शोध सार :

भारतीय समाज और संस्कृति में बुजुर्गों को सदा ही सम्मान का स्थान दिया जाता था। परन्तु आज आधुनिकीकरण के प्रभाव से परिवार में वृद्ध की अहमियत कम होती गई है। एकल परिवार के कारण आज परिवार में वृद्ध उपेक्षित होने लगे हैं। वृद्ध जीवन तथा उनके जीवन की समस्या आज एक महत्वपूर्ण विषय बनकर उभरी है। ममता सिंह अपनी कहानी ‘राग मारवा’ में वृद्ध जीवन की समस्या को नए रूप में प्रस्तुत करती हैं। कुसुम जिज्जी परिवार के लिए पैसा कमाती है। फिर भी वह परिवार में उपेक्षित है। परिवार में उनके लिए कोई स्थान नहीं है। कमरे के कोने में रखे हुए ग्रामोफोन से अधिक महत्त्व जिज्जी का नहीं है। जब मन किया उपयोग में लिया, फिर कमरे के कोने में रख दिया। कुसुम जिज्जी का जीवन और olx में बेचीं जा रही पुरानी चीजें एक समान प्रतीत होती है। यदि कोई खरीदने वाला मिल जाता तो कुसुम जिज्जी के बेटे और बहू पुरानी चीजों की तरह जिज्जी को भी बेचकर पैसा कमाते। परिवार में कुसुम जिज्जी ही कमाती है। परन्तु कुसुम जिज्जी के लिए परिवार के पास पैसा नहीं है। जब वह बीमार पड़ती है, उनके इलाज के लिए बहू-बेटे के पास पैसा नहीं है। वह बीमारी से असह्य वेदना से कराह रही थी, परन्तु दीदी की देखभाल करने के स्थान पर बहू और बेटे सिनेमा देखने के लिए जाते हैं। जिज्जी अपने ही बेटे-बहू के लिए समस्या बन गई है। प्रस्तुत कहानी के माध्यम से कहानीकार ममता सिंह ने वृद्ध जीवन के यथार्थ का सजीव वर्णन किया है।

बीज शब्द : वृद्ध जीवन, समाज, संस्कृति, आधुनिकीकरण, एकल परिवार, आधुनिकता

प्रस्तावना :

भारतीय समाज तथा संस्कृति में बुजुर्गो को सदा ही श्रद्धा और सम्मान से देखा जाता था। परन्तु बदलते हुए समय और आधुनिकता के प्रभाव से आज लोग वस्तुवादी होते जा रहे हैं। जिससे लोगों के मन से श्रद्धा, प्रेम, मानवता आदि भावनाएँ लुप्त हो गई है। जिसका गहरा प्रभाव समाज तथा जीवन में देखने मिला है। “वृद्धावस्था एक स्वाभाविक और प्राकृतिक अवस्था है, जो धीरे धीरे अपनी मंजिल की ओर बढ़ती है। वृद्ध का शाब्दिक अर्थ है – पका हुआ, परिपक्व। हमारी संस्कृति में भरे पूरे परिवार और घर में बुजुर्गों की बड़ी अहमियत है। आधुनिकीकरण से सबसे ज्यादा हानि पारिवारिक जीवन को हुई। आधुनिकीकरण की अंधी दौड़ में आहिस्ता-आहिस्ता सामूहिक परिवार बिखरने लगा और उसकी जगह एकल परिवार ने ली। एकल परिवार के चलते परिवार में किसी समय श्रद्धा का स्थान रखनेवाले बुजुर्ग उपेक्षित होने लगे। मनुष्य विकास के पथ पर जैसे-जैसे अग्रसित होता गया परिवार से दूर होता गया और घर के बुजुर्ग का स्थान घर के केंद्र से निकलकर घर के कोने और फिर कब घर के बाहर होता गया पता ही न चला। इसी के चलते समाज और परिवार में होते इस बदलाव का चित्रण साहित्य में देखने को मिलता है।”1

साहित्य जीवन की अभिव्यक्ति है। साहित्य में साहित्यकार अपने समय के समाज तथा जीवन को ही अभिव्यक्ति प्रदान करता है। जिस कारण से वृद्ध जीवन का चित्रण भी साहित्य में हुआ है। “साहित्य में प्राचीन काल से ही वृद्धों के जीवन के बारे में चर्चा की गई है। आधुनिक काल के साहित्य में वृद्धों के सामाजिक जीवन के बदलते परिवेश का सटीक वर्णन देखने को मिलता है। जो इंसान उम्र भर अपने परिवार के लिए मेहनत करता है, अपने बच्चों को पढ़ाता-लिखाता है। जीवन के आखिरी पड़ाव पर जब उसे परिवार की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है तब उसे अनुपयोगी मानकर अवहेलना की जाती है। यह पीड़ा उसे मृत्यु समान लगती है।”2 जब माता-पिता को वृद्धावस्था में अपनी संतानों की ज्यादा जरूरत होती है, उस समय उनकी अवहेलना की जाती है। उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ दिया जाता है या घर से बाहर निकाल दिया जाता है। यह आज भौतिकवादी समाज की सच्चाई बनती जा रही है। उन्हें अपने वृद्ध माता-पिता से अधिक प्रिय भौतिक सुख-सुविधाएं लगने लगी हैं। अपनी संतानों द्वारा की गई अवहेलना माता-पिता के लिए असहनीय बन जाती है। अब पुत्र के घर – परिवार में माता-पिता के लिए कोई स्थान नहीं है। उनके रहने लिए कोई जगह नहीं बची है। माता-पिता अपनी संतानों की सुख-सुविधाओं के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर देते हैं। जबकि उन्हीं संतानों के जीवन में वृद्ध माता – पिता लिए कोई स्थान नहीं रहता है। आधुनिक हिंदी साहित्य में वृद्ध जीवन का यथार्थ और जीवंत चित्रण हुआ है।

“जिस भारतवर्ष का अतीत स्वर्णिम है तथा जहाँ की संस्कृति में ‘मातृदेवो भवः पितृदेवो भवः’ जैसी अवधारणा सर्वोपरि रही है, उस भारतवर्ष में आज बुजुर्गों की दयनीय एवं असम्मानीय स्थिति हो गयी है, जो आज की युवा पीढ़ी के लिए चिंतनीय एवं विचारणीय विषय है।”3

मूल विषय :

ममता सिंह आधुनिक हिंदी साहित्य का एक उभरती हुई कहानीकार है। ममता कालिया ममता सिंह के बारे में कहती हैं कि – ममता सिंह हिंदी कहानी की युवा आवाज हैं। हिंदी साहित्य के वरिष्ठ लेखक धीरेन्द्र अस्थाना ममता सिंह के बारे में लिखते हैं कि –“कहानी की दुनिया में जो नई जमात सक्रिय है उनमें ममता सिंह एक नया उभरता चेहरा है। वह आमतौर पर लंबी कहानियाँ लिखती हैं और उनकी लेखन प्रक्रिया का मूल तत्व वर्तमान से अतीत में चले जाना और अतीत से भविष्य में छलांग लगा देना जैसा है। ….. ममता का मूलकथा स्वर संबंधों का राग-विराग, यादों की दुनिया में आवाजाही और पुराने मूल्यों के साथ सतत् टकराव में निहित है। उनके पात्र नए समय में खड़े हैं मगर वह पुराने समय की नैतिकताओं, मान्यताओं के साथ निरंतर मुठभेड़ में हैं। इस मुठभेड़ में जब वे टूटने को होते हैं तो पलायन के तौर पर अतीत की मोहक गलियों में सड़क जाते हैं।”4

उन्होंने अपनी कहानियों में तत्कालीन समाज तथा संस्कृति को रूप प्रदान किया है। उनकी कहानियों में वर्तमान समाज की कोई समस्या अछुती नहीं है। पारिवारिक विघटन, स्त्री जीवन, वर्ण-भेद, कामकाजी स्त्री के जीवन की समस्या, वृद्ध जीवन का वर्णन उनकी कहानियों में हुआ है। उनकी कहानी ‘राग मारवा’ अपनी संतानों द्वारा अवहेलित, शोषित वृद्ध जीवन की गाथा है। प्रस्तुत कहानी में कहानीकार ने अपने पुत्र और बहू द्वारा उपेक्षित तथा शोषित कुसुम जिज्जी की जीवन गाथा को रूप प्रदान किया है। घर में कुसुम जिज्जी ही कमाती है। वही परिवार को पाल रही है। फिर भी परिवार में वह उपेक्षित है। घर में किसी के भी पास जिज्जी के लिए समय नहीं है। सब अपने आप में व्यस्त है। अपनी ख़ुशी में खुश है। जिसके कारण घर में ख़ुशी आती है, उसके लिए न पुत्र के पास समय है, न बहू के पास। वे सभी अपने आपको लेकर खुश है। परिवार में कुसुम जिज्जी का कोई महत्त्व नहीं है। वह परिवार के लोगों के लिए केवल पैसा कमाने की मशीन है। जब तक कोई संगीत का कार्यक्रम नहीं होता है, बेटा-बहू उनकी खोज-खबर तक नहीं लेते है। बीमार होने पर भी बेटा–बहू उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते हैं। कुसुम जिज्जी के बीमार पड़ने पर कोई देखने के लिए भी नहीं जाता है। जैसे तैसे बोझ की तरह बहू पारुल दो वक्त रोटी देकर जाती थी। अपनी सास ने दवा ली या नहीं, देखते भी नहीं थे। वह अपने बेटे बहू से प्यार के एक शब्द सुनने के लिए तरस गई है। “पिछली बार जब मैं बीमार होकर बिस्तर पर थी, झूठ-मूठ को भी कोई मेरे पास नहीं फटकता था, जैसे-तैसे बोझ की तरह पारुल दो वक्त खाना पटक जाती थी, वो खाना मैंने खाया या नहीं, ये देखते भी नहीं थी… और मैं अपना काँपता हाथ तकिये के नीचे ले जाकर टटोलती थी, दवा का पत्ता ढूंढती थी और दवा निगल लेती थी।”5 जिज्जी अपने परिवार के लिए केवल बोझ बन गई थी। बीमार माँ को देखने के लिए भी उनके पास समय नहीं था। वह परिवार के लिए पैसा कमाने की मशीन मात्र थी। वह अपने परिवार से एक मीठी आवाज सुनने के लिए तरस गई है। वह चाहती है कि उनका बेटा उनसे कहे कि माँ तुम अब आराम करो, तुम्हें अपने लिए कुछ चाहिए तो नहीं। परन्तु वह तो इस परिवार का ए.टी.एम. है। वे बस कुसुम जिज्जी से पैसा निकालना चाहते हैं।  परिवार में जिज्जी का महत्व एक ए.टी.एम. मशीन के समान है। “मेरे कान तरस गये, इस वाक्य के लिए –‘माँ बस करो, तुम अब आराम करो, तुम्हें कुछ चाहिए तो नहीं।’ लेकिन कहाँ … इस घर के लिए तो मैं सिर्फ ए.टी.एम. मशीन हूँ।”6

आज बेटा अपने माता-पिता को बोझ समझने लगा है। कुसुम जिज्जी ही परिवार में कमाती है। वह अपनी कमाई से परिवार को पाल रही है। फिर भी वह अपने परिवार से एक मीठी आवाज के लिए तरस जाती है। बहू मीठी आवाज में केवल संगीत के प्रोग्राम होने से उनको मनाने के लिए बातें करती है। अन्यथा वह ज़िंदा है या मर गई देखने के लिए भी फुर्सत नहीं है। वे अपने आप में ही व्यस्त है। उनके जीवन में माँ से अधिक महत्त्व वस्तुओं का है। वे अधिक वस्तुवादी बन गए हैं।

कुसुम जिज्जी अपनी बहू पारुल को अपने जीवन, अपनी स्मृतियों के बारे में बताना चाहती है। वह चाहती है कि उनकी यादों की बूंदों में परिवार के लोग भी भीगे, परन्तु परिवार के लोगों के पास उनके लिए समय ही नहीं है। पारुल अपनी सास के साथ परछाई की तरह रहती है, परन्तु जब तक सास से उनको फ़ायदा हो। पारुल अपनी सास की यादों को भी अपना लेती यदि उनसे पारुल को फ़ायदा होती। “खासतौर पर वो पारुल को बहुत कुछ बताना चाहती हैं, क्योंकि पारुल उनके साथ परछाई की तरह रहती है। लेकिन पारुल के तो अपने ही जोड़-घटाव हैं। कुसम जिज्जी के करीब बस उतना ही रहना चाहती है, जब तक उसे फायदा पहुँचता रहे। पारुल का बस चले तो कुसुम जिज्जी की यादों के सिक्कों को या तो बाजार में भुनाए या फिर फिक्स डिपाजिट करके दोगुना होने तक इंतज़ार करे।”7

कुसुम जिज्जी अपने परिवार के साथ रहकर भी अकेली है। परिवार में बेटा, बहू, पोता सब हैं। फिर भी वह अकेली है। उनके जीवन में सब अदृश्य हैं। वह अपने आपको पहाड़ी किले के मंदिर के समान मानती है, जहाँ कोई भूला-भटका ही फूल चढ़ाने के लिए जाता है। “आवाज में कशिश तब आती है, जब दिल में ख़ुशी की धूप खिली हो … लेकिन मेरी दुनिया में तो हमेशा ही बदली छायी रही, इतना गहन अंधेरा है कि किसी का चेहरा पहचान में नहीं आता। बहू, बेटे, पोते सब अदृश्य हैं। उम्र के इस पड़ाव में इतनी अकेली हूँ जैसे पहाड़ी किले में कोई मंदिर।”8

            कुसुम जिज्जी अपने परिवार के साथ उनके रिश्ते के बारे में सोचती है – “दर्द जैसे छाले में बदल गया… तन्हा मन उदासी के उस जंगल में चला गया, जहाँ कोई ऐसा पौधा नहीं जिसमें हरापन हो…. शुष्क बेजान….ठूँठ पेड़ों में मैं खोज रही हूँ रिश्तों की बीर-बहूटी। जब यहाँ मिटटी ही नहीं है, सिर्फ कंकड़-पत्थर वाली बंजर धरती है, तो बीज कैसे रोपे जाएँगे….कहाँ से जड़ पकड़ेगी …. ये घर तो दूर तक फैला निर्जन मरुस्थल है, जिसमें सिर्फ रेट के टीले हैं, जो भर भराकर कब से गिर चुके हैं। मुझे पता है फिर भी मैं झूठी उम्मीद में जी रही हूँ। इस घर में मेरी अहमियत सिर्फ एक ग्रामोफोन जितनी है, जब चाहा बजा लिया, फिर एक कोने में रख दिया।”9 कुसुम जिज्जी को पता है बेटे-बहू के सामने उनकी अहमियत एक ग्रामोफोन से अधिक नहीं है। जब तक उनसे फ़ायदा है, तभी उन्हें मीठी-मीठी बातें सुनने को मिलती है। अन्यथा एक ग्रामोफोन की भांति जिज्जी को किनारा कर दिया जाता है। वह उस परिवार में अपने संबंधों को जीवित रखना चाहती है जहाँ प्रेम रूपी मिट्टी है ही नहीं। उनके घर में केवल मरूस्थल की भांति रेट हैं। वह अपने परिवार की बंजर धरती में प्रेम के रिश्ते को पुनः संजो कर रखना चाहती है। वह रेट के किले को घर में परिवर्तित करना चाहती है। उसे पता है कि वह केवल झूठी उम्मीद कर रही है, फिर भी अपने घर को घर बनाने का प्रयास करती है। वह उस परिवार के लिए मेहनत कर रही है, जहाँ उसका स्थान कमरे के कोने में रखे ग्रामोफोन से अधिक नहीं है।

            कुसुम जिज्जी के बहू बेटे उन्हें बोझ की तरह देखते हैं। वह अपने परिवार के लिए सिर्फ पैसा कमाने का जरिया है। परिवार में जिज्जी की स्थिति यह है कि यदि वह पैसा कमाना बंद कर दे, तो उनके बहू-बेटे उन्हें घर से निकाल फेकेंगे। उन्हें अपनी माँ की पीड़ा दिखाई नहीं देती है। यहाँ तक कि जिज्जी की रोजमर्रा की जरूरत भी वे अनदेखी करते हैं। बस उन्हें जिज्जी के पैसों से मतलब है। वह किस तरह जी रही है, देखने के लिए किसी के पास समय नहीं है। उन्हीं के घर में उनके लिए रहने के लिए जगह नहीं है। वह गाना गा रही है, जिस कारण से उस घर में उनके लिए जगह है। गाना छोड़ देगी तो उन्हें घर से निकाल फेकेंगे। “मैं अपने ही कोख जने बेटे और बहू पर बोझ बन गई हूँ। ये मेरी लाचारी का फ़ायदा उठाते हैं। मेरे दुख, मेरी पीड़ा उन्हें दिखायी नहीं देती। इन लोगों को मुझसे सिर्फ पैसों का सरोकार है। शायद जिस दिन पैसों का जरिया न रहूँ, उस दिन ये लोग मुझे निकाल फेकेंगे घर से। इस घर में मेरी रोजमर्रा की जरूरतें तक नहीं पूरी की जाती। चश्मे की डंडी टूटी है। कई दिनों से एक हाथ से डंडी पकड़कर काम चला रही हूँ। मैं इनके लिए भला क्यों गाऊँ। अब मैं नहीं गाऊँगी। …… आप गाएगी नहीं तो आपके पोते की पढ़ाई का खर्च कहाँ से आएगा, हमारे लिए ना सही, उसके लिए तो गाइये। मैं इनके दिए दुखों से रोज तार-तार होती हूँ।”10

जब कुसुम जिज्जी को किसी कार्यक्रम में गाने के लिए जाना है, पारुल जिज्जी की सेवा करने में कोई कमी नहीं छोड़ती है। वह प्रोग्राम ख़त्म होने तक जिज्जी की देखभाल में व्यस्त रहती है। प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद पारुल जिज्जी की देखभाल तो दूर की बात, याद भी नहीं करती है। वह घर में रद्दी की टोकरी में पड़े सामान की तरह घर में पड़ी रहती है। जिज्जी को दवाई लेनी है, लेकिन पारुल खाना दे, भूख शांत होने के बाद दवाई खाए। लेकिन पारुल के पास जिज्जी को खाना देने के लिए भी समय नहीं है। वह अपनी ख़ुशी में ही मस्त है। जबकि घर में ख़ुशी जिज्जी की मेहनत और कष्ट से आयी है। “जब किसी कंसर्ट की तारीख तय होती है तो दुल्हन कैसे दौड़ दौड़कर मेरी सेवा करती है। कुसुम जिज्जी मन ही मन बुदबुदाई … उसे तो मिल गया है नया घर। अब फिलहाल मेरी जरूरत नहीं है। प्रोग्राम ख़त्म तो कुसुम जिज्जी की देखभाल ख़त्म। रद्दी की टोकरी में पड़े बेकार सामान की तरह मैं घर के एक कोने में पड़ी रहती हूँ। बिना सहारे के वाशरूम नहीं जा सकती हूँ….पारुल को ये बात अच्छी तरह पता है…लेकिन वो अपनी खुशियों में मस्त है, उसे तमाशे और नाच के सिवा कुछ नहीं दिखायी दे रहा। मस्त रहे मस्ती में, आग लगे बस्ती में।”11

कुसुम जिज्जी अपनी बीमारी से परेशान है। वह भूख से पीड़ित है। परन्तु उसे खाना देने के लिए बहू के पास समय नहीं है। जिज्जी को वाशरूम जाना है, परन्तु बिना सहारे के वह जा नहीं सकती। यह जानते हुए भी पारुल उन्हें वाशरूम ले जाने के लिए नहीं आती है। वह नए घर की ख़ुशी में जिज्जी को याद नहीं करती है। गृहप्रवेश की पार्टी में भी जिज्जी को हर रोज की तरह सबसे अंत में खाना मिलेगा। परिवार के सब लोग मस्ती करने में व्यस्त है। किसी को जिज्जी की याद नहीं है। नया प्रोग्राम न मिलने तक उन्हें जिज्जी की याद नहीं आती है। नया प्रोग्राम मिलते ही पारुल जिज्जी के पास आती है। पारुल को आता देखकर जिज्जी मन में सोचती है – “हुँह पारुल को अब सुधि आई है मेरी। लगता है फिर किसी कार्यक्रम का जुगाड़ कर आई है …. उसका चेहरा देखकर ही मैं भाँप लेती हूँ कि इस बार मुझसे उसे कितना फ़ायदा पहुँचने वाला है। पारुल तानपुरे के एक-एक तार को बेचेगी और एक-एक तार के नोट वसूल करेगी।”12

परिवार में कुसुम जिज्जी ही कमाती है। परन्तु कुसुम जिज्जी के लिए परिवार के पास पैसा नहीं है। जब वह बीमार पड़ती है, उनके इलाज के लिए बहू-बेटे के पास पैसा नहीं है। वह बीमारी से असह्य वेदना से कराह रही थी, परन्तु दीदी की देखभाल करने के स्थान पर बहू और बेटे सिनेमा देखने के लिए जाते हैं। जिज्जी अपने ही बेटे-बहू के लिए समस्या बन गई है। पोते ने जिद की थी कि वह दादी के साथ रहेगा, परन्तु पारुल यह कहकर बेटे को भी साथ ले गई कि अब जिज्जी छोटी बच्ची नहीं है, वह अपनी देखभाल कर सकती है। कुसुम जिज्जी का जीवन और olx के विज्ञापन का कथन एक समान प्रतीत होता है। यदि कोई खरीदने वाला मिल जाता तो कुसुम जिज्जी के बेटे और बहू पुरानी चीजों की तरह जिज्जी को भी बेचकर पैसा कमाते। “कमरे में रखे रेडियो पर कोई FM चैनल बज रहा है … पुरानी चीजों को मत फेंकिए …. olx पर बेचिए। कुसुम जिज्जी की कराह और ये विज्ञापन दोनों आपस में घुल-मिल गये हैं।”13

निष्कर्ष : ममता सिंह आधुनिक हिंदी साहित्य की एक उभरती कहानीकार हैं। उन्होंनें अपनी कहानियों में समाज के विविध पहलुओं का जीवंत तथा यथार्थ वर्णन किया है। स्त्री जीवन से लेकर वृद्ध जीवन भी उनकी कहानियों की कथा का आधार है। उनकी कहानी ‘राग मारवा’ आधुनिकीकरण के प्रभाव से परिवार में उपेक्षित वृद्धों की गाथा है। भारतीय परिवार में सदा ही बुजुर्गों का महत्वपूर्ण स्थान था। परन्तु आज आधुनिकीकरण के वस्तुवादी दृष्टिकोण ने बुजुगों को उपेक्षित कर दिया है। आज माता-पिता बच्चों के लिए बोझ बन गए हैं। कुसुम जिज्जी भी अपने परिवार के लिए बोझ बन गयी है। जिज्जी की स्थिति दूसरे बुजुर्गों से भिन्न है। परिवार में जिज्जी ही कमाती है, फिर भी जिज्जी की रोजमर्रा की जरूरतों को भी बेटे और बहू पूरा नहीं करते हैं। चश्मे की डंडी टूट जाने के कारण जिज्जी एक हाथ से पकड़कर चश्मा पहनती है। फिर भी नये चश्मे के लिए पैसा नहीं है। यदि कोई खरीदने वाला मिल जाता तो कुसुम जिज्जी के बेटे और बहू पुरानी चीजों की तरह जिज्जी को भी बेचकर पैसा कमाते। ममता सिंह ने अपनी कहानी ‘राग मारवा’ में वृद्ध जीवन की समस्या का यथार्थ चित्रण किया है।

सन्दर्भ सूची :

  1. हिंदी कथा साहित्य में वृद्ध विमर्श, सं – डॉ. दिलीप मेहरा, उत्कर्ष पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स- कानपुर, संस्करण : प्रथम संस्करण : 2021, पृष्ठ – 51
  2. वही, पृष्ठ – 52
  3. प्रेमचंद्र के कथा साहित्य में वृद्ध विमर्श, मेधा भारती, Explore- Journal of Research, Vol. X, 2018, पृष्ठ – 78
  4. राग मारवा (भूमिका), ममता सिंह, राजपाल एंड सन्ज, प्रथम संस्करण – 2018, पृष्ठ – 5
  5. राग मारवा, ममता सिंह, राजपाल एंड सन्ज, प्रथम संस्करण – 2018, पृष्ठ – 13
  6. वही, पृष्ठ – 13
  7. वही, पृष्ठ – 12
  8. वही, पृष्ठ – 13
  9. वही, पृष्ठ – 16
  10. वही, पृष्ठ – 16
  11. वही, पृष्ठ – 18
  12. वही, पृष्ठ – 21
  13. वही, पृष्ठ – 23

दिगंत बोरा
सहायक प्राध्यापक(हिंदी)
जे.डी.एस.जी. महाविद्यालय
बोकाखात, असम