हिंदी-साहित्य में एक सुपरिचित और प्रतिष्ठित नाम है, ‘शरद सिंह’ जिन्होंने नारी की दसदिक् पीड़ाओ को अपने साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की है। गद्य एवं पद्य की अनेक विधाएं इनके साहित्य सृजन का आधार बनी हैं। इन्होंने अपने साहित्य की हर रचना के केंद्र में नारी को ही चुना है। शरद सिंह ने अपने साहित्य के आधार पर न केवल पाठकों और आलोचकों को स्थितियों की विद्रूपता दिखा कर चौंका देती है बल्कि उन्हें सोचने और विचारने के लिए भी मज़बूर कर देती है। यदि इन्हें पिछड़े और शोषित महिलाओं के जीवन से रू-ब-रू कराने वाली बेबाक प्रवक्ता कहा जाए तो ये बिल्कुल असंगत नहीं होगा। वे अपने साहित्य में नारी-पात्रों को यथार्थ से चुनती हैं और किसी भी कथ्य, पात्र, घटनाक्रम को गढ़ने से पहले उसकी पूरी तहकीकात भी करती हैं। महेश दर्पण के शब्दों में-“एक रचनाकार में जो बेलौस खुलापन होना जरूरी है, वह लेखिका के पास मौजूद है। उसमें अनुभवों के कथा रूप में बाँधने की कोशिश भी है और सहजता से उसके बीच अपनी बात कह देने की सलहियत भी।”[i]

अपने साहित्य में शरद सिंह ने, न केवल नारी-पात्रों का सहज और सुंदर चित्रण किया है, बल्कि उनके साहित्य में नारी जीवन भी है और नारी-मन के आवेग भी। नारी चाहे किसी भी वर्ग की क्यों न हो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है, क्योंकि पितृसत्तात्मक व्यवस्था तो केवल नारी का शोषण करना जानती है, उसे नारी वर्ग से कोई मतलब नहीं। नारी अमीर हो या गरीब, पढ़ी-लिखी हो या अनपढ़, घरेलू हो या कामकाजी उसका प्रत्येक स्तर पर शोषण ही होता रहा है, जो आज वर्तमान में नारी-विमर्श के आ जाने से कुछ हद तक कम जरूर हुआ है, परंतु पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है।

ऐसा नहीं है कि समाज और साहित्य में नारी-विमर्श का आगमन एकाएक हो गया हो, अपितु नारी-विमर्श समाज में नारी की स्थिति के प्रति एक सुदीर्घ प्रतिकिया की देन है, जिसके लिए राजा राममोहन राय, सावित्री बाई फुले, ज्योतिया फुले, पंडिता रमाबाई, ताराबाई शिंदे, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती, सरोजनी नायडू, महात्मा गाँधी, अंबेडकर इत्यादि ने समाज में फैले नारी से संबंधित रूढ़ियों, अंधविश्वास और पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा बनाए गए क़ानून को जड़ से उखाड़ फैका और नारी को शिक्षित और पुरुषों के बराबर अधिकार दिलाने के लिए जीवनभर प्रयास करते रहे। इसी प्रकार पाश्चात्य परम्परा में मेरी वोल्सटनक्राफ्ट, सिमोन द बोउवार, बेट्टी फ्रीडन, केट मिलेट, जॉन मिल, विलियम थामस, जान स्टुअर्ट मिल, जर्मेन ग्रीयस, इत्यादि विद्वानों ने समाज में नारी की स्वतंत्रता के लिए, उनके सामाजिक व राजनैतिक अधिकारों के लिए तथा समाज में उसके प्रति होने वाले अत्याचारों का विरोध करके उसे न्याय दिलवाने में मुख्य भूमिका निभाई है। इसी प्रकार हिंदी साहित्य-परम्परा में मीराबाई, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, बंग महिला, कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, नासिरा शर्मा, मृणाल पाण्डे,सुषम बेदी,सुधा अरोड़ा, कृष्णा अग्निहोत्री, उषा राजे सक्सेना, सुधा ओम ढींगरा, गीतांजलि श्री, मधु कांकरिया, क्षमा शर्मा और शरद सिंह आदि लेखिकाओं का साहित्य नारी-विमर्श के पूर्व-कथित मुद्दों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

मीराबाई हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्शकार के रूप में सबसे पहले अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है और कई मायनों में वे आज की आधुनिक कही जाने वाली महिला विमर्शकारों से कई आगे हैं, क्योंकि जिस युग में मीरा ने पुरुषवर्चस्ववादी व्यवस्था के प्रति खुला विद्रोह किया, वह ऐसा युग था जिस समय नारी रूढ़ियों से पूरी तरह जकड़ी हुई थी। जब नारी पूरी तरह से पुरुष पर आश्रित थी, उसका अपना न कोई लक्ष्य था और न ही अस्तित्व, उसकी डोर तक पुरुष के हाथों में था। उसके बावजूद भी मीरा के रचनाओं में स्त्री चेतना और आत्मबोध का सशक्त स्वर सुनाई पड़ता है। उनका सम्पूर्ण साहित्य, नारी पर पुरुषों के आधिपत्य के विरुद्ध विद्रोह है। जब मीरा अपनी रचना में कहती है कि ‘अपने घर का परदा कर लौं, मैं अबला बौराणी’ तो रोहिणी अग्रवाल दो बातों को लक्षित करती हैं- “एक हताश के गर्भ में फूटता स्त्री का विद्रोह और स्त्री के मनुष्यत्व के लिए पितृसत्तातम्क व्यवस्था के स्वरूप की पुनर्सरचना। मीरा का विद्रोह उन स्थितियों की पड़ताल करने की नैतिक जवाबदेही है जो अबला कही जाने वाली निरीह पराश्रित स्त्री को ‘बौराने’ और ‘आक्रमक’ होने को विवश करती है; बार-बार उन पूर्वग्रहों और जड़ताओं को चीन्ह लेने की आकांक्षा करता है जो स्त्री की आत्मविकास की नैसर्गिक आकांक्षा को ‘लोकलाज’ और ‘कुलकानि’ के उल्लंघन से जोड़ती है-उस कुत्सित मानसिकता को तुरंत निषिद्ध कर देने की मांग करता है जो पुरुष और व्यवस्था की हर अमानुषिकता को अनुशासन और नियम पालन का पर्याय बना देती है।”[ii] उसके बाद महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य में  ऐसा नाम है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन स्त्री विषयक चिंतन में गुजार दिया और मरते दम तक स्त्रियों के हितों की रक्षा के लिए कार्य करती रही। उन्होंने अपनी रचना ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में स्त्री के अस्तित्व की रक्षा और न्याय के लिए नारी बंधनों की श्रृंखला को तोड़ने का प्रयास भी किया और साथ ही नारी गरिमा को भी बनाए रखा। महादेवी वर्मा के शब्दों में-“अपने कर्त्तव्य की गुरूता भली-भाँति ह्रदयगम कर यदि हम अपना लक्ष्य स्थिर कर सकें, तो हमारी लौह-श्रृंखलाएँ हमारी गरिमा से गलकर मोम बन सकती हैं, इसमें संदेह नहीं।”[iii]  सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने प्रखर शब्दों में देश की नारी को नया रूप प्रदान किया। उनकी रचना ‘झाँसी की रानी’ मील का पत्थर साबित हुई।

सन् 1960 के आस-पास मन्नू भण्डारी, कृष्णा सोबती, मैत्रीय पुष्पा, मृदुला गर्ग, मृणाल पाण्डे, सूर्यबाला, चित्रा मुदगल, उषा प्रियवंदा, अनामिका, कुमकुम शर्मा आदि अनेक लेखिकाओं ने स्त्रियों की समस्याओं पर खुलकर लिखा और पुरुष के सत्तातम्क सोच से समाज को अवगत कराया। यदि 21वीं सदी के साहित्य की बात करे तो, नारी-विमर्श में कुछ चर्चित नाम हैं जिन्होंने आज के साहित्य में अपनी विशेष छवि स्थापित की हैं, जिनमें प्रमुख हैं-सुषम बेदी, कृष्णा अग्निहोत्री, अर्चना वर्मा, उषा राजे सक्सेना, सुधा ओम ढींगरा, सुधा अरोड़ा, मधु कांकरिया, कात्यायनी, गीतांजलि श्री, शरद सिंह आदि। इन लेखिकाओं द्वारा रचित कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक, आत्मकथा इत्यादि के माध्यम से नारी लेखन के जागरूक और संवेदनशील सार्थक हस्तक्षेप करने वाले विवध आयाम आज दिखाई देने लगे हैं। वरिष्ठ पीढ़ी की लेखिकाओं ने अपने लेखन में जहाँ मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय समाज के जिन सरोकारों को सीमित स्थान दिया था। वहीं आज की लेखिकारों में अपनी लेखनी में उन सरोकारों को विस्तृत स्थान दिया है। आज की महिला लेखिकाओं ने नारी के लिए प्रयुक्त पंक्ति आंचल में है दूध और आँखों में पानी की तस्वीर को उलट कर रख दिया है। उनके लेखन में आत्मविश्वास की पैनी धार और शिल्प में भी परिपक्तता देखने को मिलता है। आज के महिला लेखिकाएँ समाज को नारी के यथार्थ से परिचित कराने के लिए हर जोखिम उठाने से भी पीछे नहीं हटती है। शरद सिंह ऐसी ही लेखिकाओं में से एक हैं।

 ‘पिछले पन्ने की औरतें’ उपन्यास के द्वारा शरद सिंह ने साहित्य जगत में अपने लिए विशेष स्थान दर्ज कराया है। यह उपन्यास पाठकों को अन्दर तक झकझोर देता है और उस सच से भी अवगत कराता है कि किस प्रकार बेड़िया समुदाय की औरतें अपने पैरों में घुंघरू बाँधकर अपनी देह का व्यापर करने को विवश हैं। जिसकी कल्पना आज के 21 वीं सदी में तो बिल्कुल नहीं किया जा सकता, पर इस सत्य से भी मुँह नहीं फेरा जा सकता कि नारी के लिए इतनी सुविधाएँ और क़ानून-नियम बनाने के बाद भी वह आज भी शोषित होने को मजबूर है, परम्पराएँ आज भी उन्हें जकड़े हुए है और न चाहते हुए भी, वह उन परम्पराओं को निभाने के लिए मजबूर है।

ऐसा नहीं कहा जा सकता की हिंदी साहित्य में ऐसे उपन्यास पहले नहीं लिखे गए हो, ऐसे उपन्यास पहले भी लिखे जा चुके हैं, पर वह ज्यादातर कल्पना पर आधारित होते थे, जो पाठकों के मनोरंजन के लिए लिखे जाते थे, जबकि शरद सिंह द्वारा लिखा गया उपन्यास शोधपरक कृति है। डॉ० संदीप अवस्थी इस उपन्यास के संबंध में लिखते है कि-“लेखिका के साहस दृष्टि सम्पन्नता और छल रहित व्यक्तित्व की दाद देनी होगी उसने श्यामा बेड़नी के साथ अपनी शुरू की यात्रा को अंत तक निभाया और कहीं भी अपने लेखिका होने, साधन संपन्न होने का दंभ गुमान उपन्यास में नहीं दिखाया है।”[iv] बेड़िया समुदाय की औरतों के बारे में कहा जाता है कि समाज इन औरतों की उपस्थिति का अनुभव तो करता है, किंतु कोई भी इन्हें पिछले पन्नों से निकाल कर अतीत में नहीं लाना चाहता। क्योंकि लोगों के लिए लिए तो यह औरतें मात्र बेड़नी हैं, जिन्हें अपने मनोरंजन के लिए नचाया जा सके, भोगा जा सके और जिन्हें परम्पराओं की जंजीरों से जकड़ कर गुलाम बना कर रखा जा  सके। लेखिका के शब्दों में-“समाज में स्त्री की स्थिति अब पहले से अधिक जटिल है। एक ओर स्त्री को उपेक्षित रखा जाता है तो दूसरी ओर अपेक्षित बनाकर रखा जाता है। सत्ता, समाज, संपत्ति पर उसका अधिकार है भी, और नहीं भी। न्याय की पोथियों में ये तीनों अधिकार स्त्री के नाम लिखे गए हैं, लेकिन यथार्थ पोथियों के बाहर पाया जाता है……न्याय दिलाने वाले से लेकर उसे एक ग्लास पानी पिलाने वाले भी दया और सहानुभूति के नाम पर लार टपकाने से नहीं चूकते है।”[v]

एक पत्नी होने के नाते, एक स्त्री पुरुष पर जो भी अधिकार जमाती है, उन्हें इन बेड़नियों ने हँसते-हँसते त्याग दिया और ख़ुद रखैल मात्र बनकर रह गई। विडम्बना है आजाद भारत देश में जहाँ नारी के अधिकारों को लेकर बड़े-बड़े भाषण दिए जाते हैं, सरकार इन लोगों से वोट तो वसूल करना जानती है, पर इनके उद्धार के लिए कुछ ख़ास काम नहीं करती। सरकार द्वारा चलाने जा रही ‘जाबली योजना’ जैसी तमाम योजनाएं बस नाम की है, वह भी इनका शोषण करने से पीछे नहीं हटते-“न जाने कितने लोगों ने, समाजसेवा और उद्धारकर्ता के रूप में इन बेड़ियों से छल किया है……न जाने कितने लोग इनकी लड़कियों को बहला-फुसलाकर दूसरे शहरों में ले जाकर बेच देते हैं।”[vi]

इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने इस अनोखे उपन्यास के कारण शरद सिंह दूसरी नारी-विमर्शकारों की तुलना में बिल्कुल अलग नज़र आती हैं। वे न केवल समकालीन स्त्री यथार्थ का एक दुर्लभ पहलू सामने लाती हैं, बल्कि जिस शोधपरक शैली में उन्होंने इसे लिखा है, वह भी विलक्षण है और उनके इस उपन्यास ने समकालीन स्त्री लेखिकाओं में उनकी स्थाई प्रतिष्ठा बना दी है।

इसी प्रकार, शरद सिंह द्वारा रचित उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ उनके पूर्व लिखित उपन्यास ‘पिछले पन्ने की औरतें’ से एकदम अलग है। हमेशा से नए-नए विषयों को अपने लेखन का माध्यम बनाने वाली लेखिका का यह उपन्यास ‘लिव इन रिलेशन’ पर आधारित है। “जिस समाज में प्रेम करने को अक्षम्य अपराध की तरह देखने का आम चलन है, वहाँ ऐसे विषय पर कलम चलाना साहस की बात कही जाएँगी। वस्तुतः हिंदी-साहित्य के स्त्री-विमर्श के क्षेत्र में यह उपन्यास एक अहम हस्तक्षेप है, जिसमें न सिर्फ़ स्त्री की सदियों पुरानी  परतंत्रता का प्रतिकार किया गया है, बल्कि उसे मुक्ति का विकल्प भी दिखाया गया है।[vii]” उपन्यास की नायिका सुगंधा जब अपने प्रेमी रितिक के साथ एक ही घर में रहने लगती है, तब आस-पड़ोस के लोग उसके और रितिक के संबंधों के बारे में पूछ-पूछ कर उसका समाज में जीना मुश्किल कर देते हैं जिसकी वजह से उसे बार-बार अपना घर तक बदलना पड़ता है, घर जरूर बदल जाते हैं, पर पड़ोसियों के सवालों का अंत नहीं होता। वह रितिक से तो कुछ नहीं कहते बल्कि उसे ही विवाह का सुझाव देते हैं। सुगंधा इसका विरोध करती है और कहती है-“वाह! यह भी ख़ूब रही, लोग चाहते हैं तो आप शादी कर ली जिए, लोग चाहते हैं तो आप तलाक ले लीजिए, लोग चाहते हैं तो आप जिंदा रहिए, लोग चाहते हैं तो आप मर जाइए, मेरा अपनी ज़िंदगी पर कोई अधिकार है या नहीं?”[viii] ‘लिव इन रिलेशन’ में रहने के बाद रितिक पर पतिपन हावी होने लगा था, वह हर बात में सुगंधा की कमियाँ निकालने लगा था। सुगंधा के शब्दों में-“पति बनते ही पुरुष अधिकारों से इस तरह भर जाता है कि उसके विचारों का आकार-प्रकार ही बदल जाता है। जिस औरत पर वह जान छिड़कता था, जिस औरत के पाँव में काँटा चुभने पर टीस उसके दिल में उठती थी, उसी औरत को मारने-पीटने का अधिकार उसे मिल जाता है और वह इस अधिकार का प्रयोग करने से भी नहीं चूकता है।”[ix] सुगंधा अपने जीवन को आधुनिक रूप तो देना चाहती है, लेकिन वह समाज के साथ चलने को भी मजबूर है, क्योंकि वह कितनी भी आधुनिक क्यूँ न बन जाएँ, उसे रहना तो इसी समाज में है।  सुगंधा ‘सैंकेड सेक्स’ की लेखिका सिमोन की तरह नारी स्वतंत्रता की प्रबल समर्थक थी, जिसके चलते उसने पितृसत्तातम्क बेड़ियों को तोड़ते हुए आधुनिकता के रंग में रंग कर पुरुष वर्चस्वाद को चुनौती तक दे डाला, तब वह शायद यह भूल गई थी कि वह सिमोन की तरह पेरिस में नहीं रहती थी। वह तो जबलपुर और सागर जैसे छोटे से कस्बे में रहने वाली लड़की है। जहाँ के समाज में आज भी नारी को लेकर पुरुष की सोच दोयम दर्जें की ही है और यहाँ आज भी नारी पर शोषण करना पुरुष अपना अधिकार समझता है। उसे अपनी पैर की जूती के अलावा और कुछ नहीं समझता। उपन्यास में भी जिस रितिक के लिए सुगंधा पूरी दुनिया से लड़ती दिखती है, वही उसे अंत में अपनी ‘रखैल’ से सम्बोधित करने से भी नहीं हिचकता है। लेखिका ने कस्बाई सिमोन के माध्यम से समाज के बदलते रूप और बदलते संबंधों के यथार्थ से पाठकों को परिचित कराया है साथ ही इसे आधार बनाकर समाज में नारी की स्थिति, नारी की दशा और साथ ही नारी-स्वतंत्रता के अधिकारों को लेकर कई प्रश्न भी उठाये हैं।

आजतक लाइव टी०वी० में लेखिका के पुस्तक पर दिए गए रिब्यू के अनुसार-“आँधी-तूफ़ान के बाद खिलने वाली सुनहरी धूप जैसा चित्रण करती हैं शरद सिंह अपनी पुस्तकों में महिलाओं का। इस पुरुष प्रधान समाज में औरत की सुबह केतली में उबलती है, ओवन में पकती है, टोस्टर में सिंकती है। पल दो पल के लिए हांफती, फिर रोटियों की तरह तपती और सब्जी के साथ भुनती है। दाल के साथ भाप बनने और लंच बॉक्स में पैक हो जाने पर टाटा बाय बाय के बाद टंगी रह जाती है बाथरूम में छूटे गीले तौलिये की तरह”[x] ऐसी तमाम नाजुक अनुभवों और महत्त्वपूर्ण अवधारणाओं का चित्रण अपने साहित्य में करती है शरद सिंह। इस रिव्यू की भाषा ही बताती है कि शरद सिंह का रचना-संसार कितना हमारे आसपास के जीवन को उठाती हैं, जो समकालीन नारी लेखन में असाधारण हैं।

निष्कर्ष:  कहा जा सकता है कि नारी-विमर्श को सकारात्मक भावभूमि प्रदान करने की अतुल्य क्षमता शरद सिंह में है, जो इन्हें दूसरों से भिन्न करती है। जहाँ दूसरे महिला लेखिकाओं का नारी-विमर्श बड़े शहरों और मध्य वर्ग के ईद-गिर्द ज़्यादा घूमता है, वही दूसरी तरह शरद सिंह की दुनिया अलग है। वे गाँव कस्बों से अपने पात्र लेती है और ज़्यादा बौद्धिक या जटिल हुए बिना लोकप्रिय शैली में नारी संघर्षों को रख देती है। उनके नारी-स्वर में पितृसत्ता और स्वार्थ केन्द्रित तत्वों के लिए कोई जगह नहीं है। लेखिका के शब्दों में-“मैं पुरुषों की विरोधी नहीं हूँ, किंतु उस विचारधारा की विरोधी हूँ जिसके अंतर्गत स्त्री को मात्र उपभोग की वस्तु के रूप में देखा जाता है।”[xi] आधुनिक हिंदी साहित्य में क़स्बाई, निचले और हाशिए के तबके की स्त्री की आवाज़ को शब्द देने और लिपिबद्ध करने का कार्य करती है शरद सिंह। वे वंचित और शोषित स्त्री-वर्ग की समस्याओं को समाज के सामने लाकर उन्हें पिछले पन्ने से मुख्य पृष्ठ पर लाने का लेखकीय दायित्व पूर्ण करती है। उनका लेखन अपने आप में अनूठा है। हिंदी जगत में इसी से उनकी ख़ास छवि का निर्माण हुआ है। प्रस्तुत पत्र में विवेचित उनके दोनों उपन्यास इस तथ्य के साक्षी हैं कि उनकी यह इमेज निराधार नहीं है।

 संदर्भ ग्रंथ : 

[i]  सिंह, शरद, इन कहानियों को पढ़ते हुए, ‘तीली-तीली आग’, नई दिल्ली, सामयिक प्रकाशन, 2010, पृष्ठ संख्या-7

[ii] अग्रवाल, रोहिणी, स्त्री-लेखन : स्वप्न और संकल्प, नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, 2011, पृष्ठ संख्या-17

[iii]  वर्मा, महादेवी, श्रृंखला की कड़ियाँ, नई दिल्ली, लोकभारती प्रकाशन, 2008, पृष्ठ संख्या-26

[iv] प्रभाकर, प्रफुल्त(सम्पादक), अवस्थी,डॉ० संदीप(पुस्तक समीक्षा-पिछले पन्ने की औरतें), साहित्य नेस्ट पत्रिका, अक्टूबर 2012, पृष्ठ संख्या-36,37

[v]  सिंह, शरद, पिछले पन्ने की औरतें, नई दिल्ली, सामयिक प्रकाशन, 2005,  पृष्ठ संख्या-261

[vi]  यथावत्, पृष्ठ संख्या-218

[vii]  WWW.SHABDANKAN.COM,https://www.shabdankan.com>2014/02/novel-excerpts-cusbai-simon-sharad-singh.html,page no-2, 18 /01/2019

[viii]    सिंह, शरद,  कस्बाई सिमोन, नई दिल्ली, सामयिक प्रकाशन, 2012, पृष्ठ संख्या-67

[ix]  यथावत्, पृष्ठ संख्या-64

[x]  https://aajtak.intoday.in/story/book-review-aaurat-teen-tasverein-1-779729.html , 17/01/2019

[xi]  सिंह, शरद, ‘पिछले पन्ने की औरतें’, नई दिल्ली, सामयिक प्रकाशन, 2005, पृष्ठ संख्या-7

 

 

सपना
शोधार्थी
हिंदी विभाग
पंजाब विश्वविद्यालय