
शोध सारांश – मुंशी प्रेमचंद को कौन नहीं जानता है । उत्तर प्रदेश के वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में जन्मे मुंशी प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी में हुई थी। सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, गबन, गोदान आदि उपन्यासों से लेकर नमक का दरोगा, प्रेम पचीसी, सोज़े वतन, प्रेम तीर्थ, पाँच फूल, सप्त सुमन, बाल साहित्य जैसे कहानी संग्रहों की रचना कर इन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया। इन्हें उपन्यास सम्राट भी माना जाता है। हिंदी साहित्य के इतिहास में मुंशी प्रेमचंद का नाम एक ऐसे साहित्यकार के रूप में लिया जाता है, जिन्होंने साहित्य को समाज का दर्पण बना दिया। वे केवल कथाकार ही नहीं, बल्कि एक विचारक, समाज सुधारक और मानवतावादी लेखक थे। लेकिन उनकी प्रतिभा कहानी और केवल उपन्यास तक सीमित नहीं रही। वे एक सच्चे बहुमुखी साहित्यकार थे। उन्होंने विविध विधाओं में लेखन किया। उपन्यास, कहानी, नाटक, निबंध, लेख, अनुवाद और संपादन जैसे साहित्य के विभिन्न रूपों में योगदान दिया। उनके लेखन की शैली और भाषा में गहरी सरलता, स्पष्टता और प्रभाव होता था।
संकेत शब्द – उपन्यास सम्राट,यथार्थबोध, आदर्श, संवेदना दृष्टि, नैतिकता बोध, कालजयी।
“प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फ़ोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुर्ता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं, पर घनी मूँछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं। पाँवों में केनवास के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बँधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं। दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है।मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ—फ़ोटो खिंचाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी—इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फ़ोटो में खिंच जाता है।”1
यह पंक्तियां प्रख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ शीर्षक एक व्यंग्यात्मक लेख से उद्धृत है जिसमें उन्होंने मुंशी प्रेमचंद के जीवन -संघर्ष पर करारा व्यंग्य किया है। इसमें प्रेमचंद के फटे जूतों को प्रतीक बनाकर उनके संघर्ष, ईमानदारी और साहित्य के प्रति उनकी निष्ठा पर टिप्पणी की गई है। जब-जब हरिशंकर परसाई द्वारा रचित इस रचना को पढ़ते हैं तब-तब प्रेमचंद मुंशी प्रेमचंद जी का एक अद्भुत और आदर्श व्यक्तित्व चित्र की भांति आंखों के सामने खिंचा जाता है। इन पंक्तियों के माध्यम से प्रेमचंद जी के समग्र व्यक्तित्व को बखूबी समझा जा सकता है।
मुंशी प्रेमचंद का पूरा जीवन संघर्ष में बीता। उनके पास इतने भी साधन नहीं थे कि अच्छे जूते पहन सकें, फिर भी वे आदर्शों से कभी समझौता नहीं करते। प्रेमचंद के ये फटे जूते उनकी गरीबी का नहीं, बल्कि उनके सच्चे साहित्यकार होने का प्रमाण हैं। यह कृति प्रमाणित करती है कि मुंशी प्रेमचंद ने समाज के दुख-दर्द को ही अपनी रचनाओं का विषय बनाया। परसाई जी के अनुसार, “दरअसल प्रेमचंद का फटा जूता साहित्य के भव्य महलों पर तमाचा है।”2 आजकल जिस तरह से साहित्य की दुनिया में अक्सर दिखावे और आडंबर का बोलबाला हो गया है, वहां प्रेमचंद जैसे लेखक ने सादगी से काम लिया और यथार्थ का साथ नहीं छोड़ा। प्रेमचंद की आर्थिक स्थिति ने उन्हें हमेशा नैतिक बल प्रदान किया और साहित्य – समाज के प्रति एक संवेदना दृष्टि विकसित की, जो उनकी कहानियों का मुख्य माध्यम बनकर उभरी। प्रेमचंद के फटे हुए जूते उनके ईमानदार और सच्चे लेखक होने का प्रतीक हैं, जिसने बिना किसी स्वार्थ के समाज का यथार्थ चित्रित किया है।
प्रेमचंद ने श्रेष्ठ साहित्य के मानकों को रेखांकित करते हुए कहा था कि ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, जो इसमें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’3 प्रेमचंद ने इन आदर्शों एवं मापदंडों को प्रत्येक साहित्यकार हेतु ज़रूरी माना और स्वयं भी इन मानदंडों का अनुपालन किया तथा उन्हीं आदर्शों को ध्यान में रखते हुए अपने कालजयी कृतियों की रचना की। उनकी रचनाएँ जीवन की सच्चाइयों से इतनी भरी हुई थीं कि शायद ही कोई पहलू अछूता रहा हो। उन्होंने उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से ग्रामीण जीवन के साथ-साथ शहरी जीवन की दुर्दशा का भी सजीव चित्रण किया है। ‘पूस की रात’ कहानी का पात्र ‘हल्कू’ अपनी पत्नी से कंबल खरीदने की इच्छा व्यक्त करता है और जैसे ही उसे साहूकार का कर्ज़ चुकाने की बात याद आती है, तो सारे सपने चूर-चूर हो जाते हैं।
‘गोदान’ की बात करें तो प्रेमचंद जी ने इसमें सामंतवादी व्यवस्था में जकड़े हुए ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण किया है और यह बताने की कोशिश की है कि समाज की कुछ विशेष प्रकार की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाएं होती है जिनकी लापरवाही से ही शोषण का जन्म होता है।
उन्होंने समाज में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों एवं बाह्य आडंबरों पर भी प्रहार करते हुए उन्हें दूर करने का प्रयास किया। उनकी रचनाएँ सिर्फ मनोरंजन के लक्ष्य से नहीं लिखी गई थीं बल्कि वे अपनी कृतियों के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों पर भी चोट करते थे। ‘सद्गति’ एवं ‘सवा सेर गेहूँ’ कहानियों के माध्यम से उन्होंने बताया कि किस प्रकार लोग वर्तमान जीवन की चिंता छोड़कर परलोक के चक्कर में फँस कर प्राण तक गवाँ देते हैं।
‘सेवासदन’ प्रेमचंद जी का पहला उपन्यास है जिसमें उन्होंने वेश्याओं की समस्या को प्रमुखता से उठाया है। वेश्यावृत्ति जैसी समस्या हेतु उन्होंने पुरुषों की अधम प्रवृत्ति को ही ज़िम्मेदार ठहराया है। प्रेमचंद जी कहते है कि ‘‘हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएँ, हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएँ हैं, जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया है।’’4
प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को एक आदर्श रूप देने की भी कोशिश की। उन्होंने भारतीय नारी के आदर्श स्वरूप का भी वर्णन किया है। इसकी झलक हमें गोदान की ‘धनिया’ और ‘बड़े घर की बेटी’ में देखने को मिलती है। गोदान की ‘धनिया’ जीवन भर दुख झेलती रही परंतु अपने मान-सम्मान से कभी समझौता नहीं किया। आवश्यकता पड़ने पर आदर्श पत्नी की तरह वह हमेशा ‘होरी’ के साथ खड़ी रही।
प्रेमचंद जी ने समाज में व्याप्त छूआ-छूत, भेदभाव एवं ऊँच-नीच जैसी कुरीतियों का भी गंभीरता से चित्रण किया। समाज में व्याप्त बिखराव से उन्हें बहुत कष्ट होता था। उन्होंने इसे कर्मभूमि, ठाकुर का कुआँ, ‘सदगति’ आदि कहानियों में बहुत बारीकी से उकेरा है। मुंशी प्रेमचंद ने हमेशा मनुष्य के अंदर छिपे देवत्व को उभारने की कोशिश की, जिसे बड़े घर की बेटी एवं पंच परमेश्वर कहानियों में आसानी से देखा जा सकता है।
प्रेमचंद जी की कहानी एवं उपन्यास के समानांतर निबंध भी लिखें जिसमें उन्होंने साहित्य के असली उद्देश्य से परिचय कराते हुए ‘साहित्य का उद्देश्य’ नामक कृति में लिखा,‘‘हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी।’’5 इस निबंध में प्रेमचंद जी ने सौंदर्य की परिभाषा को एक नई दृष्टिकोण के साथ विकसित किया। अक्सर समाज में सौंदर्य के पैमाने व्यक्ति की अमीरी, धन दौलत और वैभव से आंके जाते हैं जबकि मुंशी प्रेमचंद जी ने एक नए दृष्टिकोण से परिचय कराते हुए बताया कि साहित्य तो है ही जीवन की अभिव्यक्ति और साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा जीवन की आलोचना है।
प्रेमचंद साहित्य को राजनीति का भी पथ-प्रदर्शक मानते हैं। उन्होंने साहित्यकार के महान उत्तरदायित्व को समझते हुए यथासंभव उसका निर्वहन किया। प्रेमचंद की भाषा और शैली की यदि बात करें तो भाषा सरल, सहज और जन-जन की समझ में आने वाली है । उन्होंने खड़ी बोली हिंदी को साहित्य की प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित किया और उर्दू में भी श्रेष्ठ लेखन किया।
निष्कर्ष : इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मुंशी प्रेमचंद वास्तव में एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे, जिनकी लेखनी में समाज, संवेदना, संघर्ष और सुधार का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। उन्होंने न केवल साहित्य को नई दिशा दी, बल्कि समाज को जागरूक और संवेदनशील बनाने का कार्य भी किया। उनके साहित्य में भारतीय जनजीवन की सच्ची झलक मिलती है और इसीलिए वे आज भी हमारे बीच जीवित हैं। प्रेमचंद केवल साहित्यकार ही नहीं बल्कि सामाजिक समस्याओं के चिंतक भी थे। उनकी इस प्रवृत्ति की झलक उनके साहित्य में स्पष्ट है। आज समाज को अपने उत्थान के लिए प्रेमचंद जैसे सामाजिक चिंतकों की बेहद ज़रूरत है जो समाज को सही आईना दिखा सके और उसे प्रगति की ओर मोड सके।
संदर्भ संकेत:
- प्रेमचंद के फटे जूते : व्यंग्य हरिशंकर परसाई, पृष्ठ: भूमिका, पेपरबैक, भारतीय ज्ञानपीठ, संस्करण वर्ष : 2024
- उपर्युक्त
- प्रेमचंद के श्रेष्ठ निबंध : संपादक सत्य प्रकाश मिश्र, लोक भारती प्रकाशन, संस्करण : 2015
- मुंशी प्रेमचंद : सेवा सदन, डायमंड पैकेट बुक्स
- प्रेमचंद के श्रेष्ठ निबंध : संपादक सत्य प्रकाश मिश्र, लोक भारती प्रकाशन, संस्करण : 201
- उपर्युक्त





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