
संतों की हमेशा से दूर दृष्टि ही रही है जो हमें आज भी प्रासंगिक लगती है। उन्हें समाज निर्मित करना था इसलिए वे उसमें नयी दृष्टि भरना चाहते थे, इसलिए वर्तमान और भविष्य को ध्यान में रखकर उनकी अभिव्यक्ति थी। वे बखूबी जानते थे, सृष्टि का नियम है नित्य परिवर्तित होना समाज भी इस परिवर्तन से अछूता नहीं है यही कारण है कि समाज की आवश्यकतायें बदलती रहती हैं, हर मनुष्य को समय के साथ बदलना जरूरी है। कुछ मौलिक बातें नहीं बदलती परंतु बदलाव यह हमेशा समय की आवश्यकता रही है। इन्हीं बातों से प्रेरित होकर कबीर और तुकड़ोजी ने प्रचार प्रसार का कार्य किया था। वे जटाएँ, बढ़ानेवाले, हाथ कमंडलू पकड़कर शरीर में भस्म लगाकर तपस्या करने वाले संत नहीं थे, बल्कि अपने बुद्धि के बल पर समाज में फैले अंधकार को मिटाना अपना परम् कर्तव्य समझते थे।
जब कबीर और तुकड़ोजी मूर्तिपूजा और बाह्यआडंबरों का विरोध करते हैं, तब वह कितनी ऊँची सोच रखते थे इसका प्रत्यक्ष उदाहरण-
“मोको कहाँ ढूँढे बंदे मैं तो तेरे पास रे।
ना मैं मंदिर ना मैं मस्जिद ना काबे कैलास रे।”
– कबीर
“मस्ज़िद में नहीं खुदा, मंदिर में नहीं राम।
दोनों नहीं है पत्थरों में सिर्फ उनका नाम है।
दोनों का मतलब एक ही है, सेवा और इस्लाम है।”
– तुकड़ोजी
इन पंक्तियों के माध्यम से कबीर और तुकड़ोजी का केवल मूर्तिपूजा अथवा तीर्थाटन का विरोध करने का इरादा नहीं था बल्कि इन पंक्तियों के द्वारा उन्होंने आम गरीब जनता की आह को समाज के सामने प्रस्तुत किया है। जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब होगी की नहीं यह पता नहीं रहता वे मंदिरों में ईश्वर को कहाँ ढूँढ़ेंगे। हिंदुओं के तैंतीस कोटि भगवान हैं, वह उन तैंतीस कोटि भगवान को पूजता है, परंतु भगवान सम अपने जन्मदाता माँ बाप को वह वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाता है। इसीलिए कबीर भगवान को इंसान में ही ढूँढ़ने की सलाह देते हैं।
आज हम जाति, धर्म के नाम पर एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये हैं। भाई-बहन, माँ-बाप, रिश्ते नातों का हमें लिहाज नहीं रहा बाप बेटी पर बलात्कार कर रहा है, तो जिस भाई को बहन की रक्षा करनी चाहिए वह उसे कसाई के हाथ बेच रहा है, उनकी तो कानखिंचाई कबीर करते हैं। परंतु वह स्त्रियों के बारे में बहुत कठोर रहे हैं, परंतु आज के स्त्रियों की स्थिति देखकर उन्हें कल की चिंता थी, यह साबित होता है। स्त्री ने आज पुरुष के साथ कंधे से कंधा लगाकर काम तो कर लिया परंतु अपनी पहचान बनाने के लिए उसने अपने आप को इतना गिरा दिया कि उसे स्त्रीधर्म का विस्मरण होता जा रहा है। इसलिए नारी उनके निंदा का ही विषय रही जैसे-
“एक कनक अरू कॉमनी, दोऊ अगनि की झाल।
देखे ही तन प्रजलै, परस्याँ है पैमाल”‘ 1
परंतु इस फक्कड़ मिजाज कबीर ने कुलीन स्त्री की प्रशंसा भी की है।
“पहली नारी सदा कुलवंती, सासु ससुरा माने।
देवर जेठ सबन्ह की प्यारी, प्रिय को मरम न जाने।” 2
तुकड़ोजी ने स्त्री के बारे में सुधारवादी दृष्टिकोण रखा है परंतु कबीर टस से मस नहीं होते इसीलिए आज उनके विचार सटीक लगते हैं। स्त्री को दबाने का अथवा उसको निंदा का पात्र बनाना यह कबीर का उद्देश्य न था। बल्कि वह उसे उसकी शक्ति का सही उपयोग करने के लिए प्रेरित कर रहे थे। स्त्री में वह शक्ति है कि वह तख्तोताज़ पलट सकती है। घर को बाँधकर रखती है घर की वह स्वामिनी होती है परंतु आज उसके गुण लुप्त होते जा रहे हैं।
तकड़ोजी अगर 50 वर्ष पूर्व सत्ताधारियों की नीयत की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं, तो उन्हें देश की बहुत चिंता सता रही है। आज सत्ताधारी देश की समस्याओं को सुधारने की बजाय अपनी कुर्सी बचाने की चिंता में हैं। देश की जनता को दो वक्त का खाना उपलब्ध करवाने के बजाय अपने स्विस बैंक में खाता खोल रकम बढ़ाने में लगे हैं। ऊँचे महल में बैठकर झोपड़ी में रहने वाले गरीब का दर्द महसूस नहीं किया जा सकता।
इसलिए कबीर और तुकड़ोजी दोनों के विचार आज के युग में भी हमें प्रासंगिक लगते हैं। इसलिए मैं इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि ये संत, महात्मा हमारे बीच न हों परंतु उसके विचारों के माध्यम से वह अजर, अमर हो जाता है। जो मृत समाज में जान फूंकने का काम करता है।
सामाजिक वैषम्य की दृष्टि से :
आज देश की सामाजिक स्थिति मजबूत हुई है यह हम कह सकते हैं। परंतु सब खोखलापन है केवल दिखावे के लिए हम एक दूसरे से हिलमिलकर रह रहे हैं। यह केवल वोट बटोरने की नीति है। कहीं बम विस्फोट अथवा भूकंप हुआ तो वहाँ मदद कार्य करने के लिए लोग अपने-अपने पहचान चिन्ह (पार्टी के चिन्ह) लगाकर जाते हैं ताकि लोगों के नज़र में उनका कार्य दिखाई दे, वहाँ मदद करना गौण और अपने पार्टी की पहचान कराना प्रथम कार्य होता है। हम जाति-पाँति, धर्म, अल्लाह, ईश्वर, गॉड के नाम से लड़ रहे हैं। इसी का प्रतिरूप बाबरी मस्जिद विध्वंस है इससे हमारे बीच के वैषम्य के स्थिति का ज्ञान होता है। हमें किसी के आराध्य को अनादर करने का अधिकार किसने दिया ? केवल राजनीति के घोड़े दौड़ाने के लिये। देश की गरीब जनता भूखों मर रही है, उससे हमें कोई सरोकार नहीं, हमें तो ऊँच-नीच के भाव से ही फुर्सत नहीं मिलती। तुकड़ोजी ने ऐसे विचारों के लोगों से सावधान किया है जो यह पंक्तियाँ दर्शाती हैं-
“भूखा तड़पता आदमी, तुम अन्न को नहीं बाँटते।
खाली अदालत में बणे, और बात लंबी छाँटते।
प्यारे ऐ भारतवासियों समझो अभी क्या काम है।
फिर के लड़ेगे कायदा करने, बचे गौ जान है।” 3
कबीर और तुकड़ोजी ने मृत समाज को नवजीवन प्रदान किया था। उन्होंने समाज की नवरचना स्थापित की जिसके लिए छोटी-छोटी बातों से उपदेश झलकता है। जैसे-
“सती को कौन सिखावत है,
सँग स्वामी के तन जारना जी।
प्रेम कौ कौन सिखावत है,
त्यागमाँही भोग को पावना जी” 4
इन पंक्तियों के द्वारा समस्त स्त्री पुरुषों को अपने कर्तव्य में बाँधने की शक्ति कबीर प्रदान करते हैं। जिसमें समस्त जीवन सार छुपा है। इसलिए संतों की वाणी में जो शक्ति है वह तलवार में भी नहीं हो सकती क्योंकि तलवार की नोक पर हृदय परिवर्तन नहीं किया जा सकता, उसके लिए संत, महात्माओं का ही उपयोग किया जा सकता है। और यह उपयोग भारत पर यशस्वी रहा है। इसीलिए महात्मा गाँधी, कबीर तुकडोजी, विवेकानंद जैसी विभूतियाँ मेरे आँखों के सामने आदर्श प्रस्तुत करती हैं।
राजनैतिक भ्रष्टाचार, पक्षपात की दृष्टि से :
कबीर और तुकड़ोजी ने केवल अध्यात्म की ही बातें नहीं की मनुष्य को समय-समय पर सताने वाली हर समस्या को लोगों के सामने रखा। हमारे देश को निरंतर पराधीनता में रहने की आदतसी हो गयी थी। अंग्रेज तो हमारे देश से निकल गये, परंतु इन सत्ताधारियों के माध्यम से अपने निशान छोड़ गये। इसलिए गाँधी जी ने कहा था, “आज तक इन गोरे लोगों ने हम पर राज किया, अब हम पर ये काले लोग राज करेंगे।” वैसे तो हमारे देश में लोकतंत्र प्रणाली से शासन चलता है फिर भी आम जनता की मुँह पर ताला लगा दिया गया है। कानून के निर्माता ही कानून की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। सत्ताधारी कितने भी भ्रष्टाचार करें, वह सही सलामत रिहा होते हैं। तुकड़ोजी तो ऐसे सत्ताधारियों से चिंतित थे कि वह देश को बेच न खाये।
“कितना किया है कर्ज, तुमने छात्र क्या नहीं जानते।
भोगा न जाये दुख फिर जो जानते पहिचानते।
सब देश बेचो फिर भी कर्ज हो नहीं सकता अदा।
यही सोचकर उन छात्र का दिल टूटता है सर्वदा |” 5
देश के स्वतंत्र होने पर काँग्रेस सत्ता पर आ गयी। हर जगह भाई-भतीजावाद उभरकर आने लगा। सत्ताधारी जनता की समस्याओं को सुलझाने के बजाय अपने लोगों को कहाँ पर स्थापित किया जा सकता है इसके पीछे लगे जिससे लोगों में रोष उत्पन्न हुआ। तुकड़ोजी इस पर अपने विचार प्रकट करते हैं।
“अपना ही घर जिसको दिखे, वह क्या किसी का हित करे?
नेता वही यदि बन गया, फिर तो प्रजा नाहक मरे।
ऐसी समझ जब तक न हो, जन-जागरण कैसे बने।
निपृह नेता जब चुने, कलिकाल में सतजुग बने।”
अतएव यही कह सकते हैं कि संतों ने केवल परमार्थ की ही बातें नहीं की बल्कि राजनीतिक भ्रष्टाचार, पक्षपात आदि विषयों की तरफ भी जनता का लक्ष्य केंद्रित किया। तत्कालीन समाज पर संत महात्माओं का विशेष प्रभाव था।
सांप्रदायिक दृष्टि से विद्वेष और घृणा पर प्रकट किये गये उनके विचार :
कबीर और तुकड़ोजी दोनों संतों का अपने-अपने समय में सांप्रदायिक विद्वेष को मिटाना प्रथम लक्ष्य था। वे जटा बढ़ाकर संत कहलाने के लिए नहीं जन्में बल्कि वे समाज को सामाजिक जर्जरता से निकालने के लिए उन्होंने अवतार लिया था। कबीर के समय मुगलों का शासन था, धर्मांतरण, जातिभेद उग्ररूप धारण किये था तो तुकड़ोजी के समय में धर्मांतरण, अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाना, स्त्रियों की समस्या, जातिभेद, जनसंख्या आदि प्रश्न तुकड़ोजी को सताते थे। एक तरफ कबीर मुसलमान और हिंदुओं को एक जगह का प्रयास करते हैं उसके लिए वे दोनों धर्मों के कुप्रथाओं को समाज के सामने रखते हैं। जैसे वे मुसलमानों को कहते हैं-
“मुसलमान के पीर औलिया मुर्गा-मुर्गी खाई।
खाला केरी बेटी ब्याही, घर में करे सगाई।”
इन पंक्तियों के माध्यम से घर, रिश्ते नाते में ब्याह करना स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है यह बात कबीर हमें चौदहवीं सदी में ही समझाते हैं जो आज हमें विज्ञान सिखा रहा है। हिंदुओं के कुप्रथाओं पर कबीर प्रकाश डालते हैं-“हिंदू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन न देई। वैस्या के पायन तर सौवे यह देखो हिंदुआई।” तत्कालीन समाज में जातिगत विद्वेश था, परंतु वेश्या जैसी स्त्री के पास जाते कभी उसे जाति का एहसास नहीं रहता था। यह कुप्रथा वर्तमान में भी मौजूद है। कबीर तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर हम सब एक ही ईश्वर की संताने हैं तो हममें भेदभाव क्यों? हमारे रीतिरिवाज अलग क्यों?
“एक बूँद एकै मलमूतर, एक चाम एक गूदा।
एक ज्योति थे सब उतपना कौन ब्राह्मण कौन सूदा।” 6
तुकड़ोजी तो कबीर से भी आगे की सोचते हैं, अगर सांप्रदायिकता ऐसी ही बढ़ती रही तो इस देश को बचाने वाला कोई भी नहीं होगा। इसलिए वे क्रांति का मार्ग अपनाने की सलाह देते हैं, परंतु यह क्रांति अहिंसा से की गयी हो। इस संबंध में वह लहर की बरखा में अपने विचार व्यक्त करते है ।
“जनता भी अपने बल नहीं, ऊँचा करें आवाज़ को।
डरती सदा वह अपने जान को, कुल की प्रतिष्ठा मान को।
ऐसे समय भगवान ही इस देश का वाली बने।
नहीं दूसरा साधन कोई क्रांति बिना अब सामने।” ‘ 7
तुकड़ोजी सांप्रदायिक झगड़ों को और आपसी मुठभेड़ को इसलिए भी मिटाने को कहते हैं कि भारत के सभी पड़ोसी देश उस पर वार करने के लिए निशाना लगाए हुए हैं। और इन आक्रमणकारियों को खदेड़ने के लिए हमें आपसी मनमुटाव को मिटाना पड़ेगा। आज के युग में हमें तुकड़ोजी के विचार प्रासंगिक लगते हैं हमने चीनियों को भगाया, पाकिस्तान बार-बार फन उठाता है हाल ही में हमने कारगिल से उसे खदेड़ा। शायद इन संत, महात्माओं के संस्कार ही हमें सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रवृत्त करते हैं। इन पंक्तियों के द्वारा तुकड़ोजी भारत वासियों को ललकारते हैं-
“ऐ भारतीयों आँख अपनी खोलकर देखो जरा।
चारों तरफ से शप्रगण अब, द्वार पर आके भरा।
तुम आपसी मतभेद को इस वक्त बड़वाओं नहीं।
सब एक हो, सावध रहो इस देश को जागा सही।”
इस प्रकार दोनों संतों ने सांप्रदायिकता को खत्म करने का प्रयास किया। आज हमें सांप्रदायिकता की घृणा का सामना करना पड़ रहा है, वह केवल राजनीतिज्ञों के लालच के कारण है। वरना कारगिल में हम एकजुट होकर पाकिस्तानियों को नहीं भगाते। अतः यही कह सकते हैं, संतों की वाणी में वह शक्ति है जो समाज को जाग्रत करती है, देश प्रेम की भावना को जगाती है।
अंधविश्वासों पर तीव्र प्रहार :
भारत सदियों से अंधविश्वास की जर्जरता से ग्रस्त था। परंतु यह स्थितियाँ सभी युग में एक जैसी न थी। समय-समय पर आक्रमण कारियों के कारण समाज में विविध मान्यताएँ रूढ़ होने लगी अंधविश्वास पनपने लगे और समाज को खोखला करने लगे।
संत कबीर के समय अंधविश्वास का जाल फैला था, अंधविश्वास जनता के नस-नस में बस गया था ऐसे में उन्हें अंधविश्वास से बाहर निकालना मुश्किल कार्य था। इसी बात को समझकर कबीर ने अंधविश्वास को मिटाने के लिए हिंदू और मुसलमानों के कुरीतियों पर सर्वप्रथम प्रहार किया। वे कहते थे जिस ईश्वर को देखा ही नहीं वह तैंतीस कोटी भगवान को पूजता है, कहीं भी पत्थर को फूल धूप दिखाकर भगवान बना दिया जाता है उन पर कबीर बहुत गुस्सा होते हैं-
“पाहिन कू का पूजिए, जे जनम न देई जाब।
ऑधा पर आसामूषि, थौ है खोवे आब ।” 8
कबीर ने व्रत, उपवास, तीर्थाटन का भी विरोध किया है वे कहते हैं अगर व्रत से लोगों का भला होता तो लोग रोज भूखे ही रहते। उस युग में उपवास करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, यह कबीर अलग ढंग से प्रस्तुत करते हैं-
“भूखी पेट भगति न किजै, यह माला अपनी लीजै।
हो माँगों संतन सेना। मैं नाही किसी का देना।” 9
अंधविश्वास को अपने मन में पालकर मनुष्य कितना बड़ा पाप कर रहा है, इसका हवाला वह एक दोहे में देते हैं-
“पापी पूजा वैसी करी, भबै मांस मद हाई।
तिनकी देख्या मुक्ती नहीं, कोटी नरक फल होई।” 10
अंधविश्वास को फैलाने वाले पंडित, मुल्लाओं को भी कबीर की फटकार सुनने मिली। आज राजस्थान, बिहार या दूरदराज के क्षेत्र में अभी भी अंधविश्वास मौजूद है।
कबीर की तरह तुकड़ोजी ने भी अंधविश्वास को मिटाने की कसम खाई थी बल्कि प्रत्यक्ष रूप में हर आंदोलन में तुकड़ोजी ने हिस्सा लिया था। उन्होंने संपूर्ण महाराष्ट्र से बलिप्रथा बंद की, सतीप्रथा बंद की, विधवाओं के विवाह करवाये। परंतु कबीर और तुकड़ोजी में एक समानता दिखाई देती है कि दोनों पंडितों पर नाराज़ थे क्योंकि समाज को गुमराह करने वाले यही समाज के ठेकेदार हैं। इन पंडितों ने अपना पेट पालने के लिए जन्म, मृत्यु, विवाह आदि संस्कार बताये, परंतु तुकड़ोजी उसका कड़ा विरोध करते हैं-
“वैसे ही आडंबर मृत्यु संस्कार के। ठाठ न बढावे अंत्येष्टि के |
दुखी न हो जीवन सजीवों के। मृतक के बाद।” 11
परंतु आज समाज की स्थिति देखकर तुकडोजी के सामाजिक क्षेत्र में लिये उपकार कभी न भूलने वाले लगते हैं। आज महाराष्ट्र में सामूहिक विवाह किये जा रहे हैं और मृत्यु के बाद तेरहवाँ भी धार्मिक संस्कार न मानकर सामाजिक कार्य मानकर दान धर्म किया जाता है जो तुकडोजी चाहते थे वही समाज का आज का चित्र हमें दिखाई दे रहा है।
अंततः यही कहना होगा कि कबीर और तुकड़ोजी ने हमें अंधविश्वास की जंजीरों से बाहर निकलने का मार्ग बताया है, हमें अपने बल पर चलने की राह भी बताई है।
शोषण के विरुद्ध दोनों संतों के विचार :
दोनों संतों ने धार्मिक शोषण, सत्ताधारियों के शोषण और सामंतवादियों के शोषण के विरुद्ध कमर कस ली थी जो समाज का निरंतर शोषण कर उन्हें गरीबी के दलदल से बाहर निकलने ही नहीं दे रहे थे। कबीर और तुकड़ोजी ने उसके विरुद्ध सबसे पहले आवाज उठाई। कबीर के समय में ब्राह्मणों के विरुद्ध कार्य करना आसान न था, परंतु काशी (देवताओं के नगर) में ही उन पर कबीर कठोर आरोप लगाते हैं-
“कलिका ब्राह्मण मसखरा, ताहि न दीजै दान।
कुटुंब सहित नरकै चला, साथ लिया यजमान ।” 12
तीर्थस्थानों में भक्तों का शोषण होता है उस पर कबीर हँसते हैं कि भक्त कितना बेवकूफ है कि उस भगवान को पाने के लिए दान दक्षिणा पंडों को देता है जो उस ईश्वर का बाजार सजाये हुए हैं।
“ब्राह्मण गदहा जगत का, तीरथ लादा जाए।
यजमान कहै मैं पुनि किया, वह मिहनत का खाय।” 13
शोषण को चुपचाप सहन करता है। उसे तो गाली ही देते हैं- कबीर शोषणकर्ता से शोषित को सबसे ज्यादा दोषी मानते हैं –
“बिन पावन की राह है, बिन बस्ति का देश।
बिना पिण्ड का पुरुष है, कहै कबीर संदेश।”
ऐसे प्रवत्ति के लोगों को कबीर संदेश देते हैं कि हम सब इस गगन तले समान हैं तो फर्क क्यों?
जाति हमारी आतमा, प्रान हमारा नाम।
अलख हमारा इष्ट है गगन हमारा ग्राम।” 14
कबीर अथवा तुकड़ोजी के काल में अमीरी-गरीबी की बहुत गहरी खाई थी इसको मिटाने के लिए तुकड़ोजी ने कमर कस ली थी। उन्होंने तत्कालीन ब्राह्मणों पर सीधा प्रहार कर शोषित दलितों को मंदिर प्रवेश करवाया, सभी के पास भूमि रहे कोई भी इस राज्य में भूमिहीन न रहे इसलिए विनोबा भावे के साथ मिलकर एक दिन में हजारों एकड़ जमीन भूदान यज्ञ में प्राप्त की थी। कुछ लोगों ने मंदिरों क नाम की जमीनें अपने ही पास रख ली थीं उन्हें तुकड़ोजी ने फटकार लगायी कि-
“मंदिर की पड़ीत जमीन खण्डहरे। गरीबों को बाँट देवे |
व्यवस्था रखे उत्तम प्रकार से। सबके जीवन की।” 15
इस प्रकार जमींदारों को उन्होंने सीधा किया था। ब्राह्मणों पर कबीर की तरह तुकड़ोजी बरस पड़ते हैं-
“मंदिर तीर्थक्षेत्र दुकान बनाये। पूजा करते कमाई के लिए |
दक्षणा दान पात्र सामने लाये। पेट भरने।” 16
शोषणकर्ताओं से बचने के लिए तुकड़ोजी सादगी का मार्ग बताते हैं। क्योंकि जमींदार लोग जन्म, मृत्यु, विवाह, त्यौहार में लिये कर्जे पर मनमाना ब्याज लगाकर कर्जदाता का सबकुछ छीन लेता था इसलिए तुकड़ोजी दिखावे से दूर रहने की सलाह देते हैं।
आज भी कबीर, तुकड़ोजी के किये मौलिक कार्य उनकी याद दिलाते हैं। पंरतु मंदिर और वहाँ की स्थिति देखकर शायद इन दो संतों के संस्कारों में कमी रही या हम ही सुधरना नहीं चाहते इसका मलाल ही रहता है। आज भी खुद को साधु, महात्मा समझने वाले के हाथों स्त्री का अपमान होता है। किसी धर्म में युवावस्था से पूर्व ही दीक्षा देकर उनके नैसर्गिक अवस्था को दफनाया जाता है। ऐसी स्थिति में किसी साधु द्वारा स्त्री को भगाकर ले जाना अथवा दीक्षित युगल ने विवाह कर, आस्तिक लोगों के भावनाओं को ठेस पहुँचाना यह आम बात हो गयी है। इसलिए ऐसी स्थिति में धर्म के ठेकेदारों के हाथों आज भी समाज का शोषण होता है यह स्पष्ट होता है।
हिंसा और आतंक के विरुद्ध दोनों संतों की दृष्टि एवं संवेदना आज मार्गदर्शक :
विश्व के किसी भी देश के संस्कृति में, पुराणों में अथवा किसी भी देश के संविधान में हिंसा और आतंक को बढ़ावा नहीं दिया, बल्कि उसे जघन्य पाप ही माना गया है। हमारी जन्मभूमि अहिंसा के पुजारियों को अपने कोख में समाये हुये है। कबीर हिंसा और आतंक के मार्ग पर चलने वालों को इस दोहे के द्वारा समझाते हैं-
“मनुष्य जन्म दुर्लभ है होय न दूजी बार।
पक्का फल जो झरि परै बहुरी न लागै डार।”
इससे यही समझना होगा कि कबीर मनुष्य के जन्म को ही अपनी मुट्ठी में कर उसे सत्कर्म करने का संदेश देते हैं। कबीर ने हमेशा हिंसा और आतंक का विरोध किया है। कबीर के अनुसार हिंसा मनुष्य को जीवात्मा से मिलने में बाधा उत्पन्न करती है। हिंसा करने वाले को कभी भी माफ नहीं करना चाहिए इस विचार के कबीर पक्षधर हैं। जैसे यह पंक्तियाँ उद्धृत हैं-
“बकरी पाति खात है ताकि काढ़ी खाल।
जे नर बकरी खात है, तिनको कौन हवाल।” 17
आतंक के मार्ग पर चल रहे मनुष्य को तुकड़ोजी निम्न पंक्तियाँ सुनाते हैं-
“उद्योगहीन जो आदमी, शैतान ही बनकर चले।
शांति न उसके दिल मिले, ना धन मिले, ना भोजन मिले।” 18
तुकड़ोजी ने प्राणियों की हत्या का भी विरोध किया जो बहुत बड़ा पाप वह मानते हैं-
“कोई देव को बलिदे जाते। कोई देवी के बहाने माँस खाते।
कोई चरणामृत कहके शराब पीते। हड़काये जैसे।” 19
इस प्रकार कबीर और तुकड़ोजी ने हिंसा और आतंक का विरोध कर, वह मनुष्य और देश के लिए किस प्रकार अहितकर साबित होगा इस का सबूत दिया है। परंतु आज कबीर और तुकड़ोजी होते तो बंबई में बम्ब विस्फोट न होते, अमेरिका का वर्ल्ड ट्रेड सेंटर नहीं उड़ाया जाता और लाखों बेगुनाहों की जानें न जाती। आज पनप रहे आतंकवाद को देखकर यही लगता है कि आज कबीर और तुकड़ोजी जैसे विचारकों की आवश्यकता महसूस हो रही है।
संतों की मानवतावादी संवेदना अत्यंत आवश्यक :
संतों ने समाज में निरंतर मानवतावादी दृष्टिकोण स्थापित करने का प्रयास किया है। कबीर और तुकड़ोजी के समय में समाज सत्ताधारियों से त्रस्त था ऐसे में समाज अस्त व्यस्त हो गया था। ऐसे में इन संतों ने ही मानवतावाद की नींव रखी जो आज भी सार्थक साबित होती है। जब समाज गुमराह हो, उसे एक सूत्र में बाँधने के लिए संत, महात्माओं को ही आगे आना पड़ता है। कबीर तो समाज को एक ही संदेश देकर मानवतावाद की संवेदना लोगों में जगाते हैं-
“हम तो एक एक करि जाना।
दोई इक है तिन ही कौ दोजग, ते नाहिन पाहिचाना।।
एके पवन, एक ही पानी, एक ही ज्योति संसारा।
एक ही खाक घड़े सब भांडे एक ही सृजन हारा।
एकै बूंद एकै मलमूतर, एक चाम एक गूदा ।
एक ज्योति थे सब उतपना कौन ब्राह्मण कौन सूदा।।”
अर्थात् सब तरफ एक ही ज्योति, एक ही हवा, एक ही पानी, जमीन, सब समान है सब के खून का रंग लाल है, सबका मलमूत्र एक समान है तो आपस में भेदभाव क्यों हो? अगर हमारा निर्माता एक ही है तो आपस में फर्क करने वाले कौन होते हैं। तुकड़ोजी ने भी यही दृष्टि अपनाई। वे भी मानवतावाद का लोगों को घोल पिलाकर स्वस्थ समाज के निर्माता थे, तभी तो वे कहते हैं-
“येशु में और गाँधी में हमने फरक देखा नहीं।
भगवान बुद्ध भी है वही मुझे शंका नहीं।
शांति दूत है ये थे सभी, आदर्श में मानव के।” 20
तुकड़ोजी आगे जाकर विश्वबंधुत्ववादी मानवतावाद चाहते थे। इसलिए वे पूरे देशवासियों को ललकार रहे थे।
“विश्वव्यापक प्रेम करना ही हमारा धर्म है।
सबसे मिलजुलकर विचारना ही हमारा कर्म है।
कूपमंडूक वृत्ति लेकर, ना कोई ऊँचा बना।
सबके सुखदुख को समझना ही हमारा धर्म है।
भेद अपना औ पराया, स्वार्थ पर होता खड़ा।
स्वार्थ की दीवार पर अड़ना यह भारी शर्म है।
प्रेम की सक्रियता में, जाति पंथ न देश भी।
अखिल मानव एक है सत्म्यान का यह मर्म है।
तोड़कर दूई का परदा, प्रेम सागर हमें रंगे।
कहत तुकड्या यह ही मानवता उचित सतकर्म है।”
आज के युग में विश्व बढ़ते हिंसाचार आतंकवाद में इन दो संतों के यह विचार आपस में मिलाने का कार्य कर सकते हैं। इन संतों के समय केवल सत्ताधारियों से ही खतरा था परंतु आज सत्ताधारियों, उग्रवादी आदि से समाज का खतरा है। यदि हर मनुष्य विचारों को अपने आचरण में लाये तो समस्त विश्व का कल्याण होने से कोई भी नहीं रोक सकता। इसीलिए भारतभूमि को संतप्रसवा कहा जाता है, इस भूमि ने महान विभूतियों को जन्मा है जिन्होंने देश-विदेशों में अपने अस्तित्व से अपने देश का नाम रोशन किया है। परंतु ऐसे महात्मा बार-बार जन्म नहीं लेते, केवल उन के वाणी द्वारा उनका लिखा साहित्य ही अजर-अमर हो जाता है। ऐसे महानुभावों को मेरा शत् शत् प्रणाम समर्पित है।
संदर्भ :
- कबीर ग्रंथावली, पृ. 286
- कबीर ग्रंथावली, पृ. 217
- लहर की बरखा : राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराजी जी.डी. निकम अध्यक्ष, श्री गुरुदेव वाङमय आश्रम, गुरुकुंज आश्रम जि. अमरावती, पृ. 75
- कबीर : हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ. 269
- अनुभव प्रकाश भजनावली : राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज, पृ. 40
- 6. लहर की बरखा : राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज, पृ. 63
- लहर की बरखा : राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज, पृ 15
- कबीर समग्र : युगेश्वर, पृ. 224
- कबीर समग्र : युगेश्वर, पृ. 728
- कबीर ग्रंथावली : राजकिशोर शर्मा, पृ. 222
- ग्रामगीता : प्रा. रघुनाथ कडवे : पुंडलिक शंकरराव लोन्ढे अध्यक्ष : ग्रामगीता प्रकाशन समिती द्वारा प्रिंटर्स ट्रेडिंग कंपनी महल नागपुर-2, पृ. 199
- कबीर समग्र : युगेश्वर, पृ. 435
- कबीर समग्र : युगेश्वर, पृ. 435
- कबीर समग्र : युगेश्वर, पृ. 435
- ग्रामगीता : प्रा. रघुनाथ कडवे पुंडलिक शंकरराव लोन्ढे अध्यक्ष : ग्रामगीता प्रकाशन समिती द्वारा प्रिंटर्स ट्रेडिंग कंपनी महल नागपुर-2, पृ. 352
- ग्रामगीता: प्रा. रघुनाथ कडवे पुंडलिक शंकरराव लोन्ढे अध्यक्ष : ग्रामगीता प्रकाशन समिती द्वारा प्रिंटर्स ट्रेडिंग कंपनी महल नागपुर-2, पृ. 232
- कबीर समग्र : युगेश्वर, पृ. 291
- लहर की बरखा : राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज जी डी निकम अध्यक्ष श्री गुरुदेव वाङमय विश्वस्त मण्डल गुरुकुंज आश्रम, जी. अमरावती महाराष्ट्र, पृ. 32
- ग्रामगीता : प्रा. रघुनाथ कडवे : पुंडलिक शंकरराव लोन्ढे अध्यक्ष : ग्रामगीता प्रकाशन समिती द्वारा प्रिंटर्स ट्रेडिंग कंपनी महल नागपुर-2, पृ. 228
- गीतांजली : राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज, पृ. 48