किशोरावस्था में रूमानी और जासूसी उपन्यास खूब पढ़े। साथ-साथ साहित्यिक पुस्तकें भी पढ़ता था। आज जब इन उपन्यासों की लोकप्रियता को याद करता हूँ तो सोचता हूँ बजाय इन्हें सिरे से खारिज करने के इनकी लोकप्रियता के उन तत्वों की पड़ताल होनी चाहिए जिनके कारण पाठकों का विशाल समूह इन्हें पढ़ने में रुचि दिखाता था। विशुद्ध मनोरंजन, भावुकता, रहस्य, रोमांच, फैंटेसी, टाइमपास के अलावा भी क्या कुछ इनमें था या नहीं यह भी जानना आवश्यक है। लोकप्रिय संस्कृति, साहित्य और सिनेमा से निकलने वाले कुछ विचार-सूत्र साहित्य, संस्कृति और सिनेमा के माध्यम से सीधे समाज से संवाद करते है, उसमें हलचल पैदा करते हैं। ‘लोकप्रियता’ का यह अंश इसी संदर्भ में समाज से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है, आखिर वह साहित्य जिसे हमारा ‘लोकवृत’ (पब्लिक स्फीयर) लोकप्रिय, बाजारू, घटिया, घासलेटी, सड़क या पटरी, सतही, लुगदी या चवन्नी छाप साहित्य कहकर प्रायः बड़ी ही आसानी से नकार देता है, समाज के किस हिस्से का नेतृत्व करता है, कौनसी संस्कृति का निर्माण करता है? और वह सिनेमा से किस रूप में प्रभावित होती है? फिर भारत में टेलीविजन के आगमन ने तो इसे गहरे रूप में प्रभावित किया ही है। पहले जहां इनका स्वरूप सामूहिक था, बाद में वह एकल होता चला गया। आज उसके वर्चुअल रूप भी सामने आ रहे हैं, जिनके माध्यम से इसने हमारे सामूहिक और दृश्यमान लोकप्रिय रूपों का स्थानांतरण भी किया है। ऐसे में लोकप्रिय संस्कृति, साहित्य, सिनेमा और समाज पर इसके प्रभाव को समझना निहायत जरूरी हो जाता है।
इसी मकसद से जासूसी उपन्यासों के सफर से हिंदी पाठकों को रूबरू कराने की इच्छा हुई। जब मैं इलाहबाद में था तो पता चला कि सुप्रसिद्ध जनवादी कथाकार अपने खाली समय में जासूसी उपन्यास पढ़ा करते थे। यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ था। आज जब कतिपय कारणों से पॉपुलर लिटरेचर जिसे लुगदी साहित्य कहा जाता है पर बात हो रही है तो मुझे लगा कि इनके लेखकों के बारे में जानकारी होनी चाहिए। अतः प्रस्तुत है कुछ प्रमुख उपन्यासकारों के बारे में संक्षिप्त जानकारी।
बाबू देवकीनन्दन खत्री (18 जून 1861 – 1 अगस्त 1913) हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक थे। उन्होने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोदना, कटोरा भर, भूतनाथ जैसी रचनाएं की। ‘भूतनाथ’ को उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने पूरा किया। हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में उनके उपन्यास चंद्रकांता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस उपन्यास ने सबका मन मोह लिया। इस किताब का रसास्वादन के लिए कई गैर-हिंदीभाषियों ने हिंदी सीखी। बाबू देवकीनंदन खत्री ने ‘तिलिस्म’, ‘ऐय्यार’ और ‘ऐय्यारी’ जैसे शब्दों को हिंदीभाषियों के बीच लोकप्रिय बनाया। जितने हिन्दी पाठक उन्होंने (बाबू देवकीनन्दन खत्री ने) उत्पन्न किये उतने किसी और ग्रंथकार ने नहीं। चन्द्रकान्ता उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि जो लोग हिन्दी लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे या उर्दूदाँ थे, उन्होंने केवल इस उपन्यास को पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी। इसी लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने इसी कथा को आगे बढ़ाते हुए दूसरा उपन्यास “चन्द्रकान्ता सन्तति” लिखा जो “चन्द्रकान्ता” की अपेक्षा कई गुणा रोचक था। इन उपन्यासों को पढ़ते वक्त लोग खाना-पीना भी भूल जाते थे। इन उपन्यासों की भाषा इतनी सरल है कि इन्हें पाँचवीं कक्षा के छात्र भी पढ़ लेते हैं। पहले दो उपन्यासों के 2000 पृष्ठ से अधिक होने पर भी एक भी क्षण ऐसा नहीं आता जहाँ पाठक ऊब जाए।
गोपाल राम गहमरी (1866-1946) हिंदी के महान सेवक, उपन्यासकार तथा पत्रकार थे। वे 38 वर्षों तक बिना किसी सहयोग के ‘जासूस’ नामक पत्रिका निकालते रहे, २०० से अधिक उपन्यास लिखे, सैकड़ों कहानियों के अनुवाद किए, यहां तक कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ‘चित्रागंदा’ काव्य का भी (पहली बार हिंदी अनुवाद गहमरीजी द्वारा किया गया) अनुवाद किए। वह ऐसे लेखक थे, जिन्होंने हिंदी की अहर्निश सेवा की, लोगों को हिंदी पढऩे को उत्साहित किया, ऐसी रचनाओं का सृजन करते रहे कि लोगों ने हिंदी सीखी। यदि देवकीनंदन खत्री के बाद किसी दूसरे लेखक की कृतियों को पढ़ने के लिए गैरहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी तो वे गोपालराम गहमरी ही थे।
गहमरी ने प्रारंभ में नाटकों का अनुवाद किया, फिर उपन्यासों का अनुवाद करने लगे। बंगला से हिन्दी में किया गया इनका अनुवाद तब बहुत प्रामाणिक माना गया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी गोपालराम गहमरी ने कविताएं, नाटक, उपन्यास, कहानी, निबंध और साहित्य की विविध विधाओं में लेखन किया, लेकिन प्रसिद्धि मिली जासूसी उपन्यासों के क्षेत्र में। ‘जासूस’ नामक एक मासिक पत्रिका निकाली। इसके लिए इन्हें प्रायः एक उपन्यास हर महीने लिखना पड़ा। 200 से ज्यादा जासूसी उपन्यास गहमरीजी ने लिखे। ‘अदभुत लाश’, ‘बेकसूर की फांसी’, ‘सर-कटी लाश’, ‘डबल जासूस’, ‘भयंकर चोरी’, ‘खूनी की खोज’ तथा ‘गुप्तभेद’ इनके प्रमुख उपन्यास हैं। जासूसी उपन्यास-लेखन की जिस परंपरा को गहमरी ने जन्म दिया, उसका हिन्दी में विकास ही न हो सका।
इब्ने सफी, 26 जुलाई,1928 को इलाहाबाद में जन्मे, 1952 में पाकिस्तान चले गए थे। इस समय वे जासूसी कथा लेखन में तेजी से पहचान बना रहे थे। पाकिस्तान में रहते हुए कुछ ही सालों के दौरान वे भारतीय प्रायद्वीप में जासूसी लेखन का सबसे बड़ा नाम बन गए। तब उनके हर उपन्यास का पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि भारत में भी बेसब्री से इंतजार किया जाता था। उस दौर में इब्ने सफी अकेले ऐसे लेखक थे जिन्हें पढ़ने के लिए पाठक किताबें ब्लैक में खरीदते थे।
बाद में यह भी हुआ कि इब्ने सफी के उपन्यासों के मुरीद यूरोप में भी पैदा हो गए। यहां तक कि अंग्रेजी के साहित्यकार भी उनके नाम-काम से परिचित होने लगे। अंग्रेजी भाषा की प्रसिद्ध लेखिका अगाथा क्रिस्टी का उनके बारे में कहना था, ‘मुझे भारतीय उपमहाद्वीप में लिखे जाने वाले जासूसी उपन्यासों के बारे में पता है। मैं उर्दू नहीं जानती लेकिन मुझे पता है कि वहां एक ही मौलिक लेखक है और वो है – इब्ने सफी।’ हालांकि इब्ने सफी अपने कुछ शुरुआती उपन्यासों को मौलिक नहीं मानते थे। उन्होंने तकरीबन 250 उपन्यास लिखे थे और खुद उनके मुताबिक इनमें से 8-10 की आत्मा (कहानी) यूरोपीय उपन्यासों से उधार ली गई थी लेकिन जिस्म देसी मिट्टी से बना था। यह बड़ी दिलचस्प बात है कि इब्ने सफी का झुकाव जब लेखन की तरफ हुआ तो वे जासूसी कथा लेखक नहीं बनना चाहते थे। वे कविताएं और गजल लिखा करते थे और बतौर शायर पहचान बनाना चाहते थे। जासूसी लेखन की शुरुआत उनके लिए बड़े अजब ढंग से हुई।
सुरेन्द्र मोहन पाठक का जन्म 19 फ़रवरी 1940 को खेमकरण, अमृतसर, पंजाब में हुआ था। विज्ञान में स्नातक की उपाधि लेने के पश्चात वह भारतीय दूरभाष उद्योग में नौकरी करने लगे। पढ़ने के शौक़ीन आप बचपन से ही थे। आपने अपनी युवावस्था तक कई राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय लेखकों को पढ़ा था। सन 1960 में, अपने कार्य-काल के दौरान ही सुरेन्द्र मोहन पाठक ने मात्र 20 वर्ष की उम्र में ही प्रसिद्द अंतराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त उपन्यासकार इयान फ्लेमिंग रचित जेम्स बांड के सीरीज और जेम्स हेडली चेज के उपन्यासों का अनुवाद करना प्रारंभ कर दिया। सुरेन्द्र मोहन पाठक के द्वारा अनुवादित उपन्यासों की मांग लगातार भारतीय हिंदी-भाषी बाजार में बढ़ने लगी। सन 1959 में, आपकी अपनी कृति, प्रथम कहानी “57 साल पुराना आदमी” मनोहर कहानियां नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। आपका पहला उपन्यास “पुराने गुनाह नए गुनाहगार”, सन 1963 में “नीलम जासूस” नामक पत्रिका में छपा था। सन 1963 से सन 1969 तक विभिन्न पत्रिकाओं में आपके उपन्यास छपते रहे। सन 1969 आपका पहला पूर्ण उपन्यास “ऑपरेशन बुडापेस्ट” आया। “ऑपरेशन बुडापेस्ट” आपके द्वारा लिखी गयी 30 वीं कृति थी।
जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा :
हिन्दी लोकप्रिय साहित्य (जिसमें जासूसी भी समाहित है) में श्री ओम प्रकाश शर्मा अपने उत्कृष्ट धरातल से जुड़े वास्तविक एवं यथार्थवादी किंतु स्वप्नदर्शी एवं प्रयोगधर्मी लेखक थे। भारत और भारतीयता के ध्वजवाहक और गरीब तथा साधनहीन लोगों और वर्गें के पक्षधर होने के साथ – साथ वे हिन्दी साहित्य और शास्त्रीय एवं सुगम संगीत के अच्छे ज्ञाता और प्रवर्तक थे। उन्होने उस समय हिन्दी में यथार्थपरक जासूसी उपन्यास लिखे जबकि या तो अंग्रेजी उपन्यासों की नकल अथवा अनुवाद लिखे जा रहे थे। ऐसे समय में उन्होने बिलकुल हाड़-मास के बने आम आदमी को ही अपना नायक बनाया और उसके माध्यम से भारतीय आदर्शों को प्रस्तुत किया और प्रोत्साहन दिया। उन्होने मनुष्य की कमजोरियों को भी सहजता से स्वीकारते हुए अपने अनेक नायकों में विभिन्न प्रकार की मानवीय कमजोरियों को आरोपित कर उसे भी उच्चतर परिपेक्ष्य में प्रस्तुत किया।
साढे चार सौ से अधिक जासूसी, गैर जासूसी (जिसमें तथाकथित सामाजिक, ऐतिहासिकउपन्यास सम्मिलित हैं,) के लेखक की भाषा भी अपने आप में अनुठी है। उनकी भाषा का प्रवाह मंत्रमुग्ध कर लेने वाला है। वे अपने प्रिय हिन्दी लेखक श्री अमृत लाल नागर की भांति लच्छेदार भाषा का प्रयोग करते हैं। भाषा में सामान्य बोल चाल के शब्दों को अत्यंत प्रभावी प्रवाह देखने को मिलता है।
वेद प्रकाश काम्बोज का पहला उपन्यास कँगूरा 1958 में प्रकाशित हुआ था जो कि पाठकों के बीच में आते ही छा गया था। यह उपन्यास रंगमहल कार्यालय खारी बावली दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। अपने पहले प्रकाशन के प्रकाशन के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। 60,70 और 80 के दशक में उनकी लोकप्रियता अपने चरम पर थी। वह पिछले साठ सालों से वह लेखन क्षेत्र में सक्रिय हैं। उनके अब तक 400 से ज्यादा उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। लेखन के साथ उन्होंने कई रचनाओं का अनुवाद कार्य भी किया है।
वेद प्रकाश शर्मा (जन्म: 10 जून 1955 – 17 फ़रवरी 2017) हिंदी के लोकप्रिय उपन्यासकार थे। इन्होंने सस्ते और लोकप्रिय उपन्यासों की रचना की है। इनके 176 उपन्यास प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त इन्होंने खिलाडी श्रृंखला की फिल्मों की पटकथाएं भी लिखी।
वर्दी वाला गुंडा वेद प्रकाश शर्मा का सफलतम थ्रिलर उपन्यास है। इस उपन्यास की आजतक लगभग 8 करोड़ प्रतियाँ बिक चुकी हैं। भारत में जनसाधारण में लोकप्रिय थ्रिलर उपन्यासों की दुनिया में यह उपन्यास “क्लासिक” का दर्जा रखता है।
इस बात पर बहस हो सकती है कि लेखक जन्मजात होते हैं या नहीं पर इतना तय है कि कुछ लोग लिखने के लिए ही पैदा होते हैं और पाठकों का मिजाज जानने की वजह से वे मकबूल हो जाते हैं। जिस टारगेट ऑडिएंस को पहचानने में बड़े-बड़े पत्रकार और संपादक हार गए, जिस कॉपी को लिखने में धांसू लिक्खाड़ हांफ गए, उस पाठक को पहचानने की गुत्थी मेरठ में बैठे एक शख्स की मुट्ठी में पिछले चार दशकों से बंद है। शास्त्रीनगर स्थित अपनी कोठी के एक शांत कमरे में बैठकर अधमुंदी आंखों से जब वे स्टोरी का प्लॉट जमाते हैं और कहानी के तार जोड़ते हैं तो किसी साधक से कम नहीं लगते। कैरेक्टर और वेद प्रकाश शर्मा के बीच कोई खटपट, जरा-सी आहट और यहां तक कि चाय का कप लिए बीवी मधु शर्मा को भी आने की इजाजत नहीं होती।
मगर इस साधना की शुरुआत घर छोडऩे से नहीं बल्कि घर से ही हुई. वे कहते हैं, ‘‘उपन्यास लिखने की कहानी बड़ी विचित्र है.’’ वे ओम प्रकाश शर्मा, गुलशन नंदा, इब्ने शफी, सबको पढ़ते थे, लेकिन पसंद वेद प्रकाश कांबोज को करते थे, जिन्हें वे गुरु मानते हैं। कांबोज के दो अहम किरदार थेरू विजय और रघुनाथ। कांबोज को पढ़कर उन्हें हमेशा लगता था कि वे इससे बेहतर लिख सकते हैं।
कुशवाहा कांत का जन्म मिरजापुर शहर के महुवरिया मुहल्ले में 9 दिसंबर 1918 को हुआ था। लेखन और कल्पनाशीलता बचपन से ही इनके व्यक्तित्व में शामिल थी। कुशवाहा कांत जब नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे, तभी उन्होंने ‘खून का प्यासा’ नामक जासूसी उपन्यास लिखकर समूचे उत्तर भारत में तहलका मचा दिया था। कुशवाहा ने मिरजापुर से बनारस आकर अपना निजी प्रेस खोला। नाम था-चिनगारी प्रकाशन। कबीरचौरा के इसी प्रेस में उनकी कालजयी कृतियां छपा करती थीं। दरअसल, कुशवाहा कांत के उपन्यासों में रुमानीयत कूट-कूटकर भरी होती थी। उसी रुमानियत को पढ़ने के लिए उस दौर की युवा पीढ़ी दीवाना हुआ करती थी। हिंदी के बेहद प्रसिद्ध लेखकों में से एक थे-कुशवाहा कांत। ये बनारस के ऐसे उपन्यासकार थे, जिनके बगावती तेवर और लेखनी की रूमानियत को आज भी याद किया जाता है। बनारस के साहित्यिक जगत में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रेमचंद और रामचंद्र शुक्ल के बाद अगर किसी रचनाकार ने सर्वाधिक लोकप्रियता अर्जित की तो वो थे कुशवाहा कांत। उनके क्रांतिकारी और जासूसी उपन्यासों में गजब की रुमानियत थी। फकत पच्चीस साल की उम्र में वह हिंदी के उपन्यास जगत में बेस्टसेलर लेखक बन चुके थे। स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारी पात्रों पर बुने गए इनके चर्चित उपन्यास ‘लाल रेखा’ को पढ़ने के लिए बड़ी संख्या में गैर-हिन्दी भाषियों ने हिन्दी सीखी थी। ‘लाल रेखा’ की लोकप्रियता आज तक अक्षुण्ण है।
हिंदी में पॉकेट बुक्स प्रकाशकों ने नकली या छद्म नामों से उपन्यासों को लिखवाकर खूब लाभ कमाया। ये नाम बहुत लोकप्रिय भी हुए।
मख्मूर जलंधरी नामक शायर ने कर्नल रंजीत के नाम से लगातार लिखा और बहुत पसंद किया गया।
लेखक राम कुमार भ्रमर ने अपने असली नाम के साथ-साथ शेखर नाम से दर्जनों उपन्यास लिखे।
आरिफ माहरवी नामक शायर राजवंश, लोकदर्शी, समीर आदि नामों से लिखते रहे।
योगेश मित्तल भी अनेक छद्म नामों से लिखते रहे। इनके मुताबिक ओम प्रकाश शर्मा और वेद प्रकाश कांबोज के नाम से भी कुछ लोगों ने लिखा।