मुंशी प्रेमचंद साहित्य जगत का ऐसा नाम है जिनकी रचनाएं समाज का दर्पण है। प्रेमचंद लेखक और मनुष्य दोनों ही रूपों में महान हैं। प्रेमचंद हिन्दी के पहले उपन्यासकार नहीं थे, फिर भी उपन्यास संबंधी सारी परिचर्चाओं के केंद्र बिंदु प्रेमचंद रहे हैं। इसलिए प्रेमचंद केवल नाम ही नहीं बल्कि एक संस्था है। उनके साहित्य के बिना हिंदी साहित्य जगत में जो कुछ बचेगा उस पर हिंदी साहित्य गर्व नहीं कर सकता। मुंशी प्रेमचंद जी हिंदी उपन्यास एवं कहानी साहित्य के शिखर पुरुष हैं । प्रेमचंद ने बीसवीं सदी के शुरू से लिखना शुरू किया और जीवनपर्यंन्त लिखते रहे। अपने छत्तीस वर्ष की साहित्यिक जीवन में उन्होंने एक दर्जन से अधिक उपन्यास तथा 300 से अधिक कहानियां लिखी।प्रेमचंद एक ऐसे कलम के सिपाही हैं जिन्होंने भारतीय समाज की समस्याओं को अपने साहित्य में सामने रखा है। जिन्हें पढ़ने से किसानों के भौतिक और आध्यात्मिक जीवन तथा हमारे देश की सामाजिक व्यवस्था का यथार्थ ज्ञान हो जाता है। उन्होंने साहित्यिक जीवन का प्रारंभ उर्दू के माध्यम से किया और उर्दू के माध्यम से ही हिंदी साहित्य में आए ।

सामान्य आदमी को विषय बनाकर उपन्यास लिखने का श्रेय प्रेमचंद को है। इसलिए वह जनता के लेखक कहे जाते हैं। भारतीय किसानों के जीवन की व्यथा, पीड़ा, त्रासदी ,विडंबना, शोषण को जिस प्रकार प्रेमचंद ने समझा है उतनी गहराई से अन्य कोई नहीं समझ सका और ना ही अपने साहित्य में उतार पाया। उनका स्पष्ट मत था कि किसान की आर्थिक मुक्ति के बिना पूर्ण स्वाधीनता के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।  मुंशी प्रेमचंद और भारतीय ग्रामीण किसान का जीवन चोली दामन का साथ दिखाई देता है। जिस प्रकार सूरदास जी अंधे होते हुए भी वात्सल्य रस का कोना-कोना झांक आए थे ठीक उसी प्रकार प्रेमचंद जी भी किसानों की समस्याओं के कोने-कोने तक पहुंच गए थे। अतः कृषक जीवन संबंधी चर्चाएं उनके अधिकतर उपन्यासों में है और गोदान में इसकी चरम परिणति है। उनके उपन्यासों में किसानों के यथार्थ जीवन का जो वर्णन मिलता है उसे पढ़कर हम आज भी उस समय की स्थिति का अंदाज़ा लगा सकते हैं ।उन्हें हिंदी साहित्य जगत में उपन्यास सम्राट के नाम से जाना जाता है ।किसानों के जीवन से संबंधित उनके निम्नलिखित उपन्यास विशेष रूप से उल्लेखनीय है :- ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’,, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’।

किसान का जीवन कृषि आधारित है। कृषि के लिए भूमि की आवश्यकता होती है। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही कृषकों की जो थोड़ी सी भूमि थी, वह भी छोटे-छोटे टुकड़ो में बंट गई। अंग्रेजी शासन काल में किसानों की स्थिति अत्यन्त दयनीय रही। यह दयनीयता जब असहनीय हो गई तभी शायद वे आन्दोलन के लिए एकत्र हुए।हिन्दी में किसान शब्द जब आता है, तो सहसा हमारे दिल और दिमाग में प्रेमचन्द की पतली और दुबली कद-काया याद आती है। प्रेमचन्द आम आदमी के लेखक हैं, उन्होंने अपनी कलम के बल पर हर उस व्यक्ति की लड़ाई लड़ी जो शोषण, सामन्तवाद, पूँजीवाद, पितृसत्तात्मक सत्ता से पीड़ित और शोषित है। कहने को भारत किसानों का देश है यहाँ की 80 प्रतिशत जनता कृषि पर निर्भर है, लेकिन सामाजिक, आर्थिक और साहित्यिक स्तर इनके पक्ष में बात करने वालों की कमी है।

देश का दुर्भाग्य यह रहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी किसान की स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया। इस स्थिति में दुष्यंत कुमार का यह शेर सही बैठता है –

कहां तो तय था चिरागां, हरेक घर के लिए।

कहां चिराग मयस्सर नहीं, एक घर के लिए।।1

प्रेमचन्द मानो भारतीय किसान के जीवन का कोना-कोना झाँक आये हैं। उनकी मुख्य चिन्ता- “किसान का शोषण है। उन्होंने किसान के शोषकों की एक कड़ी के रूप में अंग्रेजी साम्राज्यवाद को देखा। उन्होंने यह भी दिखाया है कि किसान के शोषण का कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद ही है।’

अंग्रेजी शासन के अधीन किसान जमीदारों व साहूकारों के कर्ज के नीचे दबकर किसान से मजदूर बनने व आत्महत्या करने को विवश होता रहा है। ठीक उसी प्रकार आज भी किसान उन्हीं परिस्थितियों में आत्महत्या करने को विवश हो रहे हैं। किसान की हाड़- तोड़ मेहनत का बिचौलिए और व्यापारी भरपूर फायदा उठाते हैं। किसान इस गरीबी और बदहाली में अपना जीवन यापन कर रहा है। यह समय प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध का था और उपनिवेशवाद तथा महामंदी का दौर भी चालू था। इस नीति के तहत भारत की कृषि भूमि का उपयोग विदेशी लोगों, के लिये किया गया। अफीम के व्यापार का बाजार चीन था, उसके लिए भारत की जमीन पर जबरिया अफीम की खेती कराई गई थी।

प्रेमचन्द अकेले ऐसे बुद्धिजीवी लेखक थे। जिन्होंने किसान जीवन की  सूक्ष्म समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करके लिखा और लोगों तथा सरकार का ध्यान आकृष्ट किया।प्रेमचंद साहित्य को मनोरंजन का साधन नहीं मानते थे बल्कि सामाजिक परिवर्तन लाने का साधन मानते थे । प्रेमचंद का किसानों से गहरा लगाव था। इस प्रकार का लगाव जैसे किसान का अपने खेतों के प्रति होता है। प्रेमचन्द का मन शहर की अपेक्षा गाँवों में ही रमा है। किसान के आर्थिक शोषण का एक बहुत ही व्यंग्यपूर्ण प्रसंग है-

महाजन उसे पाँच रुपये देता है और कहता है कि ये दस रूपए हैं, घर जाकर

गिन लेना। किसान जब जिद करता है तो महाजन  रस्मों के नाम पर उसकी ज़्यादातर रक़म वैसे ही हड़प जाता है।उसके बाद किसान के पास आधी रकम भी नहीं बचती, उसे कुछ और रस्में भी करनी होती हैं।

सेवासदन’ सन 1918 में लिखा गया। इसमें वैश्या समस्या का प्रतिपादन

है। इसमें भी उन्होंने कृषक जीवन की दयनीय दशा का चित्रण किया है। ‘सेवासदन’ में किसान की दयनीय स्थिति का कारण जमींदारी प्रथा को बताया गया है। कृषक वर्ग के दयनीय चित्रण के साथ वे स्थिति को बदलने की प्रबल आकांक्षा भी दिखाते हैं।

प्रेमाश्रम उपन्यास का आरम्भ ही किसान समस्या से होता है।प्रेमाश्रम’ सन 1922 में प्रकाशित हुआ, लेकिन यह 1918-19 में लिखी। उस समय पहले विश्व युद्ध का अंत हुआ था। समस्त संसार में हलचल मची हुई थी ।

रूस में महान क्रांति सफल हुई थी । उसके परिणाम स्वरुप

दुनिया के एक बहुत बड़े भाग में पहली बार मजदूर किसानों का राज्य

स्थापित हुआ था। हिंदी साहित्य में ही नहीं अपितु संभवतः संपूर्ण भारतीय

साहित्य में सर्वप्रथम प्रेमाश्रम में जमींदार और किसान के संघर्ष का खुलकर चित्रण हुआ। इस दृष्टि से प्रेमाश्रम गोदान की पूर्व पीढ़ी का कहीं जा सकती है ।इसमें शोषक और शोषित का संघर्ष गोदान से किसी प्रकार कम नहीं है। “भारत के किसानों का शोषण अकेले न तो जमींदार करता है था और न सरकार करती थी” प्रेमचन्द ने अनुभव किया कि इस देश के मुट्ठी भर अंग्रेज शासकों ने शोषकों की एक विशाल फौज खड़ी कर ली है और उसके स्वार्थ की तलवार किसानों की गर्दन पर सीधे पड़ी हुई है।”

रंगभूमि 1924 में इसका प्रकाशन हुआ। यह प्रेमचंद का बृहत

उपन्यास है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने पहली बार देशी रियासतों की बिगड़ी स्थिति, राजाओं के अत्याचार और अन्याय को प्रस्तुत करके इस ओर देश का ध्यान आकर्षित किया है। देशी रियासतों मे बेचारे किसानों की और भी बुरी अवस्था है। इसी का चित्रण इसमें किया है। इसी प्रकार से ‘रंगभूमि’ उपन्यास में शहर और देहात के संघर्ष का वर्णन किया गया है। सूरदास गाँधीवादी विचारों का पोषक है, अपने जमीन के एक टुकड़े को बचाने के लिए गोलियों का शिकार हो जाता है। सूरदास प्रेमचंद के उपन्यास का जुझारु नायक है।

कर्मभूमि’ सन् 1932 में लिखा गया। इस उपन्यास की सामग्री

उस समय के सत्याग्रह आंदोलन से ली गई है। यह उपन्यास विशेषत

राजनीतिक आंदोलन और उसके अछूतोंदार संबंधी पहलू को लेकर लिखा

गया है। किसान वर्ग की दयनीय दशा का चित्रण इसमें किया गया है।

महाजनों को गरीबों का खून चूसते हुए दिखाया है। जमीदार लगान वसूल

‘करने के लिए हर संभव प्रयास करता हुआ दिखाया गया है। प्रेमचंद ने धर्म

के आड़ में किसान पर होने वाले अत्याचार का वर्णन किया है। प्रेमचंद के

साहित्य और उनके उपन्यासों में उस समय का जो जीवंत चित्रण किया गया है, वह आज भी विद्यमान है। जो समस्याएं किसान उस समय झेल रहा था उन्हीं समस्याओं का सामना आज भी उसे करना पड़ रहा है। उसका शोषण आज भी हो रहा है । उसकी समस्याएं आज भी विद्यमान है । आज भी किसान, किसान से मजदूर बनने की ओर ही बढ़ रहा है।

गोदान 1936 में प्रकाशित हुआ उपन्यास है। यह प्रेमचंद की सर्वोत्तम

कृति है। वे किसानों को समाज का सबसे शोषित वर्ग समझते थे। गोदान

का होरी इसी समूचे वर्ग का प्रतीक है। होरी का जीवन किसी एक व्यक्ति का जीवन न होकर साधारण किसान का जीवन है। उसका दुख हमारे देश के समस्त किसानों का दुख है। दुख ही उसके जीवन का एकमात्र सत्य है।मृत्यु भी इस दुख का अंत नहीं करती। किसान उसे अपने बच्चों के लिए

विरासत में छोड़ जाता है। गोदान भारतीय किसान की जीवंत रचना है। यह

एक ऐसे किसान की कथा है जिसने जीवन में केवल कठिनाई का ही

सामना किया है। फिर भी उसे मन में मानवता और उदारता बिना किसी कड़वाहट के विद्यमान है।

                  गोदान’ में कृषक जीवन की सभी समस्याओं का अत्यंत

विस्तार पूर्वक चित्रण किया गया है। गोदान भारतीय किसान की जीवन गाथा है। गोदान कृषक जीवन का महाकाव्य है। कैसी विडम्बना है कि भारत का किसान अपनी एक छोटी सी इच्छा को पूरा नहीं कर पाता। होरी के मन में एक गाय इच्छा  थी। यह गाय उसका ‘स्टेटस सिम्बल’ है। गोदान के माध्यम से प्रेमचंद ने जमींदारी प्रथा का विरोध किया तथा किसान की पीड़ा, शोषण, कठिनाइयां व कृषक जीवन में आने वाली समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया। गोदान में किसान का पग पग पर शोषण होता है ।इसी शोषण के संबंध में रामसेवक महतो कहते हैं, “यहां तो जो किसान है, वह सब का नरम चारा है।  इस उपन्यास में ऐसा लगता है जैसे वह किसानों के साथ आप बीती कह रहे हों।

प्रेमचंद के साहित्य और उनके उपन्यासों में उस समय का जो जीवंत चित्रण किया गया है, वह आज भी विद्यमान है। जो समस्याएं किसान उस समय

झेल रहा था उन्हीं समस्याओं का सामना आज भी उसे करना पड़ रहा है। प्रेमचंद ने गोदान में किसान की गरीबी का चित्रण भी बखूबी किया है। होरी को अपनी बेटी का विवाह पैसे लेकर  रामसेवक नामक बूढ़े व्यक्ति के साथ करना पड़ा जो कृषक जीवन की  सबसे बड़ी हार है। गोदान के अंतिम दृश्य में लेखक वास्तविक सच्चाई प्रकट कर देते हैं। “महाराज घर में  न गाय है, न बछिया, न पैसा, यही पैसे हैं। यही इनका गोदान है और  धनिया पछाड़ खाकर गिर जाती है।”किसान जीवन की यही सबसे बड़ी लाचारी है।

निष्कर्ष :-

प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में भारतीय किसान की स्थिति का बहुत ही सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। प्रेमचंद किसानों के मसीहा रहे हैं। उनका गोदान तो किसानों का महाकाव्य है। इसके अलावा भी इन्होंने अपने साहित्य में किसानों की समस्या को अधिक से अधिक उठाया है। प्रेमचंद के अनुसार किसान समाज का आधार होता है। वह समाज का उत्पादक वर्ग है और उसकी उन्नति में ही देश की उन्नति है तथा उसकी बदहाली में देश की बदहाली है। जब तक किसान जागरूक होकर अपने हकों को लेकर आगे नहीं बढ़ेगा,संघर्ष नहीं करेगा तब तक जो आत्महत्या की  प्रवृत्ति 90 वर्ष पहले शुरू हुई थी वह ज्यों की त्यों बनी रहेगी ।

 प्रेमचंद जी की किसान निष्ठा को हिन्दी साहित्य के लगभग सभी

आलोचकों ने स्वीकार किया है। नामवर सिंह, रामविलास शर्मा और भारत

तलवार आदि ने उनके इस रचनात्मक यात्रा पर विस्तार से लिखा है।

प्रेमचंद का किसान अपने सम्मान के प्रति सजग है। वह चाहता है

कि परिश्रम करते हुए अपनी ‘मरजाद’ बनाए रखी जाए। किसान के जीवन

की दुर्बलता और मन की दृढ़ता दोनों का समावेश कर प्रेमचंद जी ने किसान

के जीवन के यथार्थ का वास्तविक चित्रण किया है।

 संदर्भ ग्रंथ सूची:–

  1. दुष्यंतकुमार, छायावादीकवि,सायेमेंधूप, ग़ज़ल
  2. मुंशीप्रेमचंद, साहित्यकाउद्देश्य, पृष्ठ 26
  3. डॉसरोजप्रसाद, प्रेमचंदकेउपन्यासोंमेंसमसामयिकपरिस्थितियोंकाप्रतिफलन, रचनाप्रकाशन, इलाहाबाद ,संस्करण- 1972, पृष्ठ -232

4.मुंशी प्रेमचंद, गोदान, प्रकाशन संस्थान दिल्ली, संस्करण 2005, पृष्ठ -113

  1. रंगभूमि- प्रेमचंद, अनुपम प्रकाशन, दिल्ली संस्करण-2005, पृ० सं० 184/366
  2. मुंशीप्रेमचंद, कर्मभूमि,जनवाणीप्रकाशनप्राइवेटलिमिटेडविश्वासनगर ,नईदिल्ली, वर्ष -2012
  3. मुंशीप्रेमचंद, बलिदान, मानसरोवरभाग- 4, प्रकाशबुक्सइंडिया, संस्करण 2023इंडिया ,संस्करण 2023 ,पृष्ठ -135

8.मुंशी प्रेमचंद, पूस की रात ,साहित्य अकादमी भोपाल, अंक- 427, जुलाई 2015, पृष्ठ- 29

9.प्रेमचंद के विचार (भाग-1) प्रेमचंद प्रकाशन संस्थान, दरियागंज, दिल्ली,2003, पृ0सं0 474

  1. प्रेमचंदसेमुक्तिबोध- एकऔपन्यासिकयात्रा, पृ0 सं0 23
  2. प्रेमचंदऔरभारतीयकिसान- डॉ०रामवृक्षसिंहपृ०सं० 178
  3. प्रेमचंदऔरउनकायुग- डा0 रामविलासशर्मा, पृ0 सं0 95
  4. जमानापत्रिका ‘1919’-प्रेमचंद
  5. प्रेमचंदऔरभारतीयकिसान- डॉ०रामवृक्षसिंह, वाणीप्रकाशन,

दिल्ली, 1982, पृ0 सं0 34

  1. प्रेमाश्रमन्यूसाधनापाकेटबुक्स, दिल्ली, 2008
  2. गोदान-प्रेमचंदहंसप्रकाशन, 1936, पृ०सं० 110
  3. प्रेमचन्दऔरउनकायुग- डॉ०रामविलामशर्मा, पृ०सं० 97