
अशोक वाजपेयी कहते हैं कि “मुक्तिबोध परिणति के नहीं, अशोका निरन्तर प्रकिया के कवि हैं।”” मैं इसको अपने ढंग से इस तरह कहूँगा- मुक्तिबोध परिणति के उद्देश्य से बाध्य होनेवाले एक निरन्तर प्रक्रिया के कवि हैं। यह एक दूसरी बात है कि जो उद्देश्य है वह कितना प्राप्य या किस तरह से प्रत्यक्ष है। इस लेख का लक्ष्य भी इस निरन्तर प्रक्रिया और उस प्रक्रिया को परिणति की ओर दिशा- प्रवाहित करनेवाले उद्देश्य को समझना है। इस लेख में मैंने मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया को उनके सैद्धान्तिक लेखन और उनकी कविता के माध्यम से समझने का प्रयास किया है।
मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया के सिद्धान्त को दो चरणों में समझा जा सकता है। पहले चरण की उपलब्धि है उनका मौलिक लेख तीसरा क्षण (1958); और दूसरा चरण उनकी ‘रचना-प्रक्रिया’ के अन्तर्गत आनेवाले लेख हैं जो उन्होंने 1958 के बाद लिखे थे। मुझे लगता है कि उनका सबसे चर्चित लेख तीसरा क्षण, उनकी रचना-प्रक्रिया के सिद्धान्त के कई पक्षों की व्याख्या नहीं करता। भले ही तीसरा क्षण उनका सबसे स्पष्ट लेख हो परन्तु रचना-प्रक्रिया को देखने का उसका नजरिया अभिव्यक्ति-निर्माण तक ही सीमित है। मुक्तिबोध के 1958 के बाद के लेखों में, रचना-प्रक्रिया को वृहत्तर जीवन के सन्दर्भ में देखा गया है। इन लेखों में यह बात सामने आती है कि अभिव्यक्ति को समझने के लिए उस जीवन को समझना होता है जिसे कवि व्यक्त कर रहा है, और यह समझना होता है कि वह अभिव्यक्ति किस तरह से अभिव्यक्त करनेवाले कवि से जुड़ी है।
इस लेख को मैंने तीन भागों में बाँटा है – पहला भाग, तीन क्षण के सिद्धान्त, फैंटेसी और पुनर्रचित जीवन तथा सौन्दर्यानुभव पर विचार करता है; दूसरा भाग, कुछ विशेष संकल्पनाओं जैसे ज्ञान, संवेदनात्मक उद्देश्य, और मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में पर विचार करता है; और अन्तिम भाग, इस विश्लेषण से निकली समस्याओं को प्रस्तुत करता है। यह लेख एक विश्लेषण है मुक्तिबोध के दो चरणों में विकसित ‘रचना-प्रक्रिया के सिद्धान्त’ का। यह तुलनात्मक विश्लेषण मुक्तिबोध संकलित रचनावली में जो रचना प्रक्रिया, एक साहित्यिक की डायरी शीर्षक में संकलित आलेखों और उनकी कविता अँधेरे में पर आधारित है।
कला के तीन क्षण
मुक्तिबोध का सबसे चर्चित सिद्धान्त है-कला के तीन क्षण। इस सिद्धान्त की व्याख्या उनके मौलिक लेख ‘तीसरा क्षण’ में की गई है। यह सिद्धान्त, रचना-प्रक्रिया को तीन क्षणों में विभाजित करता है। ये तीन क्षण हैं :
“कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव-क्षण। दूसरा क्षण है उस अनुभव का अपने कसकते-दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना, और एक ऐसी फैंटेसी का रूप धारण कर लेना, मानो वह फैंटेसी अपनी आँख के सामने ही खड़ी हो। तीसरा और अन्तिम क्षण है इस फैंटेसी के शब्द-बद्ध. होने की प्रक्रिया का आरम्भ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता।”2
तो तीन क्षण हैं- अनुभव-क्षण, फैंटेसी, और शब्द-बद्ध होने की प्रक्रिया। क्यों इस सिद्धान्त को क्षणों के रूप में संकल्पित किया गया है? एक वजह हो सकती है : रचना- प्रक्रिया को अनुक्रमित करना और क्षण को एक संचयित प्रतिनिधित्व के रूप में समझना। कला का पहला क्षण यानी अनुभव-क्षण ही, सही मायनों में, क्षणिक है। यह क्षण तीव्र होता है और अपने धक्के से रचना-प्रक्रिया को आरम्भिक दिशा प्रदान करता है। कला के बाकी दो क्षणों के भीतर एक मर्म होता है जो रूपान्तरित होता रहता है। कला के दूसरे क्षण यानी फैंटेसी में वैयक्तिक अनुभव रूपान्तण द्वारा निर्वैयक्तिक हो जाता है। इसके कारण फैंटेसी कभी भी कवि के व्यक्तिगत अनुभव से अपने-आपको बाध्य नहीं मानती। रचना-प्रक्रिया में इसलिए अभिव्यक्ति की अपनी स्वायत्तता होती है। लेकिन रचना-प्रक्रिया कवि के व्यक्तिगत अनुभव से ही आरम्भ होती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि. अभिव्यक्ति व्यक्तिगत है, बल्कि वह अनुभवबद्ध है। कला के तीसरे क्षण यानी शब्द-बद्ध होने की प्रक्रिया में, यह निर्वैयक्तिक अनुभव फैंटेसी में रूपान्तरित होता है, और उद्देश्य से प्रेरित हो उस फैंटेसी को शब्द-बद्ध कर देता है। तीन क्षणों के इसी सिद्धान्त का एक विस्तारित विवरण भी है जहाँ रचना-प्रक्रिया को द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया के रूप में देखा गया है। इस विवरण में, फैंटेसी अनुभव और दृष्टि के बीच के द्वन्द्व से उत्पन्न होती है, और, अभिव्यक्ति, भाव और भाषा के बीच के द्वन्द्व से।
फैंटेसी और पुनर्रचित जीवन
तीसरा क्षण में, कला के तीन क्षणों का जो विस्तारित विवरण है उसमें, फैंटेसी को अनुभव और दृष्टि की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया का उच्चतर स्तर माना गया है। द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया के शुरुआती चरण में, अनुभव को स्थिति-बद्ध और संवेदन के रूप में देखा गया है; और दृष्टि को स्थिति-मुक्त और ज्ञान के रूप में देखा गया है। इस विस्तारित विवरण में, यह प्रकल्पित है कि कवि स्वाभाविक तौर पर, दोनों का अनुभव करने की, और उस अनुभव की महत्ता को समझने की, या विशेष दृष्टि रखने की, क्षमता रखता है। इस द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण चरण तब आता है जब अनुभव और दृष्टि बदलने लगते हैं। यह ऐसे होता है :
“…जब यह क्षण बहुत आगे तक प्रवाहित हो जाता है, तब आत्मपरकता में भी एक निर्वैयक्तिकता और निर्वैयक्तिकता में भी आत्मपरकता उत्पन्न हो जाती है, मानो स्थिति-मुक्त दृष्टि को अपनी स्थितिबद्धत प्रदान कर उसने अपने लिए स्थिति-मुक्तता ले ली हो। ‘ ‘3
इस विवरण में, दृष्टि में स्थिति-बद्धता के लक्षण आ जाते हैं, और अनुभव में स्थिति-मुक्तता के। इस फेर-बदल में, संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना की उत्पत्ति होती है। रचना-प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि उसमें ज्ञान और संवेदना हमेशा किसी न किसी तरह एक-दूसरे में निहित होते हैं।
मुक्तिबोध के रचना प्रक्रिया लेख में, हम ऐसा मान सकते हैं कि फैंटेसी को पुनर्रचित जीवन की संकल्पना द्वारा समझा जा सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि फैंटेसी एक आन्तरिक प्रक्रिया है, और पुनर्रचित जीवन भी ऐसी प्रकार आन्तरिक मनोमय प्रक्रिया का अंग है। लेकिन इन दोनों संकल्पनाओं या व्याख्याओं में दृष्टिकोण का फर्क है। फैंटेसी की संकल्पना, अभिव्यक्ति-निर्माण के सन्दर्भ में है और पुनर्रचित जीवन की, वास्तविक या भोगे हुए जीवन के सन्दर्भ में। अब हम पुनर्रचित जीवन की प्रक्रिया पर थोड़ा प्रकाश डालते हैं। पुनर्रचित जीवन की प्रक्रिया, विशिष्ट वास्तविक या भोगे हुए जीवन से सामान्य पुनर्रचित या मनोमय जीवन की ओर जाने की प्रक्रिया है। इस सन्दर्भ में आगे दिए हुए विवरण पर विचार करते हैं :
“जीवन की पुनर्रचना की प्रक्रिया : (1) वास्तविक जिये और भोगे जानेवाले जीवन की पुनर्रचना का सारतः एक होकर भी उससे अलग होना और अलग होकर भी सारतः एक होना; (2) कलाकृति जिस जीवन का विम्बात्मक या भावात्मक प्रतिनिधित्व कर रही है, उस जीवन के समान सारी वास्तविकताओं और तत्सदृश सब सम्भावनाओं का भी प्रतिनिधित्व करना, दूसरे शब्दों में, सामान्यीकरण होना।” 4
यह विवरण पुनर्रचित जीवन से जुड़ी हुई दो बातों को प्रस्तुत करता है- पहली, सारभूत समानता और अलगाव की, और दूसरी प्रतिनिधित्व की। यह अलगाव इसलिए है क्योंकि पुनर्रचित जीवन, वास्तविक जीवन से ‘कुछ अधिक’ होता है। क्योंकि पुनर्रचित जीवन न सिर्फ वास्तविकताओं का प्रतिनिधित्व करता है बल्कि सम्भावनाओं का भी; इसलिए, ऐसा माना जा सकता है कि पुनर्रचित जीवन, वास्तविक जीवन से अधिक होता है। लेकिन प्रातिनिधिकता तभी आएगी जब ये वास्तविकताएँ और सम्भावनाएँ, कवि के परिवेश और समय से सम्बन्ध रखती हों। और, ये सम्भावनाएँ हैं क्या ? कवि इन्हें समझता कैसे है क्योंकि इन्हें वास्तविकताओं की तरह भोगा तो नहीं जा सकता। मुक्तिबोध कहते हैं कि यह सम्भावनाएँ काल्पनिक भी हो सकती हैं।
दोनों संकल्पनाएँ, फैंटेसी और पुनर्रचित जीवन, मूलतः अनुभव और ज्ञान से सम्बन्ध रखती हैं। पुनर्रचित जीवन में ज्ञान की व्याख्या को हम अगले भाग में देखेंगे। जहाँ तक अनुभव का प्रश्न है, वह दोनों संकल्पनाओं में प्रक्रिया के अन्त तक बदल जाता है। फैंटेसी में, अनुभव स्थिति-बद्धता और वैयक्तिकता से रूपान्तरित हो स्थिति-मुक्त और निर्वैयक्तिक हो जाता है। और पुनर्रचित जीवन में वास्तविक जीवन का अनुभव एक ऐसी दिशा में ओर प्रवृत्त हो जाता है जहाँ केवल वास्तविकताओं की ही नहीं, बल्कि सम्भावनाओं की भी उपस्थिति है। अभी के लिए हम इस सम्भावित उपस्थिति को मानकर चलते हैं।
सौन्दर्यानुभव क्या है ?
यह सवाल इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि मुक्तिबोध के सिद्धान्तों में, दूसरों के मुकाबले, सौन्दर्य की संकल्पना एक अलग पहलू पर केन्द्रित है। ‘तीसरा पक्ष’ में, एस्थेटिक एक्सपीरियेन्स यानी सौन्दर्यानुभव को ‘प्रसन्न’ भावना, जो जीवन के नए-नए अर्थ खोजते समय उत्पन्न होती है, और अर्थ के महत्त्व की जागरूकता के रूप में देखा गया है। लेकिन, यह अर्थ व्याख्यात्मक या दार्शनिक ढंग से नहीं खोजे जाते, वे फैंटेसी में स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं। इसका क्या मतलब है कि स्वयं उत्पन्न होते हैं? यह अर्थ जीवन- संवेदनाओं या जीवनानुभवों द्वारा उत्पन्न होता है। यह महत्त्वपूर्ण बात है। मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया मैं जीवनानुभवों की प्रधानता की ओर इशारा करती है। मुक्तिबोध इस बात को अधिक स्पष्ट तरीके से अपने 1958 के बाद के लेखों में रखते हैं। इन लेखों में सौन्दर्य की व्याख्या, सौन्दर्यानुभव के अतिरिक्त, एस्थेटिक इमोशन यानी सौन्दर्य भावना, और सौन्दर्यानुभव के क्षण के रूप में की गई है। एस्थेटिक इमोशन को संवेदनात्मक उद्देश्य की दिशा में, आह्लाद की भावना और ज्ञान के प्रकाश के रूप में देखा गया है। इस व्याख्या में भी, एस्थेटिक एक्सपीरियेंस की भाँति, दो पहलू मौजूद हैं- भावना या संवेदना और ज्ञान या महत्त्व की जागरूकता। सौन्दर्यानुभव के क्षण को, एक निजबद्धता से हटकर विस्तारित होने की भावना के रूप में देखा गया है।
मुक्तिबोध कहते हैं कि रचना-प्रक्रिया के हर स्तर पर अलग-अलग प्रकार के सौन्दर्यानुभव होते हैं। तीसरा क्षण में सौन्दर्यानुभव को अर्थ के सम्बन्ध में समझा गया है, और इसलिए, हम उसे फैंटेसी के दौरान का सौन्दर्यानुभव मान सकते हैं। लेकिन, मुक्तिबोध ने कहीं भी किसी भी सौन्दर्यानुभव को अनुभव-क्षण से सम्बन्धित नहीं दिखाया है। क्या अनुभव-क्षण भी एक प्रकार का सौन्दर्यानुभव हो सकता है?
मुक्तिबोध सैद्धान्तिक रूप से मानते हैं कि सौन्दर्यानुभव का क्षण और कलात्मक अभिव्यक्ति दो अलग-अलग चरण हैं रचना-प्रक्रिया के। यह अनिवार्य नहीं है कि सौन्दर्यानुभव के क्षण के तुरन्त बाद कवि उसे शब्दबद्ध करे। एक ओर, कलात्मक अभिव्यक्ति की प्रक्रिया अभ्यास और संशोधन की बात है और दूसरी ओर, सौन्दर्यानुभव क्षणिक अवस्था और अव्यवहित की बात है।
मुक्तिबोध कहते हैं कि जीवनानुभव हमें अपने वास्तविक जीवन से प्राप्त होते हैं, और यह वास्तविकता उनके निम्न- मध्यम वर्ग से सम्बन्ध रखती है। उनके वर्ग में संघर्ष का आधिक्य है, और यह संघर्ष है रोजमर्रा जिन्दगी का। इसलिए वे कहते हैं कि सौन्दर्यानुभव रोजमर्रा जिन्दगी का भाव है जो साधारण जन को बाजार से सब्जी खरीदते वक्त भी हो सकता है। सिद्धान्त के तौर पर, अनुभव इतने क्षणिक इसलिए होते हैं क्योंकि वे अनगिनत होते हैं, और वे अनगिनत इसलिए होते हैं, क्योंकि वे रोजमर्रा की जिन्दगी से वास्ता रखते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि हर अनुभव, सौन्दर्यानुभव होता है। तो, एक तरह से हम कह सकते हैं कि सौन्दर्यानुभव जो रोजमर्रा जीवन के सम्बन्ध में भोगे जाते हैं, उन्हें हम पहले अनुभव-क्षण के रूप में देख सकते हैं। मुक्तिबोध की सौन्दर्यानुभव की संकल्पना, सौन्दर्यानुभव को रोजमर्रा के अनुभव से जोड़कर, सामान्य जन के समीप लाती है- यह उनकी रचना-प्रक्रिया के सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ है।
संवेदनात्मक उद्देश्य क्या है ?
रचना-प्रक्रिया के एक लेख में मुक्तिबोध कहते हैं कि कलात्मक अभिव्यक्ति की प्रेरणा संवेदनात्मक उद्देश्य है। तीसरा क्षण में उद्देश्य की भूमिका जरूर दिखाई देती है लेकिन, उसको एक केन्द्रीय संकल्पना के रूप में, रचना- प्रक्रिया के लेखों में ही देखा गया है। तो क्या है आखिर यह केन्द्रीय संवेदनात्मक उद्देश्य? हम अपनी चर्चा निम्नलिखित विवरण से शुरू करते हैं :
“संवेदना के आग्रह- अर्थात् संवेदनात्मक उद्देश्य, जिसमें इच्छा के तत्त्व भी मिले रहते हैं- उनके बल से, उनके जोर से, उसकी विधायक कल्पना जीवन की एक पुनर्रचना कर बैठती है।”
इस विवरण में, संवेदनात्मक उद्देश्य को ‘आग्रह’ के रूप में और ‘इच्छा’ से जोड़ते हुए देखा गया है। और, उसे कल्पना के लिए एक शक्ति स्रोत की तरह भी देखा गया है। अगर, तीसरा क्षण में कल्पना ने आत्मनिर्भरता से फैंटेसी के रूपान्तरण में भूमिका निभाई है, तो यहाँ कल्पना की भूमिका संवेदनात्मक उद्देश्य पर आश्रित दिखाई गई है। आगे बढ़ते हुए, यह आग्रह या इच्छा है किसके प्रति ? ऊपर दिया गया विवरण सिर्फ पुनर्रचित जीवन की बात करता है, जो रचना- प्रक्रिया का मध्यवर्ती चरण है, न कि ऐसा आग्रह या इच्छा जो किसी अन्त के प्रति हो। शायद आगे दिया हुआ विवरण कुछ मदद कर सके :
“संवेदनात्मक उद्देश्य, भोक्तृ-मन के उस स्व- चेतन आवेग से उत्पन्न होते हैं कि जो स्व-चेतन आवेग वांछित और वांछनीय को प्राप्त करने के लिए तड़पता हुआ, अपनी निज-बद्ध स्थिति से ऊपर उठकर, अन्तर तथा बाह्य वास्तव में मानवानुकूल परिवर्तन करना चाहता है।
यह विवरण दो बातें स्पष्ट करता है- संवेदनात्मक उद्देश्य की उत्पत्ति, और उसकी इच्छा। वह स्व-चेतन से उत्पन्न होता है, और मानवानुकूल परिवर्तन का इच्छुक है। और इस इच्छा को प्राप्त करने की प्रक्रिया है, अपनी स्थिति- बद्धता से स्वयं को दूर ले जाना। तीसरा क्षण में भी फैंटेसी में निहित अनुभव ऐसी ही स्थितिबद्धता से रूपान्तरित हो स्थिति-मुक्त हो जाते हैं। तो क्या हम इससे यह पता लगा सकते हैं कि संवेदनात्मक उद्देश्य कब रचना-प्रक्रिया में प्रवेश करता है? क्या हम यह कह सकते हैं कि संवेदनात्मक उद्देश्य, अनुभव-क्षण के साथ या पहले रचना-प्रक्रिया में प्रवेश करता है ? निम्नलिखित उद्धरण से इस बात को समझने की कोशिश करते हैं :
“संवेदनात्मक उद्देश्य अपने धक्के से हृदय में स्थित जीवनानुभवों अर्थात् ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान को जाग्रत और संकलित करके उन्हें, अपनी दिशा में प्रवाहित करते हैं।”11
दिए गए विवरण में, संवेदनात्मक उद्देश्य का धक्का देना, हमें अनुभव-क्षण के धक्के की याद दिलाता है जो रचना-प्रक्रिया को आरम्भ करता है। इससे हम यह निष्कर्ष तो निकाल ही सकते हैं कि संवेदनात्मक उद्देश्य, रचना- प्रक्रिया में, अनुभव-क्षण के पहले से ही मौजूद होता है। एक और बात है कि संवेदनात्मक उद्देश्य अपनी दिशा में अनुभव को प्रवाहित करता है जबकि ऐसी कोई विशेष दिशात्मक चेतना का अनुभव-क्षण में होना सामने नहीं आया है। अनुभव-क्षण का दिशात्मक धक्का जो किसी क्षणिक-प्रवृत्ति की उपज नहीं बल्कि एक लम्बी सक्रियता और निरन्तरता की उपज है। इस बात का स्पष्टीकरण आगे दिए हुए विवरण से हो जाता है:
“संवेदनात्मक उद्देश्य, अपनी पूर्ति की दिशा में सक्रिय रहते हुए, मनुष्य के बाल्यकाल से ही उस जीवन-ज्ञान का विकास करते हैं, कि जिस जीवन- ज्ञान के बिना उन संवेदनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति ही नहीं हो सकती है।” 12
संवेदनात्मक उद्देश्य की इस लम्बी सक्रियता और निरन्तरता के क्या मायने हैं? यह निरन्तर सक्रियता कवि-कर्म या कवि- जीवन में अभ्यास और परिश्रम की प्रधानता को सूचित करती है। अभ्यास की यह प्रधानता, प्रतिभा के सन्दर्भ में, हमें सौन्दर्यानुभव की संकल्पना में भी दिखाई देती है। और निरन्तरता, ज्ञान के प्रश्न से भी जो उसकी लाक्षणिक विकसन-शीलता या स्थिरता का है, जुड़ा हुआ है। हम यह कह सकते हैं कि संवेदनात्मक उद्देश्य मूलतः रचना- प्रक्रिया को, और कवि जीवन को, एक दिशा की ओर ले जाता है।
अनुभव, तर्क और ज्ञान
‘तीसरा क्षण’ में, ज्ञान की संकल्पना सिर्फ उसकी स्थिति- मुक्तता और स्थितिबद्धता तक ही सीमित है। फैंटेसी में द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया के आरम्भ में ज्ञान स्थिति-मुक्त होता है, और उसके अन्त में रूपान्तरित होकर स्थिति-बद्ध हो जाता है। यह ज्ञान का रूपान्तरण, रचना-प्रक्रिया के लेखन में, आगे और भी विस्तृत ढंग से संकल्पित किया गया है। निम्नलिखित विवरण द्वन्द्वात्मक प्रकिया के नजरिए से ज्ञान की उत्पत्ति का विवरण देता है :
“इच्छा-तृप्ति और बाह्य से सामंजस्य-विधान के द्विविध (कभी-कभी परस्पर विरुद्ध) कार्यों की एकता के निर्वाह से जीवन-ज्ञान उत्पन्न होता है, किन्तु उस जीवन-ज्ञान की प्राप्ति संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुसार होती है। 13
यहाँ ज्ञान की उत्पत्ति, आन्तरिक इच्छा और बाह्य सामंजस्य के द्वन्द्व में एकीभूत स्थिति के उपरान्त होती है। लेकिन, यह अन्तर और बाह्य का भेद एक तरह से मिट जाता है जब हम अन्तर को आभ्यन्तरीकृत बाह्य के रूप में समझते हैं। ऊपर दिए गए विवरण से भी यह बात सामने आती है कि ज्ञान जिस द्वन्द्व के कारण उत्पन्न होता है उसका एक पहलू इच्छा-तृप्ति है। यह बात साफ हो जाती है कि ज्ञान का विकास, मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया में, संवेदनात्मक उद्देश्य और इच्छा से गहरा सम्बन्ध रखता है। आइए, अब हम ज्ञान का विकास कैसे होता है इस पर नजर डालते हैं:
“बुद्धि स्वयं अनुभूत विशिष्टों का सामान्यीकरण करती हुई हमें जो ज्ञान प्रस्तुत करती है, उस ज्ञान में निबद्ध ‘स्व’ से ऊपर उठने, अपने से तटस्थ रहने, जो है उसे अनुमान के आधार पर और भी विस्तृत करने की होती है। 14
इस विवरण में, ज्ञान से जुड़ी दो महत्त्वपूर्ण बातें सामने आती हैं- पहली यह कि ज्ञान सामान्यीकरण की प्रक्रिया के दौरान प्रस्तुत होता है, और दूसरी यह है कि उसका विस्तार’ जो है’ उसके अनुमान पर आधारित होता है। पहली बात का निहितार्थ यह है कि ज्ञान को एक उद्गम (emerging) के रूप में देखा गया है न कि एक स्थिति के रूप में। दूसरा निहितार्थ यह है कि ज्ञान का विकास सिर्फ अनुभव के आधार पर ही नहीं, बल्कि तर्क के आधार पर भी होता है। तर्क कैसे ? अनुमान करने की प्रक्रिया, तर्क का ही भाग है। इसलिए, ज्ञान का विकास, अनुमान द्वारा, तर्क पर भी निर्भर करता है। इस बात की और पुष्टि आगे दिए गए विवरण से हो जाती है: “ज्ञान-व्यवस्था… जीवनानुभवों और तर्कसंगत निष्कर्षों और परिणामों के आधार पर होती है। ”15
“तर्कसंगत [ और अनुभव सिद्ध] निष्कर्षों तथा परिणामों के आधार पर, हम अपनी ज्ञान-व्यवस्था, तथा उस ज्ञान-व्यवस्था के आधार पर अपनी भाव- व्यवस्था, विकसित नहीं करते। “16
ऊपर दिए गए दोनों विवरणों से यह बात साफ हो जाती है कि ज्ञान की संकल्पना में अनुभव और तर्क का योग बराबर है। यहाँ तक कि ज्ञान-व्यवस्था की महत्ता इस बात से सामने आती है कि उसी के आधार पर कवि अपनी भाव-व्यवस्था, और आगे चलकर अभिव्यक्ति-निर्माण करता है। परन्तु, ज्ञान कैसे एक व्यवस्था का रूप ले लेता है? ऊपर दिए गए विवरणों से यह पता चलता है कि व्यवस्था, ‘अनुभवसिद्ध और तर्कसंगत निष्कर्षों’ पर आधारित होती है। इस सन्दर्भ में दो और बातें कहनी हैं। पहली यह कि, अगर हमें याद हो, फैंटेसी की प्रक्रिया के अन्त में ज्ञान स्थिति-मुक्तता से रूपान्तरित हो स्थिति बद्ध हो जाता है। क्या हम यह कह सकते हैं कि ज्ञान में स्थिति-बद्धता आना और ज्ञान में व्यवस्था आना दोनों एक ही बातें हैं? दूसरी बात यह है कि हमने ज्ञान के विकास के सन्दर्भ में अनुमान की भूमिका थोड़े समय पहले सामने रखी थी। उस समय ‘जो है उसे अनुमान के आधार पर’ विस्तार से करने की बात आई थी। ‘ जो है’ वह एक आधारिका है। तो फिर, यह आधारिका, रचना-प्रक्रिया के सन्दर्भ में, क्या है? यह आधारिका या तो पूर्वज्ञान या गत अनुभव या दोनों हो सकती हैं। इस आधारिका की बात को हम थोड़ा और समझने की कोशिश करते हैं:
“बोध और ज्ञान द्वारा ही ये अनुभव परिमार्जित होते हैं, यानी पूर्व-प्राप्त ज्ञान द्वारा मूल्यांकित और विश्लेषित होकर, प्रांजल होकर, अन्तःकरण में व्याख्यात होकर, व्यवस्था-बद्ध होते जाते हैं। “17
इस विवरण से यह बात सामने आती है कि नए अनुभव, जो रचना-प्रक्रिया में प्रवाहित होते रहते हैं, पूर्व ज्ञान से मूल्यांकित होकर व्यवस्थित होते हैं। लेकिन, हमने ज्ञान को अनुभवों के सामान्यीकरण के रूप में समझा है। इन दोनों बयानों से हम यह उचित निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अनुमान का अनुभव और पूर्व ज्ञान दोनों में से कोई भी हो सकता है।
अँधेरे में का आख्यान
‘अँधेरे में’ एक लम्बी आख्यान कविता है जिसमें आख्यान- कर्ता अपनी परम अभिव्यक्ति की खोज में लीन है। इस आख्यान को आठ भागों में विभाजित किया गया है। इन भागों में आख्यानकर्ता असामान्य जगहों में घूमता है, असामान्य वस्तुओं को पाता है, असामान्य लोगों से मिलता है, और यहाँ तक कि उसका परिवेश भी असामान्य हो उठता है। लगभग पूरे आख्यान में आख्यानकर्ता को परम अभिव्यक्ति का प्रत्यक्ष रूप से साक्षात्कार नहीं होता। निम्नलिखित विवरण इस बात की पुष्टि करता है :
चाहे जहाँ, चाहे जिस समय उपस्थित,
चाहे जिस रूप में
चाहे जिन प्रतीकों में प्रस्तुत;
इशारे से बताता है, समझाता रहता
हृदय को देता है बिजली के झटके !! 18
इस विवरण से हम यह कह सकते हैं कि परम अभिव्यक्ति अपनी इच्छानुसार होती रहती है। और आख्यान- कर्ता उस पर पूर्ण रूप से निर्भर होता है। यह निर्भरता परम अभिव्यक्ति की स्वायत्तता को दर्शाती है। परम अभिव्यक्ति का सबसे असामान्य लक्षण है कि वह अपने-आपको अप्रत्यक्ष रूप में, चिह्नों और प्रतीकों के माध्यम से ही प्रस्तुत करती है। हालाँकि, एक बार, परम अभिव्यक्ति ने प्रत्यक्ष रूप से आख्यानकर्ता को दर्शन दिए थे। यह घटना कविता के पहले भाग में घटी थी। उस भाग में, आख्यानकर्ता धीरे-धीरे, पहले ध्वनि के माध्यम से, फिर आकृतियों के माध्यम से, और आखिर में प्रत्यक्ष रूप से, परम अभिव्यक्ति को पहचान पाता है। जैसे ही परम अभिव्यक्ति सम्मुख आती है, आख्यानकर्ता की हालत यह हो जाती है :
गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्यमुख
सम्भावित स्नेह-सा प्रिय रूप देखकर
विलक्षण शंका,
भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात
गहन एक सन्देह।” 19
साक्षात्कार के दौरान आख्यानकर्ता, एक ओर, सन्देहग्रस्त हो जाता है, तो दूसरी ओर, वह उसका विवरण अत्यन्त भव्यता और स्नेहिलता से करता है। और शंकाकुल होने के बाद ही आख्यानकर्ता को उसकी पूरी पहचान होती है या समझ बनती है। इस प्रत्यक्ष साक्षात्कार या घटना के उपरान्त, परम अभिव्यक्ति हमेशा अप्रत्यक्ष रूप में, कभी गांधी बनकर, तो कभी पर्चा बनकर, तो कभी तेसस्क्रिय फूल बनकर प्रस्तुत होती है। कविता के अन्त तक, आख्यानकर्ता एक असामान्य अनुभव-श्रृंखला से गुजर चुका होता है। असामान्य अनुभव, जो ज्यादातर क्षण-स्थायी होते हैं। आख्यानकर्ता अपनी अवस्था का विवरण इस तरह देता है :
“वह दिखा, वह दिखा
वह फिर खो गया किसी जन यूथ में…
वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था, तिलस्मी खोह में देखा था एक बार,
इसलिए मैं हर गली में
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोई हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा।” 20
आख्यानकर्ता ज्यादा-से-ज्यादा सिर्फ परम अभिव्यक्ति की एक झलक ही देख पाता है, क्योंकि परम अभिव्यक्ति निरन्तर घूमती रहती है। कविता में परम अभिव्यक्ति को बार-बार खोई हुई माना गया है। और यह खो जाने की भावना, पूरी कविता में एक तरह की अनिश्चितता भर देती है। लेकिन, पहले कुछ भागों में, यही अनिश्चितता हममें इच्छा और प्रेरणा जाग्रत करती है। और इसी प्रेरणा से प्रेरित हो आख्यानकर्ता हर एक सम्भावना में परम अभिव्यक्ति को खोजने हेतु ‘ताक- झाँक’ करने के लिए इच्छुक हो उठता है। कविता में भले ही आख्यानकर्ता अपनी परम अभिव्यक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता, परन्तु असामान्य अनुभव की इस श्रृंखला द्वारा अपनी इच्छा को तीव्र बना देता है।
संवेदनात्मक उद्देश्य की समस्या
मुक्तिबोध के रचना-प्रक्रिया सम्बन्धी लेख में, संवेदनात्मक उद्देश्य को भले ही रचना-प्रक्रिया की एक केन्द्रीय अवधारणा के रूप में संकल्पित किया गया हो, परन्तु उसकी संकल्पना एक समस्या प्रस्तुत करती है। समस्या यह है कि संवेदनात्मक उद्देश्य की संकल्पना रचना-प्रक्रिया के अन्तर्गत आनेवाली अन्य संकल्पनाओं को अतिव्याप्त (over- lap) करती है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मुक्तिबोध के लिए, रचना-प्रक्रिया में सभी संकल्पनाएँ और उनके कार्य एक-दूसरे पर सक्रिय रूप से निर्भर करते हैं। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उन सभी संकल्पनाओं की कोई प्रधान भूमिका नहीं होती।
वैसे तो संवेदनात्मक उद्देश्य की संकल्पना कई अन्य संकल्पनाओं से अतिव्याप्त होती है, लेकिन हम अपनी चर्चा सिर्फ एक ही संकल्पना तक सीमित रखेंगे। यह अत्तिव्याप्ति है संवेदनात्मक उद्देश्य और कल्पना के बीच। इस समस्या में जाने से पहले हमें उद्देश्य और कल्पना की तीसरा क्षण में कैसे संकल्पना हुई, इसे समझना होगा। कला के तीन क्षणों के सिद्धान्त में, अनुभव का फैंटेसी में रूपान्तरण कल्पना द्वारा होता है, और इस फैंटेसी का अभिव्यक्ति में रूपान्तरण उद्देश्य/दिशा द्वारा होता है। यहाँ कल्पना और उद्देश्य के क्षेत्र सीमांकित हैं। और इधर, रचना-प्रक्रिया के लेखों में, यह सीमांकन धुँधला होता जाता है- जिसे हम मुक्तिबोध के सिद्धान्तों में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ की तरह भी देख सकते हैं। यह इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि मुक्तिबोध की रचना- प्रक्रिया के लेखों में रचना-प्रक्रिया को एक वृहत्तर जीवन- निर्माण के सन्दर्भ में, न कि सिर्फ अभिव्यक्ति-निर्माण के सन्दर्भ में, संकल्पित किया गया है। वापस आते हुए, हम अब कल्पना और संवेदनात्मक उद्देश्य की अतिव्याप्त से जुड़े निम्नलिखित विवरण पर विचार करते हैं :
“जीवनानुभवों के निराले और तरह-तरह के पैटर्न कल्पना तैयार करती है, किन्तु उसकी क्रिया संवेदनात्मक उद्देश्यों के अनुशासन में रहती है। ‘ ‘”21 “वे [ संवेदनात्मक उद्देश्य] एक विशेष प्रकार का कलात्मक प्रभाव उत्पन्न करने के लिए अभिव्यक्क्ति का विशेष पैटर्न गूँथते हैं। ‘ 22
पहले विवरण में, पैटर्न बनाने का कार्य कल्पना द्वारा संवेदनात्मक उद्देश्य के अनुसार हो रहा है। और, दूसरे में, वही कार्य पूरी तरह से संवेदनात्मक उद्देश्य द्वारा ग्रहण कर लिया गया है। यह दलील दी जा सकती है कि पहले में तो पैटर्न जीवनानुभवों के हैं और दूसरे में वे अभिव्यक्ति के हैं। लेकिन यह दलील तब खारिज हो जाती है जब हम, जैसा पहले बता चुके हैं, यह कहते हैं कि संवेदनात्मक उद्देश्य का एक कार्य जीवनानुभवों को ‘जाग्रत और संकलित’ करना भी है। संवेदनात्मक उद्देश्य जितना अभिव्यक्ति से जुड़े हैं उतना ही जीवनानुभवों से भी जुड़े हैं। इसकी एक और वजह यह है कि संवेदनात्मक उद्देश्य मनुष्य के बाल्यकाल से सक्रिय होते हैं। अब हम आगे मूर्त-विधान से जुड़े दो विवरणों पर विचार करेंगे :
“कल्पना के मूर्त-विधान के दो प्रमुख कार्य होते हैं। एक ओर, वह जीवन की सारभूत विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करता है, तो दूसरी ओर, वह उस जीवन की व्याख्या के रूप में प्रस्तुत होता है। दोनों के पीछे संवेदनात्मक उद्देश्य समाया रहता है।’ ’23
“संवेदनात्मक उद्देश्य, अन्तर्व्यक्तित्व और आभ्यन्तरीकृत जगत् का प्रतिनिधित्व करते हुए, जाग्रत और संकलित अनुभवों को मनस्पटल पर एक के बाद एक मूर्तिमान करते हुए आगे बढ़ चलता है। ”24
पहले की तरह, यहाँ भी, कल्पना के मूर्ति-विधान के कार्य को संवेदनात्मक उद्देश्य द्वारा ग्रहण कर लिया गया है। समस्या यह नहीं है कि संवेदनात्मक उद्देश्य एक केन्द्रीय अनुशासन संकल्पना है, समस्या यह है कि वह अन्य संकल्पनाओं को ग्रहण कर जाती है। इस प्रवृत्ति के कारण, अन्य संकल्पनाएँ अनुपयोगी प्रतीत होती हैं और रचना-प्रक्रिया की जटिलता पर भी असर पड़ता है। सवाल है कि क्यों कल्पना, संवेदनात्मक उद्देश्य में घुलती नजर आती है ? या फिर क्यों संवेदनात्मक उद्देश्य रचना-प्रक्रिया का सारा दायित्व खुद पर उठाता हुआ प्रतीत होता है ?
अप्राप्यता की समस्या
अँधेरे में कविता में आख्यानकर्ता अपनी परम अभिव्यक्ति को प्राप्त नहीं कर पा पाता। कविता के अन्त में, उसके भीतर एक ऐसी इच्छा जन्म ले लेती है कि वह हर तरफ झाँक-झाँककर अपनी परम अभिव्यक्ति को खोजने के लिए बाध्य हो जाता है। वह हर सम्भावना को स्वीकारता हुआ अपनी खोज जारी रखने का निश्चय करता है। लेकिन परम अभिव्यक्ति अन्त में अप्राप्य प्रतीत होती है। इसका कारण है परम अभिव्यक्ति की अपनी लाक्षणिक प्रकृति जो उसे अप्राप्य बना देती है। चलिए, निम्नलिखित विवरण से उसकी इस प्रकृति को समझने की कोशिश करते हैं :
“वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पाई गई मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिभाओं की,
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा। “ 25
इस विवरण से यह प्रतीत होता है कि परम अभिव्यक्ति रहस्यमय, तनावपूर्ण और अप्राप्य तो है ही, इसके अलावा वह पूर्ण, और उद्गमी (emerging) भी है। और आखिर में परम अभिव्यक्ति कोई अनजानी आकृति नहीं बल्कि स्वयं का ही प्रतिबिम्ब या आत्म की ही प्रतिमा है। दिलचस्प बात यह है कि परम अभिव्यक्ति, एक ओर, सम्भावनाओं के रूप में पूर्ण है, तो दूसरी ओर, पूर्ण होते हुए भी उसका विकास हो रहा है। और वह इसलिए अब तक उद्गम हो रहा है क्योंकि उसने परिपूर्णता प्राप्त नहीं की है। अगर कवि अपनी परम अभिव्यक्ति प्राप्त करना चाहता है तो उसे पहले इस परिपूर्णता को प्राप्त करना होगा।
शायद इस समस्या का हल मुक्तिबोध के अन्य सैद्धान्तिक लेखों में मिल जाए। निम्नलिखित विवरण के साथ हम अपनी चर्चा बढ़ाते हैं :
“दिशा हमेशा आगे ही रहेगी, साथ-साथ नहीं चलेगी। हाँ, उसकी संवेदनाएँ साथ-साथ चलेंगी। किन्तु क्षितिज हमेशा आगे ही रहेगा। उसी प्रकार अन्तरात्मा के आग्रह और अनुरोध हमेशा आगे-आगे ही रहेंगे, और उनका अनुगमन करते हुए भी [लेखक] यह सोचता रहेगा कि उसने अपने आग्रह- लक्ष्यों को उपलब्ध नहीं किया। वह इस चिन्तन से दुखी भी होगा, दुख प्रकट भी करता रहेगा। इस प्रकार लक्ष्य और उपलब्धि के बीच जो फासला है, वह आतुर मन के लिए बराबर बना रहता है, क्योंकि लक्ष्य स्वयं गतिमान है, मनुष्य की अपनी गति ही के कारण। “26
इस विवरण में लक्ष्य (दिशा, आग्रह आदि) और उपलब्धि के बीच का रिश्ता सामने आता है। इस बात पर जोर दिया गया है कि लक्ष्य और उपलब्धि का फासला साधारणतः हमेशा बना रहता है। फासला क्यों है, इसकी वजह साफ दी गई है। अब समस्या यह है कि मुक्तिबोध के रचना-प्रक्रिया सिद्धान्त में संवेदनात्मक उद्देश्य अन्तर तथा बाह्य वास्तव में मानवाकूल परिवर्तन करने की इच्छा प्रकट करते हैं। लेकिन हमने अभी देखा कि लक्ष्य गतिमान है अर्थात् निरन्तर बदलता है क्योंकि मनुष्य स्वयं निरन्तर बदलता रहता है। क्या इसका यह अर्थ निकालें कि हमारे कवि को कभी लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा ? क्या परम अभिव्यक्ति और लक्ष्य दोनों अप्राप्य है ?
समस्या के उपरान्त
इस लेख की शुरुआत हमने मुक्तिबोध के सबसे चर्चित सिद्धान्त कला के तीन क्षण से की। तीसरा क्षण और रचना- प्रकिया लेखों के तुलनात्मक विश्लेषण ने मुक्तिबोध के रचना-प्रक्रिया के सिद्धान्त को उसके अलग-अलग पक्षों के साथ प्रस्तुत किया है। इस तुलनात्मक विश्लेषण के दौरान हमारे सामने रचना-प्रक्रिया से जुड़ी दो समस्याएँ भी आईं। इस लेख का उद्देश्य इन समस्याओं को सामने लाना था जिससे हम आगे चलकर मुक्तिबोध के सिद्धान्तों का पूर्ण रूप से विश्लेषण कर सकें।
यह लेख हमारे सामने दो समस्याएँ प्रस्तुत करता है- पहली, संवेदनात्मक उद्देश्य की समस्या, और दूसरी, अप्राप्यता की समस्या। इस तुलनात्मक विश्लेषण के दौरान हमारे सामने यह समस्या तो परिपक्व रूप में आई परन्तु इनके हल सिर्फ सम्भावना के रूप में ही सामने आए। इनको मैं व्यक्त कर रहा हूँ। संवेदनात्मक उद्देश्य की समस्या से शुरू करते हैं। संवेदनात्मक उद्देश्य को, इस लेख में, एक दिशा और नियामक प्रवृत्ति की तरह देखा गया है। इस उद्देश्य का प्रधान कार्य दिशात्मक ही है और उस कार्य में इच्छा की अहम भूमिका है। कला का तीसरा क्षण जब समाप्त हो जाता है तो कविता पूरी हो जाती है। कविता तब पूरी होती है जब प्रक्रिया का मर्म नए तत्त्व समेटना बन्द कर देता है और जब उद्देश्य समाप्त हो जाता है। उद्देश्य समाप्त होना इच्छा और दिशा- प्रवाह का समाप्त होना है। क्या हम कह सकते हैं कि जब उद्देश्य का दिशा-प्रवाह का कार्य समाप्त होता है तब वह मूर्त-विधान या सम्पादक का कार्य अपने हाथों में ले लेती है ? यह सिर्फ एक सवाल है जिस पर हमें सैद्धान्तिक रूप से विचार करना होगा।
अब हम अप्राप्यता की समस्या पर आते हैं। अँधेरे में कविता की आखिरी लाइन में परम अभिव्यक्ति को ‘ आत्म- सम्भवा’ कहकर सम्बोधित किया है। हम यह कह सकते हैं कि परम अभिव्यक्ति वह है जो हमारी आत्मा या निज को सम्भावित करती है। लेकिन निज तो वास्तव में जी रहा है तो वह किस निज को सम्भावित (possible) करती है! यह वह निज है जो वास्तविक रूप से उद्गामी और सम्भावित रूप से निहित है। और अगर हमें परम अभिव्यक्ति को प्राप्त करना है तो हमें इस सम्भावित रूप को समझकर उसको वास्तविक बनाना है। सम्भावना जो वास्तविक या अनुभव से परे है, उसे समझने के लिए अनुमान या तर्क की अहम भूमिका हो सकती है। क्योंकि अनुमान पूर्व ज्ञान या गत अनुभव पर आश्रित होते हुए भी जो वास्तविक नहीं उसकी कल्पना कर सकता है। एक लेख में मुक्तिबोध कहते हैं कि प्रक्रिया के दौरान “कल्पना का अपना लॉजिक तैयार हो जाता है।” सीधे शब्दों में, मानवानुकूल परिवर्तन की इच्छा सम्भावित रूप में प्रस्तुत होती है, और उसको इच्छित करनेवाला कवि वास्तविक रूप में। लक्ष्य और उपलब्धि के बीच जो फासला है वह भी ‘आतुर’ या इच्छुक मन के लिए ही बना रहता है। लेकिन, सिद्धान्त के तौर पर हमें व्याख्या करनी है तो हमें उसे सैद्धान्तिक ढंग से ही समझना होगा। इसलिए मुझे लगता है कि मुक्तिबोध के सिद्धान्त में यह जो ‘सम्भावना’, ‘इच्छा’, ‘अनुमान’ और ‘उद्देश्य’ की परिकल्पनाएँ हैं, उन्हें हमें सैद्धान्तिक ढंग से समझना होगा।
संदर्भ-
- डालमिया (हिन्दी मोर्डनिज्म, 2012), पृ. 13
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली 4, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 85
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-4, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 88
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 241-42
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-4, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 86-87
जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 234
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पू. 262
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली 5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 224
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 234
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 210 11.
जैन (मुक्तिबोध रचनावली 5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 227
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली 5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 243
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 246
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पू. 225
15 जैन (मुक्तिबोध रचनावली 5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 203
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 204
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 236
18 . जैन (मुक्तिबोध रचनावली 2, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 234
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-2, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 232
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-2, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 355-56
21 . जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 208
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 227
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली-5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 245
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली 5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 227
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली 5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 332
- जैन (मुक्तिबोध रचनावली 5, 2011 पुनर्मुद्रण), पृ. 258