श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड में एक प्रसंग आता है, जब तुलसी का राम- प्रेम एवं समर्पण उस पराकाष्ठा तक पहुंच जाता है, जहां शब्दों का कोई अर्थ नहीं रहता भाव ही प्रेम की भावना को व्यक्त करते हैं ऐसे में राम के प्रति अनुराग एवं समर्पण की असीम सीमा के उस पार खड़े तुलसी तब लिखते हैं –

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती।

जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥

तुलसी के राम मनुष्य की मनुष्यता का विस्तार हैं। वें नैतिकता के आदर्श है। उनके आचरण से न केवल स्वयं मर्यादा अपने मानदंड बनाती है, अपितु उनके चरित्र से स्वयं नैतिक मूल्य भी अपने नैतिकता के प्रतिमान को गढ़ते है। तुलसीदास नें राम को जो साहित्य में स्थान देकर प्रतिष्ठित किया है,शायद ही ऐसी प्रतिभा साहित्य के इतिहास में सुलभ हो। उन्होंने अपनी लेखनी से राम को लोक मन में बसाया है। साहित्य में अभी तक जो भी कुछ हमें राम आख्यान या काव्य परंपरा के विषय में मिलता था उसमें से अधिकांश रचनाएँ संस्कृत भाषा में ही थी। ऐसे में राम काव्य परंपरा की जड़े,जो वेदों से निकलकर वाल्मीकि से होते हुए संस्कृत साहित्य तक पहुंची, उसे कुछ हद तक अन्य भारतीय भाषाओं के कवियों (कम्बन इत्यादि) ने लोक भाषाओं में विस्तार देने का सार्थक प्रयास किया। पर सत्य माने तो इतनी बड़ी राम आख्यान एवं काव्य की परंपरा को सबसे अधिक सार्थक, सफल, सहज एवं सरल तरीके से लोक के समक्ष किसी नें रखा, तो वह तुलसीदास जी ही थे। इसीलिए अयोध्या प्रसाद सिंह ‘हरिऔध’जी ने ठीक ही लिखा है कि –

अवगाहन मानस में करके ,

जनमानस का मल सारा टला।

कविता करके तुलसी ना लसे,

कविता लसी पा तुलसी की कला।।2

तुलसीदास नें मूलतः अवधी और ब्रजभाषा में ही राम के चरित्र का स्तवन किया है।हालांकि संस्कृत में भी उनकी कुछ पद्य रचनाएं मिलती हैं। उनकी विविध रचनाओं –श्रीरामचरितमानस, , विनय-पत्रिका, जानकी-मंगल, रामललानहछू, दोहावली, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञा-प्रश्न, बरवै रामायण, कवितावली, में राम की वैविध्यमयी छवि एवं उनकी लोकव्याप्ति के पर्याप्त आधार दिखते है।सर्व विदित है कि ‘श्री रामचरितमानस तुलसी के राम के प्रति प्रेम एवं अनुराग की पराकाष्ठा की महान लेखनी है।वे पहले ही इस बात की घोषणा कर देते हैं कि –कवित विवेक एक नहीं मोरेसत्य कहउँ लिखि कागद कोरे। पर यह उनकी विनम्र महानता है, अन्यथा सूफी संत वेणी नें तो तुलसी के विषय में यहाँ तक कह दिया है..

बेद मत सोधि सोधि देखि कै पुरान सबै सन्तन असन्तन को भेद को बतावतो।

कपटी कपूत कूर कलि के कुचाली लोग कौन रामनाम हू की चरचा चलावतो।।

बेनी कवि कहै मानो मानो रे प्रमान यही पाहन से हिये कौन प्रेम उमगावतो।

भारी भवसागर में कैसे जीव होते पार जो पै रामायण न तुलसी बनावतो।। 3

 

जॉर्ज ग्रियर्सन ने तुलसी पर सर्वप्रथम एक प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि डाली। वें तुलसी की उदार दृष्टि से सम्मोहित थे। अपनी पुस्तक ‘द मॉडर्न वर्नेक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ में तुलसी के बारे में उनका कथन है- “As a father and mother delight to hear the lisping practice of their little one.” ‘4’ गोस्वामी तुलसीदास के बारे में ग्रियर्सन की स्पष्ट मान्यता है कि ‘’भारत के इतिहास में तुलसीदास का महत्व जितना भी अधिक आँका जाता है वह अत्यधिक नहीं है। इनके ग्रंथ के साहित्यिक महत्व को यदि ध्यान में न रखा जाए, तो भी भागलपुर से पंजाब और हिमालय से नर्मदा तक के विस्तृत क्षेत्र में, इस ग्रंथ का सभी वर्ग के लोगों में समान रूप से समादर पाना निश्चय ही ध्यान देने के योग्य है। …पिछले तीन सौ वर्षों में हिंदू समाज के जीवन, आचरण और कथन में यह घुल-मिल गया है और अपने काव्यगत सौंदर्य के कारण वह न केवल उनका प्रिय एवं प्रशंसित ग्रंथ है, बल्कि उनके द्वारा पूजित भी है और उनका धर्म ग्रंथ हो गया है। यह दस करोड़ जनता का धर्मग्रंथ है और उनके द्वारा यह उतना ही भगवत्प्रेरित माना जाता है, अँग्रेज पादरियों द्वारा जितना भगवत्प्रेरित बाइबिल मानी जाती है।‘’5   

गोस्वामी तुलसीदास जी का राम के प्रति प्रेम इतना गहन हो गया था कि उनके रोम रोम में राम नाम समा गया था। वे अथक रूप से राम की महिमा का गुणगान करते थे।प्रभु श्री राम उनके एकमात्र  आराध्य हैं। राम की महिमा का गुणगान करते हुए तुलसीदास ने लिखा है कि –

सपनेहुँ मैं बर्राहि के मुख से निकसे राम।

वाके पग की पांतुरी मेरे मन को चाम।।

प्रभु श्री राम के प्रति तुलसीदास  भक्ति, प्रेम एवं समर्पण की भावना से संपन्न है। प्रेम एक भाव है और भाव भावना से उत्पन्न होते हैं..एवं भावना के लिए श्रद्धा भक्ति एवं विश्वास चाहिए होता है। तुलसी राम के नाम को ज्ञान और भक्ति के भाव को जगाने वाला मानते हैं। वह कहते हैं ‘कलिमन हरण मंगल करन, तुलसी कथा रघुनाथ की।‘ राम का नाम कलयुग में सभी पापों को नाश करने वाला है। तुलसी के कृतित्व का एक महान आधार ‘श्री रामचरितमानस’,उनके इसी राम नाम की रचनात्मक एवं कलात्मक अभिव्यक्ति है..

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं।

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्‌।

श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥6

तुलसी के राम का चरित्र अत्यंत ही उदात्त है।राम के रूप में गोस्वामी जी अपने साहित्य का सबसे बड़ा जीवन एवं मानवीय मूल्य प्रस्तुत करते हैं। वह राम के माध्यम से नैतिकता और आचरण का आदर्श रखते हैं। लोकवादी तुलसीदास में विश्वनाथ त्रिपाठी इस लिए दृढ़ता के साथ कहते हैं..

 रामराज्य तुलसी का वह स्वप्न है जिसे वह अपनी समकालीन दुर्व्यवस्था अर्थात कलयुग को तोड़कर स्थापित होते देखना चाहते थे। इस दुर्व्यवस्था के नाश और दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित व्यवस्था यानी राम राज्य की स्थापना के माध्यम है -तुलसी के राम।“7

हमारे भारतीय साहित्य की ज्ञान परंपरावेदों से मानी जाती है। वेदों की सरल अभिव्यक्ति एवं व्याख्या के लिए 108 उपनिषदों और 18 पुराने की रचना हुई। इसी ज्ञान परंपरा में आगे अनेक  शास्त्र भी लिखे गए। एवं रामायण एवं महाभारत दोनों महाकाव्य इस भारतीय ज्ञान परंपरा के मजबूत आधार स्तंभ माने जाते हैं परंतु यदि इस संपूर्ण भारतीय ज्ञान परंपरा की सनातन गंगा को यदि सार के रूप में कुछ बूंद के रूप में एकत्रित करें, तो वह निर्मल बूंद श्री रामचरितमानस ही है.. ऐसे में यदि संपूर्ण भारतीय ज्ञान परंपरा को हमें सरल, सहज तरीके से आत्मसात करना है तो श्री रामचरितमानस के ही अमृत सरोवर में डुबकी लगानी होगी। तुलसीदास जी सार रूप में लिखते हैं-

गावत वेद पुरान अष्टदस,

छओं शास्त्र सब ग्रन्थन को रस।

मुनि-मन धन सन्तन को सरबस,

सार अंश सम्मत सबही की।।

 

गोस्वामी तुलसीदास एक लोकप्रिय जन कवि हैं उन्होंने अवधी और ब्रजभाषा में राम का चरित्र चित्रण किया है। तुलसीदास की लोकप्रियता का प्रमाण इस तथ्य से प्रतिपुष्ट होता है, कि उनकी रचनाओं के प्रभाव से लोक के हृदय में राम को बहुत ही सुलभ रूप में देखा जा सकता है। राम बड़ी सहजता के साथ जनता की हृदय पर  राज करते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी लिखते हैं- “हिंदी काव्य की सभी प्रकार की रचना शैली के ऊपर गोस्वामी जी ने अपना ऊंचा आसन प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं है।“.8….

तुलसी के राम शील शक्ति और सौंदर्य के प्रतीक हैं। वे जगत के भीतर लीला करते हैं जगत के भीतर राम की लीला और राम के भीतर जगत की लीला को तुलसीदास ने सजीव रूप से अपने साहित्य में दिखाया है। तुलसी ने राम का एक एक ऐसा रूप हम सभी के सामने रखा जो आदर्श मनुष्य के गुणों का समुच्चय है उनमें वे सभी गुण विद्यमान है जो आदर्श मनुष्य में होने चाहिए..गोस्वामी तुलसीदास हिंदी के ऐसे मात्र ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपनी काव्य रचना का मूल उद्देश्य लोकमंगल का विधान करना स्वीकार किया है। उनका मानना है कीर्ति और कविता गंगा के समान सबका हित करने वाली हो। वें कहते भी है –

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥9

तुलसीदास सगुण काव्यधारा राम भक्ति शाखा के कवि थे। उन्होंने विष्णु के अवतार श्री राम को ही अपने आराध्य के रूप में ग्रहण किया था। वे संपूर्ण संसार को प्रभु श्री राम की ही प्रेम अभिव्यक्ति मानते थे। श्री राम के चरित्र में शक्ति, शील और सौंदर्य का समावेश करते हुए गोस्वामी तुलसी ने पूर्ण ब्रह्म के साथ-साथ मर्यादा पुरुषोत्तम भी माना है। वें कण -कण में श्री राम के स्वरूप का दर्शन कर उसे प्रभु श्री राम की अभिव्यक्ति ही मानते थे।वह कहते भी हैं कि-

 सियाराम मय सब जग जानी।

 करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।10

तुलसी के राम को निश्छल,निर्मल प्रेम अत्यंत ही प्रिय है। तुलसीदास के राम को केवल,राम ही केवल प्रेम प्यार जान लियो जो जाने नेहरा और इसलिए वह सारे भेदभाव ऊंच -नीच को खारिज करते हैं…वह धर्म की ध्वजा उठाने वाले छद्म साधु संतों के चेहरे को भी बेनकाब करते हैं…हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने भी तुलसी को समन्वयकारी कहा है। द्विवेदी लिखते हैं- “भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय समाज में नाना भाँति की परस्पर-विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचार-निष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे, गीता में समन्वयकारी चेष्टा है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।”[11] आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार तुलसीदास को जो अभूतपूर्व सफलता मिली उसका कारण यह था कि वह समन्वय की विशाल बुद्धि को लेकर उत्पन्न हुए थे…वें तत्कालीन परिस्थिति अनुरूप सगुण, अगुण शैव, वैष्णव में समन्वय करते हुए कहते है –

 सगुनहिं अगुनहिं कछु भेदा

एवं

 शिवद्रोही ममदास कहावासो नर मोहिं सपनेहुँ नहिं भावा।12

तुलसी के रामराज की अवधारणा में सबल निर्बल असहाय गरीब दिन समाज के सभी वर्ग के लोग समाहित हैं.. साम्यवाद या यूं कहीं समाजवाद की सबसे प्रारंभिक अवधारणा हमें तुलसी की साहित्य में भी देखने को मिलती है.. डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं- तुलसी के राम की परम लोकवादिता और मानवीयता का रहस्य का बस यही है। उन्होंने अपने हृदय की विशालता, भाव प्रसार की शक्ति के द्वारा एक ऐसे यूटोपिया का निर्माण किया जिसमें विराट उदात्त चरित्र, दैहिक,दैविक, भौतिक तापों से मुक्त रामराज्य है। और मानवीय मूल्यों की एक ऐसी ऊंचाई है जहां से दुनिया स्वर्ग से भी सुंदर दिखाई देती है।

राम रावण के युद्ध के प्रसंग को तुलसी ने रामचरितमानस में अत्यंत ही उपदेशात्मक दृष्टिकोण से लिखा है।रावण युद्ध में शस्त्रों, अस्त्रों की दृष्टि से सुविधा संपन्न है। राम के पास युद्ध के लिए रथ भी नहीं है परंतु राम के पास धर्म रथ है,जो हर किसी के पास नहीं हो सकता। श्री राम के धर्म रथ में धैर्य और शौर्य के पहिए हैं, तो सत्य और शील इसकी ध्वजा और पताका हैं। इसमें दूसरों का कल्याण, विवेक, शक्ति और संयम के घोड़े जुते हुए हैं। स्वयं रामअपने रथ के सारथी हैं। विज्ञान का धनुष तथा यम, नियम शम आदि उनके बाण हैं। धर्म और गुरु पूजन इनका अभेद्य कवच है। ऐसे में तुलसीदास इस युद्ध प्रसंग के माध्यम से आम जनमानस को राम के इस संवाद से एक नई प्रेरक एवं नैतिक दृष्टि देना चाहते हैं। तुलसीदास जी राम के माध्यम से कहते हैं-

“सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका।

बल विवेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे ।

ईस भजनु सारथी सुजाना।बिरति चर्म संतोष कृपाना।

दान परसु बुद्धि शक्ति प्रचंडा । बर बिग्यान कठिन कोदंडा।

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।

कवच अभेद बिप्र गुरु पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा।

सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।

जाकें अस रथ होइं दृढ़ सुनहु सुखा मतिधीर।“13

जानकी मंगल’ तुलसीदास जी का खंडकाव्य है। इसे इन्होंने राम जानकी के विवाह की कथाओं को लेकर लिखा है। ‘जानकी मंगल’  रचना  संवत् 1643 वि० में मानी जाती है। इसकी भाषा अवधी है। जानकी मंगल में जब विश्वामित्र राजा जनक की नगरी में जनकपुर में जब राम और लक्ष्मण को लेकर गए थे तब राजा जनक ने राम को देखकर ब्रह्मानंद सौ गुना आनंद का अनुभव किया था। वें लिखते हैं कि –

अवलोकि रामहिं अनुभवत मनु ब्रह्म सुख सौगुन दिए।

देखि मनोहर मूरति मन अनुरागेउ।।

बंधेउ सनेह बिदेह, बिराग बिरागेउ।

‘कहेउ सप्रेम पुलकि मुनि सुनि महिपालक।।

ए परमारथ-रूप ब्रह्ममय बालक’।“14

 

दोहावली’ तुलसीदास जी की मुक्तक रचना है। इसमें तुलसीदास जी का अपने आराध्य के लिए दैन्य भाव दिखाई देता है। इसमें इन्होंने राम के लिए चातक पक्षी के समान प्रेम दिखाया  है और तुलसी जी केवल और केवल श्री राम की ही कामना करते हैं। वे भगवान श्रीराम से सीधे याचना करते हुए दिखाई देते हैं, यथा-

“नहिं जाजत नहिं संग्रहिं सीस नाइ नहिं लेइ।

ऐसे मानीहिं को बारिद बिन देइ।“15

रामलला नहछू’ तुलसीदास जी का एकार्थ काव्य है। गीतावली’ तुलसीदास जी का प्रबंध मुक्त काव्य है। इसमें तुलसी जी ने राम के राज तिलकोत्सव का भव्य वर्णन किया है। कवितावली में तुलसीदास के रचना कौशल को अद्भुत रूप में देखा जा सकता है। कवितावली में तुलसी के राम  गरीब नवाज है। जो गरीब है, उनके ऊपर राम का विशेष स्नेह रहता है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी इसको  तुलसी के व्यक्तिगत जीवन से जोड़कर देखते हैं- “तुलसी ने अपने जीवन में अभाव की सत्ता और भूख का अनुभव किया था। वह लोक में व्याप्त दरिद्रता का बहुत तीव्रता से अनुभव करके व्यथित हुए,इसलिए उन्होंने राम को गरीब नवाज और पेट की आग को बुझाने वाला कहा.16

 ‘कवितावली’ को भी तुलसीदास जी ने ‘रामचरितमानस’ की तरह सात कांडों में विभक्त किया है। इस रचना के बारे में कहा जाता है कि तुलसीदास जी ने जब जब राम प्रसंग हेतु कविता की रचना की होगी वही संकलित रूप में कवितावली कहलाई होगी। इसमें दिखाया गया है कि राम की चरण-रज से शीला भी चंद्रमुखी हो जाती है। तुलसीदास जी कवितावली में लिखते हैं-

तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचि सो कहै कछु ओउ।“17

‘विनय पत्रिका’ तुलसीदास की दास्य भक्ति की एक विनम्र कृति है। विनय पत्रिका राम-भक्ति की एक उत्कृष्ट रचना है। विनय पत्रिका में तुलसीदास जी कहते हैं-

“भरोसो जाहि दूसरो सो करो।

मोको तो राम को नाम कल्पतरु कलि कल्याण फरो।

मोहिं तो सावन के अंधेहि ज्यों सूझत रंग हरो”18

एवं

राम सो बड़ो है कौन , मोसो कौन छोटो ?

राम सो खरो है कौन , मोसो कौन खोटो ।

गोस्वामी तुलसी के राम के चरित्र में शील, शक्ति और सौंदर्य का संग्रह है। गोस्वामी तुलसीदास का संपूर्ण राम साहित्य लोकमंगल के उच्च उद्देश्यों एवं उच्च मानवीय मूल्यों की स्थापना की निमित्त है। उनके साहित्य को पढ़कर निश्चित रूप से पाठक वह नहीं रह जाता जो उसके पढ़ने से पूर्व था। उसके चरित्र पर उत्कर्षकारी प्रभाव पड़ता है। तुलसी के यहां राम आदर्श पुत्र, आदर्श मित्र, भ्राता, शिष्य और आदर्श शासक है । उनके प्रति दया आत्म त्याग करुणा मर्यादा और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए समर्पित हृदय और शक्ति उनके अलावा तो का निर्माण करती है… तुलसी के राम धर्म धर्म की कसौटी से परे मानव हितैषी एवं मानव प्रेमी है। तुलसी के राम, साहित्य के मानवीय मूल्य, स्नेह, त्याग, करुणा, तेजस्विता, आत्म त्याग, सहानुभूति से मिलकर निर्मित हुए है। तुलसी संपूर्ण साहित्य लोकमंगल के लिए लिखा गया है, जो पीड़ितों के लिए प्रति सहानुभूति रखता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में कहें तो उनका साहित्य उत्तर भारत की सारी जनता के गले का हार हो चुका है। अंत में तुलसी रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड के अंत में अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण एवं जीवन को प्रभु श्रीराम के चरित्र के समक्ष नतमस्तक करते हुए कहते हैं –

 

छंद-“रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।

कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं।।

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ”।।19

 

दो0-“मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।

अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर”।।20

 

संदर्भ ग्रंथ सूची:-

  1. बालकाण्ड,श्रीरामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2014
  2. हरिऔध ग्रन्थवली, खंड -4,प्रेमपुष्पोपहार, अयोध्याप्रसाद सिंह ‘हरिऔध’, संपादक तरुण कुमार, 2010
  3. बेणी के कवित्त, बेणी, सूफ़ीनामा
  4. Notes on Tulsi Das, Grierson, उद्धृत, तुलसीदास: रचना एवं सन्दर्भ, सं. भगवती प्रसाद सिंह, राजकमल प्रकाशन, 1975, पृ.1
  5. . ग्रियर्सनः भाषा
  6. उत्तरकाण्ड,श्रीरामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2014
  7. लोकवादी तुलसीदास, विश्वनाथ त्रिपाठी,राधाकृष्ण प्रकाशन
  8. डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास एनसीईआरटी प्रथम संस्करण 1986 नई दिल्ली
  9. बालकांड, श्रीरामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2014
  10. बालकाण्ड, श्रीरामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2014
  11. हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ सं.-98संस्करण-2019, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली।
  12. लंकाकांड,श्रीरामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2014
  13. अयोध्याकांड, श्रीरामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2014
  14. जानकी मंगल, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2021
  15. दोहावली, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2021
  16. डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी, एनसीईआरटी हिंदी साहित्य
  17. कवितावली, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2021
  18. विनयपत्रिका, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2022
  19. उत्तरकाण्ड, श्रीरामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2014
  20. उत्तरकाण्ड, श्रीरामचरितमानस, गोस्वामी तुलसीदास, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण 2014

हर्षित राज श्रीवास्तव
शोधार्थी
दिल्ली विश्वविद्यालय