
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से 20वीं शताब्दी के मध्य तक भारत में एक व्यापक सामाजिक एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई, जिसने शिक्षा, जाति-उन्मूलन, स्त्री-स्वतंत्रता और धार्मिक सुधार जैसे आंदोलनों को जन्म दिया। इस युग में साहित्य केवल सौंदर्य या मनोरंजन का माध्यम न रहकर सामाजिक चेतना और परिवर्तन का एक प्रभावशाली उपकरण बन गया। हिंदी के यथार्थवादी कथाकार प्रेमचंद (1880–1936) और मलयालम के महान कवि कुमारन आशान (1873–1924) भारतीय साहित्य के दो महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, जो यद्यपि भिन्न भाषाओं, विधाओं और सांस्कृतिक संदर्भों से संबद्ध थे, तथापि उनके साहित्य में सामाजिक एवं मानवीय सरोकारों के प्रति गहन प्रतिबद्धता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। ये दोनों लेखक नवजागरण चेतना के प्रभावशाली प्रतिनिधि के रूप में उभरे। इन्होंने साहित्य को सामाजिक परिवर्तन एवं नैतिक जागरूकता का माध्यम मानते हुए, दलितों और वंचित वर्गों की पीड़ा को सजीवता और मार्मिकता के साथ अभिव्यक्त किया तथा समाज में संघर्ष और बदलाव की प्रेरणा प्रदान की। उनका रचनात्मक दृष्टिकोण करुणा से परिपूर्ण था, जिसमें सामाजिक अन्याय के विरुद्ध जागरूकता और परिवर्तन की तीव्र आकांक्षा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।
बीज शब्द – प्रेमचंद, कुमारन आशान, सामाजिक चेतना, साहित्यिक नवजागरण, स्त्री अस्मिता, दलित चेतना, जाति विरोध, धार्मिक पाखंड, मानवतावाद, करुणा, आत्मबोध, समता, सामाजिक सुधार, आध्यात्मिक दृष्टिकोण, नैतिक मूल्य, हिंदी कथा साहित्य, मलयालम काव्य,श्री नारायण गुरु, बौद्ध दर्शन, सामाजिक न्याय।
प्रेमचंद और कुमारन आशान ने अपने साहित्य में सामाजिक सुधार, जाति-उन्मूलन, धार्मिक चेतना और स्त्री अस्मिता जैसे विषयों को प्रमुखता दी। प्रेमचंद हिंदी में यथार्थ और सामाजिक न्याय के पक्षधर रहे, जबकि आशान मलयालम साहित्य में नवजागरण और आध्यात्मिक मानवतावाद के प्रतिनिधि रहे। दोनों लेखकों की दृष्टि मानवीय मूल्यों से समृद्ध है और वे धार्मिक पाखंड, जातिवाद और रूढ़ियों का विरोध करते हैं। प्रेमचंद की कहानियाँ और आशान की कविताएँ दलितों, वंचितों और स्त्रियों की पीड़ा को सशक्त रूप में चित्रित करती हैं, जहाँ स्त्री केवल सहानुभूति की नहीं, आत्मबल और विवेक की प्रतीक बनकर सामने आती है। दोनों साहित्यकारों की रचनाएँ सामाजिक परिवर्तन और मानवीय चेतना की प्रेरक स्रोत हैं।
प्रेमचंद और कुमारन आशान भारतीय साहित्य के दो ऐसे स्तंभ हैं, जिन्होंने सामाजिक सुधार, मानवीय मूल्यों और धार्मिक चेतना को अपनी रचनाओं का केंद्रीय विषय बनाया। एक ओर जहाँ प्रेमचंद हिंदी साहित्य में यथार्थवाद और सामाजिक सरोकारों के लिए प्रसिद्ध हैं, वहीं दूसरी ओर कुमारन आशान मलयालम साहित्य में नवजागरण, जाति-विरोध और आध्यात्मिक मानवतावाद के प्रवक्ता माने जाते हैं। दोनों लेखकों का धार्मिक दृष्टिकोण आलोचनात्मक और मानवीय है, जो अंधविश्वास, जातिगत भेदभाव और सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध खड़ा होता है। दोनों रचनाकार स्त्री के प्रति केवल करुणा नहीं, बल्कि सम्मान और चेतना के भाव को प्रकट करते हैं, और साहित्य को सामाजिक न्याय का माध्यम बनाते हैं।
“प्रेमचंद दुखी हिदुस्तान के गरीबों के लेखक थे। उनका साहित्य तमाम पीड़ितों का मानसिक संबल है।”1 प्रेमचंद की कहानियाँ जैसे ‘कफन’ में गरीबी, भूख और मूल्यहीनता की चरम अवस्था, ‘सद्गति’ में जातीय भेदभाव और धार्मिक पाखंड, तथा ‘पंच परमेश्वर’ में न्याय और मित्रता के द्वंद्व के माध्यम से सामाजिक विवेक की स्थापना दिखाई देती है। वहीं आशान की कविताएँ जैसे ‘दुर्वस्था’ में उच्च-नीच जातियों के प्रेम को समाज द्वारा अस्वीकार करने की पीड़ा, ‘चंडालभिक्षुकी’ में एक अछूत स्त्री को बुद्ध द्वारा भिक्षा देने के माध्यम से करुणा और समता की स्थापना, और ‘वीणा पूवु’ में जीवन की असारता और आत्मचिंतन की गहराई दिखाई देती है। ‘‘वीणा पूवु’’ में आशान जीवन के बाह्य सौंदर्य से आगे जाकर आत्मा की गहराई में झांकते हैं। यह कविता पाठक को आत्मबोध, वैराग्य और आध्यात्मिक विकास की दिशा में प्रेरित करती है। यह आशान की सबसे आरंभिक और सबसे प्रभावशाली काव्य कृतियों में से एक है, जिसने मलयालम साहित्य में नवजागरण की नींव रखी।
दोनों रचनाकारों की दृष्टि में समाज के वंचित और पीड़ित वर्गों की पीड़ा केंद्रीय स्थान रखती है। प्रेमचंद की ‘बड़े घर की बेटी’ और ‘निर्मला’ स्त्री के त्याग, आत्मबल और सामाजिक संघर्ष को उभारती हैं। सन् 1932 हंस पत्रिका के दिसंबर अंक में प्रेमचंद ने ‘भारतीय महिलाओं की जागृति ‘र्शीषक लेख में लिखा है कि- “ये सार्वजनिक निर्वाचन अधिकारी चाहती हैं। जायदाद या शिक्षा की कोई कैद उन्हें पसंद नहीं और राष्ट्रीय एकता का तो जितने जोरो से स्त्रियों ने हरेक अवसर पर समर्थन किया है उस पर बहुमत से हिंदू मुसलमान पुरुषों को लज्जित होना पड़ेगा ।”2 आशान की कविताओं में स्त्रियाँ केवल सहानुभूति की पात्र नहीं, बल्कि विवेक और आत्मबल की प्रतीक हैं। ‘दुर्वस्था’ जहाँ जाति व्यवस्था और प्रेम की त्रासदी को दिखाती है, वहीं ‘चंडालभिक्षुकी’ करुणा और समता के माध्यम से प्रतिरोध का मार्ग दिखाती है। ‘दुर्वस्था’ की स्त्री पात्र अपने प्रेम और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करती है, लेकिन अंततः सामाजिक व्यवस्था के सामने असहाय हो जाती है। ‘चxडालभिक्षुकी ’ की स्त्री साहसी है, वह समाज की घृणा के बावजूद आगे बढ़ती है और उसका आत्मबल बुद्ध के निर्णय के माध्यम से सम्मानित होता है।
दोनों रचनाएँ यह दिखाती हैं कि आशान की स्त्री पात्र केवल सहानुभूति की पात्र नहीं, बल्कि चेतना, आत्मबल और प्रश्न खड़े करने वाली प्रबुद्ध नारी की प्रतीक हैं। ‘दुर्वस्था’ में धर्म के नाम पर बनाए गए सामाजिक नियम प्रेम और संबंधों को तोड़ते हैं। ‘चंडालभिक्षुकी ’ में बौद्ध धर्म की करुणा और समता की भावना को मूल में रखा गया है, जो जाति व्यवस्था को नकारता है। आशान धर्म का उपयोग सामाजिक पुनर्रचना के लिए करते हैं, न कि रूढ़ियों को बनाए रखने के लिए। ‘दुर्वस्था’ में कथा प्रवाह, संवेदना और पीड़ा का संतुलन है, जो पाठक को झकझोरता है। ‘चंडालभिक्षुकी’’ में प्रतीकों, संवाद और बौद्धिक गहराई के साथ एक प्रभावशाली नैतिक संदेश निहित है।‘दुर्वस्था’ और ‘चंडालभिक्षुकी’ दोनों रचनाएँ कुमारन आशान की सामाजिक प्रतिबद्धता, स्त्री चेतना और जाति-विरोधी दृष्टिकोण की प्रतिनिधि काव्य रचनाएँ हैं। एक ओर वे सामाजिक अन्याय का यथार्थ चित्रण करते हैं, तो दूसरी ओर करुणा और समता के माध्यम से समाधान की ओर संकेत भी करते हैं। इन रचनाओं में आशान न केवल काव्य सौंदर्य प्रस्तुत करते हैं, बल्कि साहित्य को सामाजिक चेतना और नैतिक संघर्ष का माध्यम भी बनाते हैं।
प्रेमचंद धर्म को करुणा और न्याय से जोड़ते हैं। ‘सद्गति’ में पंडित द्वारा दलित को अंतिम संस्कार न देना धर्म की विडंबना को उजागर करता है। आशान धर्म को आंतरिक शुद्धि, समता और आत्मबोध से जोड़ते हैं। उनके लिए ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग करुणा और सत्य है। दोनों धर्म के पाखंड का विरोध करते हैं और मानवीय नैतिकता को प्रधानता देते हैं। प्रेमचंद की भाषा सरल, ग्रामीण, संवादपरक और पात्रों की मानसिकता से जुड़ी होती है। आशान की काव्य-भाषा संस्कृतनिष्ठ, शुद्ध, प्रतीकात्मक और दार्शनिक होती है। प्रेमचंद यथार्थ को ठोस रूप में सामने रखते हैं, आशान उसे दर्शन और प्रतीकों से व्याख्यायित करते हैं।
दोनों का साहित्य समाज में व्याप्त अन्याय, असमानता, जातिगत भेदभाव और स्त्री शोषण जैसी समस्याओं के खिलाफ आवाज़ उठाता है। प्रेमचंद और कुमारन आशान दोनों ही भारतीय साहित्य के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में समाज परिवर्तन, मानवीय संवेदनाओं और सांस्कृतिक चेतना को उजागर किया। प्रेमचंद और कुमारन आशान, दोनों ही अपने साहित्य में नारी अस्मिता के प्रश्न पर गहराई से विचार करते हैं। प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों और कहानियों में नारी जीवन की विभिन्न समस्याओं, जैसे कि दहेज, अनमेल विवाह, विधवा जीवन आदि का चित्रण किया है। कुमारन आशान ने भी अपनी कविताओं में नारी जीवन के संघर्ष और उत्थान को दर्शाया है। ये दोनों लेखक सामाजिक यथार्थ, मानवीय मूल्य और उत्पीड़ित वर्गों की व्यथा को साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं, यद्यपि वे भिन्न-भिन्न भाषायी और सांस्कृतिक परिवेश से आते हैं, पर उनके कार्यों में सामाजिक और मानवीय मुद्दों के प्रति एक गहन प्रतिबद्धता झलकती है। प्रेमचंद का साहित्य सामाजिक यथार्थ का दर्पण है। उन्होंने भारत के ग्रामीण जीवन, जातिगत भेदभाव, आर्थिक विषमता और सामाजिक शोषण को केंद्र में रखकर दलित एवं वंचित वर्गों की पीड़ा का गहन चित्रण किया है।
भारतीय साहित्य में नारी अस्मिता का स्वर एक महत्वपूर्ण विमर्श रहा है। हिंदी के कथाकार प्रेमचंद और मलयालम के कवि कुमारन आशान दोनों ही अपने समय के समाज सुधारकों की भूमिका निभाते हैं। प्रेमचंद जहाँ अपने कथा साहित्य के माध्यम से ग्रामीण, शोषित और स्त्री पात्रों के माध्यम से यथार्थ को चित्रित करते हैं, वहीं कुमारन आशान अपनी कविताओं में नारी चेतना और आत्मबल को प्रतिष्ठा देते हैं। दोनों ही लेखक पितृसत्तात्मक समाज के विरोध में स्त्री के आत्मसम्मान और स्वत्व की स्थापना करते हैं।
प्रेमचंद का साहित्य गहरे यथार्थबोध और सुधारवादी दृष्टिकोण से प्रेरित है। उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से किसान, स्त्री, दलित और श्रमिक वर्ग की समस्याओं को अत्यंत संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया। उन्होंने स्त्री को मनुष्य कोटि में सर्वश्रेष्ठ माना है- “स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अँधेरे से। मनुष्य के लिए क्षमा और दया और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है।”3 उनके पात्र सामाजिक शोषण, धार्मिक पाखंड और वर्ग भेद के विरुद्ध संघर्ष करते हैं, और मानवीय गरिमा तथा आत्म-सम्मान की स्थापना की आकांक्षा व्यक्त करते हैं। स्त्री विमर्श में प्रेमचंद का योगदान उल्लेखनीय है।‘निर्मला’, ‘बड़े घर की बेटी’, ‘धनिया’ जैसी नारी पात्र सामाजिक बंधनों के भीतर रहकर भी आत्मबल और विवेक की प्रतीक बनती हैं। वे केवल सहनशील नहीं, बल्कि जागरूक और निर्णयशील हैं। दलित चेतना को उन्होंने ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘कफन’ जैसी कहानियों में गंभीरता से उठाया है। दलित पात्रों के माध्यम से वे धर्म और जाति आधारित शोषण की अमानवीयता को उजागर करते हैं। खासतौर पर ‘कफन’ एक तीखा व्यंग्य है जो सामाजिक व्यवस्था पर करारा प्रहार करता है।
‘गोदान’ उनके साहित्य का शिखर है, जहाँ किसान जीवन, वर्ग-संघर्ष और धार्मिक पाखंड का यथार्थपूर्ण चित्रण किया गया है। होरी जैसे पात्र भारतीय कृषक की करुण गाथा बन जाते हैं। प्रेमचंद का धार्मिक दृष्टिकोण भी मानवीय है। वे धर्म को करुणा, सह-अस्तित्व और नैतिकता से जोड़ते हैं, न कि केवल रीति-रिवाज़ों और पाखंड से। ‘पंच परमेश्वर’, ‘ईदगाह’, और ‘कर्मभूमि’ जैसी रचनाएँ धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक न्याय का सशक्त स्वर बनकर उभरती हैं।
प्रेमचंद का साहित्य भारतीय समाज की जमीनी हकीकत को उजागर करता है, वह समाज जिसमें वर्ग भेद, जाति प्रथा, स्त्री शोषण और धार्मिक पाखंड व्याप्त हैं। उन्होंने साहित्य को सामाजिक जागरूकता और नैतिक विवेक का माध्यम बनाया। उनके पात्र संघर्षशील, संवेदनशील और न्याय के पक्षधर हैं। प्रेमचंद ने जिन मुद्दों को उठाया, वे आज भी प्रासंगिक हैं। उनका साहित्य आज के समय में भी सामाजिक पुनर्रचना का प्रेरक स्रोत बना हुआ है। “प्रेमचंद उन लेखकों में हैं जिनकी रचनाओं से बाहर के साहित्यप्रेमी हिंदुस्तान को पहचानते हैं।”4
कुमारन आशान केवल एक कवि नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक चिंतक और समाज-सुधारक भी थे, जो श्री नारायण गुरु के शिष्य के रूप में उनके सामाजिक आंदोलन से गहराई से जुड़े रहे। उनके काव्य में जातिवाद, स्त्री-शोषण और नैतिक पतन के विरुद्ध तीव्र प्रतिरोध दिखाई देता है। उनकी कविताएँ आध्यात्मिकता और नैतिक मूल्यों से समृद्ध हैं, लेकिन साथ ही वे सामाजिक असमानताओं, विशेष रूप से स्त्री की स्थिति, को चुनौती देती हैं। ‘चिंता-विष्टयाय सीता’ में स्त्री को एक रचनात्मक और आत्मनिर्भर सत्ता के रूप में चित्रित किया गया है, जबकि ‘दुर्वस्था’ में विधवा स्त्री के पुनर्विवाह को लेकर सामाजिक रूढ़ियों पर करारा प्रहार किया गया है। ‘वीणा पूवु’ में जीवन की क्षणभंगुरता के माध्यम से आशान सामाजिक मूल्यों के पतन पर शोक व्यक्त करते हैं।
“अहा! सुंदर पुष्प, तू कभी रानी-सा दमकता था;
अब धूल में पड़ा है, अपनी आभा खोकर!”5
वे मानते हैं कि जाति, धर्म और लिंग की सीमाओं से परे मानवता सर्वोपरि है। आशान की रचनाएँ करुणा, सह-अस्तित्व और नैतिक जागरण से ओतप्रोत हैं, और वे प्रेम व विवेक के माध्यम से समाज में सकारात्मक परिवर्तन की बात करते हैं।
कुमारन आशान, श्री नारायण गुरु के अनुयायी और समाज-सुधारक कवि थे, जिनकी कविताओं में गहरी दार्शनिकता, करुणा और सामाजिक जागरूकता का समन्वय मिलता है। उन्होंने केरल की जातिवादी व्यवस्था में निचले पायदान पर खड़े वंचित वर्गों की व्यथा को स्वर दिया। उनकी कविता ‘दुर्वस्था’ जाति-भेद और सामाजिक पाखंड पर तीव्र प्रहार करती है, जहाँ एक निम्न जाति की स्त्री और उच्च जाति के पुरुष के प्रेम को समाज द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है। ‘वीणा पूवु’ में ‘गिरी हुई पंखुड़ी’ के माध्यम से आशान समाज में व्याप्त मूल्यहीनता और आत्मविमर्श को दर्शाते हैं। वहीं ‘चंडालभिक्षुकी’ में एक दलित स्त्री को बुद्ध द्वारा भिक्षा देने का दृश्य करुणा और समता का प्रतीक बनकर ब्राह्मणवादी सोच को चुनौती देता है।
“यह कैसी पीड़ा की कहानी है!
क्या तुमने जाति को भूलकर एक नीच महिला के हाथ से जल माँगा?”6
कुमारन आशान मलयालम साहित्य के केवल एक महान कवि नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक विचारक, सामाजिक चिंतक और श्री नारायण गुरु के सक्रिय अनुयायी थे। उन्होंने अपने काव्य में बुद्ध के करुणा, अहिंसा और समता के सिद्धांतों को अपनाते हुए जातिवाद, स्त्री-शोषण और धार्मिक पाखंड के विरुद्ध आवाज उठाई। उनकी कविताएँ ‘दुर्वस्था’, ‘चंडालभिक्षुकी’, ‘वीणा पूवु’, ‘चिंता-विष्टयाय सीता’, आदि समाज की असमानताओं, स्त्री अस्मिता और जातीय अन्याय पर गहरे आत्मबोध और करुणा के साथ आधारित हैं। आशान स्त्री को केवल सहानुभूति की पात्र नहीं, बल्कि आत्मनिर्णय और नैतिक चेतना की प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती दी और दलित चेतना को आध्यात्मिक गरिमा प्रदान की।
“मैं जाति नहीं पूछता, बहन;
मैं केवल यह पूछता हूँ कि तुम्हारा गला सूखा है या नहीं।
डरना मत, मुझे जल दे दो।”7
उनका साहित्य आत्मिक यथार्थ, जीवन की क्षणभंगुरता, सामाजिक समता और मानवीय मूल्यों का चिंतन है। उन्होंने श्री नारायण गुरु के “एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर” के सिद्धांत को आत्मसात करते हुए धर्म को कर्मकांड से निकालकर मानवता और सामाजिक न्याय के स्तर पर प्रतिष्ठित किया। कुमारन आशान का काव्य केरल के सामाजिक पुनर्जागरण का प्रतीक बन गया, जो आज भी करुणा, विवेक और सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा देता है।
“पृथ्वी पर सौभाग्य चंचल है,
और सौंदर्य क्षणिक है।”8
प्रेमचंद और कुमारन आशान भारतीय साहित्य के दो ऐसे सशक्त स्तंभ हैं जिन्होंने अपनी-अपनी भाषाओं और साहित्यिक विधाओं के माध्यम से समाज में गहन परिवर्तन की चेतना उत्पन्न की। “हिंदी साहित्य में गोस्वामी तुलसीदास के बाद कोई जन-जन के मन में बसा है तो वे प्रेमचंद हैं।”9 प्रेमचंद ने हिंदी कथा-साहित्य में सामाजिक यथार्थ, जाति-विरोध, स्त्री-विमर्श और धार्मिक पाखंड पर प्रहार करते हुए ग्रामीण भारत के दलितों, वंचितों और स्त्रियों की व्यथा को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। वहीं कुमारन आशान ने मलयालम काव्य में आत्मबोध, करुणा, समता और आध्यात्मिक मानवतावाद के माध्यम से जातिगत असमानता और रूढ़ियों को चुनौती दी। दोनों लेखकों की रचनाएँ केवल आलोचना नहीं करतीं, बल्कि सुधार की प्रेरणा भी देती हैं। प्रेमचंद के ‘कफन’, ‘सद्गति’, ‘निर्मला’ और आशान की ‘दुर्वस्था’, ‘चंडालभिक्षुकी’, ‘वीणा पूवु’ न सिर्फ साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध हैं, बल्कि सामाजिक न्याय, मानव गरिमा और करुणा की स्थापना की ओर भी उन्मुख हैं। इनकी रचनाओं में स्त्री केवल सहानुभूति की पात्र नहीं, बल्कि आत्मबल, विवेक और सामाजिक चेतना की प्रतीक बनकर उभरती है। दोनों साहित्यकार मानते हैं कि समाज सुधार केवल राजनीतिक आंदोलनों से नहीं, बल्कि साहित्य के माध्यम से भी संभव है।
धार्मिक चेतना को प्रेमचंद और आशान ने मानवीय संवेदना और नैतिक विवेक से जोड़कर प्रस्तुत किया। प्रेमचंद ने जहाँ धार्मिक पाखंड का यथार्थवादी चित्रण किया, वहीं आशान ने बौद्ध दृष्टिकोण के माध्यम से करुणा और समता की स्थापना की। इस प्रकार, प्रेमचंद और कुमारन आशान की साहित्यिक दृष्टि एक ओर यथार्थ के धरातल पर सामाजिक विषमताओं को उजागर करती है, वहीं दूसरी ओर मानवीय मूल्यों, नैतिक चेतना और आत्मिक विकास की ओर भी प्रेरित करती है। इनकी रचनाएँ आज के समय में भी अत्यंत प्रासंगिक हैं, जब समाज पुनः नैतिक संकट और सामाजिक विषमता की ओर बढ़ रहा है। दोनों लेखक साहित्य को सामाजिक परिवर्तन और मानवीय गरिमा के पुनर्स्थापन का माध्यम मानते हैं, और यही उनके साहित्य की सबसे बड़ी शक्ति है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
- डॉ० रामविलास शर्मा : प्रेमचंद और उनका युग : राजकमल प्रकाशन: नई दिल्ली 2018, पृष्ठ-28
- अमृतराय : प्रेमचंदः विविध प्रसंग- भाग 3 : हंस प्रकाशन : इलाहाबाद, 1962, पृष्ठ सं 254
- मुंशी प्रेमचंद : ‘गोदान’: पृष्ठ-127
- डॉ० रामविलास शर्मा : प्रेमचंद और उनका युग : राजकमल प्रकाशन : नई दिल्ली 2018, पृष्ठ- भूमिका से।
- कुमारन आशान : वीणापूवु : डीसी बुक्स : कोट्टायम : 2015 : पृ. 64
- कुमारन आशान : चांडालभिक्षुकी : डीसी बुक्स : कोट्टायम : 2015 : पृ. 142
- कुमारन आशान : चांडालभिक्षुकी : डीसी बुक्स : कोट्टायम : 2015 : पृ. 142
- कुमारन आशान, वीणापूवु : डीसी बुक्स : कोट्टायम : 2015 : पृ. 66
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- George K.M : Modern Indian Literature: An Anthology, Sahitya Akademi.
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- रामविलास शर्मा : प्रेमचंद और हिंदी साहित्य : राजकमल प्रकाशन।
- प्रेमचंद : सद्गति और अन्य कहानियाँ : राजकमल प्रकाशन।
- Kumar N: Social Reform in Indian Literature: Orient Black Swan: 2017
- Menon A: Poems of Kumaran Asan: DC Books: (Ed.) (2010).
- Nair P: Renaissance in Kerala Literature: Kerala Sahitya Academi: (2005).
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डॉ. दीपा कुमारी
Assistant Professor &HOD
D.B College Thalayolaparambu
Kerala
(वही)





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