सारांश 

 मध्यकालीन भारतीय इतिहास के मुगल दरबार में रहीम का सम्राट अकबर कालीन शासन में अपना एक प्रभावशाली ओहदेदार व्यक्तित्व था। वे एक कुशल सैन्य-संचालक, महान योद्धा व दानियों के शिरोमणि थे। रहीम बहुआयामी व्यक्तित्व सम्पन्न सिद्धहस्त कवि भी थे। उन्होंने रचनाकारों को संरक्षण देने वाले और गुणियों की पहचान करने वाले तथा इन सबसे बढ़कर वे बेहद करूणा-सम्पन्न और बड़े मानवतावादी थे। उनके इस असाधारण व्यक्तित्व में कई रूप एक साथ सम्मिलित हैं। रहीम के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आये हैं। भारतीय इतिहास और साहित्य में रहीम जी का अपना बहुमूल्य स्थान रहा है, जहाँ एक ओर इन्होंने मुगलकालीन अकबर दरबार में रहकर अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया वहीं विभिन्न पदों की जिम्मेदारियों का भी बखूबी निर्वाहन किया। साहित्य के सृजन से भी समाज निर्माण हेतु रहीम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कोई भी संवेदनशील रचनाकार अपने युग से विमुख नहीं रह सकता, वह मानव मूल्यों और सामाजिक समस्याओं को केन्द्र में रखकर अपनी रचना की प्रासंगिकता को व्यक्त करता है। रहीम का काल सामन्ती, पूँजीवाद और पुरोहितों का काल था। जनता बाह्याड़म्बरों, अंधविश्वास, छुआछुत, कर्मकाण्ड, और कुरीतियों के जाल में फंसी थी। समाज विभिन्न जाति-धर्मों एवं सम्प्रदायों में विभक्त था ऐसे समय में रहीम ने भक्ति और नीतिपरक काव्य रचना के माध्यम से समाज को सद्मार्ग दिखाने के लिए अविस्मरणीय कार्य किया। इस शोध पत्र के माध्यम से रहीम द्वारा रचित साहित्य को विभिन्न संदर्भो में समीक्षित किया जायेगा।

 प्रस्तावना— मुगल बादशाह हुमाँयु की मृत्यु के समय अकबर की उम्र मात्र 13 वर्ष की थी। रहीम के पिता बैरम खानखाना हुमाँयु के प्रधान सेनानायक व विश्वास पात्र थे जिनके संरक्षण में अकबर का राज्यभिषेक करवाया गया और बैरम खाँ के संरक्षण में ही उन्होंने कुछ समय राज्य किया। बैरम खाँ का गुजरात में धोखे से वध कर दिया गया। बालक रहीम के सिर से पिता का साया बचपन में ही उठ गया तत्पश्चात सम्राट अकबर के संरक्षण में ही रहीम का पालन पोषण व शिक्षा-दिक्षा सम्पन्न हुई। रहीम के सम्बन्ध में डॉ0 बालकृष्ण अकिंचन ने लिखा है कि— “विधाता ने रहीम के जीवन में उतार-चढ़ाव आरम्भ से लिख दिये थे। वे केवल चार वर्ष के ही थे कि जीवन नभ पर विपत्ति की काली घटा घिर आयी। राजनैतिक उछाड़-पछाड़ के पश्चात, पूर्ववत सम्मान प्राप्त करके बैरम खाँ हज करने के लिए मक्का जाते हुए गुजरात की राजधानी पाटन में ठहरे और एक दिन महाराज जयसिंह द्वारा निर्मित सहस्रलिंग सरोवर में नौका-विहार के पश्चात तट पर उतरे। तभी भेंट करने के बहाने आए हुए अफगान सरदार मुबारक खाँ लोहानी ने वृद्ध बैरम खाँ का वध कर दिया।”1 अकबर ने रहीम को अपने मंत्रीमण्डल में महत्वपूर्ण स्थान दिया। रहीम अकबर के विश्वसनीय मंत्रीयों ‘नवरत्नों’ में शामिल थे। रहीम को विभिन्न जागीरों की जिम्मेदारियाँ भी दी गई, जिनका रहीम ने बखूबी से निर्वाहन किया।

अब्दुर्रहीम खानखाना मध्ययुगीन मुगल दरबारी संस्कृति के प्रतिनिधि कवि थे। मुगल सम्राट जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के दरबारी हिन्दी कवियों में रहीम का महत्वपूर्ण स्थान था। रहीम स्वयं कवियों के आश्रयदाता भी थे। वे बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्तित्व के धनी थे। वे एक साथ कई विधाओं से परिपूर्ण थे। जिनमें वे सेनापति, प्रशासनिक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, कलाप्रेमी, बहुभाषी, कवि और विद्वान थे। रहीम भारतीय सामाजिक संस्कृति के अद्वितीय आराधक कलम और तलवार के धनी तथा मानव प्रेमी सूत्राधार थे।

भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य में रहीम का महत्वपूर्ण स्थान था। मुगलकालीन सम्राट अकबर स्वयं हिन्दुस्तान की मिली-जुली संस्कृति के निमीताओं में से एक थे, वे स्वयं भी हिन्दी में रचनाएं लिखा करते थे जिसकी रहीम पर भी गहरी छाप पड़ी। मध्ययुगीन भक्तिकालीन साहित्य में मुस्लीम कवियों के महत्वपूर्ण योगदान हेतु भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने इन मुस्लिम कवियों की प्रशंसा में ठीक ही कहा है कि “इन मुसलमान कवि जनन पे कोटिक हिन्दू वारिये।”2 रहीम ने अरबी, फारसी, संस्कृत और हिन्दी आदि भाषाओं का गहन अध्ययन किया। वे राज दरबार में अनेक पदों पर कार्य करते हुए भी साहित्य सेवा में संलग्न रहे। रहीम का व्यक्तित्व बहुत ही प्रभावशाली था क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में धार्मिक कट्टरता से ऊपर उठकर सदैव मानव उत्थान के लिए कार्य किया। वे स्मरण शक्ति काव्य और संगीत के मर्मज्ञ थे। “मध्ययुगीन कवियों में श्रेष्ठ एवं नैतिक मानदंड़ों के स्थापक कविवर अब्दुर्रहीम खानखाना हिन्दी साहित्य जगत् में यशस्विता प्राप्त है।”3 उन्होंने अपनी कविताओं में अपने लिए रहीम के बजाय रहीमन का प्रयोग किया तथा इतिहास और काव्य जगत् में अब्दुर्रहीम खानखाना के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके काव्य में नीति, शृंगार और भक्ति आदि दोहों का समावेश है। रहीम ने अपने अनुभवों को सीधी सरल, सहज व मार्मिक तथा बोलचाल की ब्रजभाषा, अवधी व खड़ीबोली को काव्यभाषा बनाया किन्तु ब्रजभाषा मुख्य शैली थी। हिन्दी साहित्य में रहीम रचित कुछ महत्वपूर्ण रचनाएं हैं जो रहीम संकलन ‘रहीम रत्नावली’ में निम्नवत हैं—

 1 – दोहावली  2 – नगर शोभा  3 – बरवै नायिका भेद  4 – बरवै  5 – मदनाष्टक  6 – संस्कृत काव्य  7 – खेट जातक कौतुकम   8 – शृंगार सोरठा  9 – फुटकर छन्द तथा पद।

दोहावली— यह कहा जाता है कि रहीम द्वारा रचित दोहावली में एक हजार के लगभग दोहे समाहित थे। किन्तु इस समय लगभग 300 दोहे ही प्राप्त होते हैं। कवि ने इन दोहों में शृंगार, नीतिपरक और भक्ति भावों को व्यक्त किया है।

नगर शोभा— इस ग्रन्थ की सूचना माधुरी पत्रिका के एक लेख में दी गई है। इस कृति में भी वास्तविक दोहों की संख्या के बारे में भ्रम है। कहीं 143 तो कहीं 182 दोहे दिये गये हैं। मंगलाचरण के दो दोहों को छोड़कर शेष में नगर में निवास करने वाली कुलांगनाओं के जातीय सौन्दर्य का वर्णन किया है जिसमें ब्राह्मणी, क्षत्राणी, बनियाइन, सुनारिन, लुहारिन तथा रंगरेजिन आदि जातियों की युवतियाँ शामिल हैं।

बरवै नायिका भेद— इस रचना में लगभग 120 दोहे हैं। यह ग्रन्थ अपने पूर्ण रूप में उपलब्ध है, बरवै छन्द में रहीम ने नायिका भेद पर आधारित यह प्रख्यात ग्रन्थ लिखा है। आरम्भ मां सरस्वती की वन्दना के साथ किया गया है। मंगलाचरण के उपरान्त लेखक ने उत्तमा, मध्यमा, स्वकीय, मुग्धा, अज्ञात यौवना, नवोढ़ा, प्रौढ़ा, परकीय, प्रेम गर्विता आदि नायिकाओं का भेद बताते हुए उद्वरणों सहित विवेचन किया गया है। रहीम ने तुलसीदास से कहकर बरवै रामायण की रचना करवायी थी—

“कवि रहीम बरवै रचे ? पढ़ये मुनिवर पास।

          लखि तेई सुन्दर छन्द में, रचना कियेऊ प्रकास।।”

बरवै लेखन की शैली में रहीम हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। हिन्दी का यह आदि नायिका भेद के बरवै साथ मिलाकर लिखे हुए हैं। रहीम तुलसीदास के समकालीन थे। बरवै की भाषा के सम्बन्ध में रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि— “भाषा पर तुलसी का सा ही अधिकार रहीम का भी पाते हैं। बरवै नायिका भेद बड़ी सुन्दर अवधी भाषा में है।”4

बरवै— रहीम बरवै छन्द के आविष्कारक माने जाते हैं। बरवै की प्राचीन हस्तलिखित प्रति सुलिखित है और इसमें 108 छन्द संगृहीत हैं। प्रत्येक पृष्ठ के हाशिये पर फारसी चित्रकला के बेलबूटे बने हुए हैं। जिनमें श्रीगणेश, कृष्णजी, सूर्य भगवान, शिव तथा राम जी की वन्दना की गई है। इन दोहों में ऋतु वर्णन, उद्वव तथा गोपियों के बीच संवाद गोपियों के विरह, भजन-उपदेश आदि विविध भावों का मार्मिक चित्रण मिलता है।

मदनाष्टक— इस रचना में चौबीस छन्द होने का उल्लेख मिलता है। शृंगार और प्रेम रस के इन छन्दों में श्रीकृष्ण और गोपियों की रासलीला का सरस चित्रण किया गया है।

संस्कृत काव्य— रहीम विरचित कुछ पद संस्कृत में भी उपलब्ध हैं। किसी कृति के रूप में इन्हें बांधा जा सकता है। इन पदों से इस बात की पुष्टि होती है कि इनका संस्कृत भाषा पर भी पूर्ण अधिकार था।

खेट जातक कौतुकम— रहीम द्वारा लिखित यह ज्योतिष ग्रन्थ अपने पूर्ण रूप में प्राप्त है। इस कृति में 124 श्लोक संगृहीत हैं। खेट कौतुक का अर्थ है— ग्रह गति। इस अर्थ से स्पष्ट है कि इसमें कवि ने सभी ग्रहों की गति का वर्णन किया है। इसकी भाषा फारसी मिश्रित संस्कृत है। यह ग्रन्थ श्री वैंकटेश्वर स्टीम प्रेस, मुम्बई से प्रकाशित है।

शृंगार सोरठा— इस रचना में उनके केवल छह सोरठे ही उपलब्ध हैं। इनमें कवि ने नायिका के रूप का सरस चित्रण किया है।

फुटकर छन्द तथा पद— रहीम के कुछ पद ऐसे भी हैं जो उपरोक्त लिखित कृतियों में नहीं आते। इन स्फुट छन्दों और पदों को ‘फुटकर छन्दों’ के अन्तर्गत रखा गया है। रहीम के काव्य का भावगत एवं विषयागत विश्लेषण करने के लिए इसे शृंगार, नीति एवं भक्तिपरक काव्य के रूप में विभाजित किया जा सकता है।

रहीम को हिन्दू देवी-देवताओं में अटूट श्रद्धा एवं भक्ति भाव था। जिसका वर्णन उन्होंने भक्तिपरक काव्य में किया है। रहीम ने रामायण, महाभारत, वेद तथा पुराणों आदि ग्रन्थों का अध्ययन किया हुआ था। ‘बरवैं नायिका भेद’ ग्रन्थ की रचना से पूर्व, वह भारतीय परम्परा के अनुकूल मंगलाचरण करते हैं—

“भज मन राम सियापति, रघु-कुल-ईस।

दीनबंधु दुखटारन, कोसलाधीस।।”

रहीम को श्रीकृष्ण की भक्ति भावना पर अत्यधिक विश्वास था वे मानते थे कि जिसका रक्षक श्रीकृष्ण हैं उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता—

                                                  “रहिमन को कोउ का करै,

ज्वारी चोर लबार।

                                                    जो पति-राखनहार हैं,

   माखन-चाखनहार।”

रहीम कृत नैतिक बोध का काव्य अपने आप में बहुत ही समृद्ध है। रहीम को नीतिपरक काव्य ग्रन्थों की प्रेरणा भारतीय धर्म ग्रन्थों वेद, पुराण, उपनिषद, महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा हितोपदेश और नीतिशतकम् आदि से प्राप्त हुई है। नीति के आधार पर ही वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक उन्नयन का रास्ता तय किया जाता है। भारतीय चिन्तन लोक केन्द्रित रहा है और उसमें मानवीय हितों की भावना सर्वोपरि रहती है। हर युग में मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठित करने के लिए नैतिक मूल्यों की जरूरत पड़ती है और यह सत्य भी है। रहीम के नीतिपरक सम्बन्धी दोहे इसका साक्षात् प्रमाण भी हैं। रहीम अपने साहित्य में अंहकार का परित्याग करने और क्रोध को छोड़ने की बात करते हैं। साथ ही मीठा बोलने और सभी के साथ विनम्रता का व्यवहार करने का भी आह्वान करते हैं जिससे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना भी जागृत हो सके—

                                           “रहीमन रिस को छाँड़ि कै,

    करौ गरीबी भेस।

                                             मीठी बोलो नै चलो,

         सबै तुम्हारो देस।।”5

रहीम बड़प्पन की पहचान इसमें मानते हैं कि वह कितना सह सकता है। उसको कोई छोटा भी कहे तो वह कभी घटता नहीं है। गिरिधर को कोई मुरलीधर कहे तो वे उससे नाराज नहीं होते—

                                            “जो बड़ेन को लघु कहें,

          नहिं रहीम घटि जाहि।

                                              गिरिधर मुरलीधर कहें,

                कछु-दुख मानत नाहिं।।”6

रहीम के नीतिपरक काव्य के संबन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने परवर्ती काल के नीति सृष्टाओं के साथ तुलना करते हुए लिखा है कि— “रहीम के दोहे वृंद और गिरिधर के पद्यों के समान कोरी नीति के पद्य नहीं हैं। उनमें मार्मिकता है, उनके भीतर से एक सच्चा हृदय झाँक रहा है।”7

रहीम के काव्य में शृंगार रस के संयोग तथा वियोग दोनों पक्षों का सुन्दर एवं मार्मिक वर्णन हुआ है। रहीम ने सौंदर्य, प्रेम, काम आदि का रोचक ढंग से निरूपण किया है। इनके काव्य में नायिकाओं की चेष्टाओं, अंगों, हाव-भाव, मुद्राओं तथा मनोदशाओं आदि का दिग्दर्शन होता है। रहीम ने नायिका के नेत्रों और अधरों की मधुरत, उनके चितवनों का, नयन-बाण का चित्रण अत्यन्त स्वाभाविक ढंग से हुआ है—

                                             “नैन सलौने अधर मधु,

         कहि रहीम घट कौन।

                                               मीठी भवे लोन पर,

          अरु मीठे पर लौन।।”

कवि ने प्रकृति के आलंबन, उद्दीपन, मानवीकरण और अलंकरण रूपों का बहुत सुन्दर चित्रण किया है। प्रकृति का शृंगार रस से ओत-प्रोत उद्दीपन रूप द्रष्टव्य है—

                                               “रहिमन रजनी ही भली,

              पिय सों होत मिलाप।

                                                 खरो दिवस केहि काम कौ,

                   रहिबौ आपुहि आप।। ”

 रहीम की काव्यदृष्टि में जिस व्यापकता का परिचय मिलता है उसके प्रेरणास्त्रोत कहीं न कहीं अकबर रहें हैं। इस सम्बन्ध में दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ नामक पुस्तक में लिखा है—“अकबर ने दीने-इलाही में हिन्दुत्व को जो स्थान दिया होगा, रहीम ने कविताओं में उसे, उससे भी बड़ा स्थान दिया।”8 मुगलकालीन भारतीय इतिहास में रहीम का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। अकबर के शासन काल में रहीम ने विभिन्न महत्वपूर्ण उच्च पदों पर रहते हुए अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाहन किया। रहीम द्वारा मध्यकालीन इतिहास में किये गये कुछ उल्लेखनीय कार्य निम्नवत है—

प्रथम गौरव—  रहीम जन्म से ही बड़े कुशाग्र बुद्धि के थे। अकबर उन्हें बड़े से बड़े कार्य सौंपता और रहीम अपनी आयु और अनुभव की अपेक्षा के अनुसार उन्हें कई अधिक कुशलता से उन कार्यों को सम्पन्न कर लेते थे। अगस्त सन् 1573 ई0 में गुजरातियों ने जब सिर उठाया तो अकबर ने इस अवसर पर सेना के मध्य भाग की कमान देकर रहीम को गौरवान्वित किया।

द्वितीय गौरव गुजरात की सुबेदारी— गुजरात विजय के पश्चात रहीम ने तीन वर्ष तक मां सरस्वती एवं लक्ष्मी की आराधना में एक साथ व्यतीत किए। गुजरात प्रान्त धन-जन की दृष्टि से अकबर के लिए कामधेनु था। अकबर ने खूब सोच-विचार कर अपने प्रिय मिर्जा खां को ही गुजरात की सुबेदारी के लिए चुना।

हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध— रहीम बहुत दिनों सुबेदारी नहीं कर पाए। क्योंकि सम्राट ने इसी वर्ष वीर केसरी राणा प्रताप को पराजित करने की योजना बनाकर वह रहीम को कुशल शासक से अधिक कुशल सेनापति बनाना चाहते थे। अतः राणा के साथ ऐतिहासिक युद्ध के लिए हल्दीघाटी के समान पीली मिट्टी की उस भयंकर घाटी में रहीम को बुला लिया गया।

अजमेर की सुबेदारी— यह पद आराम का था किन्तु रहीम के भाग्य में प्रत्येक कर्मठ व्यक्ति की भाँति आराम था ही नहीं। तभी अजमेर के उपद्रव का समाचार आया। रहीम का नाम अकबर की जबान पर तथा काम उसके मन पर चढ़ा हुआ था। अकबर ने रहीम को ही अजमेर का सूबेदार नियुक्त किया और रणथम्भौर का किला जागीर में देकर अजमेर भेज दिया।

मीर अर्ज का पद— अकबर दरबार में कुछ ऐसे पद थे जो विशिष्ट अमीरों को ही दिए जाते थे। मीर अर्ज का पद भी उन्हीं में से एक था। मीर अर्ज के लिए आवश्यक था कि वे सम्राट तथा जनता दोनों का ही विश्वासपात्र हो। सम्राट ने विश्वासपात्र एवं सच्चे अमीर रहीम को मुस्तफिल मीर अर्ज नियुक्त किया।

अता वेग का पद— अतालिक (राज कुमार के शिक्षक) का कार्य उत्तरदायित्वपूर्ण होते हुए भी आराम का था। सम्राट भी यह चाहते थे। अतः अकबर ने अन्य उच्च पद का भार रहीम को सौंप दिया इसका अधिकारी उस समय अता वेग कहलाता था। लोग अतावेगी को बहुत बड़ा गौरव का पद मानते थे। इस पद पर नियुक्त व्यक्ति को साही घोड़ो की व्यवस्था तथा अस्तबल की देख-रेख करनी होती थी।

खानखाना की उपाधि— चौगुनी सेना रखते हुए भी मुजफ्फर बुरी तरह से हार कर खंभात की ओर भाग गया। मुजफ्फर हार तो गया किन्तु उसने हिम्मत न छोड़ी और लूट के धन के बल पर फिर उतनी ही सेना एकत्रित कर ली। रहीम के भाग्य ने उसका साथ दिया। उसकी दूरदर्शिता तथा रिजर्व में हाथियों की पीठ पर लदी बन्दूकों ने मुजफ्फर को भागने पर विवश कर दिया। उसके लगभग पाँच सौ सैनिक पकड़े गये, अधिकांश ने क्षमा मांगकर रहीम की सेना में स्थान प्राप्त किया। अकबर ने फतेहपुर सीकरी में जब पहली विजय के पश्चात दूसरी विजय का समाचार सुना तो प्रसन्नता से रहीम का मनसब पंचहजारी कर दिया। अब रहीम खानखाना हो गए। जो उपाधि रहीम के पिता वृद्धावस्था में प्राप्त कर पाये वही उपाधि रहीम ने अट्ठाइस वर्ष की उम्र में प्राप्त कर ली थी।

सिन्ध विजय— यहां सिन्ध विजय रहीम के निश्चय का वर्णन है, अकबर की आज्ञा का नहीं। वस्तुतः अकबर की आज्ञा कंधार पर विजय प्राप्त करने की थी और इसी के लिए रहीम के सेनापतित्व में लश्कर ने लाहौर से कंधार को कूच भी कर दिया था। किन्तु खानखाना अकबर की इच्छा के विपरीत कंधार से पूर्ण ठठा लेना चाहते थे। अतः वे शाही फरमानों में ही नहीं अपितु अपने व्यक्तिगत पत्रों में भी, खानखाना को कंधार विजय के लिए प्रेरित कर रहे थे। खानखाना की बात बड़ी पुष्ट थी। अतः सम्राट ने भी बाद को ठठा पर अधिकार करने की आज्ञा दे दी थी।

सम्राट के साथ काश्मीर-परिभ्रमण— अकबर के हृदय में काश्मीर भ्रमण की ललक बहुत पहले से थी। अनुकूल अवसर पाकर योजना बनाई गई। रहीम को साथ लेने का निश्चय हुआ। अकबर का परिवार भी साथ रहता था। लगभग एक मास तक प्रकृति की इस सुन्दर लीला भूमि का आनन्द लेकर, अकबर काबुल की ओर बढ़ गया।

मुगल दरबार का उच्चतम पद— मुगल दरबार में ‘वकील मुतलक’ का पद उच्चतम माना जाता था। मुगल साम्राज्य में सर्वप्रथम वकील होने का गौरव रहीम खानखाना के पिता बैरम खां को प्राप्त था। अकबर के‘नवरत्नों’ में शामिल टोडरमल को यह पद प्राप्त था। टोडरमल के स्वर्गवास होने के कारण वह पद रिक्त था। रहीम का भाग्य उस समय जोरों पर था। सम्राट अकबर ने उस पद पर भी रहीम को ही नियुक्त कर दिया और जौनपुर की जागीर भी दी। रहीम को वकील के इस उच्चतम पद पर लगभग एक वर्ष तक बैठने का सुअवसर मिला। रहीम खानखाना के लिए पौने तीन वर्ष तक का समय मान-सम्मान, शान्ति एवं सुख समृद्धि की दृष्टि से अद्वितीय था तथा इन्होंने हिन्दी के अन्य ग्रन्थों की रचना भी की।

निष्कर्ष— हिन्दी साहित्य की समृद्धि में मुस्लिम कवियों का अपना महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जिसमें अब्दुर्रहीम खानखाना का प्रमुख स्थान है। रहीम असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। उनके व्यक्तित्व में विविध गुणों का विलक्षण योग था जहाँ एक ओर उन्होंने मध्यकालीन भक्ति साहित्य सृजन किया तो वहीं दूसरी ओर भारतीय इतिहास में सम्राट अकबर के शासन काल में महत्वपूर्ण पदों पर रहते हुए अपनी जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वाहन किया। रहीम बहुभाषाविद थे वे मंत्री, सेनापति, कवि और कुशल रणनीतिज्ञ भी रहें हैं। इन्होंने लोक जीवन को गहराई से देखा परखा, जिसका असंदिग्ध ज्ञान हमें उनकी अद्भूत लोक-संपृक्ति से इनकी रचनाओं में देखने को मिलती है। मध्यकालीन कविता जगत् के क्षेत्र में रहीम ने अपनी रचनाओं में लोकोन्मुखी दृष्टि पर प्रकाश डाला। रहीम को लोक व्यवहार का बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त था वे भारतीय लोक-मन में अत्यन्त आदरणीय रचनाकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। रहीम का हिन्दी साहित्य सृजन व इतिहास में किया गया महत्वपूर्ण योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा।

संदर्भसूची—

  • डॉ0 बालकृष्ण अकिंचन – भारतीय नीति-काव्य परम्परा और रहीम, अलंकार प्रकाशन, दिल्ली, पृ0 सं0-181
  • डॉ0 एस0 आर0 वर्मा – मध्यकालीन भारत का इतिहास (1200 ई0 – 1761 ई0 तक), एस बी पी डी पब्लिकेशन्स, पृ0 सं0-432
  • हिन्दी साहित्य कोश, भाग – 2, पृ0 सं0-483
  • गगनांचल, मई-जून, 2014, पृ0 सं0-95
  • रहीम ग्रन्थावली, संपादक – विद्यानिवास मिश्र, गोविन्द रजनीश, वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, संस्करण-2004, आवृत्ति-2010, पृ0 सं0-94 (दोहावली-234)
  • वही, पृ0 सं0-77 (दोहावली-79)
  • डॉ0 बालकृष्ण अकिंचन – भारतीय नीति-काव्य परम्परा और रहीम, अलंकार प्रकाशन, दिल्ली, पृ0 सं0-362
  • गगनांचल, मई-जून, 2014, पृ0 सं0-87

किशोरी लाल
                                                                                        असिस्टेंट प्रोफेसर हिन्दी
                                                                                राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय जोशीमठ
                                                                               चमोली, उत्तराखण्ड