कभी पूजा उसको तो कभी ठुकराया है
कभी पुरुष तो कभी नारी युग आया है।
स्त्री एवं पुरुष समाज के दो आवश्यक अंग हैं। वे एक दूसरे के बगैर वे अधूरे हैं। इन दोनों के सामाजिक महत्व को प्राचीन काल से ही स्वीकार किया है। प्राचीन समय में महान नारियां हुई तथा उनके बल पर देश का नाम रौशन हुआ। स्त्रियों को विशेष सम्मान मिलता था।
याज्ञवल्वय ने प्राचीन परंपरा का पालन करते हुए स्त्रियों को अत्यधिक सम्मान प्रदान किया है। याज्ञवल्वय ने स्त्री-पुरुष को क्षेत्र एवं बीज के समान कहा है। याज्ञवल्वय ने स्त्री के विषय में लिखा है कि उसे गंधर्व ने मधुर वाणी और अग्नि में सब प्रकार से पवित्र होने की शक्ति दी है।  मनु महाराज ने तो लिखा है जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं।  भारत एक धर्म परायण देश रहा है। ऐसे में धर्म से इधर कुछ भी सोचना कभी भी संभव नहीं माना गया है।  भारत में प्रत्येक बदले हुए युग एवं परिस्थितियों के अनुसार धर्म ग्रंथों की रचना हुई है। जिसने उस समय के समाज विशेष की परिस्थितियों का वर्णन है जिसके समाज का नारी प्रारंभ से ही अभिन्न अंग रही है। वैदिक काल में कन्याओं को वेदाध्ययन का अधिकार था और उन्हें विविध प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। यौवनारंभ के बाद ही विवाह करती थी। परिवार में पत्नी का गौरव में स्थान था और विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार था। कई स्थानों पर स्त्रियों को पुरुषों से श्रेष्ठ माना गया है। अत: स्पष्ट है कि वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी। धर्म नारी का ही पक्षधर था तथा प्राचीन काल में स्त्री का सहधर्मिणी नाम से पुकारा जाता था। स्त्रीधन पर नारी का अधिकार होता था। इस युग के प्रारंभ में कुछ सीमा तक संपत्ति का अधिकार भी प्राप्त था।  इसके अलावा उन्हें सार्वजनिक अधिकार भी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त थे।
वैदिक काल था सुनहरी, स्त्री दशा अच्छी थी,
स्त्री पुरुष रथ के पहिये, धर्म आस्था सच्ची थी।
यद्यपि प्रारंभिक वैदिक समाज में स्त्रियों को सम्माननीय पद प्राप्त था जो कालांतर में नारी के प्रति हीन विचारों में बदलने लगा था। यही कारण है कि स्त्रियां आगे नहीं आ सकी। ऋग्वेद के काल में कन्या का जन्म बुरा समझा जाने लगा था और उसे रोकने के लिए प्रार्थना तथा धार्मिक कर्म किए जाते थे। कन्या का जन्म दुखद माना जाने लगा था। अथर्वेद और यजुर्वेद में नारी का उल्लेख आता है किंतु बहुत कम केवल ऋग्वेद ही एक ऐसा देश है जिसमें तत्कालीन नारी समाज की व्यवस्था के संबंध में कुछ ज्ञान हो सकता है। ऋग्वेद के अधिकांश स्थानों में स्त्रियों को उच्च स्थान ही दिया गया है वैदिक काल में नारी को सम्माननीय पद प्राप्त था परंतु फिर भी उसकी स्थिति गिरावट आनी प्रारंभ हो गई थी। ब्राह्मण ग्रंथों का वामागयिक स्थान वेद का उत्तरवर्ती माना जाता है। इस काल में नारी की स्थिति अच्छी नहीं थी। मुक्ति हेतु पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा इतनी तेवर होने लगी कि तैत्तिरीय संहिता में निर्दिष्ट और पूर्णिमा के यज्ञों में पुत्री का जन्म न हो उस उद्देश्य की सिद्धि के लिए विशेष धार्मिक कृत्य रखा गया। यह बात भुला दी गई कि स्त्री के बिना जाति का अस्तित्व ही मिट जाएगा।
पुत्र प्राप्ति का लक्ष्य था, बच्ची की हुई अवहेलना,
सदियों से पीडि़त रही नारी पुरुषों का काम खेलना।
ऐतरेय ब्राह्मण में पत्नी के न होने पर भी पुरुष के लिए यज्ञ की अनिवार्यता घोषित की गई थी वहीं दूसरी ओर शतपथ ब्राह्मण में स्त्री यज्ञ की अधिकारीणी बताई गई है। यज्ञ, राजसूय यज्ञ, वरुण परग्रह यज्ञ,वाजपेई यज्ञों के अंत तक पत्नी की उपस्थिति अनिवार्य थी। वस्तुत: यह स्थिति दर्शाती है कि वैदिक युग में सर्वोच्च पद के पश्चात नारी अपने सिंहासन से पदच्युत की जाने लगी थी और उसकी स्थिति एवं अधिकारों में अंतर आने लगा था। उपनिषदों में भी स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के सामान उचित थी। विवाह ग्रस्त जीवन संतान उत्पत्ति और बच्चे के पालन पोषण आदि सभी में नारी का सहकार अनिवार्य थे। राजा जनक के दरबार में हुई दर्शन गोष्ठीी में गार्गी ने याज्ञवल्य से शास्त्रार्थ किया था। इस काल में स्वयंवर की प्रथा पर चली थी किंतु कन्या को वर के चुनाव की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं थी। अंतर्जातीय विवाह भी इस काल में प्रचलित थे। यथा श्रवण की माता शुद्र थी और पिता वैश्य थे। इसके अलावा बहु विवाह भी प्रचलन में थे।  रामायण काल में नारी की कुछ दोषों को भी प्रकट किया गया है। यथा कैकई का स्वार्थ में दुराग्रह, सीता का स्वर्ण हिरण के लिए हट, साथ में स्त्री को ईष्र्यालु दयाहीनता एवं कठोर वाणी वाली भी कहा गया है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति के निर्माण तथा विकास में नारी का योगदान महत्वपूर्ण होता है। प्राय सभी देशों तथा युवाओं में नारी और पुरुष में से पुरुष को श्रेष्ठता प्रदान की गई है। महाभारत में कथनानुसार नारी का स्थान गौण ही रहा।भारत में नारी को सम्मान की पात्री भी कहा गया है और सब पापों की जड़ तथा व्याभिचारिणी तक भी कहा गया है। स्त्रियों को पूजा योग्य तथा घर की शोभा कहा गया है फिर भी इस काल में स्त्री पति की संपत्ति बन चुकी थी । युधिष्ठिर जैसे सदाशयता सत्यवादी धर्मपरायण व्यक्ति द्वारा पत्नी को द्रव्यमान दाव पर लगाना इस काल में नारी की दुर्दशा का स्पष्ट चित्रण है।
महाभारत काल में स्त्री को था सम्मान
पुरुष स्त्री बिना नहीं बढ़ा पाता था मान।
सत्यवादी धर्मपरायण व्यक्ति द्वारा पत्नी को द्रव्य समान दांव पर लगाना इस काल में नारी की दुर्दशा का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है। महाभारत काल में बाल विवाह होने लगे थे। विधवाओं के पुनर्विवाह हो सकते थे। विपत्ति में कुल के हित की रक्षा करने के महान उत्तरदायित्व का भार पुत्रों की भांति पुत्रियां भी करती थी। महाभारत काल में नारी शिक्षा का भी प्रचलन रहा है। राजा वृषपर्वा की पुत्री राजकुमारी शर्मिष्ठा ने कुल कल्याण हेतु देवयानी की आजीवन दासी बनना स्वीकार किया किंतु नारी का इस काल में पूर्व की अपेक्षा कहीं अधिक पतन हुआ। बहुपत्नी विवाह के प्रचलन में नारी को सबसे अधिक हानि पहुंचाई। समाज में नारी का स्थान पुरुष से गौण था और किसी न किसी पुरुष के अधिकार में रहना उसके लिए अनिवार्य था।  माता के रूप में नारी का सर्वोच्च सम्मान निश्चय ही हमारी स्मृतियों में दिया गया है। उन्होंने नारी को देवी या लक्ष्मी का अवतार माना है।
बहु विवाह प्रथा बढ़ी, मान-सम्मान घटने लगा    रामायण काल में, सीता को मिली वन की सजा। मनु ने विवाह की आयु 8 से 10 वर्ष निर्धारित की थी। इस कारण नारी का शैक्षणिक दृष्टि से पतन प्रारंभ हो गया। स्त्री का प्रमुख कार्य संतान उत्पन्न करना, उसका पालन पोषण करना, पति की सेवा करना, गृहस्थी संभालना ही रह गया था। हंसमुख रहना, गृह कार्य में दक्षता प्राप्त करना और करवाना स्वच्छता से रहना और कम व्यय करना नारी नारे के कत्र्तव्य निर्धारित कर दिए गए। दूसरी ओर इसी काल में मनु ने के अनुसार नारी घर की शोभा है पूजा के योग्य है, जहां स्त्री की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं, उपयुक्त बातों से नारी के जीवन की अजीब विरोधाभास की स्थिति बनी रही है।  पुराण काल में नारी अपने पतन की राह पर बढ़ती जा रही थी, पत्नी के रूप में नारी की मान्यता प्राप्त थी। पुराण काल में सतीत्व की महिमा का बहुत गुणगान किया गया है। पृथ्वी के सारे तीर्थ सती के चरणों में ही व्यवस्थित माने गए हैं और दुनिया का तेज सतियों में होता है। पुराणों में पति सेवा ही नारी का सबसे बड़ा धर्म बतलाया गया है। पति के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है। पुराण काल में नारी अपने पतन की राह पर चल दी थी। ऐसे में नारियों का कम ही योगदान रहा है।
पुराणों में सती प्रथा, पति बिना अस्तित्व विहीन,
अधिकार कम हो गए ,मान-सम्मान लिया छीन।
धर्म शास्त्रों में स्त्री को आदिशक्ति के विविध रूप में देखने की परंपरा हमारे यहां अत्यंत प्राचीन है। ऋग्वेद से लेकर समस्त वैदिक एवं लौकिक साहित्य में नारी का अभिचित्रण उसके कर्मठ जीवन, त्याग, उत्सर्ग आदि गुणों को ध्यान में रखते हुए और उसके गौरव के सर्वदा अनुरूप हुआ है। स्त्री को माता का आदर देना, न केवल साहित्य की बात रही अपितु समाज के दैनिक व्यवहार और आचरणों में हमें उसी उसी प्रकार पूजनीय पाते हैं। आगे चलकर कुछ नियम पुरुषों को मिलने वाली विशेष सुविधा की दृष्टि से बनाए गए परंतु उनका मूल अभिप्राय केवल स्त्रियों की उपेक्षा करना ही रहा था। परंतु ऐसा कदापि विशेष परिस्थितियों एवं आवश्यकतानुसार हुआ होगा। समाज में स्त्रियां सदैव आदर की पात्र रही है।
समकालीन भारतीय समाज में नारी की दशा बेहतर नहीं रही है।  सल्तनत युग की स्थापना के साथ ही भारत में सभी दृष्टि से प्राचीन युग का अंत एवं मध्य युग का जन्म होता है। प्रारंभ में आक्रमणकारी मुसलमान अपने साथी स्त्रियां नहीं लाते थे थे। उन्होंने भारतीय नारी एक साथ संबंध स्थापित किए। हिंदू स्त्रियों के मुसलमानों के घरों में जाने से अनेक हिंदू रीति रिवाज एवं परंपराएं भी उनके साथ गई। सल्तनत काल में हिंदू स्त्री की दशा प्राचीन भारत जैसी उच्च नहीं थी। किसी भी स्त्री को स्वतंत्र नहीं रहने दिया जाता था। मुसलमानों से निकटता बढऩे के कारण हिंदू स्त्रियों का शील और अस्तित्व खतरे में पड़ गया और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उन्हें अपनी स्वतंत्रता को खो देना पड़ा, जिसके कारण बाल विवाह का प्रचलन हो गया। कन्याओं के विवाह 7 से 12 वर्ष की आयु में कर दी गई।  राजस्वला के बाद विवाह करना अच्छा नहीं माना जाता था। वे शिक्षा प्राप्त करती थी, धार्मिक कार्यों में भाग लेती थी। कई स्त्रियां शास्त्र विद्या परंपरागत विदुषी भी हुई हैं। व्यक्तियों में बहु विवाह प्रचलित थी। विधवा को पुनर्विवाह का अधिकार नहीं था। सती प्रथा का प्रचलन स्वाभाविक था। इसी कारण अल्पायु विवाह और पर्दा प्रथा का प्रचलन बढ़ा। शिक्षा का प्रबंध घर द्वार पर ही किया जाने लगा।  उच्च वर्ग की स्त्रिसों को शिक्षा सुविधा प्राप्त थी। निम्न वर्ग इससे वंचित होने लगा। इस काल में अपनी जाति में विवाह प्रथा थी किंतु अंतर्जातीय विवाह भी होते थे। इस काल में ऐसे उदाहरण है कि स्त्रियां स्वयं शासक भी बनी हैं।  राजा महाराजाओं में  बहु विवाह का प्रचलन था। राजपूताने में तो कन्याओं को तरह-तरह के तरीकों से बचपन में ही मार दिया जाता था। स्त्री के सारे स्वप्न स्वयं को पतिव्रता सिद्ध करने और पति को प्रसन्न रखने में केंद्रित रहते थे। राजपूत नारी अत्यंत कष्टप्रद स्थिति में जीती थी यथा अन्य देशों की स्त्री को राजपुतानी का भाग्य भयानक कष्टप्रद प्रतीत होता था। नारी की पवित्रता के बारे में हिंदू ज्यादा जागरूकता थी। यदि किसी लड़की के कौमार्य पर कोई छींट पड़ जाती तो वह विवाह हेतु कोई सम्माननीय वर पाने की आशा नहीं कर सकती थी। चाहे दोषारोपण बिल्कुल निराधार क्यों न सिद्ध हो जाएं। बाल्यावस्था में साथ खेलने वाली बालिकाएं और लड़कों में उनका भाई लड़की के साथ ही रहते थे
मुस्लिम समाज में भी स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी मुस्लिम स्त्रियों में विवाह दोनों पक्षों के मध्य एक अनुबंध के रूप में होता था। सहगोत्रता, रिश्तेदारी पोषक रक्त संबंध जैसे विशेष  निषेधों को छोड़ककुरान में पति या पत्नी के चुनाव की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई थी। विवाह के लिए कोई निश्चित आयु नहीं थी परंतु विवाह प्राय अल्प आयु में ही होते थे। मुस्लिम में स्त्रियों की स्थिति आर्थिक स्थिति हिंदुओं की अपेक्षा अच्छी होती थी। वही सल्तनत काल में भी यह विडंबना है कि इसी काल में सारस्वत अलाउद्दीन खिलजी ने दासी स्त्रियों के मूल्य निर्धारित कर दिए थे और इस स्त्रियों को घोड़ी से भी ज्यादा सस्ता लिया जाता था। साहित्य के क्षेत्र में सल्तनत में स्त्रियों के उल्लेखनीय कार्य का उल्लेख नहीं है परंतु कश्मीरी विदेशियों ने कवयित्री लालेश्वरी ईरानी हवा खातून का उल्लेख मिलता है। मुगल काल के प्रारंभ में ही हिंदुस्तानी नारियों की स्थिति में कोई सुधार नहीं आया था बल्कि उनके दशा निरंतर गिरती चली गई। यद्यपि भारतीय हिंदू नारी ग्रहणी की सफल भूमिका निभाती थी किंतु पत्नी के रूप में उसकी स्थिति अच्छी नहीं थी। पुत्र को ही पुत्री की अपेक्षा प्राथमिकता दी जाती थी। पुत्र जन्म पर दावतें होती थी, मंगल गीत गाए जाते थे परंतु कन्या के जन्म होने पर परिवार दुख के बादल छा जाते थे। ऐसा उनकी सुरक्षा की भावी समस्याओं को लेकर भी होता था क्योंकि कन्याओं का अस्तित्व एवं सतीत्व नष्ट करने मुगलों के लिए आम बात थी। हिंदू विचारधारा के अनुसार स्त्री का प्रमुख कार्य पुत्र पैदा करना था और यह दिव्य पुत्र को जन्म देती तो उनका सम्मान करते उसकी देखभाल करते थे वैसे भी युद्ध के समय हिंदू स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाती थी। उन्हें भी लूट लिया जाता था मुसलमानों ने रखेल रखते थे। चंदेरी के मेदनी राय की स्त्रियों ने हार को नजदीक जानकर जौहर कर लिया था। हिंदुओं में निम्न वर्ग में पर्दा प्रथा प्रचलन नहीं था। हिंदू समाज में मां का बड़ा आदर होता था। मेवाड का राजा संग्राम सिंह प्रात:काल अपनी मां को प्रणाम करके भोजन करता था। विवाह के समय अत्यधिक व्यय किया जाता था। दहेज का प्रचलन था।
मुस्लिम काल में हुआ स्त्री के साथ अन्याय रखैल स्त्री का नष्ट करते थे नहीं लेते थे राय।
स्त्रियों में भी मादक द्रव्यों का प्रचलन था किंतु राजपूतानी यहूदा इस दोष से मुक्त होती थी। अकबर ही ऐसा प्रथम शासक था जिसने प्रथम मुगल राजपूत संबंधों को विवाह करके स्थापित किया। राजपूती स्त्रियों के साथ अकबर के वहां से मुगल राजनीति में विस्मयकारी परिवर्तन हुआ। मुगल काल में स्त्रियों की सामाजिक दशा अत्यंत दयनीय हो गई थी सम्राटों और उनके अधिकारियों के हरम में हजारों की संख्या में स्त्रियां रखी जाने लगी थी। सम्राट अकबर की पांच हजार स्त्रियां बताई जाती थी जो उनके हरम में रहती थी जबकि इसके सेनापति मानसिंह कछवाहा की 15 सौतथा 4000 पुत्र बताए जाते हैं।  हिंदू स्त्रियों में मेले उत्सव त्योहारों के प्रति विशेष उत्साह था। हिंदू स्त्रियां होली, दीवाली, दशहरा, वसंतोत्सव दुर्गापूजा, जन्माष्टमी आदि त्यौहारों को मनाने में बहुत रुचि लेती थी। तीर्थ यात्रा में अनेक यात्राएं लोकप्रिय हो गई थी इसलिए भी तीर्थ यात्रा में भाग लेती थी। भक्ति भाव से प्रेरित इस काल में स्त्रियों में मीराबाई की स्थिति सर्वोच्च थी। साधारणतया न तो स्त्रियों को शिक्षा दी जाती थी न समाज में उनका सम्मान था नहीं उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व बल्कि मुगल बादशाहों, सरदारों, अमीरों तथा धनवान स्त्रियों व्यक्तियों की बढ़ती हुई विलासिता की प्रवृत्ति ने स्त्री को केवल विलास पूर्ति का साधन मात्र बना दिया था। निम्न जातियों की स्त्री को छोड़कर हिंदू स्त्री घर से बाहर नहीं निकलती थी मुसलमानों के हिंदुओं से ज्यादा पर्दा प्रथा थी। बाल विवाह के ककारण समाज की विधवाओं की संख्या बहुत अधिक बढ़ गई थी और उन्हें पुनर्विवाह करने का अधिकार नहीं था। हिंदुओं में तलाक प्रथा नहीं थी। केवल हिंदू राजा की बहु विवाह किया करते थे हिंदू घरों में स्त्रियों का सम्मान था। कुछ स्त्रियां तो अपने पति के कार्यों में सहयोग भी देती थी।
घटता गया आदर बढ़ते गए अत्याचार
स्त्री आगे बढ़ती ही गई, नहीं मानी हार।
आधुनिक कालीन भारतीय समाज में नारी की दशा कोई बेहतर नहीं है। धार्मिक अंधविश्वास स्वयं पूर्वाग्रहों की शिकार महिला ने पति को परमेश्वर समझ पति की चिता पर इसका साथ दिया है। शिक्षा एवं अज्ञानता करण समाज के शोषण का पात्र बनी महिला की दास्तां को गृह लक्ष्मी , ममता के नाम से परिभाषित किया जाने लगा है और वह इसी को अपना सौभाग्य समझने लगी है।  घर की चारदीवारी में बंद रहकर गृह कार्य कारण धनोपार्जन पुरुष का कार्य बन गया। इस प्रकार महिला का पिछड़ापन अशिक्षा एवं धार्मिक परावलंबी होना उसके सामाजिक एवं आर्थिक विकास में बाधक बन गया है। दान दहेज प्रथा सती प्रथा, बालविवाह, पर्दा पर्दा आदि कुप्रथाओं का आरोहण किया गया। पर्दा प्रथा के कारण बंदिनी बन गई। दहेज प्रथा ने पुत्री के जन्म को अभिशाप बना दिया, बाल विवाह ने विधवा समस्या एवं वेश्यावृत्ति को जन्म दिया।
नहीं घटी बुराइयां, बढ़ते जा रहे अत्याचार
बढ़ रहा है शोषण, घटता जा रहा है प्यार।
महिला पुरुष समानता के सिद्धांत को यद्यपि कानून द्वारा मान्यता प्राप्त है किंतु भारतीय सामाजिक व्यवस्था से प्रभावित दृष्टिकोणीय विरोधाभासों में आज भी कुछ दावे किए जाते हैं कि धार्मिक सामाजिक सांस्कृतिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में महिला भागीदारी आवश्यक नहीं है। वास्तविक समानता और न्याय की स्थापना हेतु महिला को परिवार कुटुंब की वृद्धि में बंदी बनाए रखना अनुचित एवं असामाजिक है तनाव की स्थिति में रहती है। अनेक ऐसे उदाहरण भी मिले हैं कि उसे जीविका कार्य छोडऩे का निर्णय लेने हेतु बाध्य होना पड़ा। इस प्रकार की स्थिति महिला की प्राकृतिक न्याय की प्राप्ति कल्पना मात्र ही रह गई है। महिला सदैव पुरुष के साथ बाहर कार्य करती आई है। अर्थव्यवस्था का महत्व पूर्ण अंग रही है। परिवार, खेत खलिहान, लघु उद्योगों,एवं विभिन्न प्रयासों में महिला की अनिवार्य पारंपरिक कार्यशील भूमिका रही है एवं उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ है। दूसरी और वर्तमान वातावरण में इस संदर्भ में महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं।
नहीं बेहतर वर्तमान, मार देते हैं गर्भ में,
कितने अत्याचार होते प्रमाणित संदर्भ में ।
भारतीय नारी ने आजादी के बाद अपनी सामाजिक आर्थिक आजादी की लड़ाई लडऩी शुरू कर दी है। उनमें छोटे-छोटे कस्बों की स्त्रियां और परिवार अंतरराष्ट्रीय रुझानों, जीवनशैली, उपभोक्ता संस्कृति से इतने नजदीक से दो चार हो रहे हैं जैसे कि पहले कभी नहीं थे। यदि समाज इस मांग को नकारता है तो भविष्य निर्माण में नारी की हिस्सेदारी की अनुमति नहीं देगा, तो हमारा हाल हो जाएगा। राजनीतिक एवं सामाजिक शक्तियों ने भी आज भारतीय नारी को आंखें खोल दी है। यद्यपि औरतें विश्व की जनसंख्या का लगभग आधा हिस्सा है और वह मर्दों के मुकाबले दोगुना काम करती है लेकिन पाती है दुनिया की कुल आय केवल दसवां हिस्सा और तो और समस्त सांसारिक संपत्ति में भी उनका केवल एक प्रतिशत हिस्सा है। देहाती स्कूलों में पढ़ाई छोडऩे वाली या छुड़ा दिए जाने वाली लड़कियों की संख्या बहुत है। इस तरह से परिवेश में बेटी की जगह बेटों के महत्व दिया जाता है और लड़कियों को पराया धन का बोझ समझा जाता है। 1999 की जनसंख्या के अनुसार यहां प्रति हजार पुरुष के पीछे 915 महिलाएं होती हैं। इस तथ्य के पीछे कई कारण हैं जिनमें  आधुनिक चिकित्सा तकनीकी की कमी,लिंग परीक्षण अशिक्षा,अज्ञानता, सामाजिक पारिवारिक पृष्ठभूमि प्रमुख हैं। भारत 10 उद्योगशील देशों में से एक हैं हमारे वित्त मंत्री अनुसार भारत आज विश्व के छह अत्यधिक उत्साही अर्थव्यवस्था वाले देशों में से एक है। शिक्षा एवं उद्योग के क्षेत्र में औरत के साथ कपटपूर्ण पक्षपात जारी है। धनाड्य देशों में ढेरों पैसा जेवरात एवं संपत्ति देकर विवाह कर दिया जाता था लेकिन दोनों ही परिवारों द्वारा कंपनी में कोई शेयर नहीं दिया जाता था।  निगमों में लगभग हर निर्णयात्मक कार्य पुरुषों द्वारा किए जाते थे। औरतों की सिर्फ आंसू पोंछने भर पारिवारिक कंपनियां या संस्थाओं में नाममात्र हक दिए जाते हैं।
बदल रहा परिवेश है, बदल रही है औरत
हर क्षेत्र में अब तो औरत लूट रही सौहरत।
कोई ताज्जुब नहीं है कि पिछले कई दशकों में अपनी सामाजिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक प्रतिबंध के खिलाफ समय-समय पर आंदोलन तेज किए गए । लोभ और वासना की कहानी स्त्रियों के विरुद्ध बलात्कार,दहेज बलि, तलाश, निर्वासन अकेलेपन की घटनाओं में वृद्धि हुई है। कभी-कभी पाश्चात्य महिलाओं की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र दिखती है परंतु अगर इसके दुष्परिणाम देखे तो मध्यवर्गीय वर्ग धीरे धीरे अपनी पारिवारिक शक्ति एकता को खो रहा है। टूटते विवाह,  अनवरत पारिवारिक झगड़े, अकेलापन और बुढ़ापे की सहायता ये सभी आज की नारी की समस्याएं हैं। नारी को पुरुषों का मुकाबला करने के लिए दो गुना अधिक परिश्रम करना पड़ रहा है और यह परिश्रमइतना भारी पड़ता है कि आज युवती को गृह विज्ञान गृहशिल्प तथा बच्चे पालने की क्षमता का मौका ही नहीं मिलता। कैरियर को लेकर आज जो भी विकल्प हैं वे भी उलझाने वाले हैं। बच्चों को व्यक्त क्रेस में छोडें़ या किसी बुजुर्ग संबंधी के पास या फिर नौकरानी के पास? आर्थिक स्वतंत्रता ने भी आधुनिक नारी के जीवन को नए आयाम दिए हैं। पारिवारिक संस्कारों के मामले में भी वही बात लागू होती है। स्त्री की इस भूमिका से नैसर्गिक रूप से उसके परिवार समुदाय, देश, विश्व शांति के लिए कार्य करने की क्षमता प्रवाहित होगी।  पिछले युगों में सिद्ध कर दिया कि समाज की स्वप्नदृष्टि नारी ही है और वहीं भावी पीढ़ी के लिए प्रसाद बनती है। सदी के अंतिम दिन या सूर्यास्त होते हुए महान स्वप्न देखने लगती है कि हर आस्था और मत के लोगों की शांति के साथ-साथ रहेंगे और ऐसे समाज की रचना करेंगे जहां प्रत्येक पुरुष, स्त्री, बच्चे सुरक्षा अवसर, शिक्षा, जीवन में आनंद प्राप्त करेंगे।
वर्तमान अति बुरा है, नारी पर होते अत्याचार,
सुबक सुबक रोती नहीं मिला जहां का प्यार।
वैदिक काल में घोषा नामक महिला का वर्णन मिलता है जो 27 ब्रह्म वादिनियों में से एक थी। यह दिर्घतामस की पोती थी। उन्हेें कुष्टरोग की बीमारी हो गयी थी ऐसे में वे अपने पिता के ही घर पर रहती थी और वेद के रिचाओ को लिखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया इसने ऋग्वेद के पुस्तक संख्या 10 के पूरे दो अध्याय को लिखे थे। प्रसिद्ध चिकित्सक भाइयों अश्विनी कुमार से रोग दूर करने की प्रार्थना की और अश्विनी कुमारों ने कुष्टरोग दूर कर दिया था।  लोपमुद्रा नामक विदुषि अगस्त्य मुनि की पत्नी थी। मुनि ने उन्हें विदर्भ के राजा को सौप दिया। राजा ने लोपमुद्रा को उस समय उपस्थित सभी ज्ञान विज्ञान का अध्ययन करवायाए और अध्ययन करते हुए वह जब शादी के उम्र की हो गयी तो विदर्भ के राजा ने पुन: उसको अगस्त्य मुनि को शादी कराकर उसे लौटा दिया हालाकि अगस्त्य मुनि बेहद गरीबी में जीवन गुजार रहे थे पर लोपमुद्रा ने राज़ महल का त्याग कर जंगल में उनके साथ कठिन जीवन व्यतीत करने लगी। एक लम्बे समय तक बिना किसी तरह के शिकायत के वह अपने पति की सेवा कराती रही पर धीरे धीरे वह ऋषि के लम्बे लम्बे तपस्याओ से परेशान हो गयी। फिर उसने अपने पति को समझाने के लिया वेद में दो पदों की रचना की एजिसमे उसने ऋषि से उनके भौतिक जीवन के कर्तव्यों को पूर्ण करने की भावपूर्ण विनती करती है । उसे पढऩे के बाद ऋषि का दिमाग खुल गया और वो आध्यात्मिक जीवन के साथ साथ भौतिक जीवन में भी पूर्णता को प्राप्त हो गए और एक सुखमय जीवन जीने लगे। इन दोनों से एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम द्रिधास्यु रखा जो की आगे चलकर एक महान कवि बना।
घोष और लोपामुद्रा का नाम,आता है पुराणों में
ऋषि नतमस्तक हुए बदल दिए भाव विचारों ने।
मैत्रैय याज्ञवल्य वह बेहद बुद्धिमान महिला थी। उसके महान दार्शनिक विचारों ने याज्ञवल्क्य के चरित्र निर्माण और दर्शन पर गहरा असर डाला। याज्ञवल्क्य की दो पत्निया थी कात्यायनी और मैत्रेयीण् ।जब ऋषि ने अपने धन को दोनों पत्नियों में बाटना चाहा तो मैत्रेयी ने यह प्रश्न किया की क्या ये धन दौलत एवं रूपया पैसा व्यक्ति को अमरता दिला सकते है । फिर इस पर उसका अपने ऋषि पति के साथ एक लंबा चर्चा होता है ।
गार्गी वैदिक काल के महान दार्शनिको में से एक थी । वह तत्कालीन मिथिला नरेश महाराजा जनक के दरबार के नवरत्नों में से एक थी । वह ऋषि गर्ग के परिवार से थी । उसने वेद की ढेर सारी रिचाओ की रचना की और गार्गी संहिता नामक पुस्तक भी लिखा । उस समय महाराजा जनक द्वारा आयोजित दर्शन शास्त्र पर बहस के दौरान उसने ऋषि याज्ञवल्क्य से प्रकृति में उपस्थित तमाम वस्तुओं के उत्पत्ति का कारण पूछाए लेकिन इस सब में सबसे महत्त्व की बात ये थी की उसे महाराजा जनक के दरबार में विशिष्ट दर्जा हासिल था।
तत्पश्चात आने को महान विदेशियों का नाम आता है जिनमें अमित मेड़तिया के राठौर रतन सिंह की पुत्री राव दूदा जी की पुत्री और जोधापुर के पास आने वाले प्रसिद्ध राव जोधा जी की पुत्री मीरा मीरा के अलावा सहजोबाई प्रसिद्ध लेखिकाओं व बाल ब्रह्मचारिणी के रूप में जानी जाती रही हैं। आज भी मीराबाई एवं सहजोबाई का नाम आदर से लिया जाता है। सीता, कुंती, अनुसूय्या, पांचाली को कौन नहीं जानता जिनकी महानता विश्वप्रसिद्ध है।
हड़प्पा एवं मोहन जोदाड़ों की खुदाई दौरान मिली मूर्ति से सिद्ध होता है कि उस समय में देवदासी या नगर वधू प्रसिद्ध होती थी। आधुनिक समाज या भक्तिकाल हो महिलाओं की संख्या अधिक होने के कारण वे प्रसिद्ध रही हैं। विभिन्न कवियों एवं महान व्यक्तियों को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में महिलाओं का योगदान रहा है। जब तक धरती पर महिलाएं रहेंगी तभी तक पुरुष भी रहेंगे वरना पुरुष अकेला महिला के बिना कैसे अस्तित्व को बचा पाएगा।
हर काल में पूजा हुई, हर काल में होती रहेगी,
जब तक धरा पर औरत है, वही कहानी कहेगी।
डॉ. होशियार सिंह यादव