राम शब्द का उच्चारण होते ही एक बिम्ब सामने उभर आता है । एक धनुर्धारी, सौम्य मनमोहक मुस्कान लिए अद्वितीय रूप । एक ऐसा चरित्र  जो मर्यादा पुरुषोत्तम है, लोकमंगलकारी है, आदर्श राजा है, आदर्श भाई है, आदर्श पुत्र है । जिस चरित्र का हम सब अनुकरण करना चाहते हैं। आदिकाल से लेकर आधुनिककाल तक निरन्तर विकासमान समय के साथ परिवर्तित हो –होकर राम का स्वरुप साहित्य का अंग बनता रहा हैं । कभी विराट मानव के रुप में तो कभी लीलावतार रूप में । कभी ऐतिहासिक पुरुष लगता है, कभी काल्पनिक । रामकाव्य सदा से भारतीय साहित्य का एक अभिन्न अंग रहा है । इसकी व्याप्ति आर्य भाषाओं से लेकर आर्येतर भाषाओं तक रही है । भारत में इस रामकाव्य को आधार बनाकर विभिन्न भाषा-भाषी लेखकों ने समय-समय पर अपनी मानसिकता  के अनुरूप अपनी-अपनी भाषा में इसकी रचना की है । सम्पूर्ण भारत में ही नहीं, देश की सीमा के बाहर इन्डोनेशिया, जावा, थाईलैंड, मॉरीशस, बाली आदि तक भी यह प्रख्यात है ।

राम के चरित्र के साथ भारतीय संस्कृति का गहरा जुड़ाव है । राम हमारी संस्कृति में इस तरह घुला-मिला है कि कण-कण में इसके दर्शन होते हैं। इस कालातीत चरित्र की महत्ता युगों के अन्तराल के बाद आज भी अक्षुण्ण है ।

            प्रश्न उठता है कि इस अद्वितीय रामकथा का उद्गम कहाँ से हुआ ?  क्या वेदों से ?  भारतीय संस्कृति और साहित्य का प्रत्येक अंग वेदों से जुड़ा है । यही कारण है कि कुछ विद्वान राम की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए वेदों में राम और रामकथा को ढूंढने का प्रयास करते हैं । परंतु ऐसा है नहीं । आदिकवि वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण ही इसका काव्य-बीज है । इसी को आधार बनाकर परवर्ती रचनाकारों ने रामकाव्य की रचना की । कुछ लोगों का मानना है कि वाल्मीकि राम के समकालीन थे । परंतु वस्तुस्तिथि कुछ भिन्न प्रतीत होती है । वाल्मीकि यदि राम के समकालीन होते तो उन्हें अपने महाकाव्य के लिए नारद का सहारा न लेना पड़ता । नारद ने वाल्मीकि को रामकथा सुनाई जिसका उल्लेख वाल्मीकि ने स्वयं रामायण में किया है । 1 इससे स्पष्ट है कि  रामकथा का उद्गम वाल्मीकि से पूर्व हो चुका था । ‘ आर्चियोलॉजी ऑफ रामायण साइट्स ’ प्रायोजन पर अनुसंधान कर रहे प्रो० बी. बी. लाल के अनुसार वाल्मीकि  रामायण की वास्तविक  घटनाओं के लगभग एक हजार वर्ष बाद रामायण लिखी गई । 2 अतः रामायण की रचना से पहले राम सम्बन्धी कथाएं प्राचीन समय में अवश्य रही होंगी परंतु प्रथम काव्यरूप में उपलब्ध रामकाव्य वाल्मीकि रामायण ही है । महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण भारत के गौरव –ग्रन्थ के साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व का आदि  महाकाव्य भी है । करोड़ों भारतीय इसे अवतार मानकर धर्म-ग्रन्थ के रूप में इसका सम्मान करते हैं । इस आदिकाव्य की रचना संस्कृत में हुई है । अतः आदिकवि वाल्मीकि की रामायण से ही संस्कृत साहित्य में राम का प्रादुर्भाव हुआ । रामकथा का जन्मदाता संस्कृत साहित्य ही है । जिसका रचनाकाल ग्यारहवीं शताब्दी ईसवीं पूर्व से लेकर तीसरी शताब्दी ईसवीं पूर्व के अंतर्गत स्वीकार किया गया है । करुण रस से युक्त यह महाकाव्य एक ऐसा वटवृक्ष है जिसे आधार बनाकर विविध साहित्य रूपों की सृष्टि हुई है । रघुवंश, रामचरितमानस, कम्ब रामायण, कृतिवास रामायण आदि  अनेक ग्रन्थ वाल्मीकि  रामायण के सहारे ही कालजयी हो गए ।

संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि रामायण के बाद रामकथा का उल्लेख  निम्नलिखित कृतयों में है –कालिदास की रघुवंश , कुमारदास द्वारा रचित जानकी हरण, क्षेमेन्द्र की रामायण मंजरी आदि काव्य रामकथा से संबंधित ललित प्रबन्ध काव्य हैं । इसी प्रकार हृदयराम कृत हनुमन्नाटक, जयदेव की प्रसन्नराघव, भास द्वारा रचित नाटक प्रतिभा तथा अभिषेक, भवभूति कृत महावीर चरित तथा उत्तर रामचारित, दिग्ड़नाग कृत कुन्दमाला, मुरारी कृत अनर्घराघाव,  आदि  संस्कृत के रामकथा से संबंधित लोकप्रिय नाटक हैं । संस्कृत के इन काव्यों व नाटकों में रामकथा का वर्णन तो है ही,  इनमें राम दिव्य शक्तियों से मंडित एक महापुरुष के रूप में चित्रित हैं ।

राम का व्यक्तित्व वाल्मीकि रामायण का केंद्र बिन्दु है । कवि ने रचना के आरंभिक बालकाण्ड में अपने काव्य का प्रयोजन राम के रूप में आदर्श की स्थापना बताया है । परन्तु रामायण पढ़ने पर कुछ अलग ही अनुभूति होती है । जहां राम व्यक्तित्व में आदर्श  मानव के अनेक गुणों से युक्त होने के साथ अनेक स्थानों पर भावविह्वल व अंतर्विरोधों से घिरे प्रतीत होते हैं । एक ओर वे पितृभक्त हैं पर साथ ही पिता के व्यवहार के प्रति असंतोष व्यक्त करते भी दिखते हैं । 1 इसी प्रकार भरत के प्रति पूर्ण विश्वस्त भी लगते हैं तथा शंकालू भी । सीता के प्रति राम का अटूट प्रेम है । पर वे उसका तिरस्कार भी करते हैं । रावण की अन्त्येष्टि और विभीषण के अभिषेक के बाद राम हनुमान को सीता को देखने के लिए भेजते हैं न कि सीता को साथ लाने के लिए । दशरथ लोकमत का बहुत सम्मान करते थे । 2 राम के व्यक्तित्व में भी उसी का अनुसरण मिलता है । वनगमन के समय राम एक स्थान पर यह स्वीकार करते हैं कि वे धर्म और परलोक के भय से वन में आए हैं । 3  बाली-वध के प्रसंग में बाली द्वारा राम की धार्मिकता को ललकारे जाने पर वे अपने को उचित ठहराने के लिए स्वयं को भरत का प्रतिनिधि बतलाते हैं । 4  राम की विरक्ति या निवृति संसार की असारता पर निर्भर नहीं थी । वह तो लोकमत, नैतिक मान्यताओं और परंपरागत आदर्शों व धर्म पर निर्भर थी ।

वन गमन की आज्ञा मिलने पर राम उसे धैर्य से ग्रहण करते हैं परन्तु साधारण मानव के समान मााँ के पास जाकर फूट –फूट कर रोते भी हैं । भातृत्व प्रेम की अभिव्यक्ति लक्ष्मण को शक्ति लगने पर स्पष्ट दिखाई देती है । राम की सर्वाधिक भावविह्लता सीताहरण के उपरान्त व्यक्त हुई है । सीता की खोज या प्राप्ति के मार्ग में जो भी बाधक जान पड़ता है उसके प्रति राम का क्रोध फूट पड़ता है । जटायु को सीता का भक्षक समझकर उसके प्राण लेना चाहते हैं,  समुन्द्र रास्ता नहीं देता तो उसे सुखा देने की बात करते हैं,  सुग्रीव बाली मृत्यु के बाद राज्य में निमग्न हो राम की सहायता करना भूल जाता है तो उसे बाली के रास्ते भेजने की धमकी देते हैं । 1  इसके विपरीत सीता की प्राप्ति में सहायकों के प्रति राम का भाव सकारात्मक मिलता है । वाल्मीकि के राम में भावावेग व संवेदनशीलता बहुत थी परन्तु लोकमत, सामाजिक मान्यताओं और आदर्शों के प्रति उनका लगाव उससे कहीं अधिक प्रबल था । इसलिए लोक को महत्व देते हुए उन्होंने अपने भावावेगों को संयमित किया,  जिसके कारण भीतर ही भीतर वे कहीं द्रवित थे । कह सकते हैं कि वाल्मीकि के राम न तो पूर्णतः आदर्शवादी प्रतीत होते हैं, न ही लोभान्वेषी । दोनों का संतुलन उनके व्यक्तित्व में परिलक्षित  होता है ।

 “ यहां राम का स्वरुप कवि की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति नहीं बल्कि समष्टिगत सत्यों,  परम्पराओं,  व्यवहारों व आदर्शों से युक्त समाज की पररकल्पना है। ” 2  इस विराट उद्देश्य के कारण ही रामकाव्य एक महाकाव्य है । राम एक मनुष्य के विकास की चरमपरिणती हैं । कवि ने राम के माध्यम  से उस युग के आदर्शों  को यथार्थ रूप प्रदान करने का प्रयास किया है । वेदों में वर्णित धर्म और आदर्शों को मूर्त रूप देने का कवि का प्रयास स्तुत्य है ।

सत्य के प्रति राम की निष्ठा है । धर्म और सत्य की रक्षा के लिए उनका आत्मबलबाहरी युद्धक्षेत्र से कहीं अधिक है । इसीलिए इनके राम भीतरी संघर्षरत अधिक दिखते हैं । राम का चरित्र यातनाओं और कष्टों की आंच में तपकर कंचन बन गया है जो सदा  लोकहित व दूसरों की समृद्धि के लिए कार्य करता है । इसीलिए युगयुगान्तर से मानव धर्म,  संस्कृति  और मानव  जीवन को प्रेरणा प्रदान करता रहा है। 1

कालिदास कृत रघुवंश और वाल्मीकि कृत रामायण में प्रस्तुत राम के चरित्र में बहुत अन्तर दृष्टिगोचर होता है । रघुवंश के राम वाल्मीकि के राम से अधिक आदर्श प्रतीत होते हैं । उसमें राम के चरित्र के अनेक दुर्बल अंशों को निकाल दिया गया है । जैसे – सीता परित्याग के अवसर पर कवि ने राम की हिचकिचाहट दिखलाकर राम की दुर्बलता को दूर कर दिया है । हालांकि समाज का डर या समाज को अधिक महत्व देने की प्रवृति इसमें भी राम के चरित्र में निरन्तर बनी रहती है । परन्तु यह प्रवृति यहां राम के चरित्र  की धुरी नहीं बन गई है । कैकेयी के प्रति कोमल व्यवहार के रूप में राम की क्षमाशीलता,  भरत के पुनरागमन और हठ में उनकी सत्यनिष्ठा आदि उभरकर आई है । 2

रघुवंश के राम का राजा जीवन निरन्तर आदर्शों  की तरफ बढ़ता जाता है जो साक्षात विष्णु प्रतीत होता है । यहां राम की मानव रूप में चरमपरिणती  है । राम का चरित्र उनके बाह्य पौरुष में न होकर आंतरिक गुणों में है । जब दशरथ राम को राज्य देते हैं तो वह दुखी मन से स्वीकार करते हैं । जबकि वनवास जहां दुखी होना स्वाभाविक लगता है वहाँ वह प्रसन्नवदन दृष्टिगोचर होते हैं । मन की यह निस्पृहता उन्हें साधारण मानव से ऊंचा स्थान दिलाती है । कालिदास के राम मानवीय धरातल पर सामाजिक अवरोधों व  व्यक्तिगत प्रेम के द्वंद्वों में निरन्तर संघर्षरत हैं । सीता परित्याग , शंबूक हत्या जैसे प्रकरणों में राम की विधि निष्ठा रघुवंश में विस्तृत भूमि पर सामाजिक  संचेतना को ग्रहण करती है परन्तु भीतर का सहज-सरल मानव पारंपरिक,  सामाजिक विधानों से आहत भी होता है । आहत होकर भी राम मन को समझाते हैं कि यश के लिए प्राणोत्सर्ग भी उचित होता है फिर इंद्रिय सुख के लिए सीता परित्याग  क्या बड़ी बात है । इसीलिए सीता परित्याग वो उसी प्रकार करते है जैसे पिता की आज्ञा से राज्य का त्याग करते हैं । लोकदायित्व और विधि का पालन करते हैं । अतः उन्होंने लोक इच्छा से ही राज्य का ग्रहण किया और लोक इच्छा से ही सीता परित्याग किया । रघुवंश के राम सर्वत्र लोक कल्याण की भावना से युक्त हैं । परन्तु सीता परित्याग में कवि उनकी आलोचना करता है ।  कवि पाठक को बताना चाहते हैं कि ये उन्होंने गलत किया । रघुवंश के राम विष्णु के अवतार में भले ही अंकित हों परन्तु हैं मानव ही । मानव मन के अंतर्द्वंद्व के साथ सामाजिक आलोचना का पात्र भी कालिदास ने राम को बनाया । यदि वे ईश्वर है तो ईश्वर की आलोचना कोई कैसे करता ?

रामायण मंजरी के राम का रूप वाल्मीकि के राम का संशोधित रूप मान सकते हैं जो प्रजा के दुलारे हैं,  मधुर वाणी बोलने वाले,  विवेक से युक्त हैं । सदा प्रसन्न रहने वाले तथा सद्गुणों से अलंकृत हैं । वे सम्पन्न होते हुए भी विनयी हैं,  पूर्ण समर्थ हैं । इनके राम आदर्श मानव हैं जो पिता को देव तुल्य भी मानते है 1 और उनके प्रति प्रेम भावना से भी ओतप्रोत हैं । परम्पराओं का सम्मान करने वाले हैं जो जटायु को भी पिता तुल्य मान उनकी अन्त्येष्टि करते हैं । वीर है,  युद्ध में हजारों शत्रुओं का नाश करने में समर्थ हैं । अपनी प्रिया के प्रति भी अगाध प्रेम से युक्त हैं । सीता वियोग पर उनकी व्यथा इसका प्रमाण है । अतः रामायण मंजरी के राम स्निग्ध भावों से युक्त हैं । शरणागतवत्सल हैं । शरणागत के मनोरथों को सफल करने के लिए पूरा प्रयास करते हैं । साथ ही अविवेक पूर्ण काम करने वालों को दंडित करना भी जानते हैं । 2  मंत्र और विधि विहीन व्यक्ति के तप से राज्य की हानी होती है इसी भावना से शूद्र को दण्ड देना उनके लिए न्याय संगत है । इस प्रकार वह व्यक्तियों के लिए इन्द्र हो सकते हैं स्वयं केवल मानव हैं ।

अध्यात्म रामायण में राम का रूप भाव -प्रवण और संवेदनशील न होकर सर्वत्र कर्तव्यनिष्ठ हैं । यहां राम मानव का रूप लिए ज्ञान स्वरुप  हैं ।

      संस्कृत नाटकों में भी रामकथा के विभिन्न प्रसंगों के कथन का विषय बनाया गया है । नाटकों में रामकथा की प्रेरणा या तो वाल्मीकि रामायण से ली गई है या कालिदास की रघुवंश से । कालिदास के पूर्ववर्ती भास वाल्मीकि रामायण से प्रभावित हैं । बाद  के कवि कालिदास से प्रेरित हैं । भास ने दो नाटकों की रचना की – अभिषेक और प्रतिभा । प्रतिभा में राम को पूर्ण गरिमा के साथ प्रस्तुत किया गया है । इनके राम एक वीर पुरुष हैं । यह नाटक वीर रस का नाटक है । जहां राम पिता कि आज्ञा से रावणवध के लिए उत्साहित होते हैं और विजय पाते हैं । इसमें वर्णित कार्य में मुख्यतः पिता की आज्ञा का पालन करते हुए राम दिखते हैं । रावण –वध गौण कार्य है । इसीलिए इसके राम धर्मवीर हैं । वाल्मीकि के विग्रहवान राम के रूप में यहां राम का चित्रण है । जो संवेदनशील हैं । छोटी –छोटी बातों से उद्वेलित हो जाते हैं परन्तु मर्यादा को नहीं छोड़ते । शस्त्रों से अधिक अपनों के कटु शब्द उन्हें पीड़ित करते हैं ।

            नाटक प्रसन्नराघव पूर्ववर्ती रामकथा परम्परा से बिल्कुल भिन्न है । इसमें राम के प्रतिद्वंदी रावण और बाणासुर हैं । जो उस युग के वीर योद्धा  हैं तथा सीता के आकांक्षी हैं । 1 राम महावीर हैं । जयदेव राम को मानव रूप में प्रस्तुत करते हुए भी उनकी दुर्बलताओं को प्रकट करने से बचते हुए प्रतीत होते हैं । नाटककार की दृष्टि सीता –राम के प्रणय पर टिकी है । यही कारण है कि राम चरित्र इतना उभर नहीं पाया । राम यहां ललित नायक जैसे हैं । हिन्दी काव्यों में वर्णित पुष्पवाटिका प्रसंग जयदेव के प्रसन्नराघव की ही देन है ।

नवीन प्रसंगों की दृष्टि से अनर्घराघव एक महत्वपूर्ण नाटक है । अनर्घराघव के राम प्रसन्नराघव की अपेक्षा कम भावुक हैं । वो राजनीति में सर्वज्ञ हैं,  कूटनीतिज्ञ हैं । सुग्रीव के सामने बाली को मित्र बनाकर उनको श्रेष्ठ लगता है । 2 नाटकीय कथावस्तु के आधार पर नवीनता इसमें अवश्य है पर यह परंपरा विरुद्ध यांत्रिक -सी है जो सहज नहीं लगती ।

     हनुमन्नाटक संस्कृत –कृतियों में वह नाटक है जिसने परवर्ती हिन्दी रामकाव्य को सबसे अधिक प्रभावित किया । इसका धनुष –भंग का प्रसंग विशेष है । धनुष-भंग होना और उसी समय परशुराम का आगमन परवर्ती रामकथाओं में इसी के आधार पर हुआ है । श्रृंगार विलास के स्वर इसमें बहुत तीक्ष्ण हैं जो राम को विलासी –सा आभासित करते हैं ।

उत्तररामचारित व कुंदमाला दोनों में राम के उत्तरचरित को चित्रित किया है । इनमें नैतिक मूल्यों और लोकमत का निर्वाह करते अंतर्द्वंद्वों और भावनाओं को राम के माध्यम से वर्णित किया गया है । उत्तर रामचारित में भी राम लोकमत की रक्षा के लिए सीता का परित्याग करते हैं । राम की सूक्ष्म अनुभूतियों का वर्णन उत्तर रामचारित में किया गया है वो कुन्दमाला में नहीं मिलता ।

     ‘ इस प्रकार से संस्कृत साहित्य में राम ’ विषय पर दृष्टिपात करने पर राम अनेक रूपों में दिखाई देते हुए भी एक आदर्श , मर्यादित,  संयमित मानव रूप में ही अधिक मिलते हैं । जो अपने गुणों के कारण विष्णु के समकक्ष हैं पर देव नहीं । संस्कृत की इन महान कृतियों ने रामकाव्य की एक ऐसी परम्परा भारतीय वाङ्मय को दी जिससे सारा जनमानस व साहित्य कृतकृत्य हो गया । हिन्दी रामकाव्य इसका साक्षी है ।

 

संदर्भ ग्रंथ सूची –

1 वाल्मीकि  रामायण–1/3/9

2 दी टाइम्स ऑफ इण्डिया, 7 अप्रैल 1979

1 वाल्मीकि  रामायण 2/53/10

2 वाल्मीकि  रामायण 2/12/82-83

3 वाल्मीकि  रामायण 2/22

1 वाल्मीकि  रामायण 4/30/81

2 राम का स्वरूप और दर्शन, डॉ ब्रह्मशंकर पुरुषोत्तम व्यास पृ० –33

1 साहित्य दर्शन – डॉ शचीरानी गुर्टू , पृ० -२९

2 रघुवंश –14/16

1 रघुवंर् -14/73

1 रामायण मंजरी वा० का० 414

2 रामायण मंजरी युद्धकाडि 218

1 कुन्दमाला –3/7-8

2 राम का स्वरूप और दर्शन, डॉ ब्रह्मशंकर पुरुषोत्तम व्यास पृ० –64

 

डॉ. रेणु गुप्ता
श्यामलाल महाविद्यालय (सांध्य)
दिल्ली