जब भावनाएँ रुकती नहीं, थमती नहीं, बस बहते जाना है—अपरिमित परिधियों के पार, मन की सभी सीमाओं को पार कर, आकाश को नाप लेना है, नाप लेना है उसके ओर-छोर को तब जन्म होता है एक मुक्त आकाश का। ‘एक मुक्त आकाश’ डॉ. रजनी गुप्ता की तीसरी काव्य कृति है, जो जीवन के विभिन्न पड़ावों को पार करती हुई मानो एक मुक्त आकाश की तलाश में हो। डॉ. रजनी गुप्ता ‘मत्स्य प्रसार पदाधिकारी’ हैं, जिसके साथ घर और बाहर के नाना प्रकार की परिस्थितिजन्य उपजी संगतियों-विसंगतियों के मध्य ताल-मेल बैठाती हुई रचना कर्म को भी साधती हैं। उनकी सशक्त लेखनी सिर्फ मानव-मन की गुत्थियों को ही नहीं खोलती वरन् समाज में व्याप्त विसंगतियों पर भी खुलकर लिखती हैं।

एक मुक्त आकाश से मन की उड़ान शुरू होती है और उधड़ते-बुनते मन की पोटली खोलकर तृप्ति का एहसास कराता है। वह कभी खुद से सवाल करता है तो कभी अपने-आप को कटघरे में खड़े होने की अनिवार्यता जताता है। उनका मन शब्दों का सहारा लेकर बह गए बहुत कुछ में एक छोटा-सा मरूधाम की चाहत रखता है, जहाँ एक मुट्ठी खुशी की धूप हो और थोड़ा-सा आसमान हो।

‘एक मुक्त आकाश’ में कवयित्री जीवन में आने वाले अनेक परिणामों की पड़ताल करती हुई कभी खुद से मुखातिब होती हैं, तो कभी समाज में व्याप्त सूखती संवेदनाओं की नदी में मानों अपनी संवेदनाओं की भाव-धारा भरती हुई प्रतीत होती है।

जीवन की आपाधापी में कुछ समय अपने लिए निकाल कर खुद से तो संवाद करती ही है। उसमें समाज से संवाद के सूत्र भी स्थापित करती है। उनके लिए कविता दर्द, तन्हाई और स्मृतियों के बीच घिरे मन-पंछी के लिए एक मुक्त आकाश है। एक स्त्री जब घर की चहार-दीवारी लांघ कर नौकरी करने निकलती है, तब उसे घर और कार्यस्थल में सामंजस्य से बैठाने में कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है,  इसे एक स्त्री ही समझ सकती है। वह कविता के माध्यम से समाज में व्याप्त विसंगतियों और संवेदनहीनता को शब्दों के माध्यम से एक रूप प्रदान करती हैं और नदी की भाँति संवेदनाएँ तरल होकर बह निकलती हैं। जब भी विचलित होती हैं, तब शब्दों का सहारा ही उन्हें सुकून देता है। कहती हैं—

‘एक बार फिर मेरे डूबते मन को

शब्दों का सहारा चाहिए,

लड़खड़ाती हुई भावनाओं को

कागज का किनारा चाहिए’

स्त्री जिंदगी में अनेक विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के बावजूद हार नहीं मानती और जिंदगी को मुस्कुराने की वजह दे ही देती है, क्योंकि जिंदगी का साथ तो हर हाल में निभाना ही है।

‘खुश रहने वाले तो

गम में भी ढूँढ लेते हैं खुशी

यह और बात है कि यह गम को भुलाने का एक बहाना है

चाहे जैसे भी हो

जिंदगी का साथ

तो निभाना ही है’

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि संकलन की सभी कविताएँ विविधरंगी हैं। कहीं बालपन के मासूम भाव हैं, तो कहीं युवावस्था का अल्हड़पन और मौजों की रवानी है, तो कहीं जिंदगी के उतार-चढ़ाव और भोगे गए भाव-थपेड़ों की गंभीरता के भी दर्शन होते हैं, कहीं खामोशी बोलने लगती है तो कभी मन में घुमड़ती हुई भावनाएँ अश्कों के रूप में कागज पर बह जाती हैं।

कवयित्री को इस अनुपम कृति के लिए अनंत बधाइयाँ और शुभकामनाएँ! पुस्तक पठनीय और संग्रहणीय है। साहित्य जगत् में स्वागतयोग्य है, इसका स्वागत होना ही चाहिए। भविष्य में भी आप अपनी कृतियों से समाज को समृद्ध करेंगी। इसी आशा और विश्वास के साथ—शुभकामनाएँ।

 

डॉ. शारदा प्रसाद
समीक्षक एवं कवयित्री
रामगढ़,झारखंड।