
प्रेमचंद जनवादी चेतना तथा मानवतावादी दृष्टि के प्रतिनिधि साहित्यकार हैं। हिंदी कथा-साहित्य में मुंशी प्रेमचंद कथा सम्राट नाम से अभिहित है। हिंदी कथा-साहित्य अर्थात साहित्य की कहानी और उपन्यास इन दो विधाओं का समन्वित रूप है। कहानी कहने और सुनने की परंपरा काफी प्राचीन है। कहानी का विस्तृत रूप उपन्यास है। हिंदी कथा-साहित्य के विकास की दृष्टि से प्रेमचंद को केंद्र में कथा साहित्य को तीन भागों में विभाजित किया जाता है- प्रेमचंद पूर्व युग, प्रेमचंद युग और प्रेमचंदोत्तर युग। प्रेमचंद पूर्व युग यह मनोरंजन, उपदेश तथा सुधारवादी दृष्टिकोण को लेकर लिखे गए उपन्यासों का युग है। इस युग में उपन्यासों का उद्देश्य मात्र मनोरंजन कर पाठकों को उपदेश देना था जिसमें तिलस्मी, ऐयारी, जासूसी उपन्यास लिखे गए। इस युग में देवकीनंदन खत्री, गोपालराम गहमरी, प्रमुख उपन्यासकार रहे हैं। प्रेमचंद के आगमन से हिंदी उपन्यास साहित्य को नई दिशा एवं नया कलेवर मिला। प्रेमचंद ने न केवल हिंदी कहानी को अपितु उपन्यास साहित्य की विषय-वस्तु में काफी परिवर्तन लाया। उन्होंने कथावस्तु को मनोरंजन तथा उपदेश से परे मानव जीवन की समस्याओं के साथ जोड़ने का सफल प्रयास किया। उनके उपन्यासों के पात्र राजा महाराजाओं के महलों से न होकर आम किसान, मजदूर, सामान्य स्त्री तथा समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े दलित, शोषित , पीड़ित वर्ग से है यह प्रेमचंद के उपन्यासों की विशेषता है। प्रेमचंद हिंदी उपन्यास साहित्य के पहले उपन्यासकार हैं जिन्होंने मनुष्य को मानवतावादी दृष्टिकोण से अपने साहित्य में चित्रित किया। प्रेमचंद के बाद उपन्यास में कई मोड़ आए और उपन्यास अलग-अलग धाराओं में प्रवाहित होता गया किंतु मूल रूप में उपन्यास में बदलाव लाने का कार्य प्रेमचंद ने किया है।
आज से लगभग एक सो पैंतालीस साल पहले हिंदी साहित्य के दैदीप्यमान नक्षत्र, बहुमुखी प्रतिभा के धनी, उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश में बनारस के समीप एक छोटे से गांव ‘लमही’ में हुआ। उनके पिता का नाम अजायबराय था जो खेती करते थे और बाद में परिवार की कठिनाइयों का निर्वाह करने के लिए उन्होंने ‘डाक’ में क्लर्क का काम भी किया। प्रेमचंद का जन्म सामान्य किसान के घर होने के कारण किसान परिवार की गरीबी से उन्हें बचपन से ही परिचय हुआ। सात वर्ष की आयु में उनकी माता आनंदी देवी का स्वर्गवास, पंद्रह वर्ष की आयु में विवाह और सोलहवें वर्ष में पिता अजायबराय का देहांत यह सभी घटनाएँ बालक प्रेमचंद के जीवन में एक के पीछे एक आ गई। बचपन में ही प्रेमचंद पर कई जिम्मेदारियाँ आ पहुँची जैसे सौतेले भाई, सौतेली माँ और उनके साथ खुद पत्नी ऐसे पाँच-छः लोगों की जिम्मेदारी को संभालते-संभालते बचपन में ही प्रेमचंद को सौतेली माँ का व्यवहार, पंडे-पुरोहितों के कर्मकांड, किसानों के दुःखी जीवन की पीड़ा से परिचय हुआ था। इन सभी से कुछ समय के लिए बचने का प्रयत्न उन्हें शिक्षा क्षेत्र तथा पढ़ने में रुचि निर्माण करता रहा। ऐसा करते-करते उन्होंने उर्दू तथा हिंदी की कई रचनाओं को पढ़ा था। प्रेमचंद ने ‘तिलिस्मी होशरुबा’ के सत्रह भागों को उस वक्त पढ़ा जिस वक्त उनके खेलने कूदने की आयु थी। इस रचना का एक-एक भाग दो हजार पृष्ठों से कम न था। जिससे उनकी पढ़ने की जिज्ञासा दिखाई देती है। प्रेमचंद ने ‘तिलस्म होशरूबा’ को जरूर पड़ा किंतु उस राह पर ना चलते हुए उनकी रचनाओं पर भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालकृष्ण भट्ट, और राधाकृष्ण दास की रचनाओं का प्रभाव दिखाई देता है। प्रेमचंद की रचनाएँ इनके कथा-साहित्य का अगला कदम थी ऐसा कहे तो समीचीन होगा।
धनपतराय नाम से आरंभ में लेखन करनेवाले प्रेमचंद ने अपना साहित्यिक जीवन एक उपन्यासकार की हैसियत से शुरू किया। उन्होंने कुछ समय तक उर्दू में धनपतराय नाम से लिखा लेकिन उसके बाद उनकी सभी रचनाएँ हिंदी में प्रेमचंद नाम से ही प्रकाशित हुई। उनकी आरंभिक रचनाएँ आलोचनात्मक लेख और कहानियाँ ‘जमाना’ नामक पत्रिका में छपी। प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ जब प्रकाशित हुआ तो उस पर अंग्रेजों द्वारा रोक भी लगाई गई। जिससे उन्हें अपने नाम में परिवर्तन करना पड़ा। प्रेमचंद ने ‘जमाना’ पत्रिका के साथ-साथ हिंदी में ‘मर्यादा’, ‘माधुरी’, ,जागरण, आदि पत्रिकाओं का भी संपादन किया। अंतिम समय में उन्होंने ‘हंस’ का प्रकाशन भी आरंभ कर दिया ‘हंस’ के साथ उनके जीवन की सबसे सुंदर यादें जुड़ी हुई है। प्रेमचंद ने ‘हंस’ पत्रिका को स्वाधीनता संग्राम का एक सफल सैनिक ही बना दिया था।
हिंदी साहित्य में प्रेमचंद कथाकार के रूप में सर्वपरिचित है। उनकी 300 कहानियाँ ‘मानसरोवर’ के आठ भागों में संग्रहित हैं। उनके बारह उपन्यास प्रकाशित हुए जिसमें ‘प्रेमा’, ‘प्रतिज्ञा’,‘वरदान’, ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘निर्मला’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘गबन’, ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’ और ‘मंगलसूत्र’ (अधूरा) प्रमुख हैं। प्रेमचंद के तीन नाटक प्रकाशित हैं- ‘संग्राम’, ‘कर्बला’, ‘प्रेम की वेदी’। उन्होंने जीवनियाँ भी लिखीं जिसमें- ‘महात्मा शेखसादी’, ‘दुर्गादास’, ‘कलम’, ‘तलवार और त्याग’। उनकी ‘कुत्ते की कहानी’ बाल साहित्य की रचना भी प्रकाशित है। प्रेमचंद को दिखावे, प्रदर्शन और मनोरंजन से घृणा थी इसलिए उन्होंने जन-सामान्य लोगों के साथ जुड़ी हुई समस्या को अपने साहित्य में केंद्रीय स्थान दिया। उनके विचारों की दृढ़ता चट्टानों से कम नहीं थी इसीलिए उन्होंने जीवन के अंतिम क्षण तक कलम को हाथ में रखा और सामान्य लोगों की समस्याओं को उजागर किया। उनकी साहित्य सेवा को लेकर रामलीला शर्मा का कथन है- “तुलसीदास के बाद हिंदी में यह पहला इतना बड़ा कलाकार पैदा हुआ था जिसकी रचनाएँ अपनी ही भाषा के क्षेत्र में नहीं, सुदूर दक्षिण के गांव में भी पहुँच गई थी।”1 रामविलास शर्मा के इस कथन से प्रेमचंद के साहित्य की महत्ता स्पष्ट होती है। उनकी लगभग कहानियों और सभी उपन्यासों में मानवतावादी दृष्टि मोतियों की भाँति बिखरी पड़ी है। शोध-पत्र की सीमा को ध्यान में रखते हुए प्रेमचंद के दो उपन्यासों- निर्मला’, और ‘गोदान’ में मानवतावादी दृष्टि को लेकर यहाँ विचार किया जाएगा।
प्रेमचंद ने सर्वप्रथम मानवतावादी दृष्टिकोण का परिचय स्वयं के जीवन से दिया। उन्होंने स्वयं 1909 में सामाजिक रूढ़ियों की चिंता न करके अपनी चाची तथा अन्य संबंधियों का विरोध सहते हुए बाल-विधवा युवति श्रीमती शिवरानी देवी से विवाह कर लिया यह उनकी मानवतावादी दृष्टि का परिचायक है। प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने के कारण उन्होंने अपनी सभी रचनाओं में मानवतावादी आस्थाओं को अत्यंत सहजता के साथ समेटने का सफल प्रयास किया है। प्रेमचंद की रचनाएँ हमें जीवन चेतना के दर्शन से परिचित कराती है चूँकि उन्होंने अपने साहित्य में जो देखा, परखा, भ़ोगा और अनुभव किया उसे निर्भीकता के साथ स्पष्ट अभिव्यक्ति दी है न कि किसी वाद-विशेष से प्रभावित होकर। यही कारण है कि प्रेमचंद के लगभग सभी उपन्यासों में किसी-न-किसी रूप में मानवतावादी दृष्टिकोण देखने को मिलता है।
प्रेमचंद का ‘निर्मला’ उपन्यास ‘नारी-समस्या’ प्रधान उपन्यास है। इस उपन्यास में कई दांपत्य के माध्यम से नारी-पीड़ा को अभिव्यक्त किया है। प्रेमचंद का ‘निर्मला’ एक ऐसा चरित्र है जो सभी पीड़ाओं को सहती हुई समाज की व्यवस्था का तथा परिवार की गरीबी का शिकार होती है। सुंदर सुशील निर्मला को गरीबी के कारण तोताराम जैसे वृद्ध व्यक्ति से ब्याह करना पड़ता है जिसे पति का नहीं तो पिता का ही प्रेम मिलता है। तोताराम जितना ही उसे रिझाने की कोशिश करते थे उतना ही निर्मला का मन उससे भगा-भगा फिरता था लेकिन न जाने क्यों, “निर्मला को तोताराम के पास बैठने और हँसने बोलने में संकोच होता था। इसका कदाचित यह कारण था कि अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका पिता था जिसके सामने वह सिर झुकाकर, देह चुराकर निकलती थी, अब उसकी अवस्था का एक आदमी उसका पति था।”2 निर्मला के उदाहरण के साथ प्रेमचंद ने यह स्पष्ट किया कि स्त्री के मन को परिवार तथा समाज को समझना चाहिए। ‘निर्मला’ उपन्यास लिखकर प्रेमचंद ने मानवीयता की दृष्टि से अनमेल विवाह का विरोध किया। प्रेमचंद की मानवतावाद का सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्व है मानव समानता।
प्रेमचंद का मानवतावाद निरंतर कर्म-योग के आधार पर विकसित हुआ है। वह कहीं भी कर्मशिलता से पलायनवादी विचार नहीं करते। उनके पात्र कर्म पर विश्वास करनेवाले ही दिखाई देते हैं। गोदान का होरी, धनिया ‘निर्मला’ उपन्यास की निर्मला उनके सभी पात्र मानव है और मानव होने के कारण उन्हें मानवीयता का परिचय है वह मानवीय मूल्यों से युक्त है। ‘निर्मला’ उपन्यास की निर्मला अपना सौतेला बेटा मंसाराम की अंतिम समय में पति तोताराम का विरोध करते हुए सेवा के लिए अस्पताल पहुँचती है। वहां तोताराम का विरोध करते हुए वह कहती है- “आप यहाँ क्या करने आए हैं?”3 यहां तोताराम का स्वाभिमान जाग उठा, नथुनिया फड़कने लगे लेकिन वह कुछ ना कर सका चूंकि यहाँ मातृहीन मंसाराम के प्रति निर्मला के मन में माँ का प्रेम जागृत होना सहज मानवीयता है। ‘गोदान’ का होरी अपनी इसी भावुकता के कारण गाय आने पर शत्रुता होने के बावजूद अपने भाइयों स्मरण हो जाना, शिकार पार्टी में हिरण का शिकार होने के बाद भी मिर्जा खुर्शीद का मृत हिरण के प्रति भावुक होना, झुनिया का होरी एवं धनिया के प्रति शरण भाव जागृत होना सभी सहज मानवीय संबंधों के ही उदाहरण है। प्रेमचंद के उपन्यासों में सहज मानवीय संबंधों के कारण ही यह संभव है। प्रेमचंद वर्ग-भेद के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने ‘गोदान’ में किसान और पूँजीपति तथा साहूकारों के बीच की दूरी का प्रखर विरोध किया। वे चाहते कि पूँजीपति एवं साहूकारों द्वारा मजदूर तथा किसानों को कष्ट न पहुँचे होरी का एक ही सपना था जिसे वह आर्थिक समस्या के कारण पूरा न कर सका। जमींदार एवं पूंजीपतियों को कोसते हुए प्रेमचंद ने कहा, “जब धन जरूरत से ज्यादा हो जाता है, तो अपने लिए निकास का मार्ग भी खोजता है। यों न निकल पाएगा तो जुए में जायेगा, घुडदौड़ में जायेगा, ईंट-पत्थर में जायेगा, या ऐयाशी में जायेगा।”4 मुंशी प्रेमचंद हमेशा ही किसनों की भलाई के बारे में ही सोचते रहे।
मानवतावादी मूल्य को लेकर उपन्यास लिखनेवाले प्रेमचंद के पात्रों में सहानुभूति और संवेदना विपुल मात्रा में दिखाई देती है। मानवता के लिए सहानुभूति और संवेदना का होना बहुत आवश्यक है जो ‘गोदान’ के मालती में दिखाई देता है। मालती का चित्रण करते समय प्रेमचंद ने उसे ‘तितली’ की उपमा दी। तितली की भाँति चंचल और मधुमक्खी की तरह मधुरता के गुण से युक्त मालती ग्रामीण समाज के कल्याणार्थ काम करती है। वही ‘निर्मला’ उपन्यास में सौतेले बेटे मंसाराम के लिए पति तोताराम को विरोध करते हुए निर्मला का मंसाराम के प्रति प्रेम सहानुभूति एवं संवेदना का ही उदाहरण है। इतना ही नहीं तो निर्मला के प्रति मंसाराम कहता है, “अम्माजी, इस अभागे के लिए आपको व्यर्थ इतना कष्ट हुआ। मैं आपका स्नेह कभी ना भूलूंगा। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा पुनर्जन्म आपके गर्भ से हो, जिससे मैं आपके ऋण से अऋण हो सकूँ।”5 यह सौतेली माँ और बेटे का एक दूसरे के प्रति प्रेम मानवीय संवेदना एवं सहानुभूति का ही चित्रण है। प्रेमचंद के उपन्यासों में स्त्री-पुरुष के प्रेम संबंधों की दृष्टि व्यापक और शाश्वत रही है। जहाँ तोताराम, निर्मला और मंसाराम को लेकर अलग दृष्टि से सोचता है वही मंसाराम और निर्मला का रिश्ता यह भावुकता का रहा है। उनके अनुसार नारीत्व की सार्थकता उसके मातृत्व में ही निहित है जिसका अनुभव वह स्वयं कर सकती हैं। ‘गोदान’ उपन्यास में मानवतावाद के संदर्भ में नारीत्व का मनमोहक चित्रण आया है- ”मेरे जेहन में औरत वफा और त्याग की मूर्ति है, जो अपनी बेजबानी से, अपनी कुर्बानी से, अपने को बिल्कुल मिटाकर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती है।”6 गोदान के प्रोफेसर मेहता का यह कथन नारीत्व का परिचायक है।
संक्षेप में कहा जाए तो प्रेमचंद का ‘गोदान’ भारतीय किसान जीवन की जीती जागती तस्वीर पेश करनेवाली रचना है वही ‘निर्मला’ त्याग, सहनशीलता, आत्मबलिदान की मूर्ति नारीत्व का परिचायक उपन्यास है। प्रेमचंद मानवतावादी रचनाकार रहे हैं। उनका साहित्य मानवीय मूल्यों का विभिन्न रूपों में निरूपण करता दिखाई देता हैं। उनके उपन्यासों में आदर्श मानवीयता बिखरी हुई है। उनकी मानवतावादी दृष्टि सामाजिक जागरण के प्रति, नारीत्व के प्रति, किसानों के प्रति, विधवा विवाह के प्रति सकारात्मक तथा अनमेल विवाह को विरोध कर समाज के गिरे हुए मानव वर्ग में उन्नति करने के लिए अग्रसर है। प्रेमचंद के लगभग पात्र हृदय परिवर्तन करनेवाले हैं, उनके पात्रों में दया, प्रेम, करूणा, स्नेह, उदारता, समर्पण और त्याग की भावना दिखाई देती है यही कारण है कि प्रेमचंद का समग्र साहित्य आज भी प्रासंगिक है।
संदर्भ सूची
- प्रेमचंद और उनका युग, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, चतुर्थ संस्करण 1981, पृ. संख्या 05
- निर्मला, प्रेमचंद वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, छात्र संस्करण 2021 पृ. संख्या 38
- गोदान, प्रेमचंद, मालिक एवं कंपनी, जयपुर, संस्करण 2001 पृ. संख्या 207
- निर्मला, प्रेमचंद, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, छात्र संस्करण 2021 पृ. संख्या 52
- वही, पृ संख्या, 76
- गोदान, प्रेमचंद, मलिक एवं कंपनी, जयपुर, संस्करण 2001 पृ. संख्या150
डॉ. प्रकाश भगवानराव शिंदे
सहाय्यक प्राध्यापक, हिंदी विभाग
पानसरे महाविद्यालय अर्जापूर
तहसील बिलोली जनपद नांदेड़ महाराष्ट्र.






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