वाल्मीकि के द्वारा रामायण लिखने के बाद से हर युग में राम को तथा रामकथा को अपने अनुसार आख्यायित करने का काम कवियों ने किया है ।  बौद्ध काल में बोधिसत्व को राम का अवतार माना गया है तथा जातक कथाओं में भी राम कथा के संदर्भ प्राप्त होते हैं । जैन साहित्य में ‘पउमचरिउ’ की कथा प्राप्त होती है । हिंदी साहित्य में राम की एक पूरी परंपरा ही दिखाई पड़ती है जिसके केंद्र में गोस्वामी तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ है । आधुनिक काल में मैथिलीशरण गुप्त तथा निराला के यहाँ मानव रूप में राम मिलते हैं । इसी की अगली कड़ी में नरेश मेहता के खंडकाव्य ‘संशय की एक रात’ में राम का एक आधुनिक वैचारिक मानव के रूप में स्वरूप दिखाई देता है । यह राम युद्ध के पक्ष में नहीं है । यह राम किसी भी तरह से शांति चाहता है साथ ही वह यह भी मानता है की बिना युद्ध, बिना हिंसा के ही शांति संभव है  ।

केदारनाथ सिंह एक निबंध में लिखते हैं, “मेरे आधुनिक संवेदनों में जो बहुत से तत्व अपनी मूल जड़ों से छनकर आ गए हैं, उनमें समय का यह बोध भी है- एक ऐसा बोध जिसमें स्थान और समय के बीच कोई फाँक नहीं होती ।”(1)  आधुनिकता का वह बोध जो राम को अपनी जड़ों से नहीं काट रहा है, हमें संशय की एक रात में दिखाई पड़ता है । जहाँ वह पुराने मूल्यों से जूझ रहा है वहीं नए की स्थापना में लगा हुआ है । उनके संशय में घिरे होने को नरेश मेहता इस तरह चित्रित करते हैं – “ज्वारों घिरे / विवश / छोटे द्वीप से”(2)

यहाँ राम का स्वरूप किसी महामानव का नहीं है जिसे अपने निर्णयों में स्पष्टता है बल्कि यहाँ राम एक आधुनिक मानव है जो अपने निर्णयों से पड़ने वाले प्रभावों के विषय में सोचता है, जो संशय में है, जिसे अपनी व्यक्तिगत समस्या के लिए एक बड़े युद्ध में मारे जाने वाले मानवों की चिंता है । साथ ही अपने निर्णयों को लेकर भी पूरी तरह से निश्चितता नहीं है । वह भी जीवन में अर्थ तलाश रहे हैं ।

“इनके बीच / हम अपनी समस्याएँ लिए / भटके सार्थ के / टूटे हुए संदर्भ हैं”(3)

ये टूटे हुए संदर्भ और भटके हुए सार्थ जीवन के बेतुकेपन की तरफ इशारा कर रहे प्रतीत होते हैं जिसके विषय में अल्बेयर कामू ने ‘द मिथ ऑफ सीसिफ़स’ में अपना दर्शन दिया है । उसके अनुसार- The end is the absurd universe and that attitude of mind which lights the world with its true colour to bring out the privileged and implacable visage which that attitude has discerned in it.”(4) कहीं ना कहीं यह ऐब्सर्डिटी राम के भीतर भी दिखाई देती है । उनके निर्णय ना ले पाने की स्थति में भी दिखाई देती है । जहाँ राम को लगता है की युद्ध से मानव इतिहास के समक्ष एक अच्छा उदाहरण नहीं प्रस्तुत होगा, तथा युद्ध किस भी ढंग से शुभ नहीं हो सकता है  वहीं अल्बेयर कामू का कहना है- At the heart of all beauty lies something inhuman, and these hills, the softness of the sky, the outline of these trees at this very minute lose the illusory meaning with which we had clothed them, henceforth more remote than a lost paradise.”(5)

साथ ही यह भी देखने योग्य हैं की यहाँ राम को अपनी नियति पता नहीं है वह स्वयं नियति की तलाश में हैं । आधुनिक समय में मनुष्य की बड़ी विडंबनाओं में से एक यह भी है की इंसान कर्म तो कर रहा है पर उसे अपनी नियति ज्ञात नहीं है । आधुनिक मनुष्य कृष्ण के कर्म वाले उपदेश को मान रहा है और अपना कर्म कर रहा है यद्यपि उसे पता नहीं है कि इसका फल क्या होगा । वह संभावित फलों को लेकर आशंकित मात्र रहता है । इस खंडकाव्य के राम उसी सामान्य मनुष्य की तरह हैं वह कहते हैं – “मरुस्थल की / जलती हवाओं की भाँति / असत्कारित / अवांछित / हर गाछ से / जबकी हम / संधियों से / युद्ध से / नियति पाना चाहते हैं”(6) यह जो ऐब्सर्डिटी है जो राम के जीवन में हमें दिखाई पड़ती है वह ठीक आगे लक्ष्मण के द्वारा भी स्पष्ट होती है । वह राम के विषय में कहते हैं – “संभव है / लगता हो जीवन ही निस्सार”(7) जीवन की यही निस्सरता ऐब्सर्ड मनुष्य के निर्माण का द्योतक है ।

इन्ही वजहों से वह युद्ध करने और ना करने के संशय में अटके हुए हैं । वह युद्ध को किसी भी ढंग से टालना चाहते हैं । इसी संशय के मारे वह अपने पिता से कहते हैं की उन्हे मनुष्य के रूप में ना तो अपने पुराने कर्मों के लिए पश्चाताप है और ना ही कोई परिताप लेकिन संशय अवश्य है – “हाँ / पुत्र के रूप में पश्चाताप है / अनेकों संबंधों से परिताप भी / पर / व्यक्ति को / केवल संशय है / केवल संशय है”(8)

पर यह संशय किस बात को लेकर है ? यह संशय हमें द्वापर के अर्जुन में भी दिखा था लेकिन वहाँ पर कारण इतना व्यापक नहीं था वहाँ अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में अपने परिवार वालों को देखकर अर्जुन के मन में शंका उत्पन्न होती है और वह युद्ध नहीं करना चाहते हैं । परंतु यहाँ वह मोह नहीं है । यहाँ संशय का कारण कुछ और है । और वह संशय छाया द्वारा पूछने पर राम द्वारा बताया जाता है-

“छाया- परिणाम का ?

राम- नहीं पिता / मानव नियति का संशय है / यदि सारे शुभाशुभ / युद्धों से ही प्रतिपादित होने हैं / तब वे सत्य तो नहीं / अंतिम भी नहीं”(9)

वर्तमान समय में युद्ध की परिस्थतियाँ लगभग बनी रहती हैं । हर छोटे मसले पर जनता का रुख युद्ध की तरफ मुड़ता है । परंतु लोकतान्त्रिक मूल्यों को जीवित रखने वाले कारकों द्वारा यह ध्यान में रखा जाता है की युद्ध की परिस्थितियाँ ना बनने पाए । युद्ध से मुँह मोड़ते हुए मनुष्य की चिंता करना आधुनिकता बोध का प्रमाण होता है । आधुनिक कविता एवं आधुनिकता के विचारधारा के मूल में मनुष्य होता है । मनुष्य के अस्तित्व की बात होती है जिसे हर हाल में स्वतंत्र और गौरवपूर्ण जीने योग्य होना चाहिए । हमारे पुराने काव्यों ने यहाँ तक दार्शनिकों ने भी युद्ध का महिमा मंडन किया है । यहाँ तक की फ़्रेडरिक नीत्शे जैसे दार्शनिकों ने भी युद्ध का गुणगान किया है । युद्ध को महान बताने की परंपरा रही है । आज भी अनेक राजाओं आदि के विषय में कविताएं लिखी जाति हैं जिनमें उनके युद्ध का बखान होता है । यहाँ तक की राष्ट्रवाद के नाम पर होने वाले युद्धों में भी सैनिकों का बखान किया जाता है । हर देश की जनता का एक बड़ा हिस्सा युद्ध करने वालों के हिस्से में खड़ी होती है । ऐसी स्थिति में एक मनुष्य जो मानव हित के विषय में सोच रहा है वह राम ही हो सकता है । राम दया के सागर कहे जाते हैं अतः उनकी दया की व्यापकता में वानर सेना तो आती ही है साथ ही लंका की भी एक बहुत बड़ी जनता आती है । वह कहते हैं –

“द्वंद्व का वह स्वर अपरिचित लग रहा होगा, / लक्ष्मण ! / विद्रोह मेरा नहीं गुण-धर्म है / सौम्य स्वीकारा गया हूँ आज तक । / केलफल सा सदा / विनयी ही रहा / पर / यह चेतना / यह बोध- / आस्था में / आत्मा में ही विभाजन कर रहे । / यह अकेले राम का संकट नहीं है / लक्ष्मण! / संभव है प्रथम हो / किन्तु अंतिम तो नहीं”(10)

यह अकेले राम का संकट ना होना हमें आधुनिक विचारधारा के दो प्रमुख व्यक्तित्वों के साथ खड़ा कर देता है । एक महात्मा गाँधी जिन्होंने अहिंसा को अपना हथियार बनाया और दूसरे भगत सिंह जो सशस्त्र विद्रोह करने वाले क्रांतिकारी जरूर थे परंतु उनका यह भी मानना था की हथियार से क्रांति नहीं आती है । इसी स्थान पर अल्बेयर कामू के नाटक ‘न्यायप्रिय’ में खड़ा किया गया प्रश्न भी आकर जुड़ जाता है कि अपने उद्देश्यों के लिए युद्ध एवं हिंसा आदि कहाँ तक जायज है । यह सर्वविदित है कि हर युद्ध और क्रांति में ऐसे लोग भी मारे जाते हैं जो प्रत्यक्षतः इन घटनाओं से नहीं जुड़े रहते , जो आम जन होते हैं । अतः युद्ध पर एक नैतिक प्रश्न खड़ा हो जाता है । उपरोक्त काव्यात्मक पंक्तियों पर पुनः विचार करते हुए हम यह पाते हैं कि यह सत्य है कि वह संकट अकेले राम का नहीं था आगे भी आने वाले मनुष्यों में रहा है तथा रहेगा । युद्ध करते हुए सत्य की तलाश करना इस राम को स्वीकार नहीं है – “सत्य की मिथ्या पताकाएं लिए / अपने स्वार्थ के दे खड्ग / जन के हाथ में / जो भी लड़ूँगा युद्ध होगी आस्था की वंचना ही / बंधु / ऐसा युद्ध / ऐसी विजय / ऐसी प्राप्ति- / सब मिथ्यात्व है / नरसंहार के व्यामोह के प्रति / वितृष्णा से भर उठा हूँ”(11)

जहाँ राम यह कह रहे हैं कि लोग मिथ्या की पताकाएं लिए युद्ध कर रहे हैं और उसे सत्य का नाम दे रहे हैं । वहीं राम भी सत्य की ही तलाश में हैं –

“मैं सत्य चाहता हूँ / युद्ध से नहीं, खड्ग से भी नहीं / मानव का मानव से सत्य चाहता हूँ”(12)

क्या यह मानव से मानव का सत्य जानना हिंसक गतिविधियों से संभव है या प्रेम करने से । या युद्ध द्वारा प्राप्त साम्राज्य राम को स्वीकार होगा । राही मासूम रज़ा अपने उपन्यास आधा गाँव में लिखते हैं “नफरत और खौफ की बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज मुबारक नहीं हो सकती ।”(13) अतः जो भी सत्य राम को स्थापित करने की आवश्यकता है उसे अपने बल के खौफ के स्थान पर वह प्रेम से पाना चाहते हैं । दूसरे सर्ग में राम कहते हैं, “मुझे ऐसी जीत नहीं चाहिए, / बाणबिद्ध पाखी सा विवश / साम्राज्य नहीं चाहिए, / मानव के रक्त पर पग धरती आती / सोता भी नहीं चाहिए, / सीता भी नहीं ।”(14)

सत्य और असत्य का भेद क्या है ? वीरता के नाम पर युद्ध कर लेना और लाखों जान जाने का कारण बन जाना राम को स्वीकार नहीं है । यहाँ तक कि जब जटायु और दशरथ की छाया आकर राम से कहती हैं- “राम! / मोह असत्य है / किसी का भी हो । / तुम्हें अपनी अनास्था से नहीं / संशयी व्यक्तित्व से भी नहीं / तुम्हें लड़ना युद्ध है / असत्य से ।”(15)  इसके जवाब में राम इन सत्यों को, विश्वासों और अंधविश्वासों को तर्क की कसौटी पर कसना चाहते हैं । वह कहते हैं – “इनकी वास्तविकता को / कभी चुनौता ही नहीं गया । / इन अंधे विश्वासों को / किसी संशय ने निगला ही नहीं । / किसी वर्चस्वी तर्क ने / इनके सत्य को / प्रश्न कर / बौना किया ही नहीं” (16)

राम को यह ज्ञात है की वह एक ऐसे पुरुष हैं जो इतिहास के पन्ने पर दर्ज़ होंगे अतः उनका दायित्वबोध भी उनमें है । उन्हें जहाँ सीता का हरण अपनी निजी समस्या लगती है वहीं अन्य सेना आदि को सबकी समस्या जिसके अपने तर्क हैं । उन तर्कों के वशीभूत होकर वह चाहते हैं कि राम उनके लिए युद्ध करें । राम कहते हैं – किन्तु युद्ध, दायित्व है । / किसी भी पीढ़ी के लिए दायित्व है / आवेश नहीं” वह आगे कहते हैं- “संभव है / इस युद्ध में / हम सभी अपने स्वत्व को पा जाएँ / किन्तु उसकी चिर सुरक्षा / शांति”(17)

आगे के सर्गों के कुछ उद्धरण उन विडंबनाओं और विसंगतियों की तरफ इंगित करते हैं जिनसे आधुनिक मनुष्य घिरा हुआ है – “उस वृद्ध, ठंडी शीला पर / गिद्धवत बैठ हुआ / बहुमत / न्याय है, सत्य है / ऐतिहासिक नियति है / हर व्यक्ति की”(18) इन पंक्तियों में प्रयोग किया गया बहुमत शब्द वर्तमान व्यवस्था और समाज की स्थिति के साथ-साथ उसके बीच फंसे हुए मानुष की स्थिति को भी उजागर करता है । साथ ही वह ‘ऐतिहासिक नियति’ लिखते हैं अर्थात यह मनुष्य बहुमत के अनुसार काम करने की नियति आज वर्तमान समय से नहीं बल्कि ऐतिहासिक रही है । यह सिर्फ संशय में घिरा हुआ यह राम नहीं है । यह हर ऐतिहासिक मनुष्य था और आगे भी होगा । अंत ने राम कहते हैं- “अब मैं निर्णय हूँ / सबका / अपना नहीं । / कैसी विडंबना” एवं “इतिहास व्यक्ति को व्यक्ति नहीं / शस्त्र मानता है / अपने अंधे उद्देश्य पूर्ति में / उसी परिभाषा में वह / निर्मित है”(19)

आखिरकार राम अनिक्षा से युद्ध करने के लिए तैयार हो जाते हैं । इस प्रकार वह स्वयं के मन का मनुष्य बनने की बजाय वह बन जाते हैं जो अन्य लोगों के, बहुमत के अनुसार कार्य करता है । वह कहते हैं- “अब मैं केवल / प्रतीक्षा हूँ / क्वचित कर्म हूँ / प्रतिश्रुत युद्ध हूँ । / निर्णय हूँ सबका / सबके लिए, / केवल अपने लिए / संभवतः नहीं । / नहीं!!”(20)

निष्कर्ष-

जहाँ पर तुलसी के राम एक मर्यादापुरुषोत्तम राम हैं । धीर, वीर और गंभीर राम हैं जो नायकत्व के गुणों का समावेश हैं वहीं नरेश मेहता के राम वीर तो हैं परंतु संशयों से घिरे हुए हैं । वह आधुनिक ट्रैजडी में पीसने वाले मनुष्य हैं । वह अपने कर्मों के द्वारा इतिहास के पृष्ठ पर पहुँच रहे संदेश की परवाह करते हैं । यह राम आधुनिक मूल्यों और कर्म के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करता मनुष्य है । यहाँ राम स्वयं को एक अनिर्णय की स्थिति में पाते हैं । खंडकाव्य के यह राम इस रामकथा के आगे एवं पीछे दोनों सिरों से रामकथा की नई व्याख्या करने के लिए पाठक को दृष्टि भी प्रदान करते हैं । साथ ही यह आधुनिक मनुष्य जो जीवन की चक्की में पीसा जा रहा है उसके समक्ष एक यथार्थवादी आदर्श के रूप में प्रस्तुत होता हैं ।

संदर्भ –

  1. केदारनाथ सिंह, हिंदी आधुनिकता का अर्थ (विशेषतः कविता के संदर्भ में ), साहित्य सिद्धांत विमर्श, सं. रीतारानी पालीवाल, पृ. 464, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2017 ।
  2. नरेश मेहता, संशय की एक रात, नरेश मेहता संचयन, सं. प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ. 150, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2015 ।
  3. वही पृ. 152
  4. Albert camus, The myth of Sisyphus, page- 10-11, penguin books, 2005.
  5. वही पृ. 12-13
  6. नरेश मेहता, संशय की एक रात, नरेश मेहता संचयन, सं. प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ. 152, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2015 ।
  7. वही पृ. 154
  8. वही पृ.176
  9. वही पृ. 177
  10. नरेश मेहता, संशय की एक रात, नरेश मेहता संचयन, सं. प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ. 160-161, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2015 ।
  11. वही पृ.162
  12. वही पृ.164
  13. राही मासूम रज़ा, आधा गाँव, पृष्ठ- 251, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, संस्करण 2021 ।
  14. नरेश मेहता, संशय की एक रात, नरेश मेहता संचयन, सं. प्रभाकर श्रोत्रिय, पृ. 165, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2015 ।
  15. वही पृ.174
  16. वही पृ. 176
  17. वही पृ. 186
  18. वही पृ. 192
  19. वही पृ. 196
  20. वही पृ. 201
उज्ज्वल शुक्ला
शोधार्थी
हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय