“जिन वृक्षों की जड़ें गहरी होती हैं, उन्हें बार-बार सींचने की जरूरत नहीं होती।”

                                                                                                                                                      कर्मभूमि

हिन्दी साहित्य जगत का अरूणिम आकाश बगैर‌ धनपतराय श्रीवास्तव की सुनहरी आभा के अधुरा है। प्रॆमचन्द ने भारतीय समाज और उससे जुड़े‌ हर प्रकार के मानवीय तथ्यों और समाजिक कुरीतियों को मन को छू लेने वाले शब्दों के मोती से पिरोया है जो कभी भी धूमिल नहीं हो सकता है। वर्ष 1880 में उत्तर प्रदेश के बनारस के लमही ग्राम में जनमे प्रेमचन्द‌ पेशे से‌ अध्यापक, उपन्यासकार, लेखक और गहन विचारक थे.प्रेमचन्द को बचपन से ही उर्दू उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था उनकी इस साहित्यीक लगन ने उन्हें उर्दू का प्रतिष्ठित  उपन्यासकार बनाया। इनकॆ पिता जी का नाम अजायब राय था जो डाकखाने में एक मामूली से‌ नौकर थे  माता जी का निधन अल्पआयु में हो गया था। इनका‌ जीवन अत्यंत गरीब और अभाव से भरा हुआ था। पर इन सब कारणो के बाद भी पढ़ने की रूचि पर कोई असर नहीं पड़ा। प्रेमचन्द की लेखनी ने मानव तानो-बानो, समाजिक कुरीतियों और भावो को सजीव रुप प्रदान किया है।‌‌‌ एक महान लेखक और उपन्यासकार  होने के साथ साथ सीधे सादे व सरल स्वभाव के मानव थे। इन्हें गरीबों से बहुत ही सहानुभूति और लगाव था। प्रेमचन्द ने ना केवल रूढ़िवादी  विचारों का विरोध किया अपितु स्वयं उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने एक विधवा‌ शिवरानी से विवाह किया जो उस समय का अप्रतिम एव अद्भुत समाजिक काम था।

डेढ़ दर्जन उपन्यास और तीन सौ से अधिक कहानियाँ उपन्यास सम्राट ने भारतीय आधुनिक युग में लिखी। गरीबी, छुआछूत, आथिर्क असमानता, दहेज प्रथा, आधुनिकता जैसे ज्वलंत विषयों को अपने लेखन का आधार बनाकर सम्पूर्ण भारतीय समाज को चुनौती दे डाली थी। प्रेमचन्द का साहित्य उनके बचपन का दर्पण है सौतेली माँ का बर्ताव, बेमेल बाल-विवाह, भूमिहीन किसानों और पोस्ट आफिस के बाबूओं का अभाव भरा जीवन प्रेमचन्द के व्यक्तिगत अनुभवों का हृदयस्पर्शी प्रस्तुतिकरण है। ‌उनकी जीवंत रचनाएँ जैसे ईदगाह (1933) कफन (1936) और बड़े भाईसाहब (1910) ने उन्हें अनन्त काल तक के लिए  अमर कर दिया है। यद्यपि इनका जीवन‌ कोई सुखमय नहीं था फिर भी अभावों ने इन्हें  अपने अद्वितीय लेखन से दूर नहीं किया। उर्दू के विख्यात समकालीन उपन्यासकारों रतन नाथ सरशार, सरुर मोलमा शार के अत्यंत प्रशंसक थे। एक दुकान पर बैठकर तिल्समे-होशरूबा पढ़ डाली।

मात्र तेरह वर्ष की आयु में ही प्रेमचन्द ने लिखना शुरू कर दिया था। पहले तो इन्होंने कुछ नाटक लिखे उसके बाद उर्दू मे रचनाओं को रूप देना आरम्भ कर दिया जो जीवन पर्यन्त रहा। होनहार बिरवान‌ के होत चिकने-चिकने पात नामक नाटक इन्होंने 1894 मे लिखा उसके बाद ऐतिहासिक उपन्यास रूठी रानी 1898 में रचित किया। प्रेमचन्द नवाबराय के नाम लिखते थे। भारतीय समाज में विधवाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय और भयानक थी प्रेमचन्द ने बखूबी उसे अपनी रचनाओं में दर्शाया जिनमें प्रमुख 1902 में लिखी गई प्रेमा‌ तथा 1904-1905 में हम खुर्मा व हम सवाब ने हृदय को झकझोरने वाली विधवाओं की मार्मिक स्थिति को प्रस्तुत किया है। गोदान 1936 की प्रेमचन्द की सबसे प्रसिद्ध रचना है। गोदान ने प्रेमचन्द की प्रतिभा को एक अलग तरीके से अलंकृत कर दिया। नमक का दरोगा, बुढी काकी, पूस की रात, ठाकुर का कुआँ व कफ़न समय को जीतने वाली अनोखी रचनाएँ है।

उपन्यास सम्राट का अपना जीवन बहुत संघर्ष और दुखो से भरा हुआ था पहले बचपन मे माता जी का निधन होना, पिता द्वारा दुसरा विवाह करना ऊपर से पहली पत्नी का जबान से भली न‌ होना। इन सबके बावजूद प्रेमचन्द ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा को कम होने नहीं दिया। प्रेमचन्द गाधीं जी के महान प्रशंसक थे उनके आहवान पर‌ इन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। शुरू में प्रेमचन्द नवाब राय के नाम से लिखते थे पर 1905 मे इन्होंने कहानियों की रचना की जिससे अग्रेंज अफसरों को इन पर सन्देह हो गया और पकड़े जाने पर इन्होंने अपना नाम त्याग दिया और दया नारायण निगम के सुझाव पर प्रेमचन्द नाम अपना लिया।इस नाम ने उन्हें  साहित्य मे नयी सफलता प्राप्त की। प्रेमचन्द ने अनेकों उल्लेखनीय अनुवाद‌ किये जिसमें—आजाद कथा, रतन नाथ धर सरशार के फसाना-ए-आजाद; चांदी की डिबिया,जान गाल्सवर्दी के द सिल्वर बाहर;  अहंकर, अनातोल फ्रांस के नावेल दइस का अनुवाद और टालस्यटाय की कहानियाँ महत्वपूर्ण हैं। लेखन के शुरआत में टैगोर की कुछ कहानियों का भी अनुवाद किया। प्रेमचन्द की रचनाएँ समाज की कड़वी सच्चाई‌ का दर्पण है। प्रेमचन्द ने मनुष्यों के साथ ही साथ मुक प्राणियों के दुख को भी उकेरा है। दो बैल की कथा और कुत्ते की कहानी पशुओं के प्रति संवेदनहींनता और दयाविहीन मानवीय सोच को दर्शाता है जिन्हें सिर्फ नफरत और बेकार समझा जाता था।

प्रेमचन्द के समय गरीबी मुँह खोले गरीबों पर हँसती थी। स्वंय प्रेमचन्द इसके शिकार थे इनके पिता के सरकारी नौकरी मे होने के बावजूद परिवार मे घोर आर्थिक तंगी थी। अपनी सबसे श्रेष्ठ रचना ‘गोदान’ मे प्रेमचन्द ने इस विभीषिका का बड़े हृदयस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया है।

‘हमें कोई दोनों जून खाने को दे, तो हम आठों पहर भगवान का जाप ही करते रहें’

वर्ग भेद ने समाजिक असमानता और आर्थिक असमानता का खूब साथ दिया और साथ ही साथ अत्याचारों को जन्म दिया। भूख और गरीबी  ने असहाय और कमजोर लोगों का जीवन जीना दूभर कर दिया था। भूख और दुःख उनके जीवन के मरते दम तक के साथी  थे। सुख की कल्पना और दुखों का अभाव नहीं था।

समय से परे सोच रखने वाले प्रेमचन्द कई भाषाओं  के जानकर थे वर्ष 1904  मे प्रेमचन्द ने हिन्दी और उर्दू मे वर्नाक्यूलर  परीक्षा पास  की और अपने  खुद के प्रयत्न से फारसी, अग्रेंजी का ज्ञान  बढ़ाया। प्रेमचन्द की रचनाओं मे ब्रिटिश नौकरशाही के अत्याचारों, जमीदारों और साहूकारों की शोषित करने वाली सोच, किसानों की नर्क से बद्तर जीवन उन्हें साहित्य जगत  मे सवोर्परि बनाता है। वर्ष 1918  मे आया इनका प्रथम हिन्दी उपन्यास ‘सेवा सदन’ वेश्यावृत्ति और नैतिक मूल्यों इक के हनन को बखूबी उजागर करता है। प्रेमचन्द की 250 श्रेष्ठ कहानियाँ ‘मानसरोवर’ मे संकलित है प्रेमचन्द ने उत्तर भारतीय जीवन को बहुत विस्तृत और गहन तरीकें से चित्रित किया है जहाँ नैतिक मूल्यों और मनोवैज्ञानिक सोच और सत्य को उचित जगह मिली है।

 प्रेमचन्द  की रचनाओं मे बच्चों से लेकर  बुजुर्गों सबको अपनी ओर खींचने का आकर्षण था। पंच परमेश्वर, मंत्र, गुब्बारे‌ का चीता और  अन्य। यही उनकी लोकप्रियता का प्रमुख कारण है कि वह मानवीय स्वभाव और सोच को बड़ी गहराई से शब्दों का रूप देते हैं। हिन्दी साहित्य का यह अमर सूर्य आर्थिक अभावों के कारण समय से पहले मात्र‌‌‌ 56 की आयु मे संसार को अलविदा कह गया। इनका अपूर्ण उपन्यास मंगलसूत्र इनकी असमय मृत्यु के कारण अधुरा रह गया। महाजनी प्रवृत्ति का विरोध करते हुए ‘महाजनी सभ्यता’ नामक लेख जो महाजनो और साहूकारों के अत्याचरो का बड़ा ही मार्मिक ढ़ग से प्रस्तुत किया है। प्रेमचन्द ने अपने समय को  आने वाले युगों को एक धरोहर के रूप मे उपहार दिया है जो सदियो तक भूला नहीं जा सकता है। प्रेमचन्द की भाषा सहज, सामान्य और साधारण है जो हर किसी के समझ मे आने वाली है।

प्रेमचन्द ने इतिहास को बहुत ही रोचक और कटाक्ष‌ में प्रस्तुत किया है उनकी रचना ‘शतरंज के खिलाड़ी’ नवाब और उनके अधिकारियों के लचर और बेपरवाह स्वभाव को दर्शाती है कि कैसे इस वर्ग के लोग अपनी जिम्मेदारीयों दूर समाज के गरीब एवं असहाय लोगों का शोषण करके अपने भोग विलास और मनोरंजन मे लिप्त रहते थे उन्हें किसी समस्या से कोई मतलब नहीं था।अग्रेंजो के आगमन से भारत मे अनेकों बदलाव आए। एक वर्ग ऐसा भी था जो सिर्फ अपने तक ही सीमित था और उसे किसी के भले बुरे से कुछ मतलब नहीं था। राजा-महाराजा, जमींदार, साहुकारों और शोषित वर्ग का उदय हुआ जो सिवाय शोषण के कुछ नहीं जानते थे। रंग- विलास, शिकार और मनोरंजन मे लिप्त थे। स्वार्थो के अलावा कोई सवेंदना‌ और सहानुभूति नहीं थी।

देश का उद्धार विलासीयों द्वारा नहीं हो सकता है उसके लिए सच्चे त्याग की आवश्यकता है।

प्रेमचन्द की रचनाओं को अमूल्य धरोहर के रूप मे संजोया गया है और विभिन्न भाषाओं मे अनुवादित करके उनकी सोच और मनोभावों को जगजाहिर कर उपन्यास सम्राट को एक अप्रतिम स्थान प्राप्त हुआ है। वर्ष 1936 मे बीमार रहने लगे और आर्थिक तंगी की वजह से सही उपचार नहीं हुआ जिसके फलस्वरूप एक महान उपन्यासकार का समय के पहले ही 8 अक्टूबर 1936 को निधन हो गया। प्रेमचन्द की रचनाओं ने उन्हें सदा के हिन्दी साहित्य के आकाश पर चमकने वाला सूर्य बना दिया जिसकी किरणें सदैव चमकती रहेगीं।

हिन्दी के महान‌ कवि श्री हरिवंशराय बचचन ने प्रेमचन्द की रचनाओं से प्रभावित होकर उन्हें ‘हिन्दी साहित्य का सूरज’ कहा है।

प्रमुख शब्द:- लमही, नवाब राय, ईदगाह, अनातोल फ्रांस, जान गाल्सवर्दी, रूठी रानी, गोदान, मंत्र, म़ंगलसूत्र.

मुख्य स्त्रोत :- लेखक  डॉ रामविलास शर्मा, प्रकाशक राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, भाषा हिन्दी, एडिशन 2018

 शिवरानी देवी प्रेमचन्द, प्रकाशक आत्मा राम एंड सन्स, भाषा हिन्दी, वर्ष 2025 7 मई

द्वितीयक स्त्रोत :- https://ignca.gov.in, प्रेमचन्द की दूसरी शादी

 https://wo.nyu.edu   प्रेमचन्द जीवन, वर्ष 2024 जुलाई 31 https://www.jagranjosh.com,

मुंशी प्रेमचन्द: जीवनी, कहानियाँ, उपन्यास  वर्ष  2020  जुलाई

 https://www.hindiwi.org 

 

वर्षा श्रीवास्तव