सारांशिका

भक्तिकाल के प्रसिद्ध कवि रहीमदास अकबर के समय में उनके दरबार के नवरत्नों में से एक थे । उनकी कृतियां आज भी गंगा जमुनी तहजीब और कौमी एकता के लिए अपनी एक अलग पहचान बनाए हुए हैं । आज जहाँ परिवारों में आपसी मतभेद देखा जा रहा है वहीं कुछ ऐसे भी हिंदी साहित्यकार हुए हैं, जिनके साहित्य के बलबूते पर राष्ट्रीय एकता को युगों तक बनाये रखने की क्षमता है । उनमें रहीम दास जी भी एक है । प्रस्तुत शोध पत्र में रहीम दास जी के दोहों का वर्तमान परिवेश में मनोसामाजिक चित्रण किया जा रहा है ताकि यह जाना जा सके कि ऐसे लोकप्रिय दोहों का सामाजिक समरसता, एकता, अखंडता एवं आपसी भाईचारे पर किस तरह का प्रभाव पड़ता है और भविष्य में ऐसा साहित्य लोक मंगल की भावना का विकास कर पाने में कहाँ तक सहायक है ।

शब्द कुंजी : रहीमदास, दोहे, वर्तमान परिवेश, मनोसामाजिक, चित्रण ।

रहीमदास का संक्षिप्त जीवन परिचय

             रहीमदास का जन्म 17 दिसम्बर 1556 ई. को लाहौर (वर्तमान में पाकिस्तान का हिस्सा) में तथा मृत्यु 1 अक्टूबर 1627 ई. को हुई थी । बैरम खां के यहाँ जन्मे रहीमदास का वास्तविक नाम अब्दुर्रहीम खानखाना/ अब्दुर्रहीम खां था । मुग़ल बादशाह अकबर द्वारा इन्हें खान-ए-खाना की उपाधि प्राप्त हुई थी । रहीम भक्तिकाल के प्रसिद्ध कवि थे । रहीमदास कवि होने के साथ साथ वीर योद्धा और अकबर के दरबार में नवरत्नों में से एक थे । रहीम दास अरबी, फारसी तुर्की के अतिरिक्त संस्कृत, हिंदी भाषा के ज्ञाता थे और साथ ही ज्योतिष के विद्वान थे । रहीम ने अनेक रचनाएँ लिखकर सामाजिक व आध्यात्मिक चेतना का परिचय दिया । इनकी रचनाओं में विशेष रूप से श्रृंगार, भक्ति एवं नीति तत्व की प्रधानता है । हिंदी साहित्य जगत में रहीमदास ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । उनका योगदान अविस्मरणीय है ।

 

मनोसामाजिक अध्ययन का स्वरुप

मनोसामाजिक अध्ययन वर्तमान में मनोविज्ञान की अध्ययन वस्तु है । यह मानवीय व्यवहार के मूल्यांकन का एक ऐसा नवीन वैज्ञानिक प्रतिरूप है, जिसमें मानवीय व्यवहारों का अध्ययन हम किसी उद्दीपक के परिप्रेक्ष्य में करते हैं जो किसी सामाजिक परिवेश में उपस्थित होता है जिसका प्रभाव मानव व्यवहारों पर पड़ता है । यह प्रभाव सकारात्मक  एवं नकारात्मक  दोनों तरह का हो सकता है । सकारात्मक प्रभाव हमारे व्यवहारों को आगे बढ़ाता है जबकि नकारात्मक प्रभाव तात्कालिक व्यवहारों में विलोपन उत्पन्न करता है । सकारात्मक प्रभाव हमारे व्यवहारों में उस उद्दीपक के प्रति हमें अंतर्क्रिया करने के लिए विवश करता है । व्यवहारों में अंतर्क्रिया की प्रक्रिया सामाजिक परिवेश में ही पाई जाती है । जहाँ एक व्यक्ति दूसरे के व्यवहार को देख कर अपने व्यवहार में परिवर्तन करता है । ऐसा सामाजिक परिवेश के कारण ही संभव हो सकता है । सामाजिक परिवेश का निर्माण सामाजिक पर्यावरण में विद्यमान विषय वस्तुओं से संभव हो पाता है । ये सामाजिक परिवेश की विषय वस्तुएं सजीव एवं निर्जीव दोनों हो सकती है । इनमें साहित्य भी शामिल है यह भी मानव व्यवहारों में सामाजिक अंतर्क्रिया उत्पन्न करता है जो मनोसामाजिक अध्ययन की विषयवस्तु हो सकता है ।

हमारे जीवन मूल्यों पर साहित्य का प्रभाव गंभीरता से पड़ता है । साहित्य हमें प्राथमिक अधिगम का साधन उपलब्ध कराता है । यही अधिगामित व्यवहार हमारे जीवन में आदत के रूप में सामने आता है । यही आदत आगे चल कर संस्कार का रूप ले लेती है और मानव व्यवहारों में कई पीढियों से चला आ रहा संस्कार आगे जा कर संस्कृति का रूप लेता है । इस तरह हम जान सकते हैं कि साहित्य जितना अतीत के अध्ययन के लिए उपयोगी है उतना वर्तमान में समस्या समाधान योग्यता में भी और उससे कहीं ज्यादा हमारे भविष्य को संस्कारों एवं संस्कृति रुपी अलंकारिक आवरण प्रदान करने में भी उपयोगी सिद्ध होता है । एक समाजोपयोगी सहित्य समाज को हर देश काल में एक सूत्र में पिरोये रखने का काम करता है । ताकि आपसी सामाजिक सामंजस्य बना रहे और लोक मंगल की भावना का विकास हो सके । इस दृष्टि से रहीम का साहित्य भी लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत दिखाई पड़ता है ।

 

रहीमदास के प्रमुख दोहों का वर्तमान में मनोसामाजिक अध्ययन  

सामाजिक ताने बाने में आज दुनिया जितनी जटिल होती जा रही है उतनी ही आज सामाजिक संबंधो में जटिलता उत्पन्न हुई है । आज हम सूचना क्रांति के युग में जी रहे हैं । जहाँ हमारा व्यवहार प्रतिपल बदलता रहता है । व्यवहार में परिवर्तन से आपसी संबंधो में भी परिवर्तन होता रहता है । यही परिवर्तन हमारे अध्ययन की विषय वस्तु है । किसी विशेष साहित्य के अध्ययन से हमारे मानवीय व्यवहारों में कैसे परिवर्तन उत्पन्न होता है । जहाँ हमने रहीम जी के दोहों को अपनी अध्ययन की विषयवस्तु के रूप मे चुना है । रहीम के दोहे सामाजिक एकता अखंडता के लिए आज भी अमिट छाप बनाए हुए है । इसमें पहला दोहा जो बहुत लोकप्रिय है वह है –

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय ।

टूटे ते फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाये ।।

उक्त दोहा लोकहित को देखते हुए आपसी प्रेम को बढ़ावा देने के लिए आज भी जन जन की जुबान पर विद्यमान रहता है । आज इसी दोहे का प्रतिफल है कि लोग सामाजिक संबंधो को एकाएक तोड़ने से डरते है । कहीं दोस्ती दुश्मनी में न बदल जाए । इस दोहे से मिलने वाले अर्थ के कारण लोग अपनी मित्रता तोड़ने से कतराते है । अर्थात रहीम जी के इस दोहे का परभाव मनोसामाजिक संबंधो पर पड़ता है । इनका दूसरा दोहा सामाजिक सामंजस्य को अस्थिर करने का प्रयास करता है जिसके पढने से व्यक्ति का अहंकार बढ़ सकता है –

रहिमन मोहि न सुहाय, अमिय पियावत मान बिनु ।

बरु विष देत बुलाय, मान सहित मरिबौ भला ।।

   रहीम के कुछ महत्वपूर्ण दोहे आज भी  हमें सामाजिक मूल्यों को अभिप्रेरित करते है जो इस तरह है –      ओछो काम बड़ो करे, तो न बड़ाई होय ।

                             ज्यो रहीम हनुमंत को,गिरधर कहे ना कोय ।।

यहाँ रहीम का कहने का अभिप्राय यह है कि बड़ा आदमी अगर तुच्छ काम करता है तो उसे बदनामी छोड़ प्रशंसा कभी नहीं मिलेगी इसलिए आप समाज में बड़ा दिखना चाहते हो तो बड़े कार्य करो । ऐसे दोहे व्यक्तित्व परिमार्जन एवं व्यक्तित्व विकास करने मे बहुत उपयोगी है । इसके बाद रहीम दास जी सामाजिक संबंधों का ताना बना बताते हुए कहते हैं –

                        कह रहीम सम्पति सगे, बनत बहुत बहु रीति ।

                        विपत्ति कसौटी जो कसे, तेई साँचे मीत ।।

रहीमदास ने सामाजिक संबंधो को कितना सहजता से यहाँ प्रतिबिंबित किया है । ताकि एक समाज मनोवैज्ञानिक सोच का विकास हर मानव के अन्दर हो सके । हमें सच्चे मित्रों की पहचान हो सके और उसी के अनुसार सामाजिक सम्बन्ध बनाने के लिए अभिप्रेरित हो –

खीरा सिर से काटिए, मलिए नमक लगाय ।

रहिमन कडवे मुखन को, चाहिए यही सजाय ।।

कितनी सतर्कता से सामाजिक संचेतना का परिचय देते हुए रहीमदास कह रहे हैं कि  कडवे लोग या दुर्जनों को कैसे सजा दी जाये की वे सुधर जाये । एक समाज मनोवैज्ञानिक दबाव दुर्जनों पर रहीम दास जी ने इस दोहे के माध्यम से बनाने का प्रयास किया है –

                        रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर ।

                        जब नीके दिन आइहै, बनत ना लगि है फेर ।।

उपरोक्त दोहे को पढ़ कर ऐसा लगता है कि जैसे कोई विपत्ति के समय किसी को मनोवैज्ञानिक परामर्श दिया जा रहा हो । ये पंक्ति मनुष्य में तनाव, दुःख, पश्चाताप, आत्महीनता की भावना कम करने में हमेशा सार्थक रही है और हमेशा ऐसे ही बनी रहेगी –

रहिमन या दुःख की व्यथा, मन ही राखो गोय ।

सुन अठी लैय्हाई लोग सब, बाट ना लैयहाई कोय ।।

रहीमदास ने कितनी आसानी से कितनी बड़ी बात इस दोहे में कही है । कोई भी सज्जन पुरुष इस बात को समझ कर अमल में ला सकता है और अपनी समस्या का हल खुद ढूढ़ पाने में समर्थ हो सकता है । यह मनोवैज्ञानिक अवलंबन का कार्य करती है ।

                                                टूटे सुजन मनाइये, जो टूटे सौ बार ।

रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ।।

यहाँ पर रहीमदास सज्जन पुरुष से संबंधो को बनाने की बात कह रहे हैं । यह एक मनोवैज्ञानिक सोच का स्वरुप है, जिसमें स्वयं के अहंकार को तोड़ कर हित अनहित को त्याग कर संबंधो को जोड़ने की बात की गई है । सामाजिक संबंधो में कहीं न कहीं बिखराव को कम करने मे काम करता है ।

                                    तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान ।

कह रहीम पर काज हित, सम्पति संचही सुजान ।।

इन पंक्तियों में लोकहित, लोकमंगल और लोक कल्याण की भावना पूरी तरह से देखी जा सकती है । रहीम का ये दोहा मनोसामाजिक रूप से सामाजिक कल्याण की भावना का विकास करता है, जिससे मानवीय मूल्यों का विकास वर्तमान परिवेश में भी हो पाना संभव है ।

 

निष्कर्ष :

रहीमदास के प्रमुख दोहों का मनोसामाजिक अध्ययन इस शोधपत्र में किया गया और ये जानने का प्रयास किया गया है कि क्या ये दोहे वर्तमान में भी अपना यथार्थ मूल्य विकसित कर पा रहे हैं । हमने पाया की आज भी इन दोहों की लोकप्रियता कम ना होना ये बताती है की ये दोहे आज भी सार्वभौमिक रूप से अपनी उपादेयता बनाये हुए है ।

ऐसा इस लिए हुआ है की रहीमदास जी ने अपने दोहों में जन जीवन में घटित होने वाले अनेक संयोगों के विषय में मार्गदर्शन किया है । इसके साथ ही रहीमदास ने प्रेम, मित्रता, दान, परोपकारिता, दुष्टता, भाग्य, समय का प्रभाव, महापुरुषों के लक्षण जैसे अनेक गूढ तथ्यों का मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुतीकरण किया है जो किसी भी देश काल में हमेशा उपयोगी बनी रहेगी । रहीमदास द्वारा रचित पंक्तिया समय के साथ धूमिल नहीं पड़ी बल्कि इनका महत्त्व और अधिक बढ़ा है । आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में जहाँ जीवन मूल्य संस्कार को लोग भूलते जा रहे है । आपसी अविश्वास की गहरी लकीरें लोगों के दिलो में घर कर चुकी है । वहीं रहीम दास जी का दोहा हमें बताता है कि सच्चे प्रेम में अविश्वास की कोई जगह नहीं होती और अगर अविश्वास को पनपने दिया तो हमारे सम्बन्ध कभी जुड़ नहीं सकते चाहे कितना भी प्रयास कर लिया जाये । रहीम के साहित्य की आम जन तक लोकप्रियता इसीलिए आज भी बनी हुई है क्योंकि इनका साहित्य उपदेशात्मक न हो कर आम जीवन की विसंगतियों और अनुभूतियों से जुड़ा है और उनकी भाषा में सहजता, सरलता इसको मनोसामाजिक रूप से समाजोपयोगी बनाती है । रहीमदास के साहित्य में सांप्रदायिक सदभावना का वृहद् समावेश है जो लोक मंगल एवं लोक कल्याण की भावना को लेकर जनमानस को सचेत करती है । रहीमदास का साहित्य गंगा जमुना तहजीब का वास्तविक परिचय वर्षो से करता चला आ रहा है । यह सामाजिक समरसता के विकास में भी सहायक है ।

सन्दर्भ ग्रन्थ :

  1. गगनांचल, भारतीय संस्कृति सम्बन्ध परिषद्, 37, 03,मई-जून 2014
  2. रहीम, एन. सी. आर. टी. 78-84, 08, अगस्त 2022
  3. रहीम के दोहे हिंदी अर्थ के साथ 09-27, www.roshandaan.com
  4. हिंदी पुस्तक आन रहीम e-book https://44books.com/rahim-ke-dohe-hindi-pdf-free-
  5. हिंदी साहित्य दर्पण e-book https://www.hindisahityadarpan.in/2015/01/download
  6. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%

 

डॉ. आशा कुमारी
सहायक प्रो. हिंदी विभाग
आई०ई०सी० विश्वविद्यालय, बद्दी, हिमाचल प्रदेश
डॉ० राजेश
सहायक प्रो. मनोविज्ञान विभाग
आई०ई०सी० विश्वविद्यालय, बद्दी, हिमाचल प्रदेश