁸
इसके अतिरिक्त, वे यहां स्त्री साहित्य के विकास का मूल श्रेय लोकगीतों को भी देती हैं। तत्कालीन स्त्री-साहित्य में खोजा संघर्ष, दुख और अतृप्ति उन्हें तृप्ति की तलाश में लोकगीतों के और निकट लाकर खड़ा कर देती है।
अंतिम और चौथी इकाई है : ‘आधुनिक युग।’ यहां हिंदी साहित्येतिहास में चौथा नवजागरण स्थापित कर आधुनिक साहित्य की उद्धर्वमुखी यात्राओं के अंतर्गत रचित स्त्री-साहित्य का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त, “आधुनिककाल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान साहित्यिक घटना है।”⁹ ‘इत्यादि का साहित्येतिहास’ के अंतर्गत क्रमशः कविता और गद्य प्रस्तुत किए गए हैं। अंत में, पुनश्चः स्त्री विमर्श के अंतर्गत सशक्त स्त्री स्वर के रूप में स्त्री-आंदोलनों को भी स्थान दिया गया है। और अंत में साहित्येतिहास के विषय में राजे की स्वयं एक उल्लेखनीय टिप्पणी है:
“साहित्येतिहास से एक सीख हमें लेनी चाहिए। कोई भी विचारधारा जब वाद के रूप में बदल जाती है और उन मूल सवालों से कट जाती है, जिनसे उसका जन्म हुआ तो वह एक कथानक रुढ़ि बन जाती है।”¹⁰
साहित्येतिहासग्रंथ के अध्यायवार वर्णन के पश्चात, मूल्यांकन की दृष्टि से उल्लेखनीय दूसरा पड़ाव है : ‘इसमें उल्लिखित स्त्री अस्मिता का सौंदर्यशास्त्र।’ यह संपूर्ण ग्रंथ कई कसौटियों पर स्त्री अस्मिता के इस सौंदर्यशास्त्र को परखता है। उनके यहां इस महिला सौंदर्यशास्त्र की सबसे बड़ी कसौटी ‘लोकगीत’ है, जिसके लिए राजे स्वयं एक कहावत “हम ही सौं आग लाई, नाम धरो वैसुन्नहर।”¹¹ का प्रयोग करती हुई इस मियक में महिला लेखन के सौंदर्यशास्त्र की खोज करते हुए ‘आग और वैसुन्नहर’ के प्रतीक से महिला-लेखन के वर्षों से लापता होने के कारण की व्याख्या करती है। लोकगीतों ने यहां जन इतिहास की भूमिका का निर्वाह किया है। इसके अतिरिक्त सामाजिक प्रचलित मिथकों, गीतों, ऋषिकाओं, कवयित्रियों और संत महिलाओं के माध्यम से वे संपूर्ण में इस सौंदर्यशास्त्र को विश्लेषित करती है।
इसके अतिरिक्त, मूल्यांकन की दृष्टि से तीसरा और अंतिम महत्वपूर्ण पड़ाव इस साहित्येतिहास ग्रंथ का अंतिम चरण है : जहां ‘पुनश्च के अंतर्गत स्त्री विमर्श को उल्लेखित करते हुए राजे ने स्त्री आंदोलन का भी एक इतिहास प्रस्तुत’ किया है, जिसकी चुभन न केवल इस साहित्येतिहास का केंद्र है, बल्कि ग्रंथ की इतिहास दृष्टि के साथ न्याय भी। और यह बात न दंभ से कहने की है, न बहुत विनम्रता से कि उन्होंने हर वाद की अंधता का विरोध किया है। उन्होंने दृढ़ता के साथ माना है कि नारी मुक्ति के आंदोलन उपलब्धियों के साथ-साथ अनेक उलझनों और भटकाव के शिकार भी हुए है। “सर्वोच्च विजय के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि स्त्री और पुरुष अपने प्राकृतिक विभाजन को बनाये रखते हुए भी आपसी सौहार्द स्थापित कर सकें।”¹²
आक्षेपों के घेरे में : स्त्री विमर्श की राजनीति या साहित्येतिहास? :
अंधश्रद्धा खतरनाक है। रचनाकार के प्रति भी, रचना के प्रति भी। इसीलिए सुमन राजे के साहित्येतिहास को भी केवल प्रशंसाओं के सिंहासन पर बैठा देना उनके स्वयं के श्रम और संघर्ष यात्रा का भी अपमान है। अतः इसे भी प्रश्नों के कटघरे में खड़ा किया जाना अनिवार्य हैं।
आक्षेपों के घेरे में खड़े इस साहित्येतिहास से पहला प्रश्न यही किया जा सकता है कि क्या यह एक पूरे साहित्येतिहास की कसौटी पर है? यहां कहा जाना चाहिए कि यह साहित्येतिहास हमारे समय की बहुत बड़ी उपलब्धि है, पर इसे पूरा इतिहास कहे जाने के समर्थन में स्वयं मैं भी नहीं। यह साहित्येतिहास ही है, आधा ही है, जैसे आज तक लिखे गए सभी इतिहास भी लगभग आधे ही है। हाशिए का प्रतिनिधित्व प्रस्तुत करता आधा इतिहास, जो आज तक लिखे गए अन्य आधे इतिहासों का पूरक है। इसमें सत्य की खोज का पूरा प्रयास है क्योंकि वस्तुतः “अनुसन्धानी विद्वान् सत्य को तर्क से पकड़ता है और समझता है, सत्य सचमुच उसकी गिरफ्त में है।”¹³
इसके अतिरिक्त, दूसरा प्रश्न है कि क्या यह साहित्येतिहास स्त्री-विमर्श की राजनीति का परिणाम है? तो पहली बात यही है कि स्त्री-विमर्श कोई राजनीति नहीं, बल्कि चेतना की दृष्टि है। दूसरा यह साहित्येतिहास स्त्री-साहित्य की उतनी ही पैरवी करता है, जितना कि पूर्व-रचित साहित्येतिहासों ने उपेक्षा। यदि ग्रंथ पूरी पैरवी करता दिखाई पड़ रहा हो, तो अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। फिर भी इसमें राजनीति समझने वाले यह भी समझे कि यहां पूर्व की गलतियों की जवाबदेही में छूटा या छोड़ा गया नैतिक सत्य का ओझल पक्ष उद्घाटित किया गया है। क्योंकि “मनुष्य गलतियाँ इसलिए करता है कि वह अज्ञान की अवस्था में है। अज्ञान से जान अथवा सत्य तक जाने के लिए विवेक चाहिए, तर्क और विचार चाहिए तथा इसके लिए उस बुद्धि की भी आवश्यकता है जो पूर्वाग्रह से पीड़ित नहीं है, जो अन्धी होकर अपने ही पक्ष का प्रमाण खोजना नहीं चाहती, जो उस निष्कर्ष का भी स्वागत करने को तैयार हैं, जो उसके विपक्ष में पड़नेवाला है। ऐसी बुद्धि उसी व्यक्ति की हो सकती है, जो आत्म-शुद्धि और आत्म-विश्लेषण की योग्यता से मुक्त है। जिसमें नैतिक बल का अभाव है, वह सत्य की उपलब्धि नहीं कर सकता।”¹⁴
इसके अतिरिक्त, तीसरा आक्षेप साहित्येतिहास परम्परा के अंतर्गत स्त्री-अस्मिता के सौंदर्यशास्त्रीय मूल्यों से है, जिनकी पैरवी यह इतिहास करता है, कि वे मूल्य किसी साहित्येतिहास परम्परा में कहां तक प्रासंगिक है? दरअसल ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ जिन स्त्री-अस्मिता के सौंदर्यशास्त्रीय मूल्यों का समर्थक है, अलबत्ता वे मूल्य हिंदी साहित्येतिहास परम्परा में बहुत विचारणीय है, बहुत अनिवार्य है, ओझल सत्य की प्रतिष्ठा के लिए महत्वपूर्ण है, वे हिंदी साहित्येतिहास परम्परा को नया प्राण, नई वायु, नई दृष्टि और सृजनात्मकता के साथ-साथ सामाजिक न्याय की अवधारणा के अनुसार, समानता व न्याय के निकट लाते है, किंतु कहना होगा कि वे साहित्येतिहास लेखन के वास्तविक मूल्यों का कहीं न कहीं वह आदर्श नहीं निर्वाह कर पाते, जो कि प्रायः निर्वहनीय होता है या जिसका निर्वाह किया जाना ही चाहिए। साहित्येतिहास में पक्षधरता की उपेक्षा व तटस्थता का निर्वाह बहुत अनिवार्य होता है जोकि यहां नहीं मिलता। और यहां तो क्या? आरंभ से लिखे जा रहे हिंदी साहित्येतिहासो तक में इसका अभाव है। हालांकि सदियों के अन्याय के प्रति जिस चेतना का यह इतिहासग्रंथ प्रबल समर्थक है, वह हिंदी साहित्येतिहास की परम्परा में क्रांतिकारी स्थान रखता है। नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में कहा था – “हम लोगों ने स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना देना चाहिए था।”¹⁵
किंतु इतना होने पर भी जब साहित्येतिहास परम्परा के विशुद्ध लेखन की बात हो, तो ध्यान रखना होगा कि:
“साहित्य का इतिहास न तो वर्तमान से पलायन का साधन है और न अतीत की आराधना का मार्ग, वह न तो अतीत के गड़े मुर्दे उखाड़ने का फल है और न वर्तमान के कटु यथार्थ के दंश से बचानेवाला कल्पनालोक। इतिहास न अतीत की अंध पूजा है और न वर्तमान का तिरस्कार। इतिहास वर्तमान की समस्याओं से बचने का बहाना नहीं है, वह विकास, प्रगति और कर्म का निषेध नहीं है। साहित्य का इतिहास अतीत की विलुप्त रचनाओं और रचनाकारों के उद्धार का केवल साधन नहीं है, वह काल प्रवाह में अपनी कलात्मक अक्षमता के कारण अपने अस्तित्व की रक्षा में असमर्थ रचनाओं और रचनाकारों का अजायबघर नहीं है। वह न तो रचना और रचनाकार संबंधी तिथियों और तथ्यों का कोश है और न ‘कविवृत संग्रह’ मात्र। वह किसी रचना को अपने काल का केवल ऐतिहासिक दस्तावेज या कीर्ति स्तंभ ही नहीं मानता, रचना को अपने युग के यथार्थ के प्रति-बिंबन का केवल साधन नहीं समझता है और रचना की परंपरा, परिवेश और प्रभाव का विश्लेषण करके उसे भूल नहीं जाता। साहित्य का इतिहास केवल विचारों का इतिहास नहीं होता, वह संस्कृति के इतिहास का परिशिष्ट भी नहीं है। वह रचनाओं के कलात्मक बोध का बाधक नहीं, साहित्य सिद्धांत निर्माण का विरोधी नहीं, आलोचना का दुश्मन नहीं है। वह केवल महान प्रतिभाओं और महान रचनाओं का स्तुति-गायन भी नहीं है। वह रचनाओं और रचनाकारों का ऐसा जंगल नहीं है जिसमें रचना और रचनाकार की विशिष्टता या अद्वितीयता खो जाए। साहित्य का इतिहास न तो रचनाओं की केवल अंतर्वस्तु का इतिहास है और न मात्र रूपों का। वह रचनाओं की साहित्यिकता या पाठक की ग्रहण-शीलता या शब्दों के विज्ञान का इतिहास नहीं है। वह रचना और रचनाकारों से संबंधित आलोचकीय प्रतिक्रियाओं का सारांश नहीं है और न मुक्त चिंतन के नाम पर वैचारिक दृष्टिहीनता का फल। वह न तो पुरातात्विक चिंतन है और न कला-वादी आलोचना का विस्तार मात्र। वह साहित्य की धारणा और इतिहास की धारणा के मेल का फल नहीं है। साहित्य का इतिहास ऐतिहासिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय, भाषावैज्ञानिक और सौंदर्यशास्त्रीय साहित्यानुशीलन का सार-संग्रह भी नहीं है। साहित्य के इतिहास का आधार है : साहित्य के विकासशील स्वरूप की धारणा। साहित्य की निरंतरता और विकासशीलता में आस्था के बिना साहित्य का इतिहास लेखन असंभव है।”¹⁶
उपसंहार
जैसा कि आरंभ में कहा था हिंदी साहित्येतिहास अब अपने समय के विराट पहलुओं में स्त्री साहित्येतिहासकारों के हाथ लग चुका है, तो पूर्ण साहित्येतिहास को नेपथ्य में रखे जाने के तमाम प्रयासों के बावजूद भी अब वो नेपथ्य में नहीं रह सकेगा। नेपथ्य से केंद्रीय मंच पर आया समग्र साहित्येतिहास, जो वास्तव में अब भी समग्रता से सामने नहीं आ पाया है, अपनी परम्परा में धीरे-धीरे समृद्ध होता नज़र आता है। सत्य की तरह इतिहास के भी कई पहलू होते है, इसीलिए इस सतत निरन्तर प्रवाहमान सत्य की यात्रा अभी और लंबी चलेगी। बहरहाल बहुत पहलू अब नेपथ्य से केंद्र की ओर भी बढ़ रहे है। अब यहां साहित्येतिहासिक सत्य का नेपथ्य में न रहना अच्छी खबर है? या दुर्घटना? इसका निर्णय अग्रणी हिंदी साहित्येतिहास की परम्परा स्वयं करेगी।
“हमेशा फिर से शुरू करना होता है।
संसार में पहली चीज भिड़न्त थी।
अगर तुम उसे नहीं समझे, कुछ नहीं समझे।”¹⁷
- एक और प्रशांत आक्रमण (फ्रांक आंग्रे जेम)
संदर्भ ग्रन्थ
- राजे, सुमन – हिंदी साहित्य का आधा इतिहास (चौथा संस्करण-2011); भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली; पृष्ठ संख्या-5 (समर्पण से)।
- सिंह, बच्चन – हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास (सत्रहवां संस्करण-2023); राधाकृष्णन प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली; पृष्ठ संख्या-10 (दूसरा संस्करण की भूमिका से)।
- अज्ञेय, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन – दूसरा सप्तक (पांचवां संस्करण-2022); वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली; पृष्ठ संख्या-7 (भूमिका से)।
- राजे, सुमन – हिंदी साहित्य का आधा इतिहास (चौथा संस्करण-2011); भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्लीः पृष्ठ संख्या-11।
- वहीं, पृष्ठ संख्या-30।
- वहीं, पृष्ठ संख्या-31।
- त्रिपाठी, विश्वनाथ – मीरा का काव्य (प्रथम संस्करण-1989); वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-37।
- राजे, सुमन – हिंदी साहित्य का आधा इतिहास (चौथा संस्करण-2011), भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-138।
- शुक्ल, आचार्य रामचंद्र – हिंदी साहित्य का आधा इतिहास (संशोधिल एवं परिवर्धित संस्करण – 2021); प्रभात पेपरबैक्स, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-9।
- राजे, सुमन – हिंदी साहित्य का आधा इतिहास (चौथा संस्करण-2011); भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-318।
- वहीं, पृष्ठ संख्या-32।
- वहीं, पृष्ठ संख्या-316।
- दिनकर, रामधारी सिंह – संस्कृति के चार अध्याय (नवीन संस्करण 2013); लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबादः पृष्ठ संख्या-8।
- वहीं, पृष्ठ संख्या-455।
- स्वाधीनता पत्रिका, शारदीय विशेषांक, वर्ष-2000, पृष्ठ संख्या-28।
- पांडेय, मैनेजर – इतिहास और आलोचना (नवीन संस्करण 2021); वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ संख्या-4।
- राजे, सुमन – हिंदी साहित्य का आधा इतिहास (चौथा संस्करण-2011); भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्लीः पृष्ठ संख्या-319।
शिवानी कार्की
परास्नातक (हिन्दी)
दिल्ली विश्विद्यालय