
मुंशी प्रेमचन्द द्वारा रचित ‘निर्मला’ एक प्रसिद्ध उपन्यास है। ‘निर्मला‘ उपन्यास नारी जीवन की करुण त्रासदी कहा जा सकता है। इसका प्रकाशन सन १९२७ में हुआ था। सन १९२६ दहेज प्रथा और अनमेल विवाह को आधार बना कर इस उपन्यास का लेखन प्रारम्भ हुआ। महिला-केन्द्रित साहित्य के इतिहास में इस उपन्यास का विशेष स्थान है। इस उपन्यास की कथा का केन्द्र और मुख्य पात्र ‘निर्मला’ नाम की १५ वर्षीय सुन्दर और सुशील लड़की है। निर्मला का विवाह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से कर दिया जाता है। जिसके पूर्व पत्नी से तीन बेटे हैं। निर्मला का चरित्र निर्मल है, परन्तु फिर भी समाज में उसे अनादर एवं अवहेलना का शिकार होना पड़ता है। उसकी पति परायणता काम नहीं आती। उस पर सन्देह किया जाता है, उसे परिस्थितियाँ उसे दोषी बना देती है। इस प्रकार निर्मला विपरीत परिस्थितियों से जूझती हुई मृत्यु को प्राप्त करती है।
निर्मला में अनमेल विवाह और दहेज प्रथा की दुखान्त व मार्मिक कहानी है। उपन्यास का लक्ष्य अनमेल-विवाह तथा दहेज़ प्रथा के बुरे प्रभाव को अंकित करता है। निर्मला के माध्यम से भारत की मध्यवर्गीय युवतियों की दयनीय हालत का चित्रण हुआ है। उपन्यास के अन्त में निर्मला की मृत्यृ इस कुत्सित सामाजिक प्रथा को मिटा डालने के लिए एक भारी चुनौती है। प्रेमचन्द ने भालचन्द और मोटेराम शास्त्री के प्रसंग द्वारा उपन्यास में हास्य की सृष्टि की है।
निर्मला के चारों ओर कथा-भवन का निर्माण करते हुए असम्बद्ध प्रसंगों का पूर्णतः बहिष्कार किया गया है। इससे यह उपन्यास ‘सेवासदन’ से भी अधिक सुग्रंथित एवं सुसंगठित बन गया है। इसे प्रेमचन्द का प्रथम ‘यथार्थवादी’ तथा हिन्दी का प्रथम ‘मनोवैज्ञानिक उपन्यास’ कहा जा सकता है।
कल्याणी शहर के प्रसिद्ध वकील मुंशी उदयभानु लाल की पत्नी है और उपन्यास की नायिका निर्मला की माँ है। वह दो पुत्रों और दो पुत्रियों की माता है। घर सँभालने वाली और पतिपरायण कल्याणी को इतना भी अधिकार नहीं है कि अपने पति को फिजूलखर्ची रोकने का परामर्श दे सकें। कल्याणी जब बारातियों द्वारा किये जाने वाले व्यवहार की बात करती है तो हमारे समक्ष विवाह के प्रसंग का एक ऐसा दृश्य प्रकट होता है जिसके साक्षी हम सभी कई बार हुए होंगे।प्रेमचन्द ने भारतीय समाज की उन सभी कुरीतियों पर कल्याणी के माध्यम से प्रकाश डाला है। उपन्यास में महिला अधिकारों की कमी भी एक समस्या है,जो महिलाओं को अपने जीवन के निर्णय लेने में असमर्थ बनाती है। इन समस्याओं के माध्यम से,प्रेमचन्द ने उस समय की सामाजिक परिस्थितियों को दर्शाया है और महिलाओं के अधिकारों की कमी को उजागर किया है।
निर्मला के पिता बाबू उदयभानु लाल की स्थिति ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे की थी।’ उनकी वकालत खूब चलती थी, लक्ष्मी की उन पर कृपा भी थी, पर घर में जो बहुत से सम्बन्धी पड़े खाते रहते थे, उनके कारण कुछ बचता नहीं था । वास्तविकता यह थी कि मुंशी उदयभानु लाल को पैसा बचाना आता भी नहीं था, उनकी बड़ी पुत्री निर्मला का विवाह निश्चित हुआ और पिता ने दहेज न माँगकर लेन-देन की बात उन्हीं पर छोड़ दी। उदयभानु लाल अपनी इज्जत बचाने के लिए, पर्याप्त दहेज देने के साथ ही बरातियों का ऐसा स्वागत करना चाहते थे कि सभी याद रखें।
पुत्री के विवाह की तैयारी उदयभानु लाल किस प्रकार कर रहे थे। इसका वर्णन लेखक ने इन शब्दों में किया है-
“बाबू उदयभानु लाल का मकान बाजार में बना हुआ है। बरामदे में सुनार के हथौड़े और कमरे में दर्जी की सुइयों चल रही हैं। सामने नीम के नीचे बढ़ई चारपाइयाँ बना रहा है। खपरैल में हलवाई के लिए भट्ठा खोदा गया है। मेहमानों के लिए अलग मकान ठीक किया गया है। यह प्रबन्ध किया जा रहा है कि हर एक मेहमान के लिए एक-एक चारपाई, एक एक कुर्सी और एक-एक मेज हो हर तीन मेहमानों के लिए एक-एक कहार रखने की तजवीज की जा रही है। बरातियों का ऐसा सत्कार का इन्तजाम किया जा रहा है कि किसी को जबान हिलाने का मौका न मिले। वे लोग भी याद करें कि किसी के यहाँ बारात में गये थे। एक पूरा कान बर्तनों से भरा हुआ है। चाय के सैट हैं, नाश्ते की तश्तरियाँ, थाल, लोटे, गिलास। (1)
निर्मला के पिता की वित्तीय समस्याएं भी एक बड़ी समस्या है । उदयभानु लाल के पास कुछ नहीं था वे कर्जा लेने का प्रबन्ध कर चुके थे। पत्नी को यह. फ़िज़ूल खर्च का तमाशा देखना सहन नहीं हो रहा था। पहले उदयभानु लाल ने विवाह का खर्च पाँच हजार जोड़ा था, एक हफ्ते बाद व दस हजार पर पहुँच गये। पत्नी ने इसका विरोध किया तो बात बढ़ गयी दोनों के उस संवाद की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार है कल्याणी –
ये सारे काँटे तो मेरे बच्चों के लिए बोये जा रहे हैं। उदयभानु तो मैं क्या तुम्हारा गुलाम हूँ।. कल्याणी तो क्या मैं तुम्हारी लौंडी हूँ? उदयभानु ऐसे मर्द और होंगे जो औरतों के इशारों पर नाचते हैं। कल्याणी – तो ऐसी स्त्रियाँ भी और होंगी जो मर्दों की जूतियाँ सहा करती हैं। उदयभानु – मैं कमा कर लाता हूँ, जैसे चाहूँ खर्च कर सकता हूँ किसी को बोलने व नकार नहीं।कल्याणी तो आप अपना घर संभालिए।(2)
इससे स्पष्ट हो जाता है कि एक पढ़े-लिखे वकील के घर में उसकी पत्नी की स्थिति क्या है? उस समय स्त्रियाँ घर सँभालती थीं और पुरुष बाहर से धन कमाकर लाता था। आर्थिक अधिकार होने के कारण पुरुष स्वयं को स्वामी और स्त्री को दासी समझता था। बढ़-चढ़कर बोलने वाली और स्वयं को पति की दासी न समझने वाली पत्नी को सबक सिखाने के लिए उदयभानु लाल ने आत्महत्या का नाटक करने की सोची और रात में चुपचाप घर से निकल पड़े। रास्ते में मतई नाम के बदमाश ने लाठी मारकर उदयभानु की हत्या कर दी।
गलती उदयभानु ने की और वैधव्य का दुःख भोगना पड़ा कल्याणी को, जिसे अपनी फूल-सी पन्द्रह वर्ष की पुत्री निर्मला को चालीस वर्ष के कुरूप वृद्ध से बाँधनी पड़ी।
इस उपन्यास के नारी पात्रों में सबसे विषम और दुःखद स्थिति निर्मला की है। उसका जीवन ज्वालामुखी का निवास है। जिन मुंशी तोताराम का उनके विवाह हुआ है। उनकी अवस्था और शारीरिक स्थिति इस प्रकार है
“वकील साहब का नाम था मुंशी तोताराम साँवले रंग के मोटे-ताजे आदमी थे। उम्र तो अभी चालीस से अधिक न थी, पर वकालत के कठिन परिश्रम ने सिर के बाल पका दिये थे। व्यायाम करने का उन्हें अवकाश न मिलता था। यहाँ तक कि कभी कहीं घूमने भी नहीं जाते, इसलिए तोंद निकल आई थीं। देह के स्थूल होते हुए भी आये दिन कोई-न-कोई शिकायत रहती थी। मंदाग्नि और बवासीर से तो उनका चिरस्थायी सम्बन्ध था। अतएव फूंक-फूंककर कदम रखते थे।”(3)
प्रेमचन्द ने अनमेल विवाह में उम्र के विरोधाभास को बड़ी ही सूक्ष्मता से प्रकट करते हुए कहा कि-कहाँ कनक छरी सी कामिनी पन्द्रह वर्ष की परम सुन्दरी फूल सी निर्मला और कहाँ चालीस वर्ष के मोटे, भद्दे और वृद्ध मुंशी तोताराम। एक प्रकार से मुंशी तोताराम निर्मला के पिता की अवस्था के थे। गलती की मुंशी उदयभानु लाल ने और दहेज का दानव फैलाया समाज ने पर भोगना पड़ा निर्मला को। निर्मला मुंशी तोताराम को पति समझने में क्यों हिचकिचाती थी, इसका वर्णन करते हुए प्रेमचन्द्र ने लिखा है
“निर्मला को न जाने क्यों तोताराम के पास बैठने और हँसने बोलने में संकोच होता था इसका कदाचित यह कारण था कि अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका पिता था। जिसके सामने वह सिर झुकाकर, देह चुराकर निकलती थी, अब उनकी अवस्था का एक आदमी उसका पति था। वह उसे प्रेम की वस्तु नहीं, सम्मान की वस्तु समझती थी। उनसे भागती फिरती, उनको देखते ही उसकी प्रफुल्लता पलायन कर जाती थी।(4)
रूक्मिणी मुंशी तोताराम की सगी बहन थीं। विधवा हो जाने के कारण उनके पास रहती थीं। इसका तात्पर्य यही है कि उनकी ससुराल वालों ने उन्हें रोटी कपड़ा देना भी उचित नहीं समझा। मुंशी तोताराम के घर में उनकी जो स्थिति थी, वह इस कथन से स्पष्ट है-
“मैंने सोचा था कि विधवा है, अनाथ है, पाव भर आटा खायेगी, पड़ी रहेगी। जब और नौकर-चाकर खा रहे हैं तो यह तो अपनी बहिन ही है। लड़कों की देखभाल के लिए एक औरत की जरूरत भी थी, रख लिया, लेकिन इसके ये माने नहीं कि वह तुम्हारे ऊपर शासन करे।”(5)
भारतीय समाज एक अधेड़ उम्र के पुरुष जिसके तीन बच्चे हों उसके पुनर्विवाह को प्रसन्नता से स्वीकारता है,परन्तु यदि स्त्री विधवा हो जाये तो उसके पुनर्विवाह पर नाक-भों सिकोड़ने लगता है। समाज की दोहरी नीति कल्याणी जैसी उन सभी स्त्रियों की समस्या को प्रस्तुत करती है।
तोताराम जी ने निर्मला के सामने तो अपनी सगी बहन को अनाथ, विधवा और नौकर के समान कहा है- उन्होंने रूक्मिणी से जो कहा, वह भी कम अपमानजनक नहीं है- “सुनता हूँ कि तुम हमेशा खुचर निकालती रहती हो, बात-बात पर ताने देती हो। अगर कुछ सीख देनी तो उसे प्यार से मीठे शब्दों में देनी चाहिए। तानों से सीख मिलने के बदले उल्टा और जी जलने लगता हूँ” (6)
इनके अतिरिक्त भालचन्द्र सिन्हा, उनकी पत्नी रंगीलीबाई और डॉ. भुवनमोहन सिन्हा की पत्नी सुधा की स्थिति भी विशेष अच्छी नहीं है। रंगीलीबाई की इच्छा के विरुद्ध उसके पति निर्मला से अपने पुत्र का विवाह करने से मना कर देते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि निर्मला उपन्यास नारी जीवन की करुण त्रासदी है।
मुंशी तोताराम का बड़ा पुत्र मंसाराम निर्मला का समन्वयस्क था। निर्मला ने मुंशी तोताराम को प्रसन्न करने के लिए हँसना, बोलना और शृंगार करना आरम्भ किया था, क्योंकि तोताराम जी उसे रिझाने के लिए छैला बन गये थे और अपनी छड़ी के द्वारा तीन तलवारधारी लुटेरों को पराजित करने की कथा सुना चुके थे। निर्मला ने सहज ही कह दिया कि वह मंसाराम से अंग्रेजी पढ़ने लगी है, तो तोताराम जी को मंसाराम और निर्मला के मध्य अवैध सम्बन्धों का सन्देह हुआ। उन्होंने समझ लिया कि यह सब बनाव- शृंगार और प्रसन्नता मंसाराम को रिझाने के लिए हैं। तोताराम ने अपने पुत्र मंसाराम को घर से निकाल कर बोर्डिंग हाउस में रहने के लिए विवश कर दिया। मंसाराम को जब पिता के इस सन्देह का पता चला तो उसे निर्मला की दशा पर तरस आया और उसने निर्मला की शुद्धता का प्रमाण देकर अपने प्राण त्याग दिये। इसका दोषारोपण निर्मला पर किया गया। मुंशी तोताराम की बहन रूक्मिणी ने तो स्पष्ट शब्दों में आरोप लगाया था कि निर्मला ही मंसाराम को घर से निकाल रही है।
निर्मला और तोताराम का विवाह होने से पहले घर रूक्मिणी चलाती थी। तोताराम जो कुछ कमाकर लाते थे, वह रूक्मिणी के ही हाथ पर रखते थे। निर्मला के आने पर मुशी तोताराम निर्मला को अपनी कमाई देने लगे। इससे रूक्मिणी बहुत दुःखी हुई और निर्मला की आलेचना ही नहीं, विरोधी बन गयी। वह निर्मला पर किस प्रकार दोषारोपण करती थी। इसका वर्णन प्रेमचन्द्र ने इन शब्दों में किया है
“बच्चों के साथ हँसने- खेलने से वह (निर्मला) अपनी दशा को थोड़ी देर के लिए भूल जाती थी, कुछ मन हरा जो जाता, लेकिन रूक्मिणी देवी लड़कों को उसके पास फटकने भी न देतीं, मानो वह कोई पिशाचिनी है जो उन्हें निगल जायेगी। रूक्मिणी देवी का स्वभाव सारे संसार से निराला था, यह पता लगाना कठिन था वह किस बात से खुश होती थी और किस बात से नाराज? एक बार जिस बात से खुश हो जाती थीं, दूसरी बार उसी बात से दुःखी हो जाती थी। अगर निर्मला अपने कमरे में बैठी रहती तो कहती कि न जाने कहाँ की मनहूसियत है, अगर वह कोठे पर चढ़ जाती या मेहरियों से बातें करती तो छाती पीटने लगती न लाज है, न शर्म, निगोड़ी ने हया भून खाई है। अब क्या, कुछ दिनों में बाजार में नाचेगी।” (7)
लेखक के अनुसार निर्मला की स्थिति पंखहीन पक्षी की तरह कही जा सकती है,जो सर्प को अपनी ओर आता देखकर उड़ना चाहती है,परन्तु उड़ नहीं सकती,प्रयास करती है किन्तु निष्फल होती है,केवल तड़पकर रह जाती है।अनमेल विवाह,पति द्वारा किया जाने वाला संदेह,सौतेली माँ होने की समस्या,अल्पायु में मृत्यु होना और जीवन के अंतिम समय अनेक प्रकार की आर्थिक,सामाजिक,मानसिक पीडाओं को झेलना इन सभी समस्याओं का कारण किसे कहा जा सकता है?
निर्मला उपन्यास में पितृसत्तात्मक समाज की समस्या को दर्शाया गया है, जहाँ महिलाओं को पुरुषों के आधीन रहना पड़ता है ।‘निर्मला’ को हिंदी साहित्य में एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि इसमें पात्रों के आंतरिक द्वंद्वों और भावनाओं को गहराई से चित्रित किया गया है। निर्मला उपन्यास एक महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति है,जो सामाजिक समस्याओं को उजागर करती है,और पाठकों को सोचने के लिए प्रेरित करती है। इस उपन्यास के माध्यम से प्रेमचन्द ने एक महत्वपूर्ण सन्देश दिया है कि महिलाओं को अपने जीवन के निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए और बालविवाह, अनमेल विवाह जैसी समस्याओं को रोकने के लिए समाज को आगे आना चाहिए।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:
1.निर्मला- प्रेमचन्द,ध्रुमिल प्रकाशन, अहमदाबाद। पृष्ठ क्रमांक 4-5
- वही ….. पृष्ठ क्रम. 6
- वही ……. पृष्ठ क्रम.26
- वही ….. पृष्ठ क्रम.२6
- वही ….. पृष्ठ क्रम.28
- वही ……पृष्ठ क्रम.29
- वही………..पृष्ठ क्रम .27
डॉ.पारुल सिंह
आचार्य
श्री कृष्ण प्रणामी आर्ट्स कॉलेज
दाहोद,गुजरात





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