शोध सार – हिन्दी की स्त्री लेखिकाओं की आत्मकथाओं का अध्ययन करने के उपरांत यह स्पष्ट हो जाता है की उन्होंने अपने जीवन में भोगे हुए यथार्थ के अनुभवों को दूसरों तक पहुंचाया। जिससे स्त्री लेखिकाओं ने लेखन के माध्यम से अपने अस्तित्व को स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। साहित्य में आत्मकथा का अपना विशेष स्थान है। आत्मकथा में लेखक के गुण – दोष तथा स्वयं का भोगा गया जीवन का विस्तार होता हैं ।
बीज शब्द;– अस्तित्व, आत्मनिर्भरता, स्त्री की वेदना , स्त्री होने का अपराध बोध ।
मूल सारांश – आत्मकथा साहित्य की ऐसी विधा है जिसमें अपने द्वारा लिखी हुई अपनी जीवनी होता । जो अपने व्यक्तित्व से जुड़े तमाम आयामों को अपने आत्मकथा के द्वारा समाज के सामने लाता है । हिंदी की उत्कृष्ट आत्मकथाओ में स्वीकृत “पिंजरे की मैना” सिर्फ़ एक महिला की कथा नहीं पूरे युग की कथा है । इस आत्मकथा का आरम्भ के जो बिंदु है १८५७ से शुरू होती है | इसमें तीन महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएँ शामिल है | इसमें दूसरी महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना १९४७ भारत के आज़ादी का, तीसरी घटना जिसमें लेखिका की अपनी प्रतिक्रिया भी इस पुस्तक में शामिल है वह बाबरी मस्जिद का विध्वंश | और ये तीन महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं के साथ 1857 के आसपास के समय से शुरू होकर आज़ाद भारत तक आती है और सामाजिक राजनीतिक इतिहास के पतले गलियारों से गुजरते हुए एक परम्परानिष्ठ लेकिन अत्यंत संघर्ष शील स्त्री की पीड़ा का लोमहर्षक चित्र सामने लाती है। यानि कहने को यह एक स्त्री आत्मकथा है और चन्द्रकिरण की जो अपनी धारणा है आत्मकथा को लेकर इस संदर्भ में लेखिका लिखती हैं कि –“आत्मकथा अर्थात् किसी व्यक्ति की जीवन यात्रा। विश्व के सभी मनुष्य छोटा बड़ा जितना भी जीवन जीते हैं वही उनकी जीवन यात्रा होती है आत्मकथा तभी जीवन के लिए उपयोगी होगी जब उस यात्रा कथा में पाठक को समाज, युग या मनुष्य का वर्णन रसमय और वास्तविक रूप में प्रतिबिम्बित मिले | उसे पढ़कर पाठक उन बुराइयों के प्रति सचेत हो जो समाज को पिछड़ापन देती हैं ।“1 चन्द्रकिरण सौनरेक्सा अपनी आत्मकथा में भी उनका कथाकार अपनी पूरी क्षमता के साथ मौजूद है | अपने परदादा की पीढ़ी से लेकर आज तक की अपनी पूरी कहानी को सभी प्रसंगों और पात्रों के साथ एक विशाल कलेवर प्रस्तुत किया है | जब लेखिका का जन्म हुआ, उस समय न किसी दवा या किसी अस्पताल की व्यवस्था थी | बल्कि होने वाला बच्चा और जच्चा भगवान के भरोसे जीवित रहते थे । उनके पूर्वजों की स्थिति भी इनसे अलग नहीं थी। चन्द्र किरण अपने माता-पिता के सबसे लाडली संतान थी| अपने सभी भाई-बहनों में यह बचपन से ही पढ़ने में तेज थी | बचपन से ही इनके पिता ने पढ़ाई के प्रति आस्था जगाई| लेकिन इनकी माता पढ़ाई को लेकर तीव्र विरोध करती थीं, फिर भी उन्होंने अपनी पढ़ाई को जारी रखा| एक जगह कहती हैं “मेरी पढ़ने की क्षुधा नए-नए उपाय सोचती मोहल्ले के जिस भी घर में कोई हिंदी उर्दू किताब या मासिक सप्ताहिक पत्रिका दिखाई देती, मैं वही उसे चाट जाती पढ़ने के लालच में मैंने रामचरितमानस, कबीर की साखी, सबद, रमैनी, सुखसागर, पढ़ा इनके अर्थ न बाबा समझते थे और न मैं |’’ 2 लेखिका बचपन से ही पढ़ाई के प्रति आकर्षित थीं| साहित्य के प्रति उनकी रुचि थी और उनकी रूचि न केवल साहित्य पढ़ने में बल्कि साहित्य पढ़ने के साथ-साथ व साहित्य सृजन में रुचि रखती थी उन्होंने कई रचनाओं को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित किया है | जैसे – माया, रूपाभ, हंस, चांद, इत्यादि प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपी थी| चंद्रकिरण सौनरेक्सा के जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं| पढ़ाई-लिखाई में कई तरह के अड़चन आते रहे| साथ ही उनकी शादी की चर्चा परिवार में जोर शोर से चल रही थी| एक जगह शादी तय हो जाती है मां की मृत्यु के कारण सगाई टूट जाती है| बाद में कान्तिचन्द्र से विवाह होता है| वैवाहिक जीवन कुछ दिन अच्छा से बीता लेकिन कुछ दिन बाद वैवाहिक जीवन में बाधा उत्पन्न होने लगी, कांतिचंद्र चंद्ररेक्सा के लेखन के सिलसिले में संपादकों से पत्र व्यवहार पर शक करने लगते हैं और वह रोक करना शुरू कर देते हैं एक जगह अपने पति के व्यवहार के परिणाम का उल्लेख करती हैं’’ जवान मिट्टी ने मेरी रही सही ज़िंदगी की कमाई अपनी इज्जत को कांति जी की रोग ग्रस्त दशा ने एक झटके में छीन लिया इस का न कोई इलाज और ऊपर से न वह रोगी लगता है |‘’3 चंदकिरण सौनरेक्सा पर दिन-प्रतिदिन कान्तिचन्द्र का शक बढ़ता गया| जिसके कारण लेखिका को बड़े-बड़े संपादकों, लेखको सम्पर्क तोड़ना पड़ा| जिसमें विष्णु प्रभाकर, अमृतलाल नागर, नरेंद्र शर्मा, रामकुमार वर्मा आदि रचनाकारों ने लेखन प्रकाशित करना वह पत्र व्यवहार करना बंद करना पड़ा| फिर भी लेखिका अपने अस्मिता को लेकर बेहद सतर्क रहती है| इतनी बेईज्जती, अपमान, सहने के बावजूद लेखन कार्य करना छोड़ा नहीं| लेखिका जो कुछ भी लिखती कांतिचंद्र के हाथ में थमा देती और वही इन रचनाओं को पत्र–पत्रिका में भेजते| जिसके कारण लेखिका को आर्थिक सहायता नहीं मिल पाती| फिर भी लेखिका ने हार नहीं मानी परिवार को संभालने के साथ- साथ लेखन कार्य, स्कूल पढ़ाने का कार्य करती | उसका उदाहरण है ’’ चन्द्रकिरण सौनरेक्सा को अपने परिवार पति के साथ साथ उनके दोस्तों का आदर आतिध्य करने में अधिक से अधिक समय देना पड़ता था |’’4 कांतिचंद्र लेखिका के पारिवारिक कामों में मदद नहीं करते थे | नौकरानी की तरह उन्हें व्यस्त रखते थे । रोज अपने दोस्तों को घर पर लाते और लेखिका को उनका कहना मानना पड़ता | एक बार 1960 में हिंदी सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन था | उसमें दोनों पति-पत्नी को सम्मिलित होना था | लेकिन कान्तिचन्द्र को बम्बई के लिए जाने था | लेखिका कान्तिचन्द्र से सम्मलेन में जाने के लिए ₹10 मांगे, उन्होंने देने से इंकार कर दिया और चले गए | लेकिन कुछ पल में ही कांतिचंद्र का इससे ज्यादा पैसा स्टेशन पर माल वजन के कारण देने पड़े | इसी वजह से गुस्से में कान्तिचंद्र शाप भरा पत्र लेखिका को लिख दिया ”तुम्हें मैंने मद्रास में ₹10 नहीं दिए तो तुम जरूर मुझे रास्ते भर कोसती रही होगी | तुम्हारा कोसना सफल हुआ, मुंबई स्टेशन पर मेरा बक्सा तोला गया और मुझे पन्द्रह रूपये देने पड़े | पर कोसना तुम्हें नहीं आता मुझे भी आता है | मैं अभिशाप देता हूं कि तुम जिंदगी भर मांगोगी | तुम्हारा बेटा होटलों का जूठा खाना खाएगा और बेटी कोठे पर बैठेगी |’’5 क्या एक पिता अपनी बेटी को इतना बड़ा शाप दे सकता है ? ऐसा शाप वेदना ,संताप ,पीड़ा , घुटन आदि समस्याओं का सामना करते हुए भी अपनी जीवंतता बनाए रखते हैं | अस्तित्व के लिए संघर्ष करती रहती हैं| आत्मकथा पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि वह खुद ही नहीं बल्कि तमाम स्त्रियों पीड़ाओं को व्यक्त कर रही हैं |
निष्कर्ष –
उपरोक्त स्त्री आत्मकथाकारों के आत्मकथा में चित्रित उनकी पीड़ा, अवहेलना, अत्याचार, आदि बातों को अपनी आत्मकथा के माध्यम से समाज में व्यक्त करने की कोशिश की है। साथ ही अपनी आत्मकथा के द्वारा चंद्रकिरण सौनरेक्सा ने समाज की स्त्रियों में जागृति लाकर उन्हें आत्मनिर्भर बनने का संदेश देती है । अपने समय, समाज और सामाजिक – पारिवारिक जीवन की तमाम गुत्थियों को जानने – समझने वाली एक सजग मेधा जिन्हें स्त्रीत्व की मध्यवर्गीय सीमाओं से लगातार लोहा लेना पड़ा | लेकिन उन्होंने न अपनी लेखनी को रुकने दिया और न अपने भीतर की मनुष्यता को फीका पड़ने दिया , और न ही अपने किसी दायित्व से ही मुँह मोड़ा |
संदर्भ ग्रंथ –
- चंद्रकिरण सौनरेक्सा, पिंजरे की मैना, पूर्वोदय प्रकशन,2010
- पिंजरे की मैना, पृष्ठ संख्या 5
- वही, पृष्ठ संख्या 15
- वही, पृष्ठ संख्या 55
- वही, पृष्ठ संख्या 220
- वही, पृष्ठ संख्या 293
- वही, पृष्ठ संख्या 120
- सिमोन द बोउवार, स्त्री उपेक्षिता संस्करण 2002
प्रियंका सिंह
पी.एचडी हिंदी विभाग
महात्मा गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय
मोतिहारी, बिहार