हिंदी साहित्य अपने काव्य शिल्प, छंद विधान और पारंपरिक विधाओं से समृद्ध रहा है,लोक संस्कृति और साहित्य में ऐसे अनेक कवि हुए हैं जो सहज सरल रूप में कविता के माध्यम से अपनी बात कहने में प्रवीण थे, और लोकमानस ने उन्हें स्वीकार किया है, उनके नीति रीति परक उपदेशों को तत्कालीन समाज में मान्यता भी मिली है,यही कारण है कि लोक प्रचलित सवैया,दोहा,रोला,सोरठा, और सबसे प्रिय कुंडलियां आज जनमानस में अपनी गहरी पहचान बना चुके हैं,ये लोक छंद ही लोकोक्तियों के जनक रहे हैं, मुझे घाघ की कहावतें याद है**उत्तम खेती मध्यम बान,निषिध चाकरी भीख निदान*कितनी सरलता से जीवन के लिए एक गूढ़ मंत्र दे दिया है कवि ने,

इसी संदर्भ में शायद पांचवीं या छठी कक्षा में पढ़ी गई गिरिधर की कुंडलियां याद आ रही है जिनकी सुगंध बचपन से लेकर आज भी मेरे मन में कायम है-
बिना विचारे जो करे,
सो पाछे पछताय,
काम बिगारे अपनों,
जग में होत हंसाय,,
जग में होत हंसाय, चित्त में चैन न पावै*,,,
संसार में बिना विचार किए, बिना सोचे समझे कोई काम नहीं करना चाहिए, अन्यथा पछताना पड़ सकता है,
गिरिधर कविराय हिंदी के प्रख्यात  एवं लोकप्रिय कवि थे, इनके जन्म काल अथवा समय के संबंध में कुछ भी प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता है,केवल विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि ये अवध या उसके आसपास के क्षेत्र से थे और संभवतः जाति से भाट थे, जैसा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी लिखते है*नाम से गिरिधर कविराय भाट जान पड़ते हैं*,, वहीं प्रसिद्ध लेखक शिवसिंह का कहना है*इनका जन्म संवत् 1770,ही संभवत उचित है,इस हिसाब से उनका कविता काल संभवत 1800के आस पास ही माना जा सकता है,*
तत्कालीन पुस्तकों के प्रमाण से भी वे लोकप्रसिद्ध कवि थे और उनकी रचनाएं गांव गांव में पढ़ी और सुनाई जाती थी,*

दौलत पाय न कीजिए, सपनेहु अभिमान,सपनेहु में अभिमान,, चंचल जल दिन चारि को,ठाऊ न रहत निदान,ठाऊ न रहत निदान,जियत जग में जस लीजे,मीठे वचन सुनाय,विनय सबही की कीजे,अर्थात :- केवल दौलत पाने के लिए ही कार्यं मत करो ना उसका कोई अभिमान करों यह उसी प्रकार हैं जैसे चंचल जल चार दिन के लिए होता हैं यह भी नहीं ठहरता | इस जीवन में जीते हुए भगवान का नाम लो, अच्छी वाणी बोलो और सभी से प्रेम करो | कवी कहते हैं कि पैसा बस चार दिन का हैं बाकि सभी के साथ व्यवहार बना रहता हैं जो सच्ची दौलत हैं ***गिरिधर कविराय ने रीति नीति और आध्यात्म को ही अपनी कविता का विषय बनाया है, जीवन के व्यवहारिक पक्ष का इनके काव्य में प्रभावशाली वर्णन मिलता है,वही काव्य दीर्घजीवी और कालजयी हो सकता है जिसकी पहुंच लोकमानस में होती है ,, कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि वे पंजाब के रहने वाले थे, किंतु कालांतर में इलाहाबाद आकर रहने लगे थे, उनकी भाषा और शैली अवधी और पंजाबी की छाप लिए हुए मिलती है,जो नीति परक है, गिरिधर कविराय ग्रंथावली में इनकी पांच सौ से अधिक कुंडलियां संकलित हैं, जैसा कि लोकमान्यता है कि कवि या लेखक की लेखनी पर उसके परिवेश का भी गहरा प्रभाव पड़ता है, व्यक्तित्व एवं कृतित्व में भी जीवन के अनुभवों की विरासत साथ साथ चलती है,यह जीवन तथ्य गिरिधर कविराय के संबंध में भी अक्षरशः सत्य प्रतीत होता है,,पुसतकीय और जनश्रुतियों के आधार पर कहा जाता है कि ये स्वभाव से अत्यंत दयालु थे और उन्हें अपने परिवेश से बहुत लगाव व प्यार था, जिसके फलस्वरूप इनकी रचनाओं में जीवन के ज्ञान का अंश मिलता है, जो मनुष्य को विवेक की शिक्षा देता है,सही ग़लत की पहचान कराता है,, अच्छे बुरे में अंतर करना सिखाता है, इनके जीवन में घटित घटनाओं ने इनके सृजन को पूर्णतः प्रभावित किया है,इस संबंध में एक कथा भी प्रचलित है कि इनका किसी बढ़ई से विवाद हो जाता हैं क्यूंकि इन्हें वृक्षों का दुरपयोग बिल्कुल स्वीकार नहीं था उनके आँगन में एक बैर का वृक्ष था जिससे वे अत्यंत प्रेम करते थे बढ़ई ने उनके इसी प्रेम का फायदा उठाकर अपना बदला लेने की सोची,| एक दिन बढ़ई ने एक विशेष चारपाई बनाकर राजा को भेंट दी जिसकी विशेषता यह थी कि उसमे पंख लगाये गए थे उस पर बैठ कर व्यक्ति उड़ सकता था,| यह देख राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने बढ़ई को ऐसी कई चारपाई बनाने का हुक्म दिया , तब बढ़ई ने कहा कि इसे बनाने के लिए जो लकड़ी लगती हैं वो गाँव के गिरिधर के आँगन में खड़े बैर के पेड़ से ही मिलती हैं और वे अपने पेड़ से बहुत प्रेम करते हैं, तब राजा ने सैनिको को भेजकर बलपूर्वक पेड़ को कटवाकर बढ़ई को दे दिया जिसे देख गिरिधर इतने दुखी हो गये कि सदा के लिये अपने गाँव को अलविदा कह कर चले गये ,,यह जनश्रुति वर्षों से चली आ रही है, और कहा जाता है कि वे इस दुख को आजीवन नहीं भुला पाए थे, और अपने काव्य के माध्यम से लोगों को ऐसे छल छंदों से दूर रहने और सजग रहने की शिक्षा दिया करते थे,, तथ्य कुछ भी हो,यह सर्वविदित है कि कुंडलियां छंद के वे एकमात्र प्रवीण कवि थे गिरिधर कविराय मूलतः कुंडलियाँ लिखते थे जिनकी विशेषता होती हैं इनकी छह पंक्तियाँ ,,, गिरिधर कवि अपनी दूसरी पंक्ति के अंतिम भाग का प्रयोग बड़े ही अनूठे ढंग से तीसरी पंक्ति के प्रथम भाग में करते थे जिससे कुंडली का सार अत्यंत रोचक बन जाता था *इनकी सबसे बड़ी विशेषता होती थी भाषा का सरलीकरण, जो आम व्यक्ति को सीधे पढ़कर भाव स्पष्ट कर देती थी , और हृदय में एक अमिट छाप छोड़ती थी,यह सभी कुंडलियाँ आम नागरिक को ध्यान में रखकर लिखी गई थी जो जीवन ज्ञान को दर्पण की तरह श्रोता के सामने प्रेषित कर दिया करती थी,,गिरिधर कविराय की कुंडलियां दैनिक जीवन की बातों से जुड़ी हुई है और सीधी  सरल भाषा में कहीं गई हैं वे प्रायः नीति परक है जिनमें परंपरा के अतिरिक्त जीवन के अनुभवों का पुट भी नजर आता है उनकी कुंडलियों में साई की साक्षी मिलती है जिनके संबंध में यह धारणा है कि वह उनकी पत्नी की रचना है, उन्होंने लाठी जैसी दैनंदिन व्यवहार में आने वाली वस्तु पर भी अपनी कलम चलाई है,,,,लाठी जो ग्रामीण जीवन में बहुत ही सहायक और उपयोगी वस्तु है लाठी के संबंध में भी उन्होंनेi कहा है *लाठी में गुण बहुत हैं सदा राखिए संग ,गहरि नदी नारी जहां तहां बचावै अंग,जहां बचावे अंग झपटि कुत्तन को  मारे दुश्मन दावागीर होय तिनहू को झारै,कह गिरधर कविराय सुनो हो दूर के बाठी ,सब हथियारन छाडि हाथ मह दीनो लाठी*

इसी प्रकार एक और कुंडलिया बहुप्रचारित और बहुप्रचलित थी, जिसमें बहुत ही सुन्दर नीति की चर्चा की गई है, और यह लोक विश्रुत भी है–जानो नहीं जिस गाँव में, कहा बूझनो नाम ,,तिन सखान की क्या कथा, जिनसो नहिं कुछ काम,जिनसो नहिं कुछ काम, करे जो उनकी चरचा रा,,ग द्वेष पुनि क्रोध बोध में तिनका परचा ,कह गिरिधर कविराय होइ जिन संग मिलि खानो,,ताकी पूछो जात बरन कुल क्या है जानो **अर्थात  जिस जगह से तुम्हे कोई लेना देना नहीं हैं उसके बारे में क्यूँ पूछते हो, ऐसे लोगों की बाते भी क्यूँ करते हो जिनसे तुम्हारा कोई संबंध नहीं |,,जिनसे हमें कोई लेना देना नहीं होता उनकी बाते जो लोग करते हैं उनके बीच दुश्मनी हो जाती हैं  जिनसे हमारा कोई काम हो उसी से मतलब रखो **

जीवन के विविध पक्षों पर एक अनुभवी दृष्टिकोण से अपनी आवाज जन-जन तक पहुंचाने के लिए उनकी कुंडलियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, हमने अपने सामाजिक परिवेश में बार बार जिस कथन को जिया है, प्रयोग किया है,वह गिरिधर कवि का ही सृजन है,*बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि देर*यह बहुत ही सार्थक, व्यावहारिक एवं समाजोपयोगी कथ्य है,बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ,जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ,,ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै,,दुर्जन हंसे न कोइ, चित्त मैं खता न पावै,,कह ‘गिरिधर कविराय यहै करु मन परतीती,,आगे को सुख समुझि, होइ बीती सो बीती**अर्थात  जो बीत गया उसे जाने दो, बस आगे की सोच, जो हो सकता हैं उसी में अपना मन लगाओ जिसमे मन लगता हैं वही करो,तो सफलता जरुर मिलेगी,और  कोई उपहास भी नहीं करेगा   जो मन कहता है वही करो, बस आगे का देखो पीछे जो गया उसे बीत जाने दो**

एक बार यदि व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए तो सचमुच जीवन के अनुभवों का सुंदर निचोड़ है गिरिधर कवि की कुंडलियां,,इस संसार में गुरू, पंडित,कवि, मित्र, बेटा,वनिता इनसे कभी वैर नहीं रखना चाहिए क्योंकि ये आपके जीवन में घटित तमाम रहस्यों से परिचित होते हैं,वैर की स्थिति में आपको समाज के बीच लज्जित होना पड सकता है, यदि ये रहस्य उन्होंने समाज को बता दिया,, अपने अध्ययन के दौरान इस रचना ने मुझे बहुत प्रभावित किया था,,आप भी इसके सौंदर्य से प्रभावित हो सकते हैं—-साईं बैर न कीजिये गुरु, पंडित, कवि, यारबेटा, बनिता, पैरिया, यग्य करावन हारय,,ग्य करावन हार, राज मंत्री जो होईवि,,प्र, परोसी, वैद, आपकी तपै रसोई,,कह गिरधर कविराय युगन तें यह चलि आई**इन तेरह सों तरह दिये बनि आवै सांई।

एक लोककवि की नीति परक बातें जब रोचक काव्य रुपों में जनता के सम्मुख रखी गई तो उनकी ग्राह्यता बढ गई,जो जनसामान्य अशिक्षित भी था उन्हें भी ये जीवन की गूढ़ बातें सरलता से समझ में आने लगी और यही लोककवि प्रसिद्धि के शिखर पर आसीन गिरिधर कविराय की सफलता है जो जन की आत्मा को भी स्पर्श कर सकी थी,,लोक संस्कृति और लोक भाषा जब एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं,, तो समाज में समदर्शी भाव जगता है, एक नमी सोच विकसित होती है, और यही गिरिधर कवि ने किया था,, अशेष नमन कवि की लेखनी को,,,

पद्मा मिश्रा
जमशेदपुर, झारखंड