दमनरहित संरचनाओं की विकल्पहीनता के दौर में एक विकल्प की तलाश पर हैं लेखक शचीन्द्र आर्य और उनकी याद की क़िताब।

संभवतः यही कारण है कि विधा के हवाले से बशर्ते सुविधा के लिए रचना को डायरी कह लिया गया, जो साहित्य की मौज़ूदा साहित्यिक विधाओं के विकल्पों में भले ही खुद को अंटाने जैसा जान पड़ता है लेकिन पुस्तक में उतरने या कि उसके साथ चलने के दौरान इसमें आप यात्रा, कविता, कथा, कहानी, संस्मरण, आत्मकथा इत्यादि से राबता होते चलते हैं।

कहीं न कहीं ये लेखक का संरचनाओं की अधीनता के दौर में अस्वरित मानसिक विरोध ही है जो इस पुस्तक की शक्ल में नवीन विधा की शुरुआत के रूप में आकार लेता है। जहां सुविधा अपने आप में एक विधा हो जाती है। बहुत मुमकिन है कि आने वाले वक़्त में कहन के इस ढंग को ‘सुविधा’ संज्ञा से ही पहचाना जाए।

हालांकि कुछ मौज़ूदा संरचनाओं के संरचनाधीनों के लिए, यह पुस्तक लेखक का आत्मालाप हो। किन्तु वो महज़ आरोपण ही होगा। क्योंकि जिस तरह लेखक पुस्तकें पढ़ने की निग़ाह से समृद्ध हैं ऐसे में तो उन्हें कई और आरोपणों के लिए भी तैयार रहना चाहिए।

संभवतः लेखक पर अस्तित्ववादी होने का भी एकतरफा आरोप लगाया जाए क्योंकि लेखक ने परिवार नामक सामाजिक संस्था के मानकों के अनुसार व्यक्ति की गढ़न की चेष्टा से खत्म होती उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को भी इस पुस्तक के जरिये लक्षित किया है, जीविकोपार्जन के नाम पर व्यवस्था द्वारा व्यक्ति को अपने अधीन करते जाने पर अमुक के मैं और संरचनाधीन होते व्यक्तित्व के द्वैध को भी दिखलाया है।

वस्तुतः लेखक दृष्टा होकर लिखने के पक्षधर हैं लेकिन उनके पास कहने को इतना कुछ है कि उन्हें पन्नों पर उतारने में उनका आत्म और लेखकीय व्यक्तित्व द्वंद्व करते से प्रतीत होते हैं। इसके अतिरिक्त विवाह और उसके साथ आने वाली समाज और संस्कृति की आरोपित जिम्मेदारियाँ जो व्यक्ति की तमाम संभावनाओं को खत्म कर देती हैं और वह चाह कर भी उतना प्रोडक्टिव नहीं रह जाता जैसा कि वास्तव में वह खुद होना चाहता है, जैसे कई विचारणीय बिंदु भी पाठक के लिए छोड़ें हैं। इसके साथ ही युवा विद्रोही व्यक्तित्वों की नियति को निर्दिष्ट करते हुए समूहों में उनके विलय को भी दिखलाते हैं।

निःसंदेह शचीन्द्र के लिखे को पढ़ने के दौरान प्रत्येक सामूहिक, गैर सामूहिक पहचान विशेष का पाठक, अपनी पाठकीय भूमिका को भूल उनके लेखन से खुद को इसकदर जुड़ा पायेगा मानो वह आत्मसंवाद कर रहा हो। क्योंकि लेखक के अनुभव कई स्तरों और स्थानों पर नितांत निजी होकर भी समाज और संस्कृति की विभिन्न संरचनाओं के इंटेरसेक्शन्स पर लगभग सभी संघर्षरत सामूहिक पहचानों का अनुभव जान पड़ता है। यूँ तो प्रत्यक्षा जी ने तय शब्द सीमा के बावज़ूद फ्लैप कवर पर शानदार टिप्पणी से पुस्तक परिचय दिया हुआ है जहां उनकी लिखावट से ज़ाहिर है कि पुस्तक की रोचकता उनके कहन से भी अधिक पढ़े जाने की मांग करती है और एक बार हाथ लग जाने के बाद तो पाठक को इसकदर विवश करती है कि वो एक बैठकी में क़िताब पूरी पढ़ जाने के बाद ही उठता है।

किताब में यात्रा, याद, अकेलापन, मित्रता और प्यार के साथ-साथ किताबें और जगहें भी हैं। पुल, पेड़, जगहों पर लिखे को पढ़ते मन भारी हो उठता है, इतनी संवेदना पेड़ के कटने, जगहों के छूटने या पुल के न रहने का दृश्य तो उभारते ही हैं, साथ ही किसी करीबी के चले जाने की टीस-सा चुभते हैं। सम्भवतः संबंधित प्रसंग को पढ़ते प्रत्येक पाठक की आँख में पानी तो उगेगा ही। कहना सिर्फ इतना है कि लेखक न सिर्फ अपने जिए को आपके साथ साझा करते हैं बल्कि लगातार पाठक को सिखाते और द्रवित करते चलते हैं।

यूँ तो स्त्रियां अक्सर अपने प्रेमी और प्रेम संबंधों पर बेहिचक लिखती रहीं हैं लेकिन पुरुषों ने अपने लेखन में अपनी प्रेमिकाओं का या तो बहुत कम ज़िक्र किया है या फिर लिखना जरूरी नहीं समझा मगर यहां शचीन्द्र अन्य पुरुषों से कहीं आगे निकल आते हैं। पुस्तक में प्रेम, तुम बनकर आता है और खुद को दोहराता भी है। लेखक, तुम के साथ अपने प्रेम को कई दफ़ा स्वीकारते हैं। अपनी गढ़न में तुम को ज़िम्मेदार बताते हैं। अपनी ख्वाहिशों, इच्छाओं का आधार भी बनाते हैं।

पुस्तक मित्रता मायने संदीप, तो राकेश को बतौर प्रभाव संदर्भित करती है। स्पष्टतः लेखक, राकेश के लेखन के प्रभाव में हैं तभी तो वे राकेश के लिखे को अपनी पुस्तक में सजाते हैं जो लेखक की शालीनता को दिखलाता है। इस क़िस्म के कृतज्ञ लेखक मिलना; माने मौलिकता का अब भी बचा रहना दर्शाता है।

जिस दौर में हम संवाद और बात करना लगभग छोड़ चुके हैं उसी दौर में हम लेखक की जेबों को बातों से समृद्ध पाते हैं। कितना अजीब है सिर्फ करेंसी को वैल्यू देने वाले वैल्यू सिस्टम में हमारे लेखक की जेबें बातों से खनखनाती हैं। यही तो है इनका प्रचलित मानकों के ख़िलाफ़ अस्वरित विरोध। और लेखक का यही कहने का तरीका इतना रोचक है कि बिना बोझिल हुए उन्हें कई दफे पढ़ा जा सकता है जिसका कारण है कहन में, कविता और कथ्य दोनों का होना।

हालांकि किताब में कुछ स्थानों पर रूढ़ जेंडर प्रारूपों को दर्शाते प्रसंग भी हैं जिसे गर लेखक चाहते तो छिपा जाते किन्तु उन्होंने अपनी क़िताब के साथ ईमानदारी बरती।

मसलन एक जगह वे मोहन राकेश के कथन के जरिये सिर्फ स्त्री-पुरुष साहचर्य को यानी विपरीतलिंगी संबंध संरचना की स्थापना को पुनः स्थापित करते नज़र आते हैं तो सभी बुआओं का सामान्यीकरण करते हुए अमूमन बुआ और माँओं को लड़कियों के काले होने पर आपत्ति होने की पूर्वाग्रही रूढ़ता पर भी लिखते हैं साथ ही स्त्रियों संग होने वाले बलात्कार के लिए भी सिर्फ उनके गोरे रंग को चिन्हित करते हैं जबकि मर्दवाद की कुंठा से ग्रस्त मनोविकृतों के लिए स्त्रियों संग बुजुर्ग स्त्रियों, बच्चों, स्त्रैण पुरुषों के साथ किया जाने वाला बलात्कार सिर्फ दैहिक यौन हिंसा नहीं बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक उपक्रम होता है और अमूमन क्वीयर कम्युनिटी के लड़कों और लड़कियों संग किया जाने वाला बलात्कार तो उन्हें सीधा करने के उपचार के तौर पर भी किया जाता है।

एक स्थान पर लेखक ने विवाह को सामाजिक उत्सव के तौर पर कोट किया है जहां सवाल बनता है कि क्या सिर्फ विशिष्ट सामुदायिक पहचानों के भीतर के हेट्रोसेक्सुअल विवाह ही सामाजिक उत्सवों की श्रेणी में आते हैं? क्योंकि सेम सेक्स विवाह को मंजूरी तो संविधान में भी नहीं है तो अंतर्जातीय एवं अंतरधार्मिक विवाहों को समाज नहीं स्वीकारता और ऐसे वैवाहिक जोड़ों की ‘ऑनर किलिंग’ कह कर हत्या कर दी जाती है।

एक अन्य विवादास्पद बात जो पुस्तक में समझ आती है तो वो है जीबी रोड के वेश्यालयों में जाने वाले पुरुष रिक्शा चालकों का।

जो जीबी रोड जाने वाले तमाम पुरुषों का, रिक्शा चालकों के रूप में सामान्यीकरण करना जान पड़ता है जबकि एक रिक्शा चलाने वाला कितना ही कमाता और कितना ही कोठों पर खपाता होगा, उसकी आमदनी ही कितनी होती है, हालांकि लेखक का इरादा तो बिलकुल नहीं है लेकिन ये प्रसंग एक वर्गीय या कि पेशागत आरोपण सा जान पड़ता है।

लेकिन कहना जरूरी है कि लेखक ने प्रकृति से अपने पुरुष होने और पितृसत्तात्मक समाज के तहत हुई अपनी संरचना से पूर्णतः मुक्त न हो पाने की स्वाभाविकता को स्वीकारते हुए एक आम युवा की तरह अपने सभी लूप्स और पक्षों को पुस्तक के जरिये साझा किया है।

स्पष्टतः लेखक लफ्फाज़ स्त्रीवादियों या कि महानतावादियों की माफ़िक संकर व्यवहार नहीं करते हैं और जेंडर संवेदी होते हुए भी कई मामलों में अपनी ओर से होने वाली चूक को स्वीकारते हैं और उसे बदलने का प्रयास करते हैं।

जो उन्हें सिर्फ सच्चे होने का दावा करने वाले खतरनाकों की कतार से बहुत दूर रखता है और हम पाठकों को राहत देता है। दरअसल ये पुस्तक उन सभी युवाओं की मनःस्थिति की बानगी है जो न सिर्फ भौतिक जगत में संघर्षरत हैं बल्कि समाज और संस्कृति की तमाम संरचनाओं के तहत हुई अपनी गढ़न से भी निरंतर मानसिक द्वंद्व करते हुए आत्म निर्मिति के लिए प्रयासरत हैं।

आरती
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय