एक सच्चा सन्त अपने परिवेष की अवहेलना नहीं करता, उसका अपने सामाजिक परिवेष के साथ धनिष्ठ सम्बन्ध होता है। वह सामाजिक उतार-चढ़ावों, उसके द्वन्द्वों आदि को समझता है। उसकी वाणी, उसकी लेखनी और उसके कार्य समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं या यूं कहा जा सकता है कि वह कभी भी समाज की उपेक्षा नहीं करता।  उसका रिश्ता उसके आध्यात्मिक कर्म  से भी होता है लेकिन इस कर्म के साथ-साथ उसकी दृष्टि बड़ी  ही व्यापक होती है, उसकी साधना का स्वरूप लोक-कल्याणकारी होता है, उसकी विरक्ति में लोक त्याग की अपेक्षा लोक-ग्रहण की भावना होती है। वह साधना करते हुये सामाजिक जीवन को सुखमय बनाकर जीने की राह दिखाता है। आचरण की दृष्टि से समाज में दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं। (1) सन्त या सज्जन (2) असन्त या दुर्जन।  सज्जन या सन्त की अनेक विशेषतायें होती हैं जैसे निर्विकारता, सरलता, क्षमाशीलता, सहानुभूतिशीलता आदि। इसके विपरीत दुर्जन लोग अकारण द्वेशी, अपकारी, परदोशदर्शी, निर्दय, कपटी, कटुभाषी आदि होते हैं। दुर्जनों को अपने आचरण के परिमार्जन के लिए सज्जनों की संगति प्राप्त करनी चाहिए तभी समाज में मानवतावादी धर्म स्थापित हो सकता है या मानवतावाद लाया जा सकता है।

समाज के अर्न्तगत जो अनेक प्रकार के व्यवहारगत और मानसिक विकार व्यापत हैं, उसको निर्मल करके आदर्श समाज और आदर्श मानव की संकल्पना और संस्थापना ही सन्त का धर्म होता है। अपनी इसी कर्म की साकारता के लिये वह सामाजिक विसंगतियों पर बड़ा तीव्र और तीखा प्रहार करता है। मानवता के मार्ग में बाधक समाज में व्याप्त राजनैतिक अत्याचार, सामाजिक अत्याचार, धार्मिक आडंबर, आर्थिक विपन्नता, सांस्कृतिक दौर्बल्य आदि पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए आदर्श पद पर चलने की प्रेरणा देता है।

वस्तुतः सन्तों की समाज के प्रति आक्रामक वृति में ही उनकी समाजगत संकल्पना निहित होती है। समाज के प्रति आक्रामक वृति का सीधा सम्बन्ध समाज की राजनीति के साथ होता है अर्थात जैसा राजा वैसी प्रजा। जैसी राजनीति, वैसी वहाँ की समाज व्यवस्था या शासन व्यवस्था।  या यूँ कहा जा सकता है कि सन्त का सम्बन्ध  राजनीति के साथ अपने आप ही जुड़ जाता है।  राजनीति ही किसी समाज की बनाती और बिगाड़ती है।

राजनीति वह केन्द्रीय तत्व है जो समस्त जीवन और जगत् को प्रभावित करता है चाहे कोई सन्यासी हो, चाहे अनुरागी, चाहे गृहस्थी कोई भी अपने युग की राजनीतिक व्यवस्था से बिना अभिभूत हुये बच नहीं पाया है।

अगर हम मध्यकाल की बात करें तो इस काल में अनेक सन्त हुये हैं जैसे कबीरदास, धन्नी धरमदास, तुलसीदास आदि। इन सन्तों का क्षेत्र उपासना का क्षेत्र था,  उन्हें राजनीतिक सन्दर्भो से कुछ लेना-देना नहीं था, फिर भी ये राजसत्ता  तथा व्यव्स्था से अभिभूत हुए बिना नहीं रह सके। राजनैतिक परिवेष आनायास ही इनकी बानियों में शब्दाकार हुआ है।

कबीर वर्ण विहीन समाज का स्वप्न देखते हैं तो तुलसी राम राज्य की परिकल्पना करते हैं। नानक कुरीतियों, अत्याचारियों के प्रति विद्रोह का स्वर बुलन्द करते हैं, तो सूरदास के कृष्ण भी अपने मनुष्य रूप में अन्याय के पूर्ण विरोधी-चरित्र  हैं। यह  काल राजाओं का था जिसमें राजा और सन्तों की विषेश भूमिका होती थी।  दोनों के मन में जनहित सर्वोपरि था।

सिख धर्म के गुरू जो कि मध्यकाल में संत के रूप में समादृत थें उनको भी इस विषय से विस्मृत नहीं किया जा सकता। सिख  धारा कदाचित भारतीय अध्यात्म जगत् में एक मात्र ऐसी धारा है, जिसने अध्यात्म के साथ-साथ राजनीति और समाज से भी अपने सरोकार जोड़ कर रखे।  इस धारा ने आदिग्रंथ और दशमग्रंथ के रूप में जहॉं आध्यात्मिकता का ज्ञान प्रसारित किया, वहीं गुरू अर्जन देव तथा गुरू तेग बहादुर  जैसी त्यागशील आत्मायें दीं, जिन्होंने समाज के लिये राजनीति की सूली पर चढ़कर अपने युग में उच्च मानवीय मूल्यों की रक्षा की तथा गुरू गोबिंद सिंह जैसे लोकनायक दिये जिन्होंने सन्त सिपाही के रूप में आत्महीनता ग्रस्त निश्प्राण लोगों में आत्मविश्वास का संचार किया।   इस प्रकार सिख गुरूओं के चरित्र ने अपने समूचे युग को गहराई तक प्रभावित किया।

नामधारियों के गुरू, सन्त राम सिंह जी के जीवन प्रसंग को भी नहीं भुलाया जा सकता। उन्होंने एक सन्त होते हुए भी देश की राजनीति में सक्रिय  भूमिका निभाई। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 12 अप्रैल 1857 ई0 को असहयोग आन्दोलन का प्रथम बिगुल बजाया। अपने अनुयायियों में स्वाधीनता की चिंगारी जागृति की और विदेशी शासकों के सम्मुख घुटने टेकने से साफ इन्कार कर दिया।  अंग्रेजों ने उन्हें बन्दी बना लिया और रंगून ले गये। इसके पश्चात उन्हें बर्मा के मारगोई नामक स्थान पर ले जाकर रखा। अन्त में यह हिन्दुस्तान की आजादी की लड़ाई में देश के लिये कुर्बान हो गये।

किन्तु यदि हम वर्तमान समय की बात करें तो सन्त और शासक दोनों ही अपने मार्ग से भटकते हुए नजर आते हैं। सन्त का काम राजनीति में प्रवेश कर समाज को सही रास्ते पर लाना था किन्तु आज का सन्त भी भ्रष्टाचार की जाल में फंसता नजर आता है। पहले सन्त की दृष्टि बहुत व्यापक होती थी, उसका आचरण और व्यवहार सात्विक होता था जो समाज का मार्गदर्शन करता था। सन्तों की वाणी को आमजन पत्थर की लकीर मानता था, उनके वाक्यों में सूक्तियां हुआ करती थीं जो समाज के लिये एक उच्च आदर्श प्रस्तुत करती थी। सन्तों को समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता था। उनके प्रति समाज के लोगों की गहरी आस्था होती थी।

वर्तमान में सन्त समाज भी राजनीति से अछूता नहीं रहा है। उसने भी राजनीति में अपनी पैठ बना ली है। आज कई राजनीतिक दलों के सांसद, साधू-समाज के लोग भी हैं। आज स्वस्थ राजनीति का अभाव नजर आता है। राजनेता अपने वैयक्तिक हितों की खातिर अन्य राजनैतिक दलों पर मनगढ़ंत आरोप लगाते हैं। पहले के नेता राजनीति से सन्यास लेते थे लेकिन अब राजनीति में ही सन्यासी आ गये हैं। इनमें से कुछ सन्त ऐसे भी हैं जो राजनीति से दूर रहना चाहते हैं, किन्तु वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था उन्हें अपनी ओर खींच लाती है। यहाँ तक कि कई राजनैतिक दलों को इस बात का डर सताता रहता है कि सन्त समाज हमारे विरूद्व  न हो जाये। अपवाद स्वरूप कुछ एक सन्त अच्छा कार्य करना भी चाहते हैं तो आज की राज्य-व्यवस्था उन्हें सतपथ से डिगाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। साम्प्रदायिक कह कर सन्त के कार्य की निन्दा कर दी जाती है।  कुछ एक को छोड़कर अधिकांश की जीवन शैली सदाचारी नहीं है।

आज का सन्त पदार्थवादी ज्यादा हो गया है। पहले लालच स्वार्थ की भावना नहीं थी। उसका एक मात्र लक्ष्य जन-कल्याण करना ही था। धार्मिक स्थानों के आस-पास उनका स्थान निश्चित कर दिया जाता था, जहां पर बैठ कर वो अपने प्रवचन देते थे या फिर पैदल इधर-उधर घूम-घूम कर लोगों को ज्ञान देते थे किन्तु आज कल के सन्त व्यावसायिक हो गये हैं और इनका व्यवसाय नगरों और महानगरों के साथ-साथ विदेषों में भी चलता है। आधुनिक सन्त श्री राजेन्द्र मुनि ने कहा है कि – ‘‘महापुरुष बिना किसी भेदभाव के पूरी मानवजाति के कल्याण के लिये प्रयासरत रहे हैं। उन्हीं का विचार है कि साधुता भी सुविधाओं की दास बन रही है।’’  इसलिये यह निरन्तर लोगों की आस्था और विश्वास को खो रहे हैं। सन्त का वेष धारण कर लेने से ही कोई सन्त नहीं बन जाता किन्तु आज के अधिकांश सन्त राजनीति में प्रवेश कर बहुरूपिये बनते हैं, समाज से धोखा करते हैं, अपनी इज्जत (आचरण) गिराते हैं और साधु समाज की गरिमा को भी ठेस पहुंचाते हैं। इनके पीछे लाखों लोगों की आस्था होती है, यदि यह कोई गलत कार्य करते है तो सभी भक्त इनसे मुंह मोड़ लेते हैं । इसलिए अधिकांश लोगों का कहना है कि संन्तो को राजनीति में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रवेश ही नहीं करना चाहिये। यद्यपि संतों को राजनीति में प्रवेश करने पर कोई निषेध नहीं है लेकिन जब वो राजनीति में आकर अपना स्वार्थ साधने लगते हैं, समाज कल्याण को छोड़ अपने हित की चिंता करते हैं ओैर इस कोशिश में लगे रहते है कि जल्दी से जल्दी उन्हें या उनके सहयोगियों को टिकट मिल जाये, तो ऐसे में संतों या साधुओं का राजनीति में आना अत्यन्त शोचनीय लगता है।

            कई धार्मिक संगठनों ने राष्ट्रीय दलों पर अंकुश भी लगाया है। कुछ एक महन्त या महाराज किस्म के साधु आज राजनेता के पद पर सुशोभित होते भी नजर आते हैं । कुछ एक नामी-गिनामी साधु महात्मा तो अप्रत्यक्ष रूप से सरकार पर दबाब बनाते है जो लोकहित में नहीं है। मुझे तो ऐसा लगता है कि आज साधुओं का ही राजनीतिकरण हो गया है।

डॉ. हरदीप कौर