
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में मानवीय मूल्य, मानवीय संवेदना के साथ सामाजिक यथार्थ का मार्मिक चित्रण किया है। उन्होंने उपन्यासों के पात्रों के माध्यम से समाज में व्याप्त अन्याय, शोषण, गरीबी तथा रूढ़िवादी विचार को उजागर किया है। प्रेमचन्द सदा से गरीबों, किसानों एवं महिलाओं के अधिकारों के लिए बुलन्द आवाज़ उठाते रहे। उनके उपन्यासों में सामाजिक न्याय की प्रबल भावना दिखाई देती है। वे हमेशा शोषितों, गरीबों और वंचितों के पक्ष में खड़े रहे। यही कारण है कि उनके पात्र सत्यनिष्ठा और ईमानदारी का पालन करते हैं। वे किसी भी परिस्थिति में अन्याय का विरोध करते हुए अपने सिद्धांतों पर अडिग दिखाई देते हैं।
प्रेमचंद ने मित्रता, प्रेम एवं परिवार को बहुत महत्त्व दिया है। उनके उपन्यासों में इन संबंधों की गहराई को आसानी से देखा जा सकता है। उपन्यास में पात्र त्याग और बलिदान की भावना रखते हैं। वे अपने व्यक्तिगत सुखों को भूलकर दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करते हैं।
प्रेमचंद ने सदा ही समानता और आपसी भाईचारे को महत्त्व दिया है। वे धर्म, जाति और लिंग आधारित भेदभाव के विरोधी थे। वे दूसरों की पीड़ा को समझकर उनके प्रति सहानुभूति रखते थे। इन बातों में वह महिलाओं के सशक्तिकरण को नहीं भूले। उन्होंने महिलाओं को शिक्षित करने, समाज में समान अधिकार दिलाने आदि की जमकर वकालत की। इसका जीवंत उदाहरण गोदान है। गोदान में होरी एक गरीब किसान है जो अपने अस्तित्व के लिए निरंतर संघर्ष करता है। इस उपन्यास में उपन्यासकार ने होरी के माध्यम से किसानों की दुर्दशा और शोषण को उजागर किया है। जबकि कर्मभूमि उपन्यास में प्रेमचंद ने राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का वर्णन किया है। उनकी मनोवैज्ञानिक-सूक्ष्मता का दर्शन उनके पात्रों के चरित्र-चित्रण में किया जा सकता है। गबन उपन्यास में प्रेमचंद ने सामाजिक कुरीतियों दहेज प्रथा, भ्रष्टाचार और राजनैतिक षड़यंत्र को उजागर किया है। वस्तुतः प्रेमचंद के उपन्यास आज भी प्रासंगिक हैं क्योंकि वे मानवीय मूल्यों के साथ सामाजिक समस्याओं पर भी प्रकाश डालते हैं।
‘गोदान’ उपन्यास में उपन्यासकार ने भारतीय ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण, किसानों का शोषण, ग्रामीण समाज की जटिलताओं के साथ शहरी जीवन के सामाजिक न्याय पर प्रकाश डाला है। प्रेमचंद ने होरी, धनिया, गोबर और गाँव के अन्य पात्रों के माध्यम से किसानों के संघर्षरत जीवन को दर्शाया है। उपन्यास में कर्जखोरी एवं महाजनी व्यवस्था के कुचक्र को उजागर किया है। होरी जीवनभर मेहनत करने के बावजूद अपने द्वार पर गाय नहीं बांध पाता। यह घटना किसानों की दयनीय स्थिति को दर्शाती है।
एक ओर जहां उपन्यास में ग्रामीण जीवन की बात की गई है वहीं दूसरी ओर शहरी जीवन का भी चित्रण किया गया है; जो ग्रामीण जीवन पर सकारात्मक प्रभाव नहीं डालता। प्रेमचंद ने राय साहब, मेहता जैसे पात्रों के माध्यम से शहरी जीवन की भौतिकता और भ्रष्टाचार को दर्शाया है। इसमें होरी के जीवन का संघर्ष और उसके संघर्ष का अंत एक व्यक्तिगत त्रासदी है। यह तत्कालीन किसानों की सामान्य त्रासदी को दर्शाता है।
उपन्यास पर प्रेमचंद के गांधीवादी और प्रगतिवादी विचारों का प्रभाव दिखाई देता है। उपन्यास में स्त्री-पुरुष संबंध के साथ महिला उत्पीड़न के मुद्दों को प्रकाश में लाया गया है। संक्षेपतः गोदान एक शक्तिशाली उपन्यास है; जो भारत के ग्रामीण जीवन की वास्तविकता से हमें परिचित कराता है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’ में स्पष्ट कहा है कि– “जो साहित्य अपने आप के लिए लिखाता है उसकी क्या कीमत है, मैं नहीं कह सकता, परन्तु जो साहित्य मनुष्य समाज को रोग, शोक, दारिद्रय, अज्ञान तथा परमुखापेक्षित से बचाकर उसमें आत्मबल का संचार करता है वह निश्चय ही अक्षय निधि है।”1 इस कथन की पुष्टि प्रेमचंद के साहित्य में हो जाती है। वह अपने चारों ओर होने वाली घटनाओं को सूक्ष्मता से देखते-परखते हुए उनका पुनः सृजन करने का स्तुत्य प्रयास किया।
प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में भारतीय समाज एवं संस्कृति को उसकी पूर्णतः के साथ प्रस्तुत किया है। प्रेमचंद ने इन्हीं किसानों को अपने उपन्यास का पात्र बनाकर पाठकों के समक्ष उनकी समस्याओं को प्रकट किया है। प्रेमचंद कालीन समस्याएँ हर युग में प्रासंगिक रही हैं। यही कारण है कि ‘गोदान’ आज भी भारतीय साहित्य में महाकाव्य का स्थान रखता है। वह मनुष्य के मन में बैठकर उनकी भावनाओं का परिचय देते रहे। उनके साहित्य में मानव जीवन का चित्र प्रतिबिंबित होता है। वह मानव चरित्रों के सूक्ष्म उद्घाटन से मानवीय संवेदनाओं को कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करते रहे।
‘गोदान’ भारतीय किसान की महागाथा है जो वर्षों से चले आ रहे पूंजीवादियों, ज़मींदारों, साहूकारों के द्वारा गरीबों के शोषण का पर्दाफाश करता है। इस उपन्यास में लगभग पचीस पात्र हैं जो बखूबी अपनी भूमिका निभाते हैं। उपन्यास की पृष्ठभूमि में गाँव और शहर दोनों में पर आधारित है। धनिया, होरी और उसके बच्चों की इर्द-गिर्द मुख्य कथा चलती हैं तो मेहता, मालती, खन्ना, राय साहब आदि की प्रासंगिक कथाएँ हैं। प्रेमचंद ने होरी, धनिया, रमानाथ, गोबर इत्यादि को एक प्रतीक के रूप में प्रकट करके समाज में मनुष्यता का सही उदाहरण प्रस्तुत किया है।
‘गोदान’ भारतीय किसानों का मर्मस्पर्शी दस्तावेज है। हिंदी के प्रसिद्ध अलोचक डॉ. गंगाप्रसाद विमल ने इस उपन्यास को महाकाव्यात्मक रचना का दर्जा प्रदान किया है। उनके अनुसार “गोदान सच्चे अर्थ में भारतीय ग्राम इकाई का और नगर इकाई का है। यह मान की कथा है।” इसमें होरी एक भारतीय कृषक है जो गाय पालने की अभिलाषा रखता है। गाय गरीबी का नहीं, अपितु आराम, भोग-विलास की वस्तु थी। एक गाय को अपने द्वार पर देखने की प्रबल इच्छा में होरी के नैसर्गिक गुण प्रकट होते हैं। भारतीय संस्कृति में गाय पालने की इच्छा कितनी प्रबल होती है। यह होरी के शब्दों में देख सकते हैं— “गऊ ही तो द्वार की शोभा है, सवेरे-सवेरे गऊ के दर्शन हो जाए तो क्या कहना। न जाने कब यह साध पूरी होगी, कब वह शुभ दिन आएगा।”2 समकालीन समय में हमारे चारों ओर हम किसी न किसी रुप में एक होरी को देखते ही हैं जो होरी की तरह ही असुविधाओं के अभाव में जीवन यापन करने के कारण अपने सपनों तक को साकार नहीं कर पाता।
होरी की ऐसी दयनीय स्थिति का कारण शोषक वर्ग है। इस शोषक वर्ग में तब जमींदार और सामंतवाद था। वही भूमिका अब राजनैतिज्ञ और विभिन्न सरकारें निभा रहीं हैं। होरी मरते दम तक शोषण का शिकार होता रहा था। इस क्रमिक शोषण का शिकार केवल होरी ही नहीं, बल्कि यह शोषण उसका पूरा परिवार झेलता है। जब होरी की गाय जहर खीने से मर जाती है तो होरी पुलिस के कुचक्र में फसकर उसे रिश्वत देनी पड़ी थी। जिसके लिए उसे महाजन से ब्याज पर पैसा उधार लेना पड़ता है। झींगूर सिंह, नोखेराम, दातादीन आदि जैसे पात्र किसानों का शोषण करते थे। तत्कालीन शोषण का सजीव चित्रण ‘गोदान’ की खास विशेषता है। आज भी हमारे समाज में ये शोषण होता है। अमीर का कुछ नहीं बिगड़ता। लेकिन गरीब ही हमेशा इसका शिकार बनता है। अमरपाल सिंह, रायसाहब, खन्ना साहब, दलाल इत्यादि इस व्यवस्था के कड़ी निर्माता थे।
लेकिन आज ये व्यवस्था सत्ताधारियों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गई है। परिवर्तन मात्र समय और परिस्थिति का हुआ है। गोदान में धनिया एक ऐसी पात्र है। जिसके द्वारा प्रेमचंद ने एक सशक्त नारी पात्र को पाठकों तक पहुँचाया है। वैसे तो धनिया गाँव की अनपढ़ महिला है। परन्तु अवसर पड़ने पर बुलंद आवाज़ रखती है। होरी की पत्नी होने के कारण वह भी आर्थिक शोषण का शिकार होती है। किन्तु धार्मिक और बौद्धिक अभिजात्य नीतियों पर विध्वंसतापूर्ण प्रहार करती है। उसका यह स्वरुप उस प्रकट होता है जब उसका बेटा गोबर झुनिया को घर ले लाता है तब वह सारी जात-बिरादरी को लात मारकर अपने घर की लाज बनाए रखती है। ठीक ऐसे ही वह छोटी जाति की सिलिया को अपने घर में आश्रय दे देती है।
यही कारण है कि धनिया में नए युग का प्रखर बुद्धिवाद दिखाई देता है। आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक चेतना से युक्त समकालीन नारी की प्रखरता उस समय की अनपढ़ नारी धनिया में दिखाई देती है। होरी की मृत्यु के समय धनिया जीवित है और अपनी खून-पसीने की कमाई को पंडित दातादीन के हाथ सौंप देती है। यहाँ पूंजीवाद की विकरालता दोनों में निस्पंद होती है जो भारतीय मनुष्यता का ही गोदान करवा देती है। इस प्रकार एक ओर जहाँ प्रेमचंद की आस्था धनिया में जीवित है वहीं दूसरी ओर मानवीय संघर्ष एवं जिजीविषा धनिया में ही अमर है।
आज का युवा पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होकर अपनी पढ़ाई के बाद विदेशों में जाकर बसने की चाह रखता है। ‘गोदान’ का गोबर इसी नई पीढ़ी का प्रतीक है वह यह अच्छे से समझता है कि धनी व्यक्ति ही समाज में प्रतिष्ठा और यश प्राप्त करता है। यही कारण है कि वह नगरीय जीवन के आकर्षण के कारण नौकरी हेतु शहर की ओर उन्मुख होता है। पैसा कमाने के पश्चात् वह उसी व्यवस्था का विरोध करता है। जिसमें उसका अपना पूरा परिवार दबा हुआ होता है। प्रेमचंद ने झुनिया एवं गोबर के माध्यम से विधवा-विवाह का समर्थन किया है। यह मानवीय संवेदना का एक सशक्त उदाहरण है। मानवीय संबंधों के बनते-बिगड़ते चित्र इनमें दिखाई देते हैं। हम यह भी यह कह सकते हैं कि गोबर के माध्यम से ही पहली बार साहित्य में लघु परिवार (nuclear family) की भावना का उदय हुआ। विवाह जैसा पवित्र बंधन अब लुप्त-सा होता जा रहा है। बिना विवाह के प्रेम और संबंध इत्यादि की घटना मेहता और मालती के प्रेम में अभिव्यक्त होती है। प्रेमचंद ने समकालीन लिव-इन-रिलेशनशिप के माध्यम से नई सभ्यता के कड़वे ज़हर को गाँवों की ओर बढ़ता दिखाया है।
सोना और रूपा होरी की बेटियाँ हैं। इनके माध्यम से प्रेमचंद ने देहज-प्रथा का विरोध, मातादीन-सिलाया के माध्यम से दलित चेतना को मुखरित करके अंतरजातीय विवाह का समर्थन किया है। वर्तमान युग ये सारे विषय बहुचर्चित हैं। जिसका शंखनाद प्रेमचंद ने अपने ही युग में कर चुके थे। गोदान में पात्रों के माध्यम से भिन्न-भिन्न समस्याओं को उजागर किया गया है। गोबर के माध्यम से रोज़गारहीनता की समस्या को उठाया गया है।
आज भी इस इक्कीसवी सदी में इसका कोई हल नहीं निकला। आज भी मजदूर दूसरे राज्यों में जाकर नौकरी करते हैं। शोषण तब भी होता था और आज भी हो रहा है। गोबर जैसे युवा हर काल और समाज में विद्यमान हैं जो स्वयं पर होने वाले अत्याचारों के विरूद्ध आवाज़ उठाते हैं। धर्म और अशिक्षा की समस्या को हम होरी जैसे पात्र बड़ी सहजता से देख सकते हैं। कारण होरी रुढ़ियों और परंपराओं का अँधभक्त है। अपनी इसी अशिक्षा की वजह से वह वास्तविकता को समझ नहीं पाता। आज भी कई जगहों पर ये समस्या मौजूद है, जहाँ अशिक्षित वर्ग ऐसे ही जाल में फस जाता है।
इन सब समस्याओं को उजागर करके प्रेमचंद ने समाज में लुप्त होती मानवीय संवेदना को हमारे सामने प्रकट किया है। यह मानवीय संवेदना आज भी हमारे चारों ओर दिखाई देती हैं। उस ज़माने में पति-पत्नी, सास-बहु बाप-बेटे और माँ-बेटी का संबंध बहुत गहरा था। किन्तु आज ये संबंध बदलती एवं जीवन-शैली और परिस्थिति कारण कुछ धूमिल से हो गए हैं।
आज भी समाज में ये सारी समस्याएँ विद्यामान हैं; जो उस समय से मिल-जुलती हैं। गोदान पूर्णतः मानवीय संघर्ष की गाथा है। यही संघर्ष समकालीन समाज में मानवीय मूल्यों को रोपित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। गरीबी से जूझता किसान वर्ग, शोषित किसान, ऋण से त्रस्त किसान, विधवा-विवाह, दहेज प्रथा, अनमेल-विवाह, दलित चेतना आदि इस उपन्यास के मुख्य मुद्दे हैं। जिन बातों को लगभग अस्सी वर्ष पहले प्रेमचंद ने अपने साहित्य में उजागर किया था। वह आज भी हमारे समाज में देखने को मिलती हैं।
निष्कर्षत: अतीत के खंडहरों में भटके नहीं, वर्तमान में ही सूक्ष्मतः से झांककर शाश्वत मानव मूल्यों को उद्घाटित कर व्यवहार जगत में परिणित करते रहे की। उन्होंने प्रेमचंदयुगीन मानव चरित्रों की अच्छाईयों और बुराईयों का समग्र उद्घाटन किया। शाश्वत मूल्यों को परखने, अंकित एवं रक्षित करने का सतत् प्रयास आज भी सुलभ है। इसलिए गोदान “हितेन सह सहितं” अर्थात् साहित्य वही है जिससे मानव हितों का संपादन हो सके।
सन्दर्भ ग्रंथ सूची
- द्विवेदी, आचार्य हजारी प्रसाद, निबंध ‘मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है’
- ‘प्रेमचंद की नारी दृष्टि, डॉ. शाशिमुदिराज, अनुशीलन, 1983 पृ-46
- हंसराज रहबर, प्रेमचंद जीवन कला और कृतित्त्व, आत्माराम एंड संस, दिल्ली 1962
- डॉ. शेख अब्दुल वहाब, प्रेमचंद मनन और मंथन, स्वाक्षर प्रकाशन, नए दिल्ली, 2018
डॉ. सुमन शर्मा
हिन्दी संपादक
बुराड़ी, दिल्ली






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