शोध सार  

नारी विमर्श एक ऐसी विचारधारा या चिन्तन है जो  स्त्री और पुरुष के मध्य भेदभाव को समाप्त कर नारियों को पुरुषों के बराबरी में खड़ा कर उन्हें शक्ति सम्पन्न बनाने का प्रयास करती है लेकिन इसके विपरीत रघुवीर सहाय  ने  स्त्री जीवन की विडम्बना और पीड़ा का यथार्थ अंकन करते हुए उनकी अस्मिता और अस्तित्व का प्रश्न अपनी कविता के माध्यम से समाज के समक्ष रखा है।

बीज शब्द : रघुवीर सहाय, स्त्री, पितृसत्तात्मकसमाज, यातना, शोषण, विषमताएँ।

मूल आलेख                

हिन्दी साहित्य के विशाल समृद्ध परम्परा में कवि, कथाकार, निबन्धकार, आलोचक, अपनी लेखनी को वाणी देने वाले हिन्दी साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित, दूसरे तार सप्तक के प्रमुख कवि रघुवीर सहाय हिन्दी साहित्य के एक विशिष्ट हस्ताक्षर हैं।

जीवन की समग्रता का बोध आकांक्षा और करुणा,   सहजता और संश्लिष्टता को अपनी कविता में अभिव्यक्त करने वाले रघुवीर सहाय अंतर्विरोधों के सामंजस्य के कवि हैं। अपनी लेखनी के माध्यम से इन्होंने हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं को पुष्पित और पल्लवित किया है। इन्होंने उन सभी विषयों पर लिखा जिसे इन्होंने देखा और अनुभव किया है, चाहे वह समाज की राजनीतिक विकृतियाँ या विसंगतियाँ हो, चाहे मानवीय संवेदनाएँ हो या फिर अर्द्ध पूँजीवादी समाज में नारी पर हो रहे अत्याचार ये सभी तत्व इनकी कविताओं में स्पष्ट रूप से देखने को मिलते हैं। सहाय ने अपनी कविताओं में पुरुषसत्तात्मक समाज में नारी की स्थितियों और उनके जीवन प्रक्रिया की हर व्यथा को गहराई से देखा है और उसे अपनी लेखनी के माध्यम से समाज के सामने अभिव्यक्त किया है। “हँसो हँसो जल्दी हँसो” काव्य संग्रह में प्रकाशित किले में औरत, बड़ी हो रही है लड़की,सीढ़ियों पर धूप में” काव्य संग्रह में प्रकाशित पढ़िए गीता, मेरी स्त्री, रोया आदि कविता में कवि ने स्त्रियों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार, अत्याचार, शोषण को दर्शाया है। इतना ही नहीं पुरुष प्रधान समाज में स्त्री देह व्यापार करने के लिए कितनी मज़बूर बनायी जाती है सबका जीवन्त चित्रण सहाय ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज के सामने प्रकट किया है। जिस तरह रीतिकाल के प्रमुख कवि बिहारी गागर में सागर भरने के लिए प्रसिद्ध हैं ठीक उसी तरह रघुवीर सहाय कम से कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने की क्षमता रखते हैं। इतना ही नहीं वह यथार्थ पर भी बल देते हैं और समाज की वैज्ञानिकता को समझाते हुए वे स्वयं लिखते हैं  

“कोशिश तो यही रही है कि सामाजिक यथार्थ के प्रति अधिक जागरूक रहा जाए और वैज्ञानिक तरीके से समाज को समझा जाए।”

भारतीय संस्कृति में क्या ख़ूब कहा गया है – “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः” अर्थात जहाँ नारी की पूजा की जाती है, उसका सम्मान किया जाता है वहाँ देवताओं का वास होता है।

समाज की सबसे बड़ी विडम्बना है जहाँ एक ओर नारी को पूजनीय कहा जाता हैं वहीं दूसरी ओर वही स्त्री समाज द्वारा कई तरह के अत्याचारों को झेलने पर विवश होती है।

रघुवीर सहाय की कविता में नारी का स्वरूप छायावादी कवियों की नारी से भिन्न है। जहाँ छायावादी कवियों के यहाँ नारी सृष्टि के निर्माता, शक्ति, देवी मानी गयी है वहीम रघुवीर सहाय की नारी पूँजीवादी सभ्यता की शोषिता है।

‘किले में औरत’ कविता में रघुवीर सहाय नारी की स्थितियों का व्यंग्यात्मक चित्रण करते हुए कहते हैं कि भारतीय नारी जहाँ देवी तुल्य मानी जाती हैं, वहाँ किस प्रकार नारी को नारकीय जीवन जीने पर विवश होना पड़ता है, इसका ये जीवन्त चित्रण देखिए – 

“उस घर में बीस औरते थीं

उनमें थी सिर्फ़ एक बुढ़िया

प्यारी बुढ़िया प्यारी बुढ़िया

वे धोती थीं, वे मलती थीं, वे हँसती थीं

ये घुसती और दुबकती थीं

वे माँग जिस समय भरती थीं

तब कितना धीरज धरती थीं

वे सब दोपहर में एक किले पर

पहरा देती सोती थीं

वे ठिगनी थीं वे दुबली थीं

वे लम्बी थीं वे गोरी थीं।” 

(किले में औरत’)

रघुवीर सहाय लिखते हैं “कि आज की नारी की विवशता यह है कि उसे स्नेह और सुरक्षा के बदले पुरुष के आगे झुककर चलना पड़ता है। हर बार उसे तिल-तिल कर मरना पड़ता है। वह दान देते-देते कभी ख़ुद ही भीख बन जाती है।”

रघुवीर सहाय के काव्य-नायक को नारी के प्रेम में न तो अपनी व्यथा से मुक्ति मिलती है और न ही अपने अकेलेपन से। तभी वह लिखते हैं – 

जब मैं तुम्हारी दया अंगीकार करता हूँ किस तरह मन इतना अकेला हो जाता है? 

तुम उसका क्या करती हो मेरी लाड़ली-अपनी व्यथा के संकोच से मुक्त होकर जब मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।” (‘जब मैं तुम्हें’ – सीढ़ियों पर धूप में)

डॉ. नामवर सिंह नेकविता के नए प्रतिमानमें बहुत ठीक लिखा है- “एक ‘लाड़ली” सम्बोधन पूरी कविता को और ही रंग दे देता है। छायावादी ‘सखि’, ‘सजनी’, ‘प्रिये’, ‘प्राण’, ‘रानी’ आदि सम्बोधनों के स्थान पर ‘लाड़ली’ शब्द रखकर रघुवीर सहाय ने रूमानी भावुकता को ही नहीं तोड़ा, बल्कि एक मीठी- सी अगंभीरता के द्वारा प्यार में निहित अकेलेपन की व्यथा को बिजली की कौंध के समान पूरी तीव्रता के साथ उद्भासित भी कर दिया।”

(कविता के नए प्रतिमान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली)

स्त्री की मनःस्थितियों का जीवंत चित्रण करते हुए रघुवीर सहाय लिखते हैं कि किस प्रकार स्त्रियाँ मन ही मन घुटती रहती हैं। उन सब अत्याचार को सहने के लिए विवश होती हैं जो पुरुष प्रधान समाज द्वारा बनाए गए हैं। स्त्रिृयाँ नियमों के बेड़ियों में बँधने के लिए बाध्य होती हैं ‘किले में औरत’ कविता में उनकी पीड़ा को व्यक्त करते हुए कवि लिखते हैं

“वे कभी सोचती थीं चुपचाप न जाने क्या

मर्दों ने कहा औरतों की बीमारी है।

वह बुढ़िया औरत के रहस्य

वे कभी सिसकती थीं 

अपने सबके आगे 

उस दिन बुढ़िया पड़ी 

उन बीस जनों के औरतपन की 

गठरी बन कोने में 

खटिया पर जा करके  

पड़ी रही साल भर तक 

फिर गुजर गई 

औरतें उठीं 

घर धोया 

मर्द गए बाहर अरथी लेकर”।

वेश्या जीवन की अंतिम परिणति का उजागर करते हुए कवि ने बुढ़िया की मृत्यु पर हृदय हीन समूचे मानव समाज पर करारा प्रहार किया है।

राकेश कुमार का यह कथन अपेक्षित है – “स्त्री विमर्श ने स्पष्ट किया है कि स्त्री का दमन पैतृक परिवारों की मूल्य व्यवस्था ने ही किया है। सार्वजनिक क्षेत्र में स्त्री का स्तर कुछ भी क्यों न रहा हो लेकिन परिवार में आते ही वह दमन का शिकार होने लगती है। इसलिए परिवार स्त्री के लिए खुली दास्ताँ है जो उसकी रचनात्मक-बौद्धिक शक्ति को नष्ट करता है।”

आज वर्तमान समय में भी नारी, पुरुष प्रधान समाज में सब कुछ सहन करती है। इतना ही नहीं बल्कि थकान से भरे चेहरे पर मुस्कान लिए रहती है। उदाहरण के तौर स्त्रियों की मन:स्थिति को समझनेे के लिए सहाय लिखते हैं

“पर देखो उसके चेहरे पर

कैसी थकान है यह फैली 

हँसने रोने को कहती हैं

उससे पुरुषों की प्रिय शैली।”

सिमोन बोउवा स्त्रियों के विषय में लिखती हैं कि “समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। कहीं भी स्त्री अपने अस्तित्व के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठा सकती है। अपनी पुस्तक स्त्री की उपेक्षिता में उन्होंने कहा कि यह आदी दुनिया की ग़ुलामी का प्रश्न है। जिसमें अमीर, ग़रीब सभी जाति और वह हर देश की महिला जकड़ी हुई है। कोई भी स्त्री मुक्त नहीं है।”

रघुवीर की कविताओं में यथार्थ उनके अपने अनुभवों तक सीमित रहता है। अक्सर यह भी लगता है कि वह उन्हीं से परिभाषित भी होता है। उनकी अधिकांश कविताओं में अगर स्त्री का करुण या दयनीय रूप ही उभरता है तो यह उनके यथार्थबोध पर एक विपरीत टिप्पणी भी मानी जा सकती है। एक बड़ा कवि सिर्फ़ अपनी ही तरफ़ और एक ही तरह से नहीं देखता, अपने चारों ओर, दूसरों की तरफ़ और दूर-दूर तक भी देखता है।

कुँवर नारायण का कथन है “जीवन की विडम्बना से ज़्यादा विस्मय बोध के कवि सहाय जी के विस्मय की जड़ में कहीं न कहीं हल न ढूँढ़ पाना ही होता है।

“गदराई लड़कियों/बच्चों में विस्मय क्षण भर को भर दो।

महानगर के बाहर आ देखें कवि लड़कियाँ गदराती कहाँ हैं, और

उनकी आँखों में जो विस्मय है वह अज्ञान नहीं उसका छल है।

उसी एक भोलेपन के, विस्मय के छल के भीतर वे छुपाती हैं

अपनी दारुणता, अपना धैर्य।”

अपने एक लेख में उन्होंने नारी विषयक दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “यह भावना बार बार व्यक्त हुई है कि वह उपेक्षिता है, इसलिए दया की पात्र है। साहित्य में पुरूष से उसके शरीर सम्बन्ध को विशेष महत्त्व दिया गया है, पर वहाँ लेखक के मन से गया नहीं है मानों आधुनिक जीवन के नर-नारी समता के विचार हो और वह पिछले ज़माने के सामन्ती मन से ही स्त्री को देख रहा है।

आये दिन होने वाली घटनाएँ स्त्रियों के सन्दर्भ में गरिमा और सम्मान दिखाती नज़र आती हैं। जहाँ महिलाओं की गरिमा की बात बड़े-बड़े मंचों पर की जाती है वहीं ज़मीनी स्तर पर वह रोज़ किसी मनचले का शिकार हो जाती है। विरोधों और उठापटक के बाद मामला ठंडा पड़ जाता है। सहाय अपनी कविता में नारी को बेचारी के रूप में भी प्रस्तुत करते हैं- 

“नारी बेचारी है

पुरुष की मारी है

तन से सुचित है

लपक कर झपक कर

अन्त में चित्त है।”

दया का भाव रहने का अर्थ है बराबरी के मूल्य पर चोट करना। इस बात को सहाय अच्छे से समझते थे इसलिए उन्होंने अपनी कविता ‘वाचक’ में अपनी प्रेमिका से भी दया के भाव की अपेक्षा नहीं की – 

“माघवी,

या और भी जो कुछ तुम्हारे नाम हों;

तुम एक ही दुख दे सकी थीं फिर भला ये और सब किसने दिए हैं? जो मुझे हैं और दुख, वे तुम्हें भी तो हैं

वही क्या नहीं काफ़ी तर्क है कि मुझे दया का पात्र मत समझो ”

कविता को नए सिरे से परिभाषित करते हुए कवियत्री कात्यायनी का मानना है कि कविता को रहस्य बनाना, उसे राजसत्ता के पक्ष में खड़ा करना है। जैसे कि कविता को विद्रोही बनाना उसे विद्रोह के पक्ष में खड़ा करना है। आज की स्त्री कविता महादेवी वर्मा की कविताओं की तरह रहस्यवादी कविता नहीं लिख रही बल्कि सीधे-सीधे परिभाषित करते हुए कात्यायनी लिखती हैं – कविता को रहस्य बनाना उसे राजसत्ता के पक्ष में खड़ा करना है, जैसे कि कविता को विद्रोही बनाना उसे विद्रोह के पक्ष में खड़ा करना है “

रघुवीर सहाय ने पितृसत्तासमाज पर करारा व्यंग्य करते हुए समूचे समाज को चुनौती देने वाली कविता लिखी हैं।  

उपसंहार 

रघुवीर सहाय ने स्त्रियों के साथ होने वाले शोषण, पीड़ा, यातना और उनके करुणगाथा का चित्रण करते हुए स्त्रियों की पितृसत्तात्मक समाज में मिटते हुए उनके अस्तित्व और अस्मिता पर सवाल खड़ा करते समूचे समाज पर अपने कविता के ज़रिये तंज कसते हुए उनके द्वारा किए जाने वाले अमानवीय व्यवहार का पर्दाफाश किया है। उनकी कविता में स्त्रियों की स्थिति का जीवंत और यथार्थ स्वरुप दिखाई देता है। एक ग़रीब लड़की की असहाय, दयनीय स्थिति का चित्रण करते हुए कहते हैं कि

“एक लड़की जो बाढ़ से मारी गई है डर के मारे नहीं बताती मुझको यह अपना दुख। 

एक डरी, सहमी हुई लड़की अपने दुःख को भी प्रगट नहीं कर पाती है।”

संदर्भ ग्रंथ सूची 

संदर्भ:-

1.सीढ़ियों पर धूप में, रघुवीर सहाय, पृ. सं-149  

  1. स्त्री संघर्ष और सृजन, श्रीधरन, पृ, सं- 12
  2. 3. स्त्री उपेक्षिता, सीमों द बौआर
  3. 4. रघुवीर सहाय की रचनावली, भाग-1   

5.नारी विमर्श, राकेश कुमार,  

  1. लोग भूल गए हैं, रघुवीर सहाय, पृ. सं- 42

7.रघुवीर सहाय रचनावली, संपादक : सुरेश शर्मा, भाग-1 पृ. सं- 163

  1. 8. लोग भूल गए हैं, रघुवीर सहाय, पृ. सं- 29

9.रघुवीर सहाय की रचनावली, भाग-1 पृ. सं- 176 

10.आत्महत्या के विरूद्ध, रघुवीर सहाय, पृ. सं- 29

अभिनव सिंह 
शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय
हिन्दी विभाग