शोध सार-
हिंदी सिनेमा भारतीय संस्कृति की अंतर्राष्ट्रीय संवाहक है। इसमें भारतीय जीवन-पद्धति के प्रत्येक क्षेत्र की झांकी दिखाई देती है। इसमें हम भारत के छोटे कस्बे से लेकर महानगर तक की संस्कृति को अपने आँखों के सामने श्रव्य-दृश्य माध्यम में सजीव रूप-सा देखने में सक्षम होते हैं। अपनी तीव्र और व्यापक पहुँच के कारण आज सिनेमा भारतीय समाज और संस्कृति का दर्पण के रूप में कार्य करता हुआ दिखाई देता है। अनेक फिल्मों में भारतीय समाज की विभिन्न संस्कृतियों के दर्शन होते हैं। फिल्मों में दिखाए गए ये दृश्य मस्तिष्क में अमिट छाप छोड़ते हैं। ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ में बरसाना की लट्ठ मार होली, ‘मोहल्ला अस्सी’ और ‘राँझना’ में बनारस की संस्कृति, ‘2 स्टेट्स’ में पंजाबी और मलयालम संस्कृति, ‘तीसरी कसम’ में ग्रामीण संस्कृति आदि के विविध स्वरूप देखे जा सकते हैं। इन फिल्मों के अतिरिक्त अनेक फिल्में जिनमें भारतीय खानपान, पहनावा, रहन-सहन आदि का चित्रण मिलता है। वे सभी फिल्में एक स्थान के दर्शक को दूसरे जगह की संस्कृति से घर बैठे परिचय कराने में महती भूमिका निभाती हैं। अधिकतर उत्तर भारतीय दर्शक दक्षिण भारत न जाने के बावजूद फिल्मों द्वारा वहाँ के लुंगी पहनावे से परिचित होते हैं। इसी प्रकार दक्षिण भारतीय दर्शक बनारस की गंगा आरती तथा यहाँ के घाट और बनारसी संस्कृति से परिचित होते हैं। आनंद एल. रॉय द्वारा निर्देशित ‘राँझना’(2013) तथा चंद्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा निर्देशित ‘मोहल्ला अस्सी’(2018) फिल्म बनारसी संस्कृति को दिखाने के रूप में महत्वपूर्ण फिल्म के रूप में याद की जाती है। इसी प्रकार गोविंद मूनिस द्वारा निर्देशित ‘नदिया के पर’ (1082) में उत्तर प्रदेश के पूर्वाञ्चल की संस्कृति को देखा जा सकता है।
बीज शब्द- हिंदी सिनेमा, अंतरसांस्कृतिक-संचार, भारतीय संस्कृति
मूल आलेख-
किसी भी देश का सिनेमा वहाँ के समाज और संस्कृति के दर्पण जैसा होता है। इसी के माध्यम से दर्शक संबंधित देश के समाज और संस्कृति से परिचित होते हैं। ‘टाइटैनिक’, ‘अवतार’, ‘12 इयर अ स्लेव’, ‘द नोटबुक’ तथा ‘लाइफ इज ब्यूटीफुल’ आदि फिल्में देखकर हम पश्चिमी देशों के पहनावा, खानपान, उनके शौक तथा उनके विचार से अवगत होते हैं। भाषा के आधार पर विभाजित पश्चिम का प्रत्येक देश अपनी विभिन्न संस्कृतियों को सँजोकर सिनेमा के माध्यम से हमारे सामने प्रस्तुत करता है। भाषा के आधार पर देखें तो हमारा देश भारत अनेक संस्कृतियों और भाषाओं का वाहक रहा है। उत्तर से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम तक इसका प्रत्येक राज्य अपनी विशेष संस्कृति के लिए जाना जाता है। यहाँ पर प्रत्येक राज्य की अपनी क्षेत्रीय फिल्में भी निर्मित की जाती हैं। इसके अतिरिक्त हिंदी भाषा में निर्मित बॉलीवुड की फिल्में कुछ हद तक अन्य राज्यों की संस्कृतियों को दिखाने का प्रयास करती हुई दिखाई देती हैं। जिन फिल्मों में भारतीय संस्कृति के विविध रूप के दर्शन होते हैं; वे निम्न हैं-
2 स्टेट्स’ (2014)
चेतन भगत के उपन्यास ‘2 स्टेट्स: द स्टोरी ऑफ माई मैरिज’ पर आधारित, अभिषेक वर्मन द्वारा निर्देशित यह फिल्म कृष मल्होत्रा और अनन्या स्वामीनाथन के बहाने क्रमशः पंजाबी और तमिल संस्कृति को प्रस्तुत करने में सफल होती है। फिल्म का आरंभ आई.आई. एम. अहमदाबाद के मेस से होता है। मेस में उपलब्ध पतले (पनीला) साँभर को देखकर जब अनन्या मेस मालिक से उलझती है तो बीच-बचाव करते हुए कृष उसे साँभर के बदले अपने हिस्से का भी रसगुल्ला खाने की सलाह देता है। यहीं से कृष और अनन्या के बीच मित्रता के बीज अंकुरित होते हैं। फिल्म में बड़ी ही सावधानी से हमारे यहाँ मेस में खाने की गुणवत्ता को दिखाते हुए दो भारतीय खाद्य पदार्थ साँभर और रसगुल्ला का जिक्र किया गया है। दाल और कुछ सब्जियों से मिलकर बना साँभर दक्षिण भारत का प्रमुख आहार है। वहीं रसगुल्ला लगभग सम्पूर्ण भारत में पसंद किया जाता है।
अनन्या और कृष की मित्रता जब प्रगाढ़ होती है तब वे दोनों अपने पसंदीदा भोज्य पदार्थ को एक-दूसरे से शेयर करते हैं। यहीं पर दो भिन्न प्रदेश के खाने की पसंदगी देखने को मिलती है-
कृष- “बाकी साउथ इंडियंस और तमिलियन में क्या फर्क होता है?”
अनन्या- “बहुत फर्क होता है। फॉर इक्जांपल- तमिल ब्राह्मण नानवेज नहीं खाते। मैं शुद्ध ब्राह्मण हाउसेज से हूँ।”
कृष- “दिख रहा है।…”
अनन्या- “और तुम?”
कृष- “पंजाबी हूँ, दारू पिए बिना हमारा चिकन हजम ही नहीं होता।”
अनन्या और कृष के उपर्युक्त संवाद से तमिलियन और पंजाबी के खान-पान के बारे में जानकारी मिलती है। जब कृष और अनन्या का दीक्षांत समारोह होता है तो दोनों के परिवार विश्वविद्यालय आते हैं। यहाँ दोनों के भिन्न संस्कार एक-दूसरे से घुलने-मिलने में बाधा पैदा करते हैं। फिल्म में पंजाबी और मद्रासी के अपने पूर्वाग्रह को बहुत ही बारीकी से दिखाया गया है। डिग्री मिलने के पश्चात कृष अनन्या के शहर मद्रास में ही बैंक में नौकरी कर लेता है। यहाँ पर जब कृष नौकरी जॉइन करने आता है तो उसके बहाने से तमिल संस्कृति के व्यापक दर्शन होते हैं। दूर तक फैला असीमित समुद्र, उसमें मछली पकड़ते मछुआरे, द्रविड़ शैली के अनेक मंदिर तथा बाहर भगवान के भेष में बहुरूपिये, बालों में फूल के गजरे लगाई महिलाएं और लुंगी पहने पुरुष आदि का फिल्मांकन तमिल संस्कृति का जीवंत उदाहरण पेश करता हुआ दिखाई देता है। यहीं पर कृष के बैंक में वार्षिक समारोह के अवसर पर हुए संगीत कार्यक्रम के बहाने से तमिल संगीत के सुमधुर स्वर से सभी को परिचय कराया गया है।
फिल्म के दूसरे भाग में पंजाब की संस्कृति के दर्शन होते हैं। एक शादी के अवसर पर कृष, अनन्या सहित अपने घर आता है। वैसे तो दहेज और मदिरा सेवन हमारे समाज में नासूर के समान है; पर पंजाबी संस्कृति में यह बड़प्पन का प्रतीक है। यहाँ पर कृष की मम्मी और उसकी मौसी के बीच हुई बातचीत से पंजाबी संस्कृति में फैले दहेज और मदिरा सेवन जैसी कुरीति को देखा जा सकता है-
“वैसे शादी में खर्चा कितना कर रहे हैं?”
“पच्चीस लाख रुपए। चार लाख की तो सिर्फ बिलायती दारू आ रही है। ऊपर से लड़के के लिए कार। बताना नहीं किसी को। सरप्राइज़ है। आजकल के जमाने में इतने अच्छे लड़के मिलते ही कहाँ हैं?”
“हाँ बात तो सही है?”
“मैंने कहा कि अगर अगर इस ‘ड्यूक’ की इतनी इज्जत है तो शादी पर हमारे कृष को क्या मिलेगा? पता है रज्जी ने क्या कहा? कम-से कम चालीस लाख की शादी और दस लाख के गिफ्ट मिलने चाहिए हमारे कृष को।”
कृष की माँ और मौसी की बातचीत के पश्चात शादी के दिन पुरुषों संग पंजाबी गाने पर डांस करती महिलाएं और बेहिसाब सजावट, पंजाबी संस्कृति के तड़क-भड़क शादी के रिवाज को प्रकट करता है। पंजाबी पहनावे में सजी महिला और पुरुष तिस पर पंजाबी गाना उनके उन्मुक्त जीवन-शैली को प्रकट करता है।
अंत में कृष और अनन्या की शादी के अवसर पर तमिल और पंजाबी संस्कृति के एक साथ दर्शन होते हैं। बारात में आए एक तरफ पंजाबी पहनावे में कृष के परिजन और दूसरी तरफ तमिल पहनावे में अनन्या के परिजन का मिलान गंगा-जमुना जैसी पवित्र नदियों के संगम जैसा प्रतीत होता है। बालों में फूलों का गजरा पहने तमिल महिलाएँ, सफ़ेद लुंगी और सफ़ेद शर्ट पहने तमिल पुरुष तथा पंजाबी कुर्ता-पायजामा पहने पुरुष और पंजाबी शूट-सलवार में कृष के परिजन के मिलन का दृश्य विशेष प्रकार के आकर्षक का केंद्र होता है।
राँझना (2013)
बनारस और दिल्ली शहरों की संस्कृति को दर्शाती यह फिल्म कुन्दन शंकर का जोया के प्रति एकतरफा प्रेम पर आधारित है। फिल्म का आरंभ ही मंदिरों का शहर बनारस से उत्तर भारत के प्रमुख पर्व ‘दशहरा’ के लिए चंदा इकट्ठा करने से होती है। चंदा इकट्ठा करने वाले बच्चे भी भगवान शंकर और माता पार्वती का वेश धारण किए; हिंदू और मुसलमान सभी से चंदा मांगते हैं। इस पवन पर्व के अवसर पर सभी धर्मों के लोग अपनी सुविधानुसार सहयोग देते हैं। यह बनारस की साझी संस्कृति की झाँकी की जीवंत तस्वीर है।
होली लगभग पूरे भारत में बड़े ही उमंग और उत्साह से मनाई जाती है। इस त्योहार में लोग एक-दूसरे को रंग लगाकर गले मिलते हैं। इस दिन कुछ लोग भांग का सेवन भी करते हैं। भांग पिए हुए नशे में धुत्त लोगों की होली और हुड़दंग देखते ही बनता है। कहते हैं कि इस दिन लोग अपने पुराने गीले-शिकवे भूलकर दुश्मन से भी प्रेम के साथ गले मिलते हैं। कीचड़ वाली जैसी होली उत्तर भारत में होती है उसका सजीव दर्शन इस फिल्म में देखा जा सकता है। होली के साथ ही ईद मिलन का दृश्य दिखाकर निर्देशक ने हिंदू-मुस्लिम के बीच आपसी सद्भाव और प्रेम को दिखाने का प्रयास किया है। सावन का महीना भगवान शिव का महीना कहा जाता है। इस महीने में भक्त लोग कंधे पर जल लेकर काशी विश्वनाथ को चढ़ाने जाते हैं। इन भक्तों को कावड़िया कहा जाता है। ये भक्त बोल बम के नारे के साथ अपना सफर तय करते हैं। फिल्म में कावड़ियों की भीड़ दिखाकर उत्तर भारत की संस्कृति को जीवंत रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। आज देश में इन कांवड़ियों को बड़े ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और श्रद्धावश इनके ऊपर आकाश से फूलों की वर्षा की जाती है। फिल्म में कांवड़ियों का यह दृश्य उनके प्रति सम्मान का सूचक है।
रामनगर का किला बनारस की विशेष पहचान है। इसकी सुंदर झाँकी कई बार दिखाई गयी है। इसके साथ ही बनारस के घाट विश्वभर में इसकी ख्याति को बढ़ाने में महती भूमिका अदा करते हैं। फिल्म के अधिकतर भाग में बनारस के घाटों का सजीव दृश्यांकन किया गया है। फिल्म में बनारस की मंदिर, दशहरे की चौकियाँ, राम, लक्ष्मण और सीता की झाँकी तथा ‘ठाठ बनारसिया गाना’ आदि बनारस की संस्कृति को दूर-दूर तक पहुंचाने में काफी भूमिका अदा करते हैं।
‘राँझना’ के अतिरिक्त ‘मोहल्ला अस्सी’ नामक फिल्म में भी काशी की संस्कृति के दर्शन होते हैं। काशी में देश-विदेश के लोग आकर यहाँ कुछ दिनों के लिए रहना पसंद करते हैं। इनके ठहरने के कारण ही यहाँ पर पीजी कल्चर (पेइंग गेस्ट) का जन्म होता है। इसी के बहाने इस फिल्म में भी बनारस के घाटों से लेकर यहाँ के लोगों की मनमौजी सोच तथा बनारसी संस्कृति को दिखाने का प्रयास किया गया है।
तीसरी कसम (1966)
हिंदी सिनेमा के इतिहास में ‘तीसरी कसम’ फिल्म का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें स्वतंत्रता पूर्व उत्तर भारत के ग्रामीण संस्कृति की झलक दिखाई देती है। जब हमारे देश में आजकल की भांति परिवहन के साधन- रेलगाड़ी और हवाई जहाज तथा मनोरंजन के साधन- सिनेमा आदि का व्यापक प्रचलन नहीं था तब ग्रामीण भारत में बैलगाड़ी और नौटंकी ही परिवहन और मनोरंजन के रूप में प्रमुख साधन के रूप में प्रयुक्त होते थे। ‘तीसरी कसम’ फिल्म में बैल गाड़ीवान हिरामन और नौटंकी कंपनी की नर्तकी हीरबाई के माध्यम से ग्रामीण संस्कृति के दर्शन होते हैं। शहरी संस्कृति की अपेक्षा ग्रामीण संस्कृति में धर्म, आस्था और ईश्वर का विशेष महत्व है। यहाँ के लोग झूठ और गलत कार्य करने से पहले ईश्वर से भय खाते हैं। इहलोक और परलोक को सुधारने में वे विशेष ध्यान देते हैं। उनके ये संस्कार उनके दैनंदिन गीतों में व्यक्त होता है। फिल्म में गाने के ये बोल इसी ओर इशारा करता है-
“सजन रे झूठ मत बोलो,
खुदा के पास जाना है।
न हाथी है, न घोडा है,
वहाँ पैदल ही जाना है।
तुम्हारे महल-चौबारे,
यहीं रह जाएंगे सारे,
अकड़ किस बात की प्यारे,
ये सर फिर भी झुकाना है।”
मेला और नौटंकी ग्रामीण संस्कृति के प्रमुख अंग हैं। गाँवों में शहरों की भाँति सामान खरीदने के लिए बड़ी-बड़ी दुकानें और मनोरंजन के लिए सिनेमा हॉल नहीं होते हैं। तब ये ग्रामीण लोग अपने यहाँ के मेले से ही आवश्यक सामग्री खरीदते हैं। साथ ही मेले में लगने वाला सर्कस या नौटंकी से ही अपना मनोरंजन करते हैं। मेले और नौटंकी के प्रति ग्रामीण लोगों की उत्सुकता देखते बनती है। फिल्म में नौटंकी की टिकट लेने की भीड़ उनकी उत्सुकता को प्रकट करती है। वहीं नौटंकी की नर्तकी के प्रति यहाँ के लोगों की भिन्न-भिन्न सोच है। हिरामन उसे अपना मीता मानता है तो पलटदास सिया सुकुमारी। लालमोहर उसे अपनी ओर आकर्षित महसूस करता है तो अन्य को वह कंपनी की रंडी मालूम होती है। हिरामन अपने मीता को रंडी कहने वाले पर टूट पड़ता है। मेले में हुए झगड़ा को नौटंकी मैनेजर मथुरा मोहन कंपनी की साजिश करार देता है। इस प्रकार इस फिल्म का लगभग प्रत्येक दृश्य ग्रामीण संस्कृति का सजीव उदाहरण प्रस्तुत करता है।
‘तीसरी कसम’ के समान ही ‘नदिया के पार’ नामक फिल्म में भी पूर्वांचल की संस्कृति और उसकी विविधता के दर्शन होते हैं। क्षेत्रीय भाषा और संस्कृति पर आधारित यह बॉलीवुड की सर्वाधिक चर्चित फिल्मों में गिनी जाती है।
इस प्रकार उपर्युक्त दोनों फिल्मों के सम्पूर्ण दृश्य में ग्रामीण समाज की मान्यताएँ, उनके पहनावे तथा उनके मनोरंजन के- साधन मेला और नौटंकी द्वारा ग्रामीण संस्कृति के सजीव दर्शन देखने को मिलते हैं।
हिंदी सिनेमा में संस्कृतियों के आंतरिक-संचार के उपर्युक्त उल्लेख भारत सहित विश्व के अन्य भागों में स्थिति लोगों द्वारा देखने पर अपनी विरासत और संस्कृति पर गर्व का अनुभव कराते हैं। आज भूमंडलीकरण के दौर में अपने क्षेत्र और देश से कटे लोगों को फिल्मों का यह दृश्य दूर होते हुए भी अपनी संस्कृति से जुड़ाव का अनुभव कराता है। अपने क्षेत्र से अलग देश या देश के बाहर बसे लोग जब फिल्मों में होली, दीपावली, दशहरा, ओड़म, पोंगल, बिहू आदि को देखते हैं तो उन्हें दूर रहते हुए भी अपनी मिट्टी और संस्कृति की सोंधी महक महसूस होती है।
संदर्भ सूत्र-
- ‘2 स्टेट्स’- निर्देशक- अभिषेक वर्मन
- राँझना- निर्देशक- आनंद एल. राय
- मोहल्ला अस्सी- निर्देशक- चन्द्रप्रकाश द्विवेदी
- तीसरी कसम- निर्देशक- बासु भट्टाचार्य
- नदिया के पार- निर्देशक- गोविंद मूनिश
ज्ञान चन्द्र पाल
शोधार्थी, हिंदी विभाग
इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक (म. प्र.)